आंतरिक सुरक्षा
परमाणु नीति
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में भारत की परमाणु नीति तथा परमाणु कार्यक्रम एवं नीति में परिवर्तन के परिणामों की भी चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की प्रथम पुण्यतिथि पर वर्तमान रक्षा मंत्री द्वारा दिये गए एक वक्तव्य ने भारत की परमाणु नीति को फिर से चर्चा का विषय बना है। ध्यातव्य है कि बाजपेयी सरकार में ही वर्ष 2003 में सर्वप्रथम परमाणु नीति को अमलीज़ामा पहनाया गया था। रक्षा मंत्री के अनुसार, भारत ने पहले हमला न करने की परमाणु नीति (No First Use-NFU) का अच्छी तरह से पालन किया है किंतु भविष्य में इस नीति में क्या बदलाव होता है यह परिस्थितियों पर निर्भर करेगा। ध्यान देने योग्य है कि वर्ष 2014 के आम चुनाव में भारत की परमाणु नीति चर्चा में रही थी, हालाँकि अब तक इस नीति में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं किया गया है।
भारत की परमाणु नीति
वर्ष 1998 में पोखरण में दूसरे परमाणु परीक्षण के पश्चात् भारत ने स्वयं को परमाणु क्षमता संपन्न देश घोषित कर दिया, इसके साथ ही एक परमाणु नीति की आवश्यकता महसूस की गई। वर्ष 1999 में परमाणु नीति का ड्राफ्ट प्रस्तुत किया गया तथा इसके तीन वर्ष से भी अधिक समय पश्चात् सुरक्षा पर कैबिनेट समिति (CCS) ने परमाणु नीति की घोषणा की। इस नीति में सुरक्षा के लिये न्यूनतम परमाणु क्षमता के विकास की बात कही गई। भारत की परमाणु नीति का आधार 'नो फर्स्ट यूज़' यानी परमाणु अस्त्रों का पहले उपयोग नहीं करना रहा है, लेकिन हमला होने की स्थिति में कड़ा जवाब दिया जाएगा। भारत किसी दूसरे परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र के खिलाफ अपने परमाणु हथियारों का पहला इस्तेमाल कब करेगा, इसको लेकर पूर्ण स्पष्टता नहीं है।
भारत का परमाणु कार्यक्रम
स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर भारत में होमी जहाँगीर भाभा के नेतृत्त्व में परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत की गई। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू परमाणु के सैन्य उपयोग के पक्षधर नहीं थे, अतः आरंभ में परमाणु कार्यक्रम को सिर्फ असैन्य उपयोग तक ही सीमित रखा गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् धीरे-धीरे अमेरिका, ब्रिटेन, रूस तथा फ्राँस ने परमाणु शक्ति हासिल कर ली। वर्ष 1962 में चीन के साथ युद्ध, वर्ष 1964 में चीन द्वारा परमाणु परीक्षण तथा वर्ष 1965 में पाकिस्तान से युद्ध आदि घटनाक्रम के पश्चात् भारत को अपनी नीति में बदलाव के लिये विवश होना पड़ा। इस नीति में बदलाव के साथ भारत ने पोखरण में वर्ष 1974 में प्रथम परमाणु परीक्षण किया। यह परीक्षण इसलिये भी आवश्यक था कि वर्ष 1965 के पश्चात् ऐसे देश जो परमाणु शक्ति संपन्न थे, उनको छोड़कर किसी अन्य को परमाणु क्षमता हासिल करने पर रोक लगा दी गई। इस भेदभावपूर्ण नीति का भारत द्वारा विरोध किया गया क्योंकि कुछ शक्तिशाली देशों को ही परमाणु क्षमता के योग्य माना गया तथा अन्य देशों पर निर्योग्यताएँ थोप दी गईं। भारत का मानना था कि यह भेदभाव समाप्त होना चाहिये तथा विश्व को निरस्त्रीकरण की ओर बढ़ना चाहिये। किंतु वर्ष 1968 में विभिन्न देशों पर परमाणु अप्रसार संधि (NPT) थोप दी गई, हालाँकि भारत ने इस संधि पर अभी तक हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
भारत का परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम
विश्व परमाणु उद्योग स्थिति रिपोर्ट (World Nuclear Industry Status Report) 2017 से पता चलता है कि स्थापित किये गए परमाणु रिएक्टरों की संख्या के मामले में भारत का विश्व में तीसरा स्थान है। भारत अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के तहत वर्ष 2024 तक 14.6 गीगावाट बिजली का उत्पादन करेगा, जबकि वर्ष 2032 तक बिजली उत्पादन की यह क्षमता 63 गीगावाट हो जाएगी। फिलहाल भारत में 21 परमाणु रिएक्टर सक्रिय हैं, जिनसे लगभग 7 हज़ार मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है। इनके अलावा 11 अन्य रिएक्टरों पर विभिन्न चरणों में काम चल रहा है और इनके सक्रिय होने के बाद 8 हज़ार मेगावाट अतिरिक्त बिजली का उत्पादन होने लगेगा। चूँकि भारत अपने हथियार कार्यक्रम के कारण परमाणु अप्रसार संधि में शामिल नहीं है। अतः 34 वर्षों तक इसके परमाणु संयंत्रों अथवा पदार्थों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, जिस कारण यह वर्ष 2009 तक अपनी सिविल परमाणु ऊर्जा का विकास नहीं कर सका। पूर्व के व्यापार प्रतिबंधों और स्वदेशी यूरेनियम के अभाव में भारत थोरियम के भंडारों से लाभ प्राप्त करने के लिये परमाणु ईंधन चक्र का विकास कर रहा है। भारत का प्राथमिक ऊर्जा उपभोग वर्ष 1990 से वर्ष 2011 के मध्य दोगुना हो गया था।
परमाणु अप्रसार संधि
(Nuclear Non-Proliferation Treaty-NPT)
- इस संधि पर वर्ष 1968 में हस्ताक्षर किये गए तथा वर्ष 1970 यह प्रभाव में आई। वर्तमान में इसके 190 हस्ताक्षरकर्त्ता सदस्य हैं। इस संधि के अनुसार कोई भी देश न वर्तमान में और न ही भविष्य में परमाणु हथियारों का निर्माण करेगा। हालाँकि सदस्य देशों को परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग की अनुमति होगी।
- इस संधि के तीन प्रमुख लक्ष्य हैं: परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकना, निरस्त्रीकरण को प्रोत्साहित करना तथा परमाणु तकनीक के शांतिपूर्ण उपयोग के अधिकार को सुनिश्चित करना।
- भारत उन पाँच देशों में शामिल है जिन्होंने या तो संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं अथवा बाद में इस संधि से बाहर हो गए हैं। भारत के अतिरिक्त इसमें पाकिस्तान, इजराइल, उत्तर कोरिया तथा दक्षिण सूडान शामिल हैं।
- भारत का विचार है कि NPT संधि भेदभावपूर्ण है अतः इस में शामिल होना उचित नहीं है। भारत का तर्क है कि यह संधि सिर्फ पाँच शक्तियों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन और फ्राँस) को परमाणु क्षमता का एकाधिकार प्रदान करती है तथा अन्य देश जो परमाणु शक्ति संपन्न नहीं हैं सिर्फ उन्हीं पर लागू होती है।
व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि
(The Comprehensive Nuclear-Test-Ban Treaty- CTBT)
CTBT संधि सभी प्रकार के परमाणु हथियारों के परीक्षण एवं उपयोग को प्रतिबंधित करती है। यह संधि जिनेवा के निरस्त्रीकरण सम्मेलन के पश्चात् प्रकाश में आई। इस संधि पर वर्ष 1996 में हस्ताक्षर किये गए। अब तक इस संधि पर 184 देश हस्ताक्षर कर चुके हैं।
नो फर्स्ट यूज़ नीति (No First Use Doctrine) की प्रासंगिकता
चीन ने परमाणु परीक्षण के पश्चात् विश्व में सर्वप्रथम नो फर्स्ट यूज़ की नीति की घोषणा की थी। इसके बाद भारत ने वर्ष 2003 में इसी प्रकार की नीति की घोषणा की। भारत एवं चीन के अतिरिक्त किसी भी परमाणु संपन्न देश ने इस नीति को नहीं अपनाया। हालाँकि रूस ओर अमेरिका सुरक्षा के लिये इसके उपयोग की बात करते रहे हैं।
इस नीति का विरोध करते हुए तर्क दिया जाता है कि इससे पारंपरिक युद्ध एवं हथियारों की दौड़ में वृद्धि होगी। साथ ही यदि ऐसा देश जिसकी नीति NFU की नहीं है, हमला करता है तो इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि अन्य देश हमले का जवाब देने की स्थिति में हों। अतः इस नीति को व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। वहीं इस नीति के पक्षधरों का मानना है कि फर्स्ट यूज़ की नीति परमाणु हथियारों की दौड़ को तेज कर देती है तथा विभिन्न देशों के मध्य अविश्वास में वृद्धि कर सकती है। साथ ही फर्स्ट यूज़ की नीति ऐसे देशों के लिये कारगर नहीं हो सकती जो फर्स्ट स्ट्राइक में पूर्णतः सक्षम न हों। इसके अतिरिक्त फर्स्ट यूज़ की नीति परमाणु हथियारों के साथ-साथ अन्य प्रकार की क्षमताओं के निर्माण में भी खर्च को बढ़ाती है।
नो फर्स्ट यूज़ नीति के लाभ
भारत द्वारा वर्ष 1974 तथा वर्ष 1998 में परमाणु परीक्षण किये गए। इन परीक्षणों के पश्चात् भारत को अत्यधिक आलोचना एवं प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा। लेकिन भारत ने वर्ष 2003 में नो फर्स्ट यूज़ की नीति को अपना लिया तथा विभिन्न मौकों पर इस नीति का पालन भी किया। कारगिल युद्ध में कयास लगाया जा रहा था कि यह युद्ध परमाणु संघर्ष में तब्दील हो जाएगा लेकिन भारत ने संयम दिखाते हुए पारंपरिक तरीके से ही युद्ध में विजय हासिल की। मौजूदा वक्त में परमाणु हथियारों को लेकर भारत की छवि एक ज़िम्मेदार राष्ट्र की बनी है तथा NTP पर हस्ताक्षर के बिना ही भारत MTCR (Missile Technology Control Regime), वासेनर अर्रेंजमेंट तथा ऑस्ट्रेलिया समूह का हिस्सा बन चुका है। इसके अतिरिक्त भारत NSG (Nuclear Supplier Group) की सदस्यता के लिये भी प्रयास कर रहा है। NSG समूह की सदस्यता सिर्फ उन्ही राष्ट्रों को मिल सकती है जो NPT के हस्ताक्षरकर्त्ता हैं। इसी आधार पर भारत की सदस्यता में चीन बाधा बन रहा है हालाँकि अन्य देशों के समर्थन से भारत का पक्ष सदस्यता के लिये मजबूत है। यह समूह विश्व में यूरेनियम की आपूर्ति को नियंत्रित करता है लेकिन NSG ने भारत को यूरेनियम आयात करने की छूट प्रदान की है ताकि भारत अपने असैन्य उपयोग के लिये यूरेनियम की प्राप्ति को सुनिश्चित कर सके।
भारत की नीति में परिवर्तन से जुड़े मुद्दे
भारत के रक्षा मंत्री के वक्तव्य के बाद यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले समय में भारत की परमाणु नीति में बदलाव देखने को मिल सकता है। अब तक की NFU नीति भारत के संदर्भ में उपयोगी साबित हुई है। यदि भारत इस नीति में परिवर्तन करता है तो अन्य वैश्विक समीकरणों को यदि कुछ समय के लिये छोड़ भी दिया जाए तो घरेलू स्तर पर आने वाली समस्याएँ चुनौती प्रस्तुत कर सकती हैं। अमेरिका जैसे देश फर्स्ट यूज़ की नीति का अनुकरण करते हैं लेकिन अमेरिका के पास ऐसे हथियार उपलब्ध हैं जिससे कुशलता पूर्वक स्ट्राइक की जा सकती है लेकिन भारत को इस प्रकार के उपकरण एवं बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना अभी शेष है। यह ध्यान देने योग्य है कि रक्षा क्षेत्र से संबंधित प्रौद्योगिकी अत्यधिक महँगी होती है एवं कोई भी देश ऐसी तकनीकी को किसी को नहीं देना चाहता। ऐसे में भारत की बजटीय क्षमता को देखते हुए इस प्रकार के बुनियादी ढाँचे एवं अत्याधुनिक उपकरणों का निर्माण आर्थिक रूप से व्यावहारिक नहीं है।
कई रिपोर्टों में खुलासा हुआ है कि पाकिस्तान लगातार अपनी परमाणु क्षमता में इज़ाफा कर रहा है तथा उसके पास वर्तमान में भारत से भी अधिक परमाणु हथियार मौजूद हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत का दूसरा पड़ोसी चीन भी परमाणु शक्ति संपन्न हैं। ऐसे में भारत की नीति में परिवर्तन इस क्षेत्र में परमाणु हथियारों की दौड़ को तीव्र कर देगी।
भारत और पाकिस्तान आपसी संबंधों के मामले में पहले ही कड़वाहट के दौर से गुज़र रहे हैं तथा चीन के साथ भी भारत के संबंध उतार-चढ़ाव वाले रहे हैं। इसके साथ ही इन देशों के साथ भारत का युद्ध का इतिहास भी रहा है। ऐसे में भारत की परमाणु नीति में बदलाव युद्ध एवं सैनिक संघर्ष के समय पहले से ही मौजूद विश्वास की कमी को और बढ़ाएगा, साथ ही यह भी संभव है कि इस प्रकार के सैनिक संघर्ष परमाणु युद्ध में तब्दील हो जाए।
चीन हमेशा भारत के मामलों में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अड़ंगा लगाता रहा है। चीन पहले ही भारत के NPT में शामिल न होने के कारण NSG में भारतीय सदस्यता का विरोध कर रहा है। भारत संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता की मांग करता रहा है यदि भारत अपनी परमाणु नीति में बदलाव करता है तो चीन के लिये यह स्थिति एक अवसर के समान होगी जिसका उपयोग वह भारत की UNSC में स्थायी सदस्यता का विरोध करने में कर सकता है।
निष्कर्ष
एक वर्ष पूर्व भारत की बैलिस्टिक मिसाइल क्षमता वाली परमाणु पनडुब्बी INS अरिहंत ने अपना पहला अभियान पूरा किया। इस अभियान के पूरे होने के साथ ही भारत उन देशों की कतार में शामिल हो गया जिनके पास परमाणु ट्राइडेंट मौजूद है। इस उपलक्ष्य में भारत के प्रधानमंत्री ने अपनी परमाणु प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि नो फर्स्ट यूज़ भारत की परमाणु नीति का अखंड भाग है। लेकिन कुछ समय पूर्व दिये गए रक्षा मंत्री के बयान ने परमाणु नीति पर दोबारा बहस छेड़ दी है। परमाणु नीति का निर्माण कई वर्षों के विश्लेषण एवं मूल्यांकन के पश्चात् ही किया गया था। ऐसे में यदि सरकार इस नीति में कोई भी बदलाव करना चाहती है तो नीति में बदलाव से पूर्व इसके प्रभावों एवं परिणामों का गहन मूल्यांकन आवश्यक है। साथ ही सरकार को उपरोक्त बयान के पश्चात् नीति को दोबारा स्पष्ट करना चाहिये, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अस्पष्टता कई बार गंभीर परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं।
प्रश्न: भारत की परमाणु नीति की चर्चा कीजिये। यदि इस नीति में बदलाव किये जाते हैं तो आपके विचार में उसके क्या परिणाम होंगे?