एडिटोरियल (26 Feb, 2020)



संवैधानिक अधिकार और कर्त्तव्यों की व्यवस्था

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में संवैधानिक अधिकार और कर्त्तव्यों की व्यवस्था पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

किसी भी लोकतांत्रिक देश की संवैधानिक व्यवस्था में नागरिकों और व्यक्तियों के सर्वांगीण विकास के लिये कुछ मूलभूत अधिकारों की व्यवस्था की गई है। स्वतंत्रता से पूर्व औपनिवेशिक शासन के दौरान भारतीय लोगों के साथ किया गया अमानवीय व्यवहार, भारत में जातिगत व्यवस्था के अंतर्गत व्याप्त भेदभाव तथा स्वतंत्रता के दौरान होने वाले धार्मिक दंगों ने मानवीय गरिमा को छिन्न-भिन्न कर दिया था। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगा था। ऐसी स्थिति में संविधान निर्माताओं के समक्ष देश की एकता-अखंडता, मानवीय गरिमा को स्थापित करने तथा लोगों में परस्पर विश्वास बहाल करने की चुनौती थी। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए संविधान निर्माताओं ने सार्वभौमिक अधिकारों की व्यवस्था की। संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से 35 तक उपलब्ध अधिकारों को मूल अधिकारों की संज्ञा दी गई।

प्रारंभ में संविधान के अंतर्गत नागरिकों के लिये मूल कर्त्तव्यों की व्यवस्था नहीं की गई थी, परंतु समय के साथ समाज में असामाजिक व देश विरोधी तत्त्वों की गतिविधियों में वृद्धि हुई, परिणामस्वरूप ऐसी गतिविधियों के प्रति नागरिकों को जागरूक करने तथा उनमें कर्त्तव्यबोध की भावना का प्रसार करने के लिये वर्ष 1976 में संविधान के भाग-4 क में अनुच्छेद-51 क के अंतर्गत मूल कर्त्तव्यों की व्यवस्था की गई। हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन-2020 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने मूल कर्त्तव्यों पर सभी का ध्यान आकर्षित किया और इस विषय को चर्चा के केंद्र में ला दिया।

मूल अधिकार से तात्पर्य

  • मूल अधिकारों से तात्पर्य राजनीतिक लोकतंत्र के आदर्शों की उन्नति से है। ये अधिकार देश में व्यवस्था बनाए रखने के साथ ही राज्य के कठोर नियमों के विरुद्ध नागरिकों को स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। ये विधानमंडल द्वारा पारित कानून के क्रियान्वयन पर तानाशाही को मर्यादित करते हैं। इनके प्रावधानों का उद्देश्य कानून का राज स्थापित करना है न कि व्यक्तियों का।
  • संविधान द्वारा बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक व्यक्ति के लिये मूल अधिकारों की गारंटी दी गई है। इनमे प्रत्येक व्यक्ति के लिये समानता, सम्मान, राष्ट्रहित और राष्ट्रीय एकता को समाहित किया गया है।
  • ये विधि के मूल सिद्धांत हैं। ये ‘मूल’ इसलिये भी हैं क्योंकि व्यक्ति के चहुंमुखी विकास (भौतिक, बौद्धिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक) के लिये आवश्यक है।

संविधान में प्रदत्त मूल अधिकार

  • समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
  • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
  • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
  • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)

मूल अधिकारों की विशेषताएँ

  • मूल अधिकार वाद योग्य हैं। राज्य उन पर युक्तियुक्त प्रतिबंध लगा सकता है। हालाँकि प्रतिबंधों के औचित्य का निर्धारण न्यायालय द्वारा ही किया जाता है।
  • ये सरकार के एकपक्षीय निर्णय के विरुद्ध उपलब्ध हैं। हालाँकि उनमें से कुछ निजी व्यक्तियों के विरुद्ध भी उपलब्ध हैं।
  • इनमें से कुछ नकारात्मक विशेषताओं वाले होते हैं, जैसे-राज्य के प्राधिकार को सीमित करने से संबंधित, जबकि कुछ सकारात्मक होते हैं, जैसे-व्यक्तियों के लिये विशेष सुविधाओं का प्रावधान।
  • ये स्थायी नहीं हैं। संसद संविधान संशोधन के माध्यम से इनमें कटौती या कमी कर सकती है।
  • राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20 व 21 को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है।
  • इन्हें सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गारंटी व सुरक्षा प्रदान की जाती है।

मूल अधिकारों का महत्त्व

  • ये देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करते हैं।
  • ये वैयक्तिक स्वतंत्रता के रक्षक हैं।
  • देश में विधि के शासन की व्यवस्था करते हैं।
  • सामाजिक समानता एवं सामाजिक न्याय की आधारशिला रखते हैं।
  • ये अल्पसंख्यकों एवं समाज के कमज़ोर वर्गों के हितों की रक्षा करते हैं।

आलोचना के बिंदु

  • मूल अधिकार असंख्य अपवादों, प्रतिबंधों एवं व्याख्याओं के विषय हैं।
  • इसमें मुख्यतः राजनीतिक अधिकारों का उल्लेख है, सामाजिक-आर्थिक अधिकारों की व्यवस्था का अभाव है क्योंकि सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, काम पाने का अधिकार, विश्राम एवं सुविधा का अधिकार जैसे उपबंध सम्मिलित नहीं हैं।
  • इनकी व्याख्या अस्पष्ट, अनिश्चित एवं धुंधली है। जैसे-लोक व्यवस्था, अल्पसंख्यक, उचित प्रतिबंध और सार्वजनिक हित आदि शब्दों की व्याख्या अस्पष्ट है।
  • मूल अधिकारों में स्थायित्व का अभाव है। संसद इनमें कटौती या कमी कर सकती है।
  • आलोचकों का मत है कि निवारक निरोध का उपबंध मूल अधिकारों की मुख्य भावना से इसे दूर करता है। यह राज्य को मनमानी शक्ति प्रदान करता है।
  • मूल अधिकारों के क्रियान्वयन में आम नागरिक को महँगी न्यायिक प्रक्रिया का सामना करना पड़ता है।

वस्तुतः अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन-2020 में अधिकारों और कर्त्तव्यों के विषय पर चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का भी मत था कि लोगों द्वारा कर्त्तव्यों का निर्वाह किये बिना सिर्फ अधिकारों की मांग करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। मूल कर्त्तव्य नागरिकों को नैतिक उत्तरदायित्व का बोध भी कराते हैं। अधिकार एवं कर्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वर्ष 1976 में सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा मूल कर्त्तव्यों की व्यवस्था की गई।

42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम

  • इसे लघु संविधान के रूप में जाना जाता है। इसके तहत मौलिक कर्तव्यों के अलावा कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गए थे जो निम्नलिखित हैं-
    • इस संशोधन के अंतर्गत भारतीय संविधान में ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता’ जैसे तीन नए शब्द जोड़े गए।
    • इसमें राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह को मानने के लिये बाध्य का किया गया।
    • इसके तहत संवैधानिक संशोधन को न्यायिक प्रक्रिया से बाहर कर नीति निर्देशक तत्त्वों को व्यापक बनाया गया।
    • शिक्षा, वन, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, नाप-तौल और न्याय प्रशासन तथा उच्चतम और उच्च न्यायालय के अलावा सभी न्यायालयों के गठन और संगठन के विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया।

मूल कर्त्तव्य से तात्पर्य

  • मूल कर्त्तव्य राज्य और नागरिकों के मध्य एक सामाजिक अनुबंध है। जो किसी देश के संविधान द्वारा वैधता प्राप्त करता है।
  • अधिकारों के सापेक्ष यह भी महत्त्वपूर्ण है कि सभी नागरिक समाज और राज्य के प्रति अपने दायित्वों के निर्वहन के संदर्भ में ईमानदार रहें।
  • कौटिल्य रचित अर्थशास्त्र में भी राज्य के प्रति नागरिकों के कर्त्तव्यों का उल्लेख मिलता है।

मूल कर्त्तव्यों की सूची

  • संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करें।
  • स्वतंत्रता के लिये राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखें और उनका पालन करें।
  • भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें तथा उसे अक्षुण्ण रखें।
  • देश की रक्षा करें और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करें।
  • भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।
  • हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझें और उसका परिरक्षण करें।
  • प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्यजीव आते हैं, की रक्षा करें और संवर्द्धन करें तथा प्राणीमात्र के लिये दया भाव रखें।
  • वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।
  • सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।
  • व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र प्रगति की ओर निरंतर बढ़ते हुए उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले।
  • 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बीच के अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना। यह कर्त्तव्य 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा जोड़ा गया।

मूल कर्त्तव्यों की विशेषताएँ

  • मौलिक कर्त्तव्यों के तहत नैतिक और नागरिक दोनों ही प्रकार के कर्त्तव्य शामिल किये गए हैं। उदाहरण के लिये ‘स्वतंत्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों का पालन करना’ एक नैतिक कर्त्तव्य है, जबकि ‘संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रीय गान का आदर करना’ एक नागरिक कर्त्तव्य है।
  • ये मूल्य भारतीय परंपरा, पौराणिक कथाओं, धर्म एवं पद्धतियों से संबंधित हैं।
  • गौरतलब है कि कुछ मौलिक अधिकार भारतीय नागरिकों के साथ-साथ विदेशी नागरिकों को प्राप्त हैं, परंतु मौलिक कर्त्तव्य केवल भारतीय नागरिकों पर ही लागू होते हैं।
  • विधान के अनुसार मौलिक कर्तव्य गैर-न्यायोचित या गैर-प्रवर्तनीय होते हैं अर्थात् उनके उल्लंघन के मामले में सरकार द्वारा कोई कानूनी प्रतिबंध लागू नहीं किया जा सकता है।

मूल कर्त्तव्यों का महत्त्व

  • ये असामाजिक गतिविधियों जैसे- झंडा जलाना, सार्वजनिक संपत्ति को नष्ट करना या सार्वजनिक शांति को भंग करना आदि के विरुद्ध लोगों के लिये एक चेतावनी के रूप में कार्य करते हैं।
  • मूल कर्त्तव्य नागरिकों के लिये प्रेरणास्रोत हैं, उनमें अनुशासन और प्रतिबद्धता को बढ़ाते हैं। वे इस सोच को उत्पन्न करते हैं कि नागरिक केवल मूक दर्शक नहीं हैं बल्कि राष्ट्रीय लक्ष्य की प्राप्ति में सक्रिय भागीदार हैं।
  • अपने अधिकारों का प्रयोग करते समय ये नागरिकों को अपने देश के प्रति कर्त्तव्य की याद दिलाते हैं। नागरिकों को अपने देश, समाज और साथी नागरिकों के प्रति अपने कर्त्तव्यों के संबंध में भी जानकारी रखनी चाहिये।

मूल कर्त्तव्यों की आलोचना

  • मौलिक कर्त्तव्यों की सूची पूर्ण नहीं हैं क्योंकि इसमें कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे- मतदान, कर अदायगी और परिवार नियोजन आदि को शामिल नहीं किया गया है।
  • मौलिक कर्त्तव्यों को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है। एक आम नागरिक के लिये मौलिक कर्त्तव्यों में मौजूद जटिल शब्दों जैसे समग्र संस्कृति, उच्च आदर्श तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि को समझना कठिन है।
  • इन कर्त्तव्यों को कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता और इसलिये आलोचक मानते हैं कि संविधान में इनके होने का कोई विशेष महत्त्व नहीं है।
  • संविधान के भाग 4 में इन्हें शामिल करना, मूल कर्त्तव्यों के मूल्य व महत्व को कम करती है। मूल कर्त्तव्यों को भाग 3 के बाद जोड़ा जाना चाहिये था, ताकि वे मूल अधिकारों के समकक्ष रहते।

मूल अधिकार और कर्त्तव्य एक-दूसरे के पूरक

  • जहाँ एक ओर नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क परिवहन जैसी सुविधाओं के उपयोग का अधिकार प्राप्त है, तो वहीं दूसरी ओर उनके बेहतर रखरखाव का कर्त्तव्य भी आरोपित है।
  • यदि संविधान में शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार प्राप्त है तो सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान न पहुँचाने का कर्त्तव्य भी उल्लिखित है।
  • संविधान में गरिमामयी जीवन जीने का अधिकार प्राप्त है तो इसे मूर्त रूप देने के लिये पर्यावरण के संरक्षण का दायित्व भी है।
  • जहाँ एक ओर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करना मौलिक अधिकार है तो वहीं दूसरी ओर अभिभावकों का मौलिक कर्त्तव्य भी है कि वे अपने पाल्यों को प्राथमिक शिक्षा दिलवाएँ।
  • यदि संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है तो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करने का दायित्व भी है।
  • जहाँ एक ओर धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है, तो वहीं दूसरी ओर सर्वधर्म समभाव और संस्कृति की गौरवशाली परंपरा के परिरक्षण का भी दायित्व है।
  • जहाँ एक ओर हमें सूचना पाने का अधिकार प्राप्त है तो वहीं दूसरी ओर असामाजिक व देशविरोधी तत्त्वों के बारे में जाँच एजेंसियों को सूचना उपलब्ध कराने का कर्त्तव्य भी निहित है।

निष्कर्ष

अधिकारों से अभिप्राय है कि मनुष्य को कुछ स्वतंत्रताएँ प्राप्त होनी चाहिये, जबकि कर्त्तव्यों से तात्त्पर्य है कि व्यक्ति पर समाज के कुछ ऋण हैं। समाज का उद्देश्य किसी एक व्यक्ति का विकास न होकर सभी मनुष्यों के व्यक्तित्व का समुचित विकास है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार के साथ कुछ कर्त्तव्य जुड़े हुए हैं जिन्हें पूर्ण करने के लिये प्रत्येक व्यक्ति को अपना उत्तरदायित्व समझना चाहिये। मौलिक अधिकार जहाँ हमें देश में कहीं भी स्वतंत्र रूप से रहने-बसने की स्वतंत्रता देते हैं तो वहीं मौलिक कर्त्तव्य हमें देश के प्रति हमारे दायित्व को निभाने का आदेश देते हैं।

प्रश्न: भारतीय संविधान में मूल अधिकारों तथा मूल कर्त्तव्यों की उपस्थिति एक संतुलनकारी समन्वय है। टिप्पणी करें।