विधेयकों पर राज्यपाल की निष्क्रियता
यह एडिटोरियल 25/04/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित ‘‘Pending Bills, the issue of gubernatorial inaction’’ लेख पर आधारित है। इसमें राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों की समस्या के बारे में चर्चा की गई है।
तमिलनाडु राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्य के राज्यपाल की कार्रवाई के संबंध में हाल में उत्पन्न विवाद के मद्देनजर एक प्रस्ताव पारित कर भारत के राष्ट्रपति से हस्तक्षेप का आग्रह किया गया है। उल्लेखनीय है कि तमिलनाडु विधानसभा द्वारा पारित कई विधेयक लंबित पड़े हैं क्योंकि राज्यपाल द्वारा इन पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है।
विधानसभा ने एक प्रस्ताव पारित कर भारत के राष्ट्रपति से आग्रह किया है कि वे एक समयसीमा तय करें, जिसके अंतर्गत विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को संस्वीकृति दे देना अनिवार्य होगा।
इसने राज्य विधायिका द्वारा विधिवत पारित किये गए विधेयकों को स्वीकृति देने में असीमित विलंब के संबंध में राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति पर सवाल उठाया है।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ:
संविधान यह स्पष्ट करता है कि कोई मामला राज्यपाल के विवेक के अंतर्गत आता है या नहीं, इस संबंध में यदि कोई प्रश्न उठता है तो राज्यपाल का निर्णय अंतिम होता है और उसके द्वारा कारित किसी भी कृत्य की वैधता को इस आधार पर प्रश्नगत नहीं किया जा सकता है कि उसने अपने विवेक से कार्य किया या नहीं।
- राज्यपाल का संवैधानिक विवेक:
- राष्ट्रपति के विचारार्थ विधेयक को आरक्षित करना (अनुच्छेद 200)।
- राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) लगाने की अनुशंसा करना।
- किसी निकटवर्ती केंद्रशासित प्रदेश (अतिरिक्त प्रभार के मामले में) के प्रशासक के रूप में अपने कार्यों का प्रयोग करते हुए।
- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम सरकार द्वारा स्वायत्त जनजातीय ज़िला परिषद को खनिज अन्वेषण के लिये लाइसेंस से अर्जित रॉयल्टी के रूप में देय राशि का निर्धारण करना।
- राज्य के प्रशासनिक और विधायी मामलों के संबंध में मुख्यमंत्री से सूचना प्राप्त करना।
- परिस्थितिजन्य विवेक:
- मुख्यमंत्री की नियुक्ति करना जब राज्य विधानसभा में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं हुआ हो या पदेन मुख्यमंत्री की अचानक मृत्यु हो गई हो और कोई स्पष्ट उत्तराधिकारी नहीं हो।
- मंत्रिपरिषद की बर्खास्तगी जब वह राज्य विधानसभा का विश्वास प्राप्त होना साबित नहीं कर सकती हो।
- राज्य विधानसभा का विघटन करना यदि मंत्रिपरिषद ने अपना बहुमत खो दिया हो।
क्या राज्यपाल अपनी विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए किसी विधेयक पर अपनी अनुमति रोक सकता है?
- अनुच्छेद 200 के सामान्य पाठ्य से प्रकट होता है कि राज्यपाल अपनी सहमति को रोके रख सकता है, लेकिन विशेषज्ञ सवाल उठाते हैं कि क्या वह केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही ऐसा कर सकता है।
- संविधान में प्रावधान है कि राज्यपाल अनुच्छेद 154 के तहत मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही अपनी कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है।
- बड़ा सवाल यह है कि विधानसभा द्वारा विधेयक पारित किये जाने के बाद राज्यपाल द्वारा अपनी सहमति को रोके रखने की अनुमति क्यों दी जानी चाहिये।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में राज्यपालों द्वारा उन विधेयकों को रोके रखने के मुद्दे को संबोधित किया जिससे वे सहमत नहीं थे और जिसके कारण अनिश्चितकालीन विलंबन की स्थिति बनी। न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 200 के उपबंध का उल्लेख किया, जो यह निर्दिष्ट करता है कि राज्यपालों को विधानसभाओं द्वारा पारित किये गए विधेयकों पर सहमति देने में देरी नहीं करनी चाहिये।
लंबित विधेयकों से संबद्ध मुद्दे
- निर्णय लेने में देरी:
- विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने में राज्यपाल की विफलता से निर्णय लेने में देरी होती है, जो राज्य सरकार के प्रभावी कार्यकरण को प्रभावित करती है।
- नीतियों और विधियों के कार्यान्वयन में देरी:
- जब राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित किसी विधेयक पर निर्णय लेने में विफल रहता है, तो यह नीतियों और विधियों के कार्यान्वयन में देरी का कारण बनता है।
- इस देरी के महत्त्वपूर्ण परिणाम हो सकते हैं, विशेषकर जब विधेयक लोक कल्याण से संबंधित हो।
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर करना:
- राज्यपाल, जिसे केंद्र द्वारा नियुक्त किया जाता है, राजनीतिक कारणों से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को विलंबित या अस्वीकार करने के लिये अपनी शक्तियों का उपयोग कर सकता है, जो फिर लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमज़ोर करता है।
- लोक धारणा:
- आम लोग प्रायः राज्यपाल के पास लंबित विधेयकों को राज्य सरकार की अक्षमता या उसके भ्रष्टाचार के संकेत के रूप में देखती है, जो सरकार की प्रतिष्ठा को हानि पहुँचा सकती है।
- संवैधानिक अस्पष्टता:
- अनुमति रोकने की राज्यपाल की शक्ति के संबंध में संविधान में अस्पष्टता है।
- यद्यपि संविधान राज्यपाल को अपनी सहमति रोके रखने की शक्ति प्रदान करता है, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वह केवल मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही ऐसा कर सकता है।
- उत्तरदायित्व की कमी:
- राज्यपाल अपनी सहमति रोके रखने के निर्णय का कारण बताने के लिये बाध्य नहीं है।
- उत्तरदायित्व की यह कमी शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही के सिद्धांतों को कमज़ोर करती है।
आगे की राह
- स्वीकृति के लिये निर्धारित समयसीमा:
- सर्वोच्च न्यायालय देश में संघवाद के व्यापक हित में विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर निर्णय लेने के लिये राज्यपालों के लिये एक उचित समयसीमा निर्धारित करने पर विचार कर सकता है।
- यह अनुचित देरी पर रोक लगाएगा और यह सुनिश्चित कर सकेगा है कि राज्य का शासन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार किया जा रहा है।
- केंद्र और राज्यों के बीच संवाद:
- इस मुद्दे को हल करने और संवैधानिक प्रावधानों को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिये केंद्र और राज्यों के बीच संवाद की आवश्यकता है।
- जन जागरूकता और सक्रियता:
- इस मुद्दे पर जन जागरूकता एवं सक्रियता बढ़ाना और यह मांग करना महत्त्वपूर्ण है कि संवैधानिक प्रावधानों का पारदर्शी, निष्पक्ष और समयबद्ध तरीके से पालन किया जाए।
- नागरिक समाज समूह, मीडिया और नागरिक मंच इस संबंध में इस मुद्दे को उजागर करने तथा अधिकारियों पर जनहित में कार्य करने के लिये दबाव बनाने के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
अभ्यास प्रश्न: विधायिका द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देने में राज्यपाल की भूमिका के संदर्भ में न्यायिकता (Justiciability) के मुद्दे पर चर्चा कीजिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. किसी राज्य के राज्यपाल को निम्नलिखित में से कौन-सी विवेकाधीन शक्तियाँ दी गई हैं? (वर्ष 2014)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (A) केवल 1 और 2 उत्तर: (B) |