कृषि क्षेत्र को बड़े बदलावों की आवश्यकता
इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है, जो कृषि क्षेत्र से संबंधित समस्याओं तथा उसके ढांचागत उपायों से संबंधित हैं, इसमें क्षेत्र से संबंधित सभी आयामों को कवर करने का प्रयास किया गया है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
पिछले कुछ समय से भारत में कृषि से संबंधित समस्याओं को लेकर काफी चर्चा हो रही है। यह चर्चा निकट भविष्य में सरकार द्वारा प्रस्तुत किये जाने वाले बजट को लेकर अधिक प्रासंगिक हो जाती है। पिछले काफी वर्षों से कृषि क्षेत्र चुनौतियों का सामना कर रहा है, जिसको लेकर विभिन्न सरकारों ने कोई उत्साह नहीं दिखाया। ज्ञात हो कि यह क्षेत्र भारत के 14 करोड़ किसानों को प्रभावित करता है। अतः यह और भी आवश्यक हो जाता है कि कृषि क्षेत्र से संबंधित समस्याओं को हल करने के व्यावहारिक प्रयास किये जाएँ।
कृषि क्षेत्र में सुधार
भारत में कृषि राज्य सूची का विषय है, जिस कारण इस क्षेत्र में केंद्र का दखल सीमित रहा है। इस क्षेत्र को वर्ष 1991 जैसे व्यापक सुधारों की आवश्यकता है जिसमें केंद्र को राज्यों के साथ मिलकर प्रयास करने होंगे, साथ ही इसके लिये बैंकों तथा भारतीय रिज़र्व बैंक को भी इसमें शामिल किया जाना ज़रूरी है। कुछ विद्वानों का मानना है कि पिछले कुछ समय से RBI की बागडोर ऐसे लोगों के हाथों में रही है, जिनका जुड़ाव कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों से नहीं रहा है। ऐसे में कृषि क्षेत्र प्रायः RBI की नीतियों में उपेक्षित रहा है। RBI के पूर्व गवर्नर वाई. वी. रेड्डी भी कृषि क्षेत्र की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहते हैं कि कृषि भारत की एक राष्ट्रीय समस्या है, लेकिन भारत के विभिन्न हिस्सों में कृषि संबंधी समस्याओं का प्रकार अलग-अलग है, अतः राष्ट्रीय नीति के साथ-साथ क्षेत्रीय स्तर की समस्याओं को ध्यान में रखकर कदम उठाए जाने चाहिये। ऐसी नीति के क्रियान्वयन के लिये संघ तथा राज्यों के स्तर पर सहमति बनाना आवश्यक है।
कृषि क्षेत्र में व्यापक बदलाव के लिये एक ढाँचागत नीति की आवश्यकता है। इसके चार स्तंभ होंगे यथा- आय समर्थन, केंद्र-राज्य के अंतर्गत प्रयास, RBI की भूमिका तथा बैंकों की अभिवृत्ति में परिवर्तन।
बजट एवं आय समर्थन
नाबार्ड के वर्ष 2016-17 के लिये किये गए एक सर्वेक्षण में यह प्रदर्शित होता है कि कृषक परिवारों की मासिक आय 8,931 रूपए है। ऐसे परिवारों में औसत सदस्यों की संख्या पाँच से कम नहीं होती है। इस स्थिति में ऐसे परिवारों को आर्थिक सहायता की अधिक आवश्यकता है। उपर्युक्त सर्वेक्षण को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना किसानों की आय बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है। ज्ञात हो कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में मुद्रास्फीति (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में 46 प्रतिशत खाद्य वस्तुओं का योगदान है) की दर कम रही है, इसका एक कारण किसानों को सही मूल्य समर्थन न मिल पाना माना जाता है। OECD (Organisation for Economic Co-operation and Development) के एक अध्ययन में भी यह रेखांकित किया गया है कि वर्ष 2000 से ही भारत में किसानों को समर्थन का स्तर सभी वर्षों के लिये नकारात्मक रहा है। इसका अर्थ है कि उपभोक्ताओं और करदाताओं से कृषि उत्पादकों के लिये शुद्ध हस्तांतरण का वार्षिक मौद्रिक मूल्य नकारात्मक रहा है। इसको अन्य अर्थ में समझें तो इसका निहितार्थ है कि किसानों के मूल्य पर उपभोक्ताओं को लाभ पहुँचाया गया है। उपर्युक्त कारकों को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के बजट में वृद्धि होनी आवश्यक है। यदि सरकार, सरकारी खर्च में कटौती करना चाहती है तब भी यह कटौती कृषि बजट के बजाय अन्य स्रोतों से की जा सकती है। सरकार को सेना के समान ही किसानों को भी बजट में प्राथमिकता देनी चाहिये तथा ऐसे जनमत के निर्माण का प्रयास करना चाहिये जो किसानों के लिये खर्च किये गए कोष को समर्थन दें।
केंद-राज्य की भूमिका
किसी भी क्षेत्र में सुधारों से संबंधित कार्यवाही की ज़िम्मेदारी मुख्य रूप से सरकारों की ही होती है। ज्ञात हो कि कृषि एक राज्य सूची का विषय है इसलिये केंद्र की भूमिका सीमित है। लेकिन जिस प्रकार GST को लागू करने में केंद्र-राज्यों के मध्य अभूतपूर्व सहयोग देखा गया है। ऐसा ही सहयोग कृषि क्षेत्र में भी अपेक्षित है। कृषि क्षेत्र में भी एकीकृत परिषद का निर्माण करके कृषि से संबंधित समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है।
पहले से ही APMC (Agriculture Praduce Market Committee) एक्ट को लेकर केंद्र और राज्यों के मध्य विवाद बना हुआ है और कई राज्यों ने अब तक मॉडल APMC एक्ट के प्रावधानों को नहीं अपनाया है। इस अधिनियम में संशोधन करके मॉडल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट, 2018 लाया गया है। अब कृषि में संविदा कृषि (Contract Farming) जैसी अवधारणा को भारत में आसानी से लागू किया जा सकता है तथा यह अधिनियम किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बेहतर माहौल उपलब्ध कराता है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 (Essential Commodities Act) में भी लंबे समय से संशोधन करने की मांग की जा रही है। आवश्यक वस्तुओं की सूची से कृषि से संबंधित वस्तुओं को बाहर किया जाना चाहिये, इस तरह की सिफारिश पहले ही नीति आयोग कर चुका है। इन बदलावों के साथ-साथ भूमि से जुड़े दस्तावेज़ों का भी तीव्रता से डिजिटलीकरण किये जाने की आवश्यकता है।
भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की भूमिका
कृषि क्षेत्र से संबंधित इन ढाँचागत सुधारों में RBI की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र को लेकर भारत के केंद्रीय बैंक ने किसी भी प्रकार के नीतिगत पहल की शुरुआत नहीं की है। भारत में कृषि क्षेत्र के प्रति केंद्रीय बैंक की नीति इससे पता चलती है कि कृषि क्षेत्र में किसी परिसंपत्ति की गारंटी के बिना ऋण (Collateral Free Loan) की सीमा 1.6 लाख रूपए है, जबकि MSME और शिक्षा के लिये ऐसे ही ऋण की सीमा क्रमशः 10 लाख एवं 7.5 लाख रूपए है। यह बेहद आवश्यक है कि कृषि क्षेत्र में छोटे और सीमांत किसानों के लिये इस सीमा को बढ़ाकर 3 लाख किया जाना चाहिये। यदि RBI इस क्षेत्र के विभिन्न हित समूहों से चर्चा करके कृषि क्षेत्र में सुधार के लिये व्यापक रोडमैप लेकर आता है तो यह इस क्षेत्र के लिये काफी लाभदायक हो सकता है।
बैंकों की अभिवृत्ति परिवर्तन
प्रायः ऐसा देखा गया है कि वाणिज्यक बैंक किसानों को ऋण देने में उत्साह नहीं दिखाते, जबकि अतीत के अनुभवों से यह सिद्ध होता है कि छोटे ऋण प्राप्तकर्ताओं (Small Borrower) का उधार वापस करने का रिकॉर्ड बड़े व्यापारियों से काफी अच्छा होता है। इस तथ्य की ओर विभिन्न बैंकों की सकारात्मक अभिवृत्ति के विकास की आश्यकता है। जिससे कम समय में सही मात्रा में किसानों को ऋण प्राप्त हो सके। किसानों के लिये ऋण इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि प्रायः किसानों के पास पूंजी की कमी होती है। यदि किसानों को बैंक ऋण नहीं देंगे तो किसान अधिक ब्याज पर असंगठित क्षेत्र (महाजनों और साहूकारों) से ऋण लेने के लिये बाध्य होंगे, परिणामतः किसान ऋण के दुश्चक्र में फँस कर रह जाएंगे। पहले से ही किसानों की खराब स्थिति इसके कारण और भी दयनीय हो जाएगी। ज्ञात हो कि भारत में कृषि सुधारों की हमेशा से एक प्रमुख मांग रही है कि ऋण को संस्थागत किया जाए।
निष्कर्ष
ज्ञात हो कि भारत में एक बड़ी कृषक आबादी निवास करती है। यदि यह क्षेत्र समस्याग्रस्त बना रहेगा तो भारत में पहले से ही मौज़ूद आर्थिक असमानता में और भी वृद्धि होगी तथा समग्र मांग में भी कमी आ सकती है जिसके परिणामस्वरुप आर्थिक वृद्धि भी नकरात्मक रूप से प्रभावित हो सकती है। लेकिन इन सब के बावज़ूद भारत में कृषि क्षेत्र में सुधार के लिये सरकारों द्वारा गंभीर प्रयास देखने को नहीं मिले है। अतीत में भूमि सुधार अधिनियम इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। अब समय की मांग है कि सरकारें इस क्षेत्र को भी गंभीरता से लें तथा एक ऐसी व्यापक रणनीति के आधार पर सुधारों को लागू करने का प्रयास करें जिससे इस क्षेत्र में ढाँचागत परिवर्तन लाया जा सके। इसके लिये राज्यों को विश्वास में लेकर केंद्र को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी तभी इस क्षेत्र में बदलाव लाए जा सकेंगे।
प्रश्न: भारत में प्रायः कृषि क्षेत्र उपेक्षा का शिकार रहा है जिससे यह क्षेत्र अब गंभीर संकट से जूझ रहा है, आपके अनुसार ऐसे कौन से उपाय हैं जिनके द्वारा इस क्षेत्र को संकट से उभारा जा सकता है?