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  • 26 Feb, 2021
  • 11 min read
भारतीय राजनीति

केंद्रशासित प्रदेशों के संरचनात्मक मुद्दे

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में ऐसे कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों की समीक्षा की गई है जो केंद्रशासित प्रदेशों में चुनी हुई सरकारों को कमज़ोर करने की संभावनाओं को जन्म देते हैं, साथ ही इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

हाल ही में पुद्दुचेरी विधानसभा के कुछ विधायकों ने इस्तीफा दे दिया, यह विधानसभा के सदस्यों द्वारा इस्तीफा देने के एक परिचित पैटर्न को दर्शाता है। इस तरह के इस्तीफे सदन में सत्ताधारी दल के बहुमत को अचानक से कम कर देते हैं, जो आगे चलकर सरकार गिरने का कारण बनता है। इस पैटर्न के पीछे मंशा यह है कि किसी भी दल बदलने वाले विधायक को दलबदल विरोधी कानून के तहत अयोग्य घोषित किये जाने के संकट का सामना न करना पड़े। सामान्य तौर पर इस प्रकार के इस्तीफे ऐसे केंद्रशासित प्रदेशों के सत्तारूढ़ दलों से होते हैं जो केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी होते हैं।

हालाँकि यह एकमात्र तरीका नहीं है जिसके माध्यम से केंद्रशासित प्रदेशों में चुनी हुई सरकारों को कमज़ोर किया जाता है। ऐसे कई संवैधानिक और कानूनी प्रावधान हैं जो भारतीय संघ की इकाइयों के रूप में केंद्रशासित प्रदेशों (संघ शासित प्रदेशों) की संरचनात्मक कमज़ोरी को दर्शाते हैं।

केंद्रशासित प्रदेशों की संरचनात्मक कमज़ोरी:

  • विधानमंडल की संरचना: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 239(A) को मूल रूप से 14वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1962 द्वारा लाया गया था, इसका उद्देश्य संसद को केंद्रशासित प्रदेशों के लिये विधायिका का गठन करने में सक्षम बनाना था।
    • इस कानून का परिणाम यह है कि ‘संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम, 1963’ में एक सामान्य संशोधन के माध्यम से ही केंद्रशासित प्रदेशों में 50% से अधिक मनोनीत सदस्यों के साथ विधायिका का गठन किया जा सकता है।
    • हालाँकि इसके बाद भी यह प्रश्न बना रहेगा कि एक मनोनीत सदस्यों की प्रधानता वाला सदन प्रतिनिधि लोकतंत्र को कैसे बढ़ावा दे सकता है?
  • नामांकन से जुड़े मुद्दे: संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम, 1963 के तहत पुद्दुचेरी के लिये 33 सदस्यीय सदन का प्रावधान किया गया है, जिसमें से तीन सदस्यों को केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत किया जाता है।
    • इसलिये जब केंद्र सरकार ने पुद्दुचेरी सरकार से परामर्श लिये बगैर तीन सदस्यों को विधानसभा में मनोनीत किया, तो केंद्र सरकार के इस निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने ‘के. लक्ष्मीनारायण बनाम भारत संघ, 2019’ मामले में कहा कि केंद्र सरकार को विधानसभा में सदस्यों को मनोनीत करने के लिये राज्य सरकार से परामर्श करने की आवश्यकता नहीं है और मनोनीत सदस्यों को निर्वाचित सदस्यों के समान ही वोट देने का अधिकार है।
  • नामांकन में मनमानी: राज्यसभा के सदस्यों के लिये भी मनोनयन का प्रावधान (अनुच्छेद 80 के तहत) है। परंतु इस अनुच्छेद के तहत उन क्षेत्रों को निर्दिष्ट किया गया है जिनसे जुड़े लोगों को ही राज्यसभा के सदस्य के रूप में मनोनीत किया जा सकता है।
    • हालाँकि पुद्दुचेरी विधानसभा के लिये मनोनीत सदस्यों के मनोनयन के मामले में अनुच्छेद 239(A) या संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम, 1963 के तहत ऐसी किसी भी अनिवार्य योग्यता का उल्लेख नहीं किया गया है।
    • इसके कारण यह कानून केंद्रशासित प्रदेशों में विधानमंडल के सदस्यों के मनोनयन के मामलों में केंद्र सरकार को मनमानी करने का अवसर प्रदान करता है।
  • प्रशासक की शक्ति: केंद्रशासित प्रदेशों को उनकी आवश्यक स्वायत्तता के लिये कभी भी पूरी तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं दी गई। ऐसे में प्रशासक (उपराज्यपाल) में निहित शक्ति और विधायिका वाले केंद्रशासित प्रदेश की निर्वाचित सरकार की शक्तियों के बीच समय-समय पर संघर्ष/तनाव देखने को मिलता है।
    • संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम की धारा 44 और संविधान के अनुच्छेद 239 AA(4) के तहत प्रशासक को राज्य मंत्रिपरिषद के निर्णयों पर अपनी असहमति व्यक्त करने और मामले को राष्ट्रपति को संदर्भित करने की शक्ति दी गई है।
    • चूँकि राष्ट्रपति, केंद्र सरकार की सलाह पर निर्णय लेता है। अतः वास्तविकता में ऐसे विवादित मुद्दे पर अंततः केंद्र सरकार ही निर्णय लेती है।
    • इसका एक उदाहरण पुद्दुचेरी के मामले में देखा जा सकता है, जहाँ उपराज्यपाल और मंत्री परिषद के बीच चल रहे तनाव के लंबे समय से चिरस्थायी बने रहने के बाद मुख्यमंत्री ने राष्ट्रपति भवन पहुँचकर उपराज्यपाल को हटाने की मांग की।
    • इसी तरह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में अक्सर उपराज्यपाल के खिलाफ मंत्रियों द्वारा गैर-सहकारी संघवाद का रवैया अपनाने की शिकायतें सुनने को मिलती हैं।
  • अधिकार क्षेत्र की ओवरलैपिंग: संघ राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम, 1963 के तहत पुद्दुचेरी के लिये एक मंत्रिपरिषद के साथ विधानसभा की व्यवस्था की गई है। हालाँकि पुद्दुचेरी की विधानसभा को कानून बनाने का अधिकार है, परंतु पुद्दुचेरी का उपराज्यपाल, मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह को मानने के लिये बाध्य नहीं है।
    • इससे अधिकार क्षेत्र की ओवरलैपिंग होती है, जो केंद्र सरकार और केंद्रशासित प्रदेश की निर्वाचित सरकार के बीच संघर्ष का कारण बनता है।

आगे की राह:

  • सहकारी संघवाद का अनुसरण करना: ‘दिल्ली सरकार बनाम भारत संघ, 2019’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने कहा था कि प्रशासक (उपराज्यपाल) को केंद्रशासित प्रदेश की चुनी हुई सरकार के कामकाज को बाधित करने के लिये अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिये। साथ ही उसके और मंत्रिपरिषद के बीच के मतभेदों को दूर करने के सभी संभावित विकल्पों के विफल रहने के बाद ही इसका उपयोग किया जाना चाहिये।
    • हालाँकि सरकारों द्वारा इस निर्णय का पालन पूरी तरह नहीं किया गया है। अतः केंद्र सरकार और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों दोनों को सहकारी संघवाद के सिद्धांतों का अनुसरण करने की आवश्यकता है।
  • वाशिंगटन डीसी मॉडल पर विचार: भारत सरकार, केंद्र सरकार और केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों के बीच सत्ता के प्रशासनिक बँटवारे के मॉडल का अनुकरण कर सकती है।
    • वाशिंगटन डीसी में लागू इस मॉडल के तहत केवल सामरिक रूप से महत्त्वपूर्ण क्षेत्र और इमारतें ही संघीय सरकार के प्रभावी नियंत्रण में रहती हैं तथा शेष क्षेत्र के प्रशासन का अधिकार वाशिंगटन राज्य के पास है।
    • इसे देखते हुए राजनीतिक संस्थानों, रक्षा प्रतिष्ठानों आदि जैसे सामरिक महत्त्व के संस्थान केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र में रह सकते हैं और इनके अलावा अन्य क्षेत्रों को प्रभावी रूप से केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों को सौंपा जा सकता है।
  • आवश्यक सुधार: केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों हेतु प्रभावी स्वायत्तता सुनिश्चित करने के लिये कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की आवश्यकता है।

निष्कर्ष: केंद्र सरकार को उन तर्कों/कारकों का सम्मान करना चाहिये जिनके आधार पर देश के कुछ केंद्रशासित प्रदेशों को एक विधायिका और मंत्रिपरिषद प्रदान करने के लिये उपयुक्त माना गया था। इसका एक प्रत्यक्ष कारण इन प्रदेशों में रह रहे लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को पूरा करना है।

इस संदर्भ में केंद्र सरकार को सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी पर ध्यान देना चाहिये, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि केंद्रशासित प्रदेशों का प्रशासन केंद्र सरकार द्वारा संचालित किया जाता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि केंद्रशासित प्रदेशों का केंद्र सरकार में विलय हो जाए। वे केंद्र द्वारा प्रशासित होते हैं परंतु अपने आप में एक स्वतंत्र इकाई भी हैं।

अभ्यास प्रश्न: ऐसे केंद्रशासित प्रदेश जिनकी अपनी विधानसभा हो, उनमें केंद्रीय प्रशासक (जैसे-उपराज्यपाल) को पूर्ण प्रशासनिक नियंत्रण की शक्ति देना प्रशासन का व्यावहारिक मॉडल नहीं है। टिप्पणी कीजिये।


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