उत्तराखंड के UCC विधेयक का विश्लेषण
यह एडिटोरियल 26/02/2024 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A chilling effect on the freedom to love” लेख पर आधारित है। इसमें विश्लेषण किया गया है कि उत्तराखंड समान नागरिक संहिता विधेयक किस प्रकार सहमति से बने संबंधों को दंडित करने और व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन करने के रूप में स्वतंत्रता, निजता एवं समता के संवैधानिक अधिकारों को कमज़ोर करता है।
प्रिलिम्स के लिये:समान नागरिक संहिता (UCC), मूल अधिकार, राज्य के नीति निदेशक सिद्धांत, विधि आयोग। मेन्स के लिये:समान नागरिक संहिता का महत्त्व और इसके कार्यान्वयन में चुनौतियाँ। |
उत्तराखंड विधानसभा द्वारा पारित समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code- UCC) विधेयक, 2024 विवाह एवं संपत्ति उत्तराधिकार के संबंध में कानूनों को सुदृढ़ करने का उद्देश्य रखता है। इस विधेयक के प्रवर्तनीय कानून में परिणत होने के लिये बस राष्ट्रपति की मंज़ूरी की प्रतीक्षा रह गई है। हालाँकि, विधेयक में एक चिंताजनक बात ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के अनिवार्य पंजीकरण को लेकर है, जहाँ यदि कुछ शर्तें पूरी नहीं होती हैं तो उन्हें अपराध घोषित किया जा सकता है। यह कदम न केवल व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन करता है बल्कि व्यक्तिगत संबंधों को विनियमित करने में राज्य की भूमिका पर भी सवाल उठाता है।
समान नागरिक संहिता (UCC):
- परिचय:
- UCC का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 44 में राज्य की नीति के निदेशक तत्व (DPSP) के एक हिस्से के रूप में किया गया है, जहाँ कहा गया है कि राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिये समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।
- हालाँकि, संविधान निर्माताओं ने UCC को लागू करना सरकार के विवेक पर छोड़ दिया।
- गोवा UCC रखने वाला भारत का एकमात्र राज्य है जो पुर्तगाली सिविल संहिता 1867 का पालन करता है।
- UCC पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय का रुख:
- मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामला (1985): न्यायालय ने टिप्पणी की कि “यह खेद का विषय है कि अनुच्छेद 44 एक ‘डेड लेटर’ (निष्प्रभावी) बना रहा है” और उसने इसके परिपालन का आह्वान किया।
- सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (1995) और जॉन वल्लामट्टम बनाम भारत संघ (2003) जैसे अन्य मामलों में भी इसकी मांग दुहराई गई।
- मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामला (1985): न्यायालय ने टिप्पणी की कि “यह खेद का विषय है कि अनुच्छेद 44 एक ‘डेड लेटर’ (निष्प्रभावी) बना रहा है” और उसने इसके परिपालन का आह्वान किया।
- जोस पाउलो कॉटिन्हो बनाम मारिया लुइज़ा वेलेंटीना परेरा मामला (2019): न्यायालय ने गोवा की एक “शानदार उदाहरण” के रूप में सराहना की, जहाँ “समान नागरिक संहिता, कुछ सीमित अधिकारों की रक्षा को छोड़कर, धर्म पर विचार किये बिना सभी पर लागू होती है” और तदनुसार इसके अखिल भारतीय कार्यान्वयन का आग्रह किया।
- विधि आयोग का रुख:
- सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग ने वर्ष 2018 में ‘पारिवारिक कानून में सुधार’ पर एक परामर्श पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें उसने मत प्रकट किया कि “अभी समान नागरिक संहिता का निर्माण करना न तो आवश्यक है, न ही वांछनीय।”
विधेयक को राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिये क्यों भेजा गया?
- विषय-वस्तु की अस्पष्ट प्रकृति:
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 162 इंगित करता है कि राज्य की कार्यकारी शक्ति उन मामलों तक विस्तृत है जिनके संबंध में राज्य विधानमंडल के पास कानून बनाने की शक्ति है।
- सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5 के उपबंधों को ध्यान में रखते हुए, समान नागरिक संहिता को लाने और लागू करने के लिये एक समिति के गठन को अधिकारातीत (ultra vires) के रूप में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- समवर्ती सूची की प्रविष्टि 5 “विवाह एवं तलाक; शिशु एवं अवयस्क; दत्तक ग्रहण; वसीयत (Will), निर्वसीयतता एवं उत्तराधिकार; संयुक्त परिवार एवं उसका विभाजन; वे सभी विषय जिनके संबंध में न्यायिक कार्यवाहियों में पक्षकार इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले अपनी स्वीय (व्यक्तिगत)विधि के अधीन थे” से संबंधित है।
- विधेयक को आरक्षित रखने की राज्यपाल की शक्ति:
- राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकते हैं। यह आरक्षण उस स्थिति में अनिवार्य है जहाँ राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक राज्य उच्च न्यायालय की स्थिति को खतरे में डालता है। हालाँकि, राज्यपाल किसी विधेयक को तब भी आरक्षित कर सकता है जब वे निम्नलिखित प्रकृति के हों:
- संविधान के उपबंधों के विरुद्ध
- राज्य की नीति के निदेशक तत्व के विरुद्ध
- देश के व्यापक हित के विरुद्ध
- वे गंभीर राष्ट्रीय महत्त्व रखते हों
- संविधान के अनुच्छेद 31A के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से संबंधित हो।
- उत्तराखंड का UCC विधेयक कई राष्ट्रीय कानूनों- जैसे कि विशेष विवाह अधिनियम 1954, हिंदू विवाह अधिनियम 1955, शरीयत अधिनियम 1937 आदि का अधिरोहण (ओवरराइड) करता है और इसलिये इसे लागू किये जाने से पहले राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिये भेजा गया है।
उत्तराखंड के UCC विधेयक 2024 की मुख्य बातें
- परिचय:
- UCC संविधान के अनुच्छेद 44 से प्रेरित है और विवाह, तलाक, दत्तक ग्रहण एवं उत्तराधिकार पर ध्यान केंद्रित करते हुए प्रत्येक धर्म के अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों को प्रतिस्थापित करने का लक्ष्य रखता है। यह संहिता व्यक्तिगत कानूनों का एकल समुच्चय होगी जो धर्म पर विचार किये बिना सभी नागरिकों पर एक समान रूप से लागू होगी।
- समिति द्वारा प्रस्तुत किये गए कुछ प्रमुख प्रस्तावों में बहुविवाह (polygamy), निकाह हलाला, इद्दत (मुस्लिम विवाह के विघटन के बाद महिलाओं द्वारा पालन की जाने वाली एक अनिवार्य अवधि), तीन तलाक़ आदि पर प्रतिबंध लगाना, सभी धर्मों में बालिकाओं के विवाह के लिये एक समान आयु घोषित करना और ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ का अनिवार्य पंजीकरण कराना शामिल है।
- महत्त्व:
- UCC विधेयक 2024 का उद्देश्य उत्तराधिकार एवं विवाह जैसे मामलों में पुरुषों और महिलाओं के प्रति समान व्यवहार रखते हुए लैंगिक समानता पर ध्यान केंद्रित करना है।
- यह संहिता मुस्लिम महिलाओं को मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों के तहत प्रदत्त मौजूदा 25% हिस्सेदारी के मुकाबले समान संपत्ति हिस्सेदारी का भी विस्तार कर सकती है।
- छूट:
- अनुसूचित जनजातियों (ST) को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है। उत्तराखंड की जनजातीय आबादी (जो कुल आबादी की लगभग 3% है) उन्हें प्राप्त विशेष दर्जे के मद्देनजर UCC के विरुद्ध अपना असंतोष व्यक्त कर रही थी।
- संबद्ध चिंताएँ:
- विवाह की न्यूनतम आयु पूर्ववत रहेगी, यानी महिलाओं के लिये 18 वर्ष और पुरुषों के लिये 21 वर्ष।
- ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ का अनिवार्य पंजीकरण और कुछ शर्तों का अनुपालन नहीं होने पर इसे अपराध घोषित करना, विधेयक में मौजूद विवादास्पद विषयों में से एक है।
- इस निर्देश के साथ, प्रस्तावित कानून राज्य को सहमति से बने संबंधों को दंडित करने और व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन करने की असंगत शक्ति प्रदान कर देगा।
सहमति से बने संबंधों को विनियमित करने से संबद्ध क्या चिंताएं हैं?
- रजिस्ट्रारों को प्राप्त अधिभावी शक्तियाँ:
- विधेयक में ‘लिव-इन पार्टनर्स’ के लिये संबंधित रजिस्ट्रार के पास एक बयान या स्टेटमेंटदर्ज कराने की आवश्यकता रखी गई है। रजिस्ट्रार के पास इस बयान की जाँच करने और संबंध के बारे में पूछताछ करने की शक्तियाँ हैं।
- इसके अलावा, ‘लिव-इन पार्टनर्स’ को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की आवश्यकता हो सकती है और रजिस्ट्रार इस संबंध को पंजीकृत करने से इनकार भी कर सकता है। ऐसे किसी संबंध के समापन के लिये ‘नोटिस’ देना भी आवश्यक है।
- आपराधिक दंड आरोपित करना:
- विधेयक की एक और अवांछित विशेषता है इसमें आपराधिक दंड—कारावास या जुर्माना (या दोनों) की व्यवस्था, जो बयान दर्ज नहीं करने की स्थिति में आरोपित किया जा सकता है।
- गलत सूचना प्रस्तुत करने के लिये लिव-इन युगल को दंडित किया जाएगा। रजिस्ट्रार ऐसे लिव-इन संबंधों के विवरण संबद्ध क्षेत्राधिकार रखने वाले पुलिस स्टेशन को सौंपेगा।
- व्यक्तिगत स्वायत्तता का उल्लंघन:
- विधेयक ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ के मूलभूत कारण को नज़रअंदाज़ करता है, जो यह है कि इसमें विवाह की औपचारिक संरचना एवं दायित्वों का अभाव होता है। इसलिये, लिव-इन संबंध में शामिल लोग अपने सहमत संबंध में स्वायत्तता का उपभोग करते हैं, जैसा एक विनियमित विवाह में नहीं होता है। इन दोनों संस्थाओं (विवाह एवं लिव-इन) के बीच इस अति-आवश्यक अंतर को विलोपित करना न्यायसंगत नहीं है।
- अत्यधिक ‘मोरल पुलिसिंग’:
- एक ऐसे समाज में जो पहले से ही युवा जोड़ों की ‘मोरल पुलिसिंग’ करता रहा है, इस विधेयक के प्रावधान ‘लिव-इन पार्टनर्स’ के लिये भयावह प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं और ऐसे संबंधों को हतोत्साहित कर सकते हैं।
- मामले में पुलिस की संलग्नता इस चिंता को और बढ़ा देती है। इससे युगल वास्तविक संबंधों में प्रवेश करने के प्रति संकोच या सतर्कता रखेंगे क्योंकि अनुपालन की कमी न केवल नागरिक परिणामों को बल्कि आपराधिक परिणामों को भी (जैसा कि नियामक कानूनों की नियमित आवश्यकता होती है) आमंत्रित करती है।
- गरिमामय जीवन के अधिकार का उल्लंघन:
- एक माह की समय-सीमा (जहाँ कहा गया है कि जो कोई भी बयान दर्ज कराये बिना ऐसे संबंध में प्रवेश करने की तिथि से एक माह से अधिक समय तक लिव-इन रिलेशनशिप में रहेगा, उसे दंडित किया जाएगा) भी प्रत्यक्षतम तरीकों से अंतरंगता को निषिद्ध करने का एक प्रयास है। यह गरिमामय जीवन के अधिकार पर बल देने वाले अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित स्वतंत्र निर्णय लेने और भावनाओं की अभिव्यक्ति करने के अधिकार का उल्लंघन करता है।
- विधेयक के प्रावधानों द्वारा व्यक्तियों को ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ में प्रवेश करने से निषिद्ध किया जाता है, जो गहनतम व्यक्तिगत विकल्प चुनने की क्षमता में बाधाकारी है।
सहमति से बने संबंधों को विनियमित करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिये?
- संविधान के अनुरूप स्पष्ट नीति अपनाना:
- एक लोकतांत्रिक उदार राज्य के पास इस संबंध में स्पष्ट नीति होनी चाहिये कि वह किस विषय को अपराध घोषित करना चाहता है और किसे नहीं। यह नीति संविधान द्वारा संरक्षित विषयों के अनुरूप होनी चाहिये। यह तथ्य कि कुछ सामाजिक अभ्यास रूढ़िवादी बहुमत द्वारा अवांछित हैं, इनके अपराधीकरण के लिये एक अपर्याप्त कारण ही हो सकता है।
- जैसा कि दार्शनिक जोएल फीनबर्ग (Joel Feinberg) मानते हैं, “वास्तव में, किसी व्यक्ति के बारे में वह सब कुछ जिसके बारे में आपराधिक कानून को चिंतित होना चाहिये, उसकी नैतिकता में शामिल है। लेकिन किसी व्यक्ति की नैतिकता की हर बात कानून की चिंता का विषय नहीं होनी चाहिये।”
- ‘व्यभिचार- यौन गोपनीयता के अधिकार’ (Adultery- the Right to Sexual Privacy) पर सर्वोच्च न्यायालय के विचारों का अनुसरण करना:
- व्यभिचार पर कानून तत्कालीन भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 497 में शामिल था। यह कानून अपने तत्समय रूप में केवल पुरुषों को दंडित कर लिंग के आधार पर भेदभाव करता था। लेकिन इस कानून की एक और उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि यह सहमति से बने यौन संबंधों को भी अपराध घोषित करता था।
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) मामले में, इस कानून को निरस्त करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने बलपूर्वक कहा कि “व्यभिचार को अपराध मानना राज्य द्वारा वास्तविक निजी/व्यक्तिगत क्षेत्र में प्रवेश करने के समान होगा।”
- इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि यह राज्य का कार्य नहीं है कि व्यक्तियों के जीवन में हस्तक्षेप करे जो स्वयं “उन व्यक्तियों की निजता एवं आत्मनिर्णय के संवैधानिक रूप से संरक्षित अधिकारों के दायरे में है।”
- निजता के अधिकार के सिद्धांतों का पालन:
- इसके अलावा, के. एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले (2017) में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि “राज्य द्वारा पवित्र ‘पर्सनल स्पेस’ का विनाश, चाहे वह देह का हो या मन का, राज्य की मनमानी कार्रवाई के विरुद्ध गारंटी का उल्लंघन है। दैहिक गोपनीयता किसी व्यक्ति को व्यक्तित्व के भौतिक पहलुओं की अखंडता का अधिकार प्रदान करती है।”
- भेदभाव को रोकना और समावेशन को बढ़ावा देना:
- हमारे देश में अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक युगलों को अधिकारियों द्वारा गंभीर उत्पीड़न और सामाजिक कलंक का सामना करना पड़ता है। आँकड़ों से पता चलता है कि ये युगल प्रायः हिंसा का अनुभव करते हैं, जिसमें ‘ऑनर किलिंग’ भी शामिल है।
- लिव-इन संबंधों पर उच्च नियामक प्रावधान वाला प्रस्तावित कानून सबसे पहले भेद्य या संवेदनशील युगलों को प्रभावित करेगा। विधेयक के प्रावधान समस्या को कम करने के बजाय और अधिक बढ़ाएँगे। राज्यों को अपनी जनसंख्या की शारीरिक अखंडता का समर्थन करने के लिये एक समावेशी विनियमन अपनाना चाहिये।
- विवाह के अधिकार को समझना, जो जीवन का अभिन्न अंग है:
- व्यक्तियों के पास अपना जीवन साथी चुनने का अंतर्निहित अधिकार है और न तो राज्य या समाज के पास, न ही व्यक्तियों के माता-पिता के पास इस अधिकार में हस्तक्षेप करने या इसे प्रतिबंधित करने का कोई अधिकार होना चाहिये जब यह ‘दो सहमत वयस्कों’ से संबंधित हो।
- विवाह का अधिकार मानवीय स्वतंत्रता का विषय है। अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का अधिकार न केवल मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा (UDHR) में रेखांकित किया गया है, बल्कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का एक अभिन्न पहलू भी है जो जीवन के अधिकार की गारंटी देता है।
- अपनी देह पर महिलाओं की स्वायत्तता का सम्मान करना:
- आधुनिक समाज निजता के अधिकार के एक अंग के रूप में अपनी देह और यौनिकता (sexuality) पर महिलाओं की स्वायत्तता को बढ़ावा देता है, जिसमें महिलाओं का रात्रिकालीन कार्य करने का अधिकार, प्रजनन अधिकारों की सुरक्षा, दैहिक अखंडता का अधिकार, अविवाहित माताओं के अधिकार, जबरन वंध्याकरण के विरुद्ध अधिकार और विवाह, संतानोत्पत्ति एवं पारिवारिक जीवन के चुनाव पर निर्णय लेने का अधिकार शामिल हैं।
- ये किसी के सबसे अंतरंग एवं व्यक्तिगत विकल्पों के मामले हैं और ‘ख़ुशी की तलाश’ (pursuit of happiness) में आवश्यक हैं, जो स्वायत्तता एवं गरिमा पर आधारित हैं।
- निजता के अधिकार का क्षैतिज अनुप्रयोग सुनिश्चित करना:
- यह ग़ैर-राज्य अभिकर्ताओं के विरुद्ध अधिकार की सुरक्षा को संदर्भित करता है, जहाँ यह माना जाता है कि इस बात के विनियमन की आवश्यकता है कि ग़ैर-राज्य अभिकर्ताओं द्वारा सूचना का किस प्रकार संग्रहण, प्रसंस्करण एवं उपयोग किया जा सकता है।
- यह मानता है कि निजता/गोपनीयता व्यक्ति को राज्य एवं ग़ैर-राज्य दोनों तत्वों के हस्तक्षेप से बचाती है और व्यक्तियों को स्वायत्त जीवन विकल्प चुनने की अनुमति देती है।
- आनुपातिकता परीक्षण को शामिल करना:
- आनुपातिकता परीक्षण (Proportionality Test), जैसा कि सर्वविदित है, में चार चरण शामिल होते हैं: वैध लक्ष्य (legitimate goal), तर्कसंगत संबंध (rational connection), आवश्यकता (necessity) (यानी न्यूनतम प्रतिबंधात्मक एवं प्रभावी उपाय) और संतुलन-निर्माण (balancing)।
- ऐसे विनियमों को प्रभाव में लाने से पहले उन्हें इन सिद्धांतों की कसौटी पर परखा जाना चाहिये।
निष्कर्ष
उत्तराखंड के समान नागरिक संहिता विधेयक 2024 द्वारा निर्धारित लिव-इन संबंधों का अनिवार्य पंजीकरण और संभावित अपराधीकरण व्यक्तियों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है। विवाह और लिव-इन संबंधों के बीच के अंतर को मिटाने के रूप में यह विधेयक लिव-इन संबंधों की अनूठी प्रकृति को पहचानने में विफल रहता है। यह कदम न केवल युगलों के लिये भयावह प्रभाव उत्पन्न कर सकता है बल्कि उनकी निजता एवं पसंद की स्वतंत्रता के अधिकार का भी उल्लंघन करता है। यह आवश्यक है कि एक लोकतांत्रिक समाज व्यक्तिगत संबंधों पर मनमाने प्रतिबंध लगाने के बजाय स्वायत्तता, निजता एवं समानता के सिद्धांतों को अक्षुण्ण बनाये रखे।
अभ्यास प्रश्न: व्यक्तिगत संबंधों और सामाजिक गतिशीलता पर समान नागरिक संहिता (UCC) के संभावित प्रभाव पर विचार करते हुए व्यक्तिगत स्वायत्तता एवं निजता के लिये इसके निहितार्थों की चर्चा कीजिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय संविधान में प्रतिष्ठापित राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों के अंतर्गत निम्नलिखित प्रावधानों पर विचार कीजिये: (2012)
उपर्युक्त में से कौन-से गांधीवादी सिद्धांत हैं, जो राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों में प्रतिबिंबित होते हैं? (a) केवल 1, 2 और 4 उत्तर: (b) प्रश्न. कानून को लागू करने के मामले में कोई विधान, जो किसी कार्यपालक अथवा प्रशासनिक प्राधिकारी को अनिर्देशित एवं अनियंत्रित विवेकाधिकार देता है, भारत के संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेदों में से किसका उल्लंघन करता है? (2021) (a) अनुच्छेद14 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. चर्चा कीजिये कि वे कौन-से संभावित कारक हैं जो भारत को राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व में प्रदत्त के अनुसार अपने नागरिकों के लिये समान सिविल संहिता को अभिनियमित करने से रोकते हैं। (2015) |