रूस-यूक्रेन संघर्ष
यह एडिटोरियल 26/02/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘Stay the Course’ लेख पर आधारित है। इसमें रूस और यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष के बारे में चर्चा की गई है।
संदर्भ
यूक्रेन संकट सीमा से बाहर हो गया है, रूस यूक्रेन के कथित ‘विसैन्यीकरण’ और नाज़ी प्रभाव मुक्ति’ (Demilitarise’ and ‘Denazify’) के लिये आक्रमण करके पूर्वी यूक्रेन (डोनबास क्षेत्र) के डोनेट्स्क (Donetsk) और लुहान्स्क (Luhansk) विद्रोही क्षेत्रों को मान्यता प्रदान कर रहा है। मॉस्को का यह निर्णय यूरोप में राष्ट्रीय सीमाओं का उल्लंघन नहीं करने पर वर्ष 1975 के हेलसिंकी समझौते में व्यक्त सहमति को अस्वीकार करता है जो वैश्विक व्यवस्था के लिये एक बड़ी चुनौती है। भारत के लिये एक ओर जहाँ रूस उसके सैन्य उपकरणों का सबसे बड़ा एवं समय मानकों पर खरा उतरा आपूर्तिकर्त्ता बना रहा है, वहीं अमेरिका, यूरोपीय संघ एवं यू.के. भारत के महत्त्वपूर्ण भागीदार हैं जिन्हें नाराज़ करने का खतरा नहीं उठाया जा सकता। भारत के रणनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए भारत ने अब तक जिस संतुलित दृष्टिकोण का पालन किया है, वही उपयुक्त व्यावहारिक तरीका हो सकता है।
संघर्ष का कारण
- शीत युद्ध के बाद के युग में मध्य यूरोपीय क्षेत्रीयता को लेकर संघर्ष और गौरवपूर्ण रूसी अतीत को पुनर्जीवित करने की इच्छा यूक्रेन संकट के मूल में है।
- यूक्रेन और रूस सैकड़ों वर्षों के सांस्कृतिक, भाषाई और पारिवारिक संबंधों की साझेदारी करते हैं।
- रूस में और यूक्रेन के जातीय रूप से रूसी भागों में कई लोगों के लिये दोनों देशों की साझा विरासत एक भावनात्मक मुद्दा है, जिसका चुनावी और सैन्य उद्देश्यों के लिये दोहन होता रहा है।
- सोवियत संघ के एक भाग के रूप में यूक्रेन रूस के बाद दूसरा सबसे शक्तिशाली सोवियत गणराज्य था और रणनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से महत्त्वपूर्ण स्थिति रखता था।
- क्षेत्रीय शक्ति संतुलन, यूक्रेन का रूस एवं पश्चिम के बीच एक महत्त्वपूर्ण बफर क्षेत्र होना, नाटो की सदस्यता पाने का यूक्रेन का प्रयास और काला सागर क्षेत्र में रूस के हितों के साथ ही यूक्रेन में विरोध प्रदर्शन जारी वर्तमान संघर्ष के प्रमुख कारण हैं।
वर्तमान परिदृश्य
- यह संघर्ष द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से यूरोप में एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य पर किया गया सबसे बड़ा हमला है. इसके साथ ही यह 1990 के दशक में चले बाल्कन संघर्ष के बाद का पहला बड़ा संघर्ष है।
- यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के साथ वर्ष 2014 के मिंस्क प्रोटोकॉल (Minsk Protocols) और वर्ष 1997 के रूस-नाटो एक्ट जैसे समझौते लगभग निष्प्रभावी हो गए हैं।
- G-7 देशों ने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की कड़ी निंदा की है।
- प्रतिक्रिया में अमेरिका, यूरोपीय संघ (EU), यू.के., ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और जापान द्वारा रूस पर प्रतिबंध भी लगाए गए हैं ।
- चीन ने यूक्रेन पर रूस की कार्रवाई को ‘आक्रमण’ कहना स्वीकार नहीं किया और सभी पक्षों से संयम बरतने का आग्रह किया है।
- भारत पश्चिमी शक्तियों द्वारा क्रीमिया में रूस के हस्तक्षेप की निंदा करने में शामिल नहीं हुआ था और इस मुद्दे पर किसी सार्वजनिक बयान से परहेज ही किया था।
- वर्तमान मामले में भारत ने अमेरिका द्वारा प्रायोजित संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव जहाँ यूक्रेन के विरुद्ध रूस की ‘आक्रामकता’ की ‘कठोरतम शब्दों में निंदा’ की गई, पर मतदान से अनुपस्थित रहने का रास्ता चुना। इस अवसर पर भारत ने ‘डायलॉग’ और ‘डिप्लोमेसी’ शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा कि संवाद (Dialogue) ही मतभेदों एवं विवादों को दूर करने का एकमात्र उपाय है और उसने ‘अफ़सोस’ जताया कि इस मामले में कूटनीति (Diplomacy) का रास्ता छोड़ दिया गया।
- भारत के अलावा संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और चीन ने भी मतदान में भाग नहीं लिया।
रूस का पक्ष और दृष्टिकोण
- रूस का दृष्टिकोण यह है कि नाटो के विस्तार ने सोवियत संघ के विखंडन से पूर्व किये गए वायदों का उल्लंघन किया है कि नाटो में यूक्रेन का प्रवेश रूस के लिये खतरे की स्थिति को पार कर जाएगा और नाटो की रणनीतिक मुद्रा रूस के लिये एक सतत् सुरक्षा ख़तरा उत्पन्न करती है।
- सोवियत संघ और वारसॉ संधि के विघटन के बाद भी एक राजनीतिक-सैन्य गठबंधन के रूप में नाटो का विस्तार एक अमेरिकी पहल थी जिसका उद्देश्य रणनीतिक स्वायत्तता के लिये यूरोपीय महत्त्वाकांक्षाओं को नियंत्रित रखना और रूस के पुनरुत्थान का मुक़ाबला करना है।
- सुरक्षा हितों और पूर्व सोवियत गणराज्यों में रूसियों के अधिकारों की रक्षा करने के आधार पर रूसी राष्ट्रपति द्वारा यूक्रेन संकट को उचित ठहराया गया था।
- रूस पश्चिम से यह आश्वासन चाहता है कि यूक्रेन को कभी भी नाटो में शामिल होने की अनुमति नहीं दी जाएगी। वर्तमान में उसे ‘भागीदार देश’ का दर्जा प्राप्त है जिसका अर्थ है कि उसे भविष्य में इस सैन्य गठबंधन में शामिल होने की अनुमति दी जाएगी।
- अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगी देश यूक्रेन को नाटो से प्रतिबंधित करने से इनकार कर रहे हैं, उनका दावा यह है कि यूक्रेन एक संप्रभु देश है जो अपने स्वयं के सुरक्षा गठबंधनों को चुनने के लिये स्वतंत्र है।
भारत पर इस संघर्ष के प्रभाव
- रूस-यूक्रेन संकट भारतीय घरों और व्यवसायों के लिये रसोई गैस, पेट्रोल एवं अन्य ईंधन खर्चों को बढ़ा देगा। तेल की ऊँची कीमतों से माल ढुलाई/परिवहन लागत में भी वृद्धि होती है।
- वैश्विक स्तर पर तेल की कीमतों के अधिक समय तक ऊँचे बने रहने की स्थिति में उत्पन्न तनाव मुद्रास्फीति अनुमानों के संबंध में RBI की विश्वसनीयता को प्रश्नगत कर सकती है, जबकि इससे सरकार की बजटीय गणना, विशेष रूप से राजकोषीय घाटा भी प्रभावित हो सकते हैं।
- कच्चे तेल की कीमतों में उछाल से भारत के तेल आयात बिलों में वृद्धि होगी और रुपए के दबाव में रहने से सोने का आयात पुनः बढ़ सकता है।
- रूस से भारत के पेट्रोलियम उत्पादों का आयात उसके कुल तेल आयात बिल का केवल एक अंश ही है और इस प्रकार इसकी भरपाई की जा सकती है।
- लेकिन उर्वरकों और सूरजमुखी के तेल के वैकल्पिक स्रोत ढूँढना इतना आसान नहीं होगा।
- रूस को निर्यात भारत के कुल निर्यात का 1% से भी कम है, लेकिन फार्मास्यूटिकल्स एवं चाय के निर्यात को कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, जबकि CIS देशों को शिपमेंट में भी कुछ कठिनाई आएगी। माल ढुलाई दरों में बढ़ोतरी से कुल निर्यात भी कम प्रतिस्पर्द्धी हो सकता है।
आगे की राह
- तत्काल युद्धविराम: शीत युद्धकाल के विपरीत वर्तमान में वैश्विक अर्थव्यवस्था गहनता से एकीकृत है। लंबे समय तक चलने वाले संघर्ष की लागत बहुत गंभीर हो सकती है जो अभी ही यूक्रेन में जीवन की हानि और पीड़ा के रूप में प्रकट होने लगी है।
- दुनिया अभी भी कोविड-19 महामारी से जूझ रही है जिसने निर्धनतम देशों और लोगों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। ऐसे समय विश्व एक युद्ध-प्रेरित मंदी का सामना कर सकने में अक्षम ही होगा।
- यह दायित्व रूस पर है कि वह तत्काल युद्ध विराम लागू करे और फिर दोनों पक्ष वार्ता करें। संघर्ष आगे बढ़ाना उपयुक्त नहीं है।
- यूरोप के लिये नई सुरक्षा व्यवस्था: जिस तरीके से रूस ने कथित ‘गलत’ को ‘सही’ करने का निर्णय लिया है, उसे तर्कसंगत ठहराए बिना भी यह स्पष्ट है कि वर्तमान संकट किसी न किसी प्रकार यूरोप में एक विखंडित सुरक्षा व्यवस्था का ही परिणाम है।
- संवहनीय सुरक्षा व्यवस्था में वर्तमान वास्तविकताओं का प्रतिबिंबन महज शीतयुद्ध कालीन व्यवस्था का परिणाम नहीं हो सकता और इसे आंतरिक रूप से संचालित किया जाना चाहिये।
- इसके साथ ही ऐसी यूरोपीय व्यवस्था जो व्यावहारिक वार्ता के माध्यम से रूस की चिंताओं को समायोजित नहीं करे, लंबे समय तक स्थिर नहीं बनी रह सकती।
- ‘मिंस्क शांति प्रक्रिया’ को पुनर्जीवित करना: स्थिति का एक व्यावहारिक समाधान ‘मिंस्क शांति प्रक्रिया’ (Minsk Peace Process) को पुनर्जीवित करने में निहित है।
- इस प्रकार, पश्चिम (अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों) को दोनों पक्षों को बातचीत फिर से शुरू करने और सीमा पर सापेक्ष शांति बहाली के लिये मिंस्क समझौते के अनुरूप अपनी प्रतिबद्धताओं की पूर्ति करने के लिये प्रेरित करना चाहिये।
भारत-विशिष्ट आगे की राह
- भू-राजनीतिक पहलू: भारत को रूसी कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप उत्पन्न कुछ तात्कालिक चुनौतियों का सामना करने के लिये स्वयं को तैयार करना होगा।
- इसे अंतर्राष्ट्रीय कानून के उल्लंघन की निंदा करने के लिये एक रणनीतिक साझेदार की ओर से दबाव और दूसरे साझेदार की वैध चिंताओं को समझने के बीच एक संतुलन साधना होगा। वर्ष 2014 में क्रीमिया पर रूस के कब्जे से उत्पन्न संकट के दौरान भारत ने इन दबावों को कुशलता से प्रबंधित किया था और अपेक्षित है कि वह एक बार फिर प्रभावी ढंग से इस संकट को प्रबंधित करेगा।
- आर्थिक पहलू: राजकोषीय दृष्टिकोण से सरकार (जो बजट में अपने राजस्व अनुमानों को लेकर रूढ़िवादी रही है) के पास इस वैश्विक मंथन के बीच मुद्रास्फीति अनुमानों को कम करने के लिये घरेलू ईंधन करों में पूर्व-क्रय कटौती करने, खपत स्तर को कम करने और भारत की नाजुक पोस्ट-कोविड रिकवरी को जारी रखने का अवसर मौजूद है।
- एक संतुलित दृष्टिकोण: भारत-रूस संबंधों ने यह सुनिश्चित किया कि दिल्ली को अफगानिस्तान पर वार्ता और मध्य एशिया से पूरी तरह बाहर नहीं रखा जा सकता, जबकि अमेरिका के साथ भी कुछ लाभ की स्थिति प्राप्त हुई।
- इसके साथ ही अमेरिका, यूरोपीय संघ और यू.के. सभी महत्त्वपूर्ण भागीदार हैं और उनमें से प्रत्येक के साथ तथा सामान्य रूप से पश्चिमी विश्व के साथ भारत के संबंध किसी एक घटना या विषय तक सीमित नहीं हैं।
- दिल्ली को यह ध्यान में रखते हुए कि किसी भी देश की क्षेत्रीय संप्रभुता के उल्लंघन का कोई औचित्य नहीं है, सभी पक्षों से बातचीत जारी रखनी चाहिये और अपने सभी भागीदारों के साथ संलग्न बने रहना चाहिये।
- भारत को दबाव बनाने वाले देशों के समक्ष यह भी स्पष्ट कर देना चाहिये कि उनका ‘हमारे साथ या हमारे विरुद्ध’ (With us or Against us’) का फॉर्मूला रचनात्मक या संवादपरक नहीं माना जा सकता।
- सभी पक्षों के लिये सर्वोत्कृष्ट राह यह है कि वे एक कदम पीछे हटें और समग्र युद्ध की संभावना को समाप्त करने पर ध्यान केंद्रित करें, बजाय इसके कि विश्व में विभाजन उत्पन्न हो और एक बार फिर शीत युद्ध की स्थिति बने।
अभ्यास प्रश्न: रूस-यूक्रेन संघर्ष के भारत पर पड़ने वाले प्रभावों और इस संबंध में भारत द्वारा अपनाए जा सकने वाले उपयुक्त दृष्टिकोण के संबंध में चर्चा कीजिये।