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  • 28 Sep, 2019
  • 17 min read
भारतीय राजनीति

स्थानीय स्वशासन-सफल या असफल?

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में स्थानीय स्वशासन की विकास यात्रा और वर्तमान समय में उसकी प्रासंगिकता पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

आमतौर पर सभी संघीय ढाँचों में द्विस्तरीय शासन प्रणाली शामिल होती है, पहले स्तर पर केंद्र या संघ सरकार एवं दूसरे स्तर पर राज्य या प्रांतीय सरकार। परंतु इस नज़रिये से भारतीय संघात्मक ढाँचे को कुछ अलग माना जाता है, क्योंकि भारतीय संविधान में त्रिस्तरीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गई है:

  • शीर्ष पर केंद्र सरकार
  • मध्य में राज्य सरकार, और
  • अंत में स्थानीय सरकार (इसमें ग्रामीण पंचायतें और नगरपालिकाएँ शामिल हैं)

स्थानीय सरकार की प्रणाली को अपनाने का सबसे प्रमुख उद्देश्य यही है कि इसके माध्यम से देश के सभी नागरिक अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को प्राप्त कर सकते हैं। विदित है कि लोकतंत्र की सफलता सत्ता के विकेंद्रीकरण पर निर्भर करती है और स्थानीय स्वशासन के माध्यम से ही शक्तियों का सही विकेंद्रीकरण संभव हो पाता है।

स्थानीय सरकार की अवधारणा

  • लोकतंत्र का सही अर्थ होता है सार्थक भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही। जीवंत और मज़बूत स्थानीय शासन भागीदारी और जवाबदेही दोनों को सुनिश्चित करता है।
  • सरल शब्दों में गाँव और ज़िला स्तर के शासन को ही स्थानीय स्वशासन कहते हैं।
  • स्थानीय स्वशासन की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता यह होती है कि यह देश के आम नागरिकों के सबसे करीब होती है और इसलिये यह लोकतंत्र में सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने में सक्षम होती है।
  • स्थानीय सरकार का क्षेत्राधिकार एक विशेष क्षेत्र तक सीमित होता है और यह उन्हीं लोगों के लिये कार्य करती है जो उस क्षेत्र विशेष के निवासी हैं।
  • स्थानीय सरकार राज्य सरकार के अधीन आती है और उसका नियंत्रण और पर्यवेक्षण भी राज्य सरकार द्वारा ही किया जाता है।

सही मायनों में स्थानीय सरकार का अर्थ है, स्थानीय लोगों द्वारा स्थानीय मामलों का प्रबंधन। यह इस सिद्धांत पर आधारित है कि स्थानीय समस्याओं और ज़रूरतों की समझ केंद्रीय या राज्य सरकारों की अपेक्षा स्थानीय लोगों को अधिक होती है।

स्थानीय सरकार की अवधारणा का विकास

  • इस संदर्भ में वर्ष 1882 को काफी महत्त्वपूर्ण माना जाता है, क्योंकि इसी वर्ष भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड रिपन (Lord Rippon) ने निर्वाचित स्थानीय सरकारी निकाय के गठन की पहल की। उल्लेखनीय है कि उस समय इन्हें मुकामी बोर्ड (Local Board) कहा जाता था।
  • जिसके बाद भारत सरकार अधिनियम, 1919 के तहत कई प्रांतों में ग्राम पंचायतों की स्थापना हुई और यह सिलसिला 1935 के गवर्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट के बाद भी जारी रहा।
  • ध्यातव्य है कि स्वतंत्रता संघर्ष के समय गांधी जी ने भी सत्ता के विकेंद्रीकरण पर काफी ज़ोर दिया था, उनका कहना था कि ग्राम पंचायतों को मज़बूत बनाना सत्ता के विकेंद्रीकरण का महत्त्वपूर्ण साधन है।
  • जब संविधान तैयार किया गया था तो स्थानीय सरकार का विषय राज्यों को सौंपा गया। साथ ही इसे राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के प्रावधानों में भी शामिल किया गया।
  • 1987 के बाद स्थानीय सरकारी संस्थानों के कामकाज की गहन समीक्षा शुरू की गई और 1989 में पी.के. थुंगन समिति ने स्थानीय सरकारी निकायों को संवैधानिक मान्यता देने की सिफारिश की।
  • अंततः वर्ष 1992 में संसद द्वारा 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधन पारित किये गए।
    • 73वाँ संवैधानिक संशोधन- 73वाँ संविधान संशोधन ग्रामीण स्थानीय सरकार से संबंधित है, जिन्हें पंचायती राज संस्थानों के रूप में भी जाना जाता है।
    • 74वाँ संवैधानिक संशोधन- 74वाँ संविधान संशोधन शहरी स्थानीय सरकार से संबंधित है, जिन्हें नगरपालिका भी कहा जाता है।

73वाँ संवैधानिक संशोधन

  • 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल में प्रभावी हुआ।
  • 24 अप्रैल, 1993 से 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम लागू हुआ था, अतः 24 अप्रैल को ‘राष्ट्रीय पंचायत दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
  • इस संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में भाग-9 जोड़ा गया था।
  • 73वें संविधान संशोधन द्वारा संविधान में 11वीं अनुसूची जोड़ी गई और इसके तहत पंचायतों के अंतर्गत 29 विषयाें की सूची की व्यवस्था की गई।

73वें संवैधानिक संशोधन से हुए मुख्य बदलाव

  • त्रि-स्तरीय बनावट

इस संशोधन के पश्चात् सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रि-स्तरीय हो गया, जिसमे सबसे नीचे यानी पहले स्थान पर ग्राम पंचायतें आती हैं, बीच में मंडल आते हैं जिन्हें खंड या तालुका भी कहते हैं और अंत में सबसे ऊपर ज़िला पंचायतों का स्थान आता है।

  • प्रत्यक्ष चुनाव

संशोधन से पूर्व कई स्थानों पर चुनावों की कोई भी प्रत्यक्ष एवं औपचारिक प्रणाली नहीं थी, परंतु इस 73वें संवैधानिक संशोधन के माध्यम से यह व्यवस्था की गई कि अभी स्तरों पर चुनाव सीधे जनता करेगी और प्रत्येक पंचायती निकाय की अवधि 5 वर्षों की होगी।

  • आरक्षण

सभी पंचायती संस्थानों में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिये आरक्षित की गईं और साथ ही सभी स्तरों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिये भी आरक्षण की व्यवस्था की गई।

  • राज्य चुनाव आयुक्त

राज्यों के लिये यह अनिवार्य किया गया कि वे राज्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति करें, इन आयुक्तों को राज्य में सभी स्तरों पर पंचायती संस्थानों के चुनाव करने की ज़िम्मेदारी दी गई।

74वाँ संवैधानिक संशोधन

  • भारतीय संविधान में 74वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1992 द्वारा नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया तथा इस संशोधन के माध्यम से संविधान में ‘भाग 9क’ जोड़ा गया एवं यह 1 जून, 1993 से प्रभावी हुआ।
  • अनुच्छेद 243P से 243ZG तक नगरपालिकाओं से संबंधित उपबंध किये गए हैं। नगरपालिकाओं का गठन अनुच्छेद 243Q में नगरपालिकाओं के तीन स्तरों के बारे में उपबंध हैं, जो इस प्रकार हैं-
  • नगरपालिका :
    • नगर पंचायत - ऐसे संक्रमणशील क्षेत्रोंं में गठित की जाती है, जो गाँव से शहरों में परिवर्तित हो रहे हैं।
    • नगरपालिका परिषद - इसे छोटे शहरों अथवा लघु नगरीय क्षेत्रोंं में गठित किया जाता है।
    • नगर निगम - बड़े नगरीय क्षेत्रोंं, महानगरों में गठित की जाती है।
  • इसी संशोधन द्वारा संविधान में 12वीं अनुसूची जोड़ी गई जिसके अंतर्गत नगरपालिकाओं को 18 विषयों की सूची विनिर्दिष्ट की गई है।
  • उल्लेखनीय है कि 74वें संविधान संशोधन में भी 73वें संविधान संशोधन के प्रमुख प्रावधान जैसे- प्रत्यक्ष चुनाव और आरक्षण आदि शामिल हैं।

क्यों आवश्यक है स्थानीय स्वशासन?

  • इसके माध्यम से शासन में समाज के अंतिम व्यक्ति की भागीदारी सुनिश्चित होती है जिससे सुदूर ग्रामीण प्रदेशों के नागरिक भी लोकतंत्रात्मक संगठनों में रुचि लेते हैं।
  • स्थानीय लोगों को उस स्थान विशेष की परिस्थितियों, समस्याओं एवं चुनौतियों की बेहतर जानकारी होती है, अत: निर्णय में विसंगतियों की संभावना न्यूनतम होती है।
  • महिलाओं को न्यूनतम एक-तिहाई आरक्षण प्रदान करने से महिलाएँ भी मुख्यधारा में शामिल होती हैं।
  • इसके माध्यम से केंद्र एवं राज्य सरकारों के मध्य स्थानीय समस्याओं को विभाजित कर उनका समाधान अधिक प्रभावी तरीके से किया जा सकता है।
  • यह स्वस्थ राजनीति की प्रथम पाठशाला साबित हो सकती है जहाँ से ज़मीनी स्तर पर समाज के प्रत्येक पहलू की समझ रखने वाले एवं स्थानीय समस्याओं के प्रति संवेदनशील नेता भविष्य के लिये तैयार हो सकते हैं।
  • यह ज़मीनी स्तर पर लोगों में नियोजन और संसाधनों के बेहतर प्रबंधन की भावना पैदा करने मदद करता है।
  • स्थानीय शासन से भारत की विविधता को और अधिक सम्मान मिलता है।

भारत में स्थानीय सरकार की समस्याएँ

  • स्थानीय सरकारों को दिया गया धन उनकी मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये पर्याप्त नहीं होता। कई बार राज्यों द्वारा स्थानीय निकायों के कामकाज के प्रति रुचि की कमी के कारण उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  • अक्सर देखा गया है कि चुनावों को स्थगित करने से लेकर राज्य वित्त आयोगों और जिला योजना समितियों के गठन में विफलता तक राज्य सरकारें भिन्न-भिन्न प्रावधानों का उल्लंघन करती रही हैं।
  • कर्मचारियों की कमी और बुनियादी ढाँचे की कमी जैसे मुद्दे सदैव ही स्थानीय निकायों के कामकाज में बाधा डालते हैं।
  • पंचायतों और नगर पालिकाओं की वित्तीय शक्तियों का कुशलतापूर्वक उपयोग अब तक संभव नहीं हो पाया है। बहुत कम ग्राम पंचायतें बाज़ार, मेलों, संपत्ति और व्यापार आदि पर कर लगाती हैं।
  • अधिकांश राज्य सरकारों ने स्थानीय सरकार के समानांतर ही अन्य निकायों की स्थापना कर दी है, ताकि वे स्थानीय सरकार के क्षेत्राधिकार तक पहुँच प्राप्त कर सकें।
    • उदाहरण के लिये हरियाणा ने पंचायतों के कार्यात्मक क्षेत्र में प्रवेश करने के लिये मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक ग्रामीण विकास एजेंसी की स्थापना की है।
  • वर्तमान में स्थानीय सरकार हेतु भारत में कुल सार्वजनिक व्यय का केवल 7 प्रतिशत ही खर्च किया जाता है, जबकि यूरोप में यह 24 प्रतिशत, उत्तरी अमेरिका में 27 प्रतिशत और डेनमार्क में 55 प्रतिशत है।

कितनी सफल है स्थानीय सरकार की अवधारणा?

स्थानीय सरकार की व्यवस्था ने 25 से भी अधिक वर्ष पूरे कर लिये हैं और इस अवधि को इस बात की जाँच करने के लिये सही समय माना जा सकता है कि यह व्यवस्था अब तक कितनी सफल रही है और कितनी असफल। विश्लेषक मानते हैं कि एक ओर यह व्यवस्था सफल भी रही है और दूसरी ओर असफल भी। इसकी सफलता और असफलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम इसे किन उद्देश्यों के आधार पर जाँच रहे हैं। यदि इस व्यवस्था का उद्देश्य ज़मीनी स्तर पर सरकार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की एक और प्रणाली का विकास करना था तो स्थानीय सरकार की अवधारणा इस उद्देश्य की प्राप्ति में पूर्णतः सफल रही है, परंतु इसके विपरीत यदि हमारा लक्ष्य एक बेहतर शासन प्रदान करना था तो हम इसमें पूर्णतः विफल रहे हैं। कई जानकार मानते हैं कि आज स्थानीय सरकारें अशक्त और अप्रभावी हो गई हैं और उन्हें ऊपरी स्तर की सरकारों के पक्ष समर्थक एजेंट होने तक ही सीमित कर दिया गया है।

सुधार हेतु कुछ उपाय

  • शहरी क्षेत्रों में ग्राम सभाओं और वार्ड समितियों को पुनर्जीवित किया जाना चाहिये, ताकि सही मायनों में भारतीय लोकतंत्र के अंतर्गत समाज के अंतिम व्यक्ति की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।
    • जुलाई 2018 में प्रस्तुत ग्रामीण विकास पर स्थायी समिति की रिपोर्ट में सिफारिश की गई कि राज्य सरकारों को महिलाओं सहित पंचायत प्रतिनिधियों की भागीदारी के लिये ग्राम सभा की बैठकों में कोरम का प्रावधान करना चाहिये।
  • पर्याप्त मानव पूंजी के माध्यम से स्थानीय सरकारों के संरचनात्मक ढाँचे को मज़बूत करने की आवश्यकता है। पंचायतों के कामकाज की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिये कुशल कर्मचारियों की भर्ती और नियुक्ति की दिशा में गंभीर प्रयास किये जाने चाहिये।
  • केंद्र व राज्य सरकारों की तरह स्थानीय सरकारों के लिये भी बजट का प्रावधान होना चाहिये, जिससे वे अपने राजस्व और व्यय को प्रबंधित कर सकें एवं उनकी कार्य प्रणाली और अधिक संगठित हो सके।
  • स्थानीय सरकारों में भाग लेने वाले लोगों को उचित प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये और उन्हें जनहित की सेवा हेतु अभिप्रेरित किया जाना चाहिये।
  • इनके कार्यों का सामाजिक ऑडिट (Social Audit) भी किया जाना चाहिये, जिससे उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित हो सकें।
  • महिलाएँ मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक-से-अधिक सशक्त बनें जिससे निर्णय लेने के मामलों में आत्मनिर्भर बन सके।
  • पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर राज्य निर्वाचन आयोग के मानदंडों पर बिना क्षेत्रीय संगठनों के हस्तक्षेप के होना चाहिये।

प्रश्न: क्या स्थानीय स्वशासन प्रणाली की अभिकल्पना में ही कोई दोष है जिसके कारण यह 25 वर्षों बाद भी अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में विफल रही है? स्पष्ट कीजिये।


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