एडिटोरियल (24 Aug, 2021)



जलवायु परिवर्तन और बड़े व्यवसाय

यह एडिटोरियल दिनांक 23/08/2021 को ‘द हिंदू बिजनेस लाइन’ में प्रकाशित लेख ‘‘Getting businesses to act on climate change’’ पर आधारित है। इसमें जलवायु परिवर्तन के विषयों में व्यवसायों की भूमिका और आगे की राह के संबंध में विचार किया गया है।

IPCC की नवीनतम रिपोर्ट ने "मानवता के लिये कोड रेड चेतावनी" (a code red warning to humanity) जारी की गई है। इसका मुख्य संदेश यह है कि पृथ्वी की स्थिति तेज़ी से बिगड़ रही है, जलवायु परिवर्तन के असर से बच सकना असंभव है और ऐसा मानव हस्तक्षेप (human influence) के कारण हो रहा है।    

जबकि रिपोर्ट ने ग्रीष्म लहर, भारी वर्षा, बाढ़, सूखा और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाओं के बारे में चेतावनी दी है, जिनमें से कई पहले से ही विश्व भर में और भारत में असर दिखा रहे हैं। इसमें यह भी कहा गया है कि हम वर्ष 2040 तक ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित कर सकते हैं। यदि हम ऐसा करते हैं तो विश्व में हो रहे परिवर्तनों को धीमा किया जा सकता है और यहाँ तक कि स्थिति के अधिक बिगड़ने पर रोक भी लग सकती है।

इस चेतावनी के मद्देनज़र भारत को अपने जलवायु शमन प्रयासों पर पुनर्विचार करना चाहिये और उनमें कई गुना तेज़ी लाना चाहिये, यदि वह वास्तव में अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDC) के लक्ष्यों की पूर्ति की इच्छा रखता है।  

हालाँकि, IPCC की रिपोर्ट विशुद्ध रूप से विज्ञान-आधारित है और इसमें कारोबारों की भूमिका के संबंध में कुछ भी नहीं कहा गया है। कारोबार चाहे बड़े हों या छोटे, इस प्रक्रिया में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। उत्सर्जन में कमी और शुद्ध शून्य लक्ष्यों की दिशा में प्रयास कर वे न केवल अपने स्वयं के लक्ष्यों की प्राप्ति के निकट पहुँच सकते हैं बल्कि राष्ट्रीय लक्ष्यों में भी योगदान कर सकते हैं।

कार्बन उत्सर्जन में व्यवसायों की भागीदारी 

  • विश्व के तेल, गैस और कोयला भंडारों के अथक दोहन में संलग्न 20 जीवाश्म ईंधन कंपनियाँ वर्तमान युग में समग्र ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के एक तिहाई से अधिक से प्रत्यक्ष रूप से संलग्न हो सकती हैं।
  • एक अन्य अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1988 से विश्व के दो-तिहाई से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का स्रोत 100 कंपनियाँ रही हैं।

भारत की प्रतिबद्धता

  • अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताएँ: अपनी पेरिस प्रतिबद्धता की पूर्ति के लिये भारत को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि वर्ष 2030 तक उसने कुछ उपाय कर लिये हैं। इनमें शामिल हैं:   
    • गैर-जीवाश्म ऊर्जा स्रोतों से अपनी संचयी विद्युत उत्पादन संस्थापित क्षमता को 40% तक बढ़ाना। 
    • अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर की तुलना में 33-35 प्रतिशत कम करना।
    • अतिरिक्त वन और वृक्ष आवरण के माध्यम से 2.5-3 बिलियन टन के अतिरिक्त कार्बन सिंक का निर्माण करना।
  • इन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के अलावा, सरकार ने अक्षय ऊर्जा, वायु गुणवत्ता और अन्य विषयों में महत्त्वाकांक्षी घरेलू लक्ष्य भी निर्धारित किये हैं।

व्यवसायों पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

  • जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में समाज, अर्थव्यवस्था और समुदायों को प्रभावित कर रहा है।
  • व्यवसायों को कई जोखिमों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें भौतिक जोखिम (Physical risks) भी शामिल हैं (जैसे चरम मौसम की घटनाओं का प्रभाव अथवा जल की कमी के कारण आपूर्ति की कमी)। 
  • व्यवसाय संक्रमण जोखिम (Transition risks) का भी सामना करते हैं जो जलवायु परिवर्तन के प्रति समाज की प्रतिक्रिया से उत्पन्न होते हैं।   
  • व्यावसायिक गतिविधियों के कारण ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन हेतु संभावित दायित्व का निर्माण होता है। 
  • जलवायु परिवर्तन ने नए ‘मटेरियल’ जोखिम (material risks) भी पैदा किया है और व्यवसायों के लिये प्रतिष्ठा जोखिम (reputational risks) बढ़ा दिया है। 
    • इसके अलावा, वित्त तक पहुँच तेज़ी से कंपनियों के जलवायु संबंधी जोखिमों से संबद्ध होती जा रही है।

आगे की राह

  • क्षेत्र-वार उत्सर्जन में कमी: यदि भारत को उद्योग क्षेत्र को व्यवस्थित रूप से संलग्न करना है, तो इसका सबसे अच्छा तरीका यह होगा कि वह क्षेत्र-वार उत्सर्जन में कमी के लिये आगे बढ़े।  
    • अगर इसे कुशलतापूर्वक लागू किया जाए तो आधी जंग यहीं जीत ली जाएगी।
    • लेकिन इसके लिये सरकार और उद्योग दोनों को सक्रियता से और परोपकारी उत्साह से कार्य करना होगा।
    • यद्यपि इस उपाय से प्राप्त लाभ दूरगामी, व्यापक और दीर्घावधिक होने चाहिये।
  • पर्यावरण मंज़ूरी अधिक विवेकपूर्ण तरीके से और केवल उन्हीं परियोजनाओं को दी जानी चाहिये जो राष्ट्रीय संदर्भ में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।  
    • पर्यावरण और आदिवासी समुदाय (जो हमारे वनों के संरक्षक हैं) पर प्रभाव का निर्धारण करते समय किसी ढील या शॉर्टकट की अनुमति नहीं दी जानी चाहिये।
    • व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये जंगलों को काटना और सिंथेटिक वनीकरण प्रयासों के माध्यम से इसकी भरपाई करना (जो केवल कागज पर अच्छे लगते हैं) वस्तुतः जंगलों का सफाया कर देगा।
  • श्रमबल का प्रबंधन: कोयला-संचालित बिजली संयंत्रों से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण एक दीर्घावधिक प्रक्रिया है और इसमें 200 लाख से अधिक कार्यबल का विस्थापन होगा।  
    • उसी कार्यबल को अक्षय ऊर्जा और पर्यावरण पुनर्जनन परियोजनाओं के लिये नियोजित किया जा सकता है।
    • यदि कोयला खनन गतिविधि को कम करने की प्रक्रिया में संलग्न लोगों की आजीविका की रक्षा नहीं की गई तो यह एक सामाजिक-आर्थिक संकट को जन्म देगा।
  • वैश्विक सहयोग: सीमेंट और कंक्रीट क्षेत्रों के सतत् विकास में तेज़ी लाने के लिये ऊर्जा और संसाधन संस्थान (The Energy and Resources Institute- TERI) तथा ‘ग्लोबल सीमेंट एंड कंक्रीट एसोसिएशन’ (GCCA) के बीच एक समझौता ज्ञापन सही दिशा में बढ़ाया गया कदम है।  
    • इसी प्रकार रियल एस्टेट, बिजली, ऑटोमोबाइल, विमानन, तेल, गैस, इस्पात और आईटी जैसे क्षेत्रों का बारीकी से अध्ययन किया जा सकता है और उनके उत्सर्जन को क्षेत्र-वार कम करने के लिये पर्याप्त प्रोत्साहन दिया जा सकता है।
    • इससे हमें राष्ट्रीय लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिलेगी और साथ ही विश्व को इसकी शुद्ध शून्य महत्त्वाकांक्षा के निकट लाने में मदद मिलेगी।
  • राज्य सरकारों तथा स्थानीय स्वशासन को भी उत्सर्जन में कमी और जैव विविधता में वृद्धि के लिये ‘थिंक ग्लोबल, एक्ट लोकल’ के मंत्र पर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित और प्रोत्साहित करना होगा।  
    • सभी सरकारी नीतियों और कार्रवाइयों को इन लक्ष्यों तक पहुँचने की दिशा में निर्देशित किया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

हालाँकि कोयला, गैस और तेल कंपनियों ने अक्षय ऊर्जा, हाइड्रोजन और अन्य स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश की संभावनाओं का पता लगाना और इस पर विचार करना शुरू कर दिया है, लेकिन संक्रमण की गति मंद है क्योंकि वे अभी भी माँग-विकास अनुमानों को पूरा करने की दिशा में कार्यरत हैं। इसलिये सभी मोर्चों पर एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: यद्यपि IPCC रिपोर्ट विशुद्ध रूप से विज्ञान-आधारित है और व्यवसायों की भूमिका पर यह चुप है लेकिन यह एक ऐसा क्षेत्र है जो पेरिस समझौते के उद्देश्यों की पूर्ति में व्यापक सहयोग कर सकता है। चर्चा कीजिये।