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एडिटोरियल

  • 24 Jul, 2019
  • 15 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

उद्योगों को राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली की आवश्यकता

इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में भारत में नवाचार प्रणाली की चर्चा की गई है, इसमें विनिर्माण क्षेत्र में इसकी आवश्यकता एवं नवाचार प्रणाली में मौजूद चुनौतियों का भी उल्लेख किया गया है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी आर्थिक सुधारों के लागू होने के बावजूद वर्ष 1991 से ही 16 प्रतिशत पर स्थिर है। डिज़ाइन (Design Capability) और नवाचारों को प्रोत्साहित व संचालित करने वाली संस्थागत प्रणाली के बिना कोई भी देश एक महत्त्वपूर्ण विनिर्माण शक्ति नहीं बन सकता। भारत को एक ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है जो उद्यम के स्तर पर और साथ-ही-साथ राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय व तकनीकी क्षमता का विकास करे। व्यापक औद्योगिक नीति के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण आयाम उद्यमों में डिज़ाइन क्षमता का निर्माण करना बना रहेगा। जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ (Joseph Stiglitz) के शब्दों में कहें तो ‘आप हमेशा कार्यकरण से ही सीखते हैं (Learning by Doing) क्योंकि अधिकांश उत्पादों में प्रौद्योगिकी उत्पाद निर्माण की प्रक्रिया तथा उत्पाद के विभिन्न हिस्सों में समाहित होती है, साथ ही निर्माण की प्रक्रिया में उपयोग होने वाले उपकरणों एवं साधनों में छुपी होती है।

भारतीय अर्थशास्त्रियों और आयातकों द्वारा प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि किसी क्षेत्र के विकास के लिये सर्वोत्कृष्ट और न्यूनतम मूल्य के इनपुट की आपूर्ति होनी चाहिये। किंतु इस दृष्टिकोण को अदूरदर्शी माना जा सकता है। घरेलू उद्योगों में सभी स्तरों पर भारतीय तकनीक को बढ़ावा देने के लिये इलेक्ट्रॉनिक हार्डवेयर, मशीनी उपकरण और पूंजीगत उपकरणों के उत्पादन को बढ़ावा देना होगा। मौजूदा समय में भारत में ऐसे सभी उपकरणों एवं हार्डवेयर का आयात चीन से किया जा रहा है। हालाँकि डिज़ाइन क्षमता राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली (National Innovation System- NIS) का मात्र एक तत्व है, साथ ही इसमें अन्य महत्त्वपूर्ण तत्व भी शामिल हैं।

एनआईएस का निर्माण

अनुसंधान व विकास के क्षेत्र में भारत पर्याप्त क्षमता रखता है, लेकिन एक राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली के लिये आवश्यक मुख्य घटकों का अभी भी अभाव है। एक अध्ययन के अनुसार विश्व परिदृश्य में अनुसंधान एवं विकास के मामले में भारत की प्रमुखता के लिये कई कारणों को सहायक माना जा सकता है जैसे-

  • बाज़ार क्षमता
  • बौद्धिक संपदा अधिकारों की सापेक्षिक सुरक्षा
  • कुशल श्रम की उपलब्धता और
  • अनुसंधान एवं विकास की कम लागत।

इसके साथ ही भारत की न्यायिक प्रणाली पश्चिमी देशों विशेष रूप से अमेरिका एवं इंग्लैंड से सादृश्यता रखती है, व्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा एक प्रमुख लाभ के रूप में देखा जाता है क्योंकि इससे कंपनियों को न्यायिक प्रणाली को समझने में आसानी होती है जिससे वे सुरक्षित महसूस करते हैं। वस्तुतः इन तुलनात्मक लाभों पर विचार करते हुए वर्ष 2018 में 1,500 से अधिक अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अपने अनुसंधान एवं विकास केंद्र स्थापित किये। किंतु भारत में इन कंपनियों के अनुसंधान व विकास प्रक्रियाओं की अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सीमित लाभ ही (Spillover Effects) देखने को मिले हैं।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि अनुसंधान एवं विकास के मामले में भारतीय निजी कंपनियों द्वारा ऐसे प्रयास अब तक नहीं दिखे हैं। भारत की राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली की प्रमुख चुनौतियाँ बनी हुई हैं। भारत में क्रियामूलक ज्ञान (Learning by Doing) को विस्तार देने की आवश्यकता है ताकि भारत में शैक्षणिक स्तर पर ही विद्यार्थियों को दैनिक जीवन में उपयोगी वस्तुओं से संबंधित प्रौद्योगिकी को समझने और उसको निर्मित करने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके, जिससे भारत में जटिल प्रौद्योगिकी के निर्माण का माहौल तैयार हो सके।

इसके लिये निम्नलिखित क्षेत्रों में ध्यान देने की आवश्यकता है-

  • एक औद्योगिक नीति के अभाव ने भारत को एक विनिर्माण केंद्र के रूप में उभरने में बाधा पहुँचाई है तथा नवाचार भी सीमित रूप से ही विकास कर सका है, साथ ही भारत की क्षमता के अनुसार कुल उत्पादकता भी सीमित रही है।
  • समग्र शिक्षा प्रणाली में कई विफलताओं ने वर्तमान कौशल विकास के लिये गंभीर नकारात्मक शैक्षणिक परिणाम उत्पन्न किये हैं। भारत में विज्ञान, तकनीक तथा नवाचार के बल पर समावेशी विकास को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक है कि भारत में कार्यबल के अधिगम (लर्निंग) तथा शैक्षणिक स्तर में सुधार किया जाए। वर्ष 2015-16 में विनिर्माण क्षेत्र के कार्यबल का 38 प्रतिशत प्राथमिक या उससे भी निम्न शिक्षा प्राप्त था, इसके अतिरिक्त 19 प्रतिशत ने मात्र 8 वर्षों की स्कूली शिक्षा पाई थी, साथ ही सिर्फ 10 प्रतिशत लोग ही औपचारिक अथवा अनौपचारिक व्यावसायिक शिक्षा/प्रशिक्षण (VET) प्राप्त थे। यद्यपि सेवा क्षेत्र में स्थिति इससे थोड़ी बेहतर थी।

हालाँकि वर्ष 2015 में माध्यमिक कक्षाओं में नामांकन 85 प्रतिशत तक पहुँच चुका है और तब से इसमें वृद्धि का ही रुझान है, साथ ही उच्च शिक्षा में नामांकन 26 प्रतिशत तक पहुँच गया है। इसके अतिरिक्त वर्ष 2021 तक साक्षरता दर 90-95 प्रतिशत तक पहुँचने की संभावना है। लेकिन इसके साथ ही निम्नलिखित बातें भी महत्त्वपूर्ण हैं:

  • उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की संख्या में तीव्र वृद्धि हुई है किंतु इसका परिणाम सीखने के स्तर अथवा अधिगम स्तर पर गुणवत्ता में सुधार के रूप में सामने नहीं आया है।
  • माध्यमिक/उच्चतर माध्यमिक स्तर पर एसटीईएम (STEM- Science, Technology, Engineering, Mathematics) शिक्षकों की गंभीर कमी है।
  • तृतीयक स्तर पर इंजीनियरिंग, विनिर्माण और विज्ञान में मात्र 39 प्रतिशत नामांकन की स्थिति (जिनमें से विज्ञान में नामांकन मात्र 5 प्रतिशत) है।
  • शिक्षा में और अधिक निजी तथा सार्वजनिक निवेश की आवश्यकता है, वर्तमान में भारत में GDP का 4.6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है जो शिक्षा क्षेत्र की ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए अपर्याप्त है। हालाँकि सरकार ने आने वाले समय में इसको GDP के 6 प्रतिशत तक लाने की बात की है।

इसके अतिरिक्त औद्योगिक नीति को शिक्षा/कौशल नीति से संरेखित करने के लिये संरचनात्मक परिवर्तन की आवश्यकता है ताकि भारत चतुर्थ औद्योगिक क्रांति (Industry 4.0) जैसे क्षेत्रों में एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार (STI) केंद्र बन सके। हालाँकि इसके लिये 15-18 वर्ष की आयु वर्ग के लाखों नवयुवाओं को व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण (VET) की ओर मोड़ना भी आवश्यक होगा। भारत में व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण मुख्यतः सरकार-प्रेरित एवं आपूर्ति-प्रेरित रहा है। इस प्रकार देश को एक मांग-प्रेरित एवं नियोक्ता के नेतृत्व वाली तथा उद्योग द्वारा वित्तपोषित (न कि मुख्यतः सरकार द्वारा वित्तपोषित) व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण प्रणाली की आवश्यकता है। वर्तमान में अल्प शिक्षा प्राप्त कार्यबल के लिये राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (NSDC) द्वारा वित्तपोषित निजी प्रशिक्षण प्रदाताओं के माध्यम से संचालित अल्पकालिक व्यावसायिक प्रशिक्षण व्यवस्था संचालित है जो रोज़गार स्तर में सुधार लाने में विफल रही है।

राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली (NIS) के निर्माण में एक चुनौती यह भी है कि भारत अपने जीडीपी का मात्र 0.72 प्रतिशत अनुसंधान एवं विकास के लिये आवंटित करता है जबकि इसकी तुलना में चीन 1.8 प्रतिशत, अमेरिका 2.9 प्रतिशत और जापान 3.4 प्रतिशत तक निवेश करता है। वर्तमान में इस मद में भारत का व्यय इसके आय स्तर के सापेक्ष भी बेहद कम है। इसके अतिरिक्त मुख्य रूप से पूर्वी एशियाई देशों (जहाँ तीव्र आर्थिक वृद्धि हुई है) जैसे- चीन, जापान, कोरिया आदि में जहाँ अनुसंधान एवं विकास के लिये जीडीपी के प्रतिशत के रूप में कोष की भारी वृद्धि हुई है, वहीं भारत में अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में मामूली वृद्धि ही की गई। अनुसंधान एवं विकास पर अपेक्षाकृत कम व्यय के बावजूद वैज्ञानिक प्रकाशनों (विश्व में छठा स्थान) और पेटेंट दर्ज कराने (विश्व में सातवाँ स्थान) में प्रभावशाली वृद्धि हुई है। उपर्युक्त स्थिति के बावजूद भारत में ऐसे ज्ञान, अनुसंधान एवं पेटेंटों का उपयोग औद्योगिक लाभ के लिये बहुत कम होता है। इसका परिणाम यह है कि प्रौद्योगिकी पार्क, उद्भवन केंद्र (इन्क्यूबेटर) आदि की स्थापना और स्टार्ट-अप को प्रोत्साहन जैसे सरकारी प्रयास (स्टार्ट-अप इंडिया, अटल उद्भवन मिशन जैसे सरकारी पहलों के रूप में) अपेक्षित लाभ प्रदान नहीं कर सकेंगे।

उद्यमों (44 प्रतिशत), सार्वजनिक अनुसंधान संस्थानों जैसे-सीएसआईआर प्रयोगशालाओं (52 प्रतिशत) और विश्वविद्यालयों (4 प्रतिशत) के बीच अनुसंधान एवं विकास व्यय का वितरण भी एक मुद्दा है। निगमों, सार्वजनिक अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों के लिये वैश्विक औसत क्रमशः 71, 12 और 17 प्रतिशत है। भारत के निजी क्षेत्र का अनुसंधान पर खर्च वैश्विक औसत से कम है, इस खर्च को बढ़ाने की आवश्यकता है जिससे भारत का निजी क्षेत्र विभिन्न तकनीकों का विकास घरेलू स्तर पर ही कर सके। फोर्ब्स के अनुसार, वैश्विक औद्योगिक अनुसंधान एवं विकास का 70 प्रतिशत दवा, ऑटो, प्रौद्योगिकी हार्डवेयर, सॉफ्टवेयर और इलेक्ट्रॉनिक एवं इलेक्ट्रिक उपकरण के पांच प्रमुख क्षेत्रों से संबंधित है। चूँकि दवा और ऑटो के अतिरिक्त भारत उपर्युक्त क्षेत्रों में विश्व का प्रमुख उत्पादक नहीं है, इसलिये भारतीय कंपनियों का अनुसंधान एवं विकास व्यय भी कम है।

निष्कर्ष

कोरिया व ताइवान के औद्योगिकीकरण में अनुसंधान एवं विकास का महत्त्वपूर्ण योगदान 1980 के दशक में, जबकि चीन में 2010 के दशक में मिलना शुरू हुआ। भारत में अनुसंधान पर सीमित व्यय किया जाता है, साथ ही निजी क्षेत्र की भी यही स्थिति है। इसके अतिरिक्त भारत में कुशल कार्यबल के निर्माण में सहयोग देने के लिये शिक्षा व्यवस्था के स्तर पर विभिन्न कमियाँ मौजूद हैं। विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि तथा इस क्षेत्र का GDP में योगदान बढ़ाने के लिये आवश्यक है कि भारत राष्ट्रीय नवाचार प्रणाली में सुधार किया जाए। इसके लिये सरकार को नीतिगत स्तर पर विभिन्न सुधार करने होंगे तथा विनिर्माण क्षेत्र के लिये अनुकूल माहौल का निर्माण करना होगा। साथ ही भारत को प्राथमिक स्तर से ही क्रियामूलक ज्ञान (Learning by Doing) की संस्कृति का विकास करने की भी आवश्यकता है ताकि शिक्षा कार्यबल को अधिगम एवं प्रशिक्षण का मज़बूत आधार उपलब्ध करा सके।

प्रश्न: नवाचार की औद्योगिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, क्या कारण है कि भारत में नवाचार के क्षेत्र में अपेक्षाकृत कम वृद्धि हुई है, भारत में नवाचार एवं तकनीकी विकास को बल देने में क्रियामूलक ज्ञान (Learning by Doing) किस प्रकार उपयोगी हो सकता है?


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