दल-बदल विरोधी कानून: चुनौतियाँ और समाधान
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में दल-बदल विरोधी कानून व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
हाल ही में मणिपुर में सत्ताधारी गठबंधन सरकार गहरे राजनीतिक संकट में फँस गई है। इस राजनीतिक संकट के साथ ही दल-बदल विरोधी कानून की प्रासंगिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगता दिखाई दे रहा है। बीते दिनों मणिपुर विधानसभा अध्यक्ष द्वारा कॉंग्रेस के टिकट पर निर्वाचित एक सदस्य को अयोग्य करार दिया गया है, जिससे दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection law) राजनीतिक पटल के विमर्श के केंद्र में आ गया है। चुनावी लोकतंत्र का यह घटनाक्रम स्पष्ट तौर पर दल-बदल विरोधी कानून में बदलाव की ओर इशारा करता है, क्योंकि इस घटनाक्रम ने चुनावी दलों के समक्ष दल-बदल विरोधी कानून के दुरुपयोग का एक उदाहरण प्रस्तुत किया है और संभव है कि ऐसी घटनाएँ भविष्य में भी देखने को मिलें। मणिपुर में दलबदल की यह राजनीति अनोखी नहीं है, इससे पूर्व कर्नाटक, मध्य प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्य भी दल-बदल विरोधी कानून के प्रत्यक्षदर्शी रह चुके हैं।
इस आलेख में दल-बदल विरोधी कानून, इसकी आवश्यकता, कानून के अपवाद, दल-बदल विरोधी कानून की समस्याएँ तथा इसकी प्रासंगिकता के पक्ष व विपक्ष में प्रस्तुत तर्कों का परीक्षण किया जाएगा।
दल-बदल विरोधी कानून से तात्पर्य
- वर्ष 1985 में 52वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया। साथ ही संविधान की दसवीं अनुसूची जिसमें दल-बदल विरोधी कानून शामिल है को संशोधन के माध्यम से भारतीय से संविधान जोड़ा गया।
- इस कानून का मुख्य उद्देश्य भारतीय राजनीति में ‘दल-बदल’ की कुप्रथा को समाप्त करना था, जो कि 1970 के दशक से पूर्व भारतीय राजनीति में काफी प्रचलित थी।
अयोग्यता संबंधी प्रावधान
- एक निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ देता है।
- कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
- किसी सदस्य द्वारा सदन में पार्टी के पक्ष के विपरीत वोट किया जाता है।
- कोई सदस्य स्वयं को वोटिंग से अलग रखता है।
- छह महीने की समाप्ति के बाद कोई मनोनीत सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है।
दल-बदल विरोधी कानून की आवश्यकता
- लोकतांत्रिक प्रक्रिया में राजनीतिक दल काफी अहम भूमिका अदा करते हैं और सैद्धांतिक तौर पर राजनीतिक दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका यह है कि वे सामूहिक रूप से लोकतांत्रिक फैसला लेते हैं।
- हालाँकि आज़ादी के कुछ ही वर्षों के भीतर यह महसूस किया जाने लगा कि राजनीतिक दलों द्वारा अपने सामूहिक जनादेश की अनदेखी की जाने लगी है। विधायकों और सांसदों के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगीं।
- 1960-70 के दशक में ‘आया राम गया राम’ की राजनीति देश में काफी प्रचलित हो चली थी। दरअसल अक्तूबर 1967 को हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल-बदलकर इस मुद्दे को राजनीतिक मुख्यधारा में ला खड़ा किया था।
- इसी के साथ जल्द ही दलों को मिले जनादेश का उल्लंघन करने वाले सदस्यों को चुनाव में भाग लेने से रोकने तथा अयोग्य घोषित करने की ज़रूरत महसूस होने लगी।
- अंततः वर्ष 1985 में संविधान संशोधन के ज़रिये दल-बदल विरोधी कानून लाया गया।
दल-बदल कानून के अपवाद
- कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा। दल-बदल विरोधी कानून में एक राजनीतिक दल को किसी अन्य राजनीतिक दल में या उसके साथ विलय करने की अनुमति दी गई है बशर्ते कि उसके कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों।
- ऐसे में न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर कानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर। इसके अलावा सदन का अध्यक्ष बनने वाले सदस्य को इस कानून से छूट प्राप्त है।
अपवाद के प्रभाव
- दल-बदल विरोधी कानून एक उचित सुधार था लेकिन इसके अपवादों ने इस कानून की मारक क्षमता को कम कर दिया। जो दल-बदल पहले एकल होता था अब सामूहिक तौर पर होने लगा।
- अतः वर्ष 2003 को संसद को 91वां संविधान संशोधन करना पड़ा, जिसमें व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि सामूहिक दल-बदल को भी असंवैधानिक करार दिया गया।
91वां संविधान संशोधन अधिनियम,2003
- इस संशोधन के तहत मंत्रिमंडल का आकार भी 15 फीसदी सीमित कर दिया गया। हालाँकि, किसी भी कैबिनेट सदस्यों की संख्या 12 से कम नहीं होगी।
- इस संशोधन के द्वारा 10वीं अनुसूची की धारा 3 को खत्म कर दिया गया, जिसमें प्रावधान था कि एक-तिहाई सदस्य एक साथ दल-बदल कर सकते थे।
अयोग्य घोषित करने की शक्ति
- कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है।
किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू
(Kihoto Hollohan vs Zachillhu)
- वर्ष 1993 के किहोतो होलोहन बनाम ज़ाचिल्हू वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देते हुए कहा था कि विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय अंतिम नहीं होगा। विधानसभा अध्यक्ष के निर्णय का न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।
- न्यायालय ने माना कि दसवीं अनुसूची के प्रावधान संसद और राज्य विधानसभाओं में निर्वाचित सदस्यों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन नहीं करते हैं। साथ ही ये संविधान के अनुच्छेद 105 और 194 के तहत किसी तरह से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन भी नहीं करते।
- विधानसभा अध्यक्ष का निर्णय दुर्भावना, दुराग्रह, संवैधानिक जनादेश और प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध पाए जाने की स्थिति में न्यायिक पुनरावलोकन किया जा सकता है।
प्रमुख चुनौतियाँ
- प्रतिनिधि लोकतंत्र की भावना के खिलाफ: दल-बदल विरोधी कानून यह सुनिश्चित करता है कि विधान मंडल सदस्यों के द्वारा किये जाने वाले दल-बदल पर रोक लगाकर एक स्थिर सरकार प्रदान की जाए।
- हालाँकि, यह कानून विधान मंडल सदस्यों को उनके मतदाताओं के हितों के अनुरूप स्वविवेक के आधार पर मतदान करने से प्रतिबंधित करता है।
- सरकार पर विधायी नियंत्रण को कमज़ोर करता है: दल-बदल विरोधी कानून सरकार पर विधायिका के नियंत्रण को कमज़ोर करता है क्योंकि यह विधान मंडल सदस्यों को राजनीतिक दल के शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिये गए निर्णयों के आधार पर मतदान करने के लिये बाध्य करता है।
- दल-बदल विरोधी कानून वास्तव में, कार्यपालिका और विधायिका के बीच शक्तियों के पृथक्करण को कम करता है और कार्यपालिका के हाथों में शक्ति को केंद्रीकृत करता है।
- सदन के पीठासीन अधिकारी की भूमिका: दल-बदल विरोधी कानून के अनुसार, सदन के अध्यक्ष के पास सदस्यों को अयोग्य करार देने संबंधी निर्णय लेने की शक्ति है।
- हालाँकि, ऐसे कई उदाहरण हैं जब पीठासीन अधिकारी सत्ताधारी राजनीतिक दल के निहित स्वार्थों की पूर्ति करने वाले अभिकर्त्ता की भूमिका निभाने लगते हैं।
दल-बदल विरोधी कानून के पक्ष में तर्क
- दल-बदल विरोधी कानून ने राजनीतिक दल के सदस्यों को दल बदलने से रोक कर सरकार को स्थिरता प्रदान करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। वर्ष 1985 से पूर्व कई बार यह देखा गया कि राजनेता अपने लाभ के लिये सत्ताधारी दल को छोड़कर किसी अन्य दल में शामिल होकर सरकार बना लेते थे जिसके कारण जल्द ही सरकार गिरने की संभावना बनी रहती थी। ऐसी स्थिति में सबसे अधिक प्रभाव आम लोगों हेतु बनाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं पर पड़ता था। दल-बदल विरोधी कानून ने सत्ताधारी राजनीतिक दल को अपनी सत्ता की स्थिरता के बजाय विकास संबंधी अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये प्रेरित किया है।
- कानून के प्रावधानों ने धन या पद लोलुपता के कारण की जाने वाली अवसरवादी राजनीति पर रोक लगाने और अनियमित चुनाव के कारण होने वाले व्यय को नियंत्रित करने में भी मदद की है।
- साथ ही इस कानून ने राजनीतिक दलों की प्रभावकारिता में वृद्धि की है और प्रतिनिधि केंद्रित व्यवस्था को कमज़ोर किया है।
विपक्ष में तर्क
- लोकतंत्र में संवाद की संस्कृति का अत्यंत महत्त्व है, परंतु दल-बदल विरोधी कानून की वज़ह से पार्टी लाइन से अलग किंतु महत्त्वपूर्ण विचारों को नहीं सुना जाता है। अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि इसके कारण अंतर-दलीय लोकतंत्र पर प्रभाव पड़ता है और दल से जुड़े सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाती है।
- जनता का, जनता के लिये और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। परंतु यह कानून जनता का नहीं बल्कि दलों के शासन की व्यवस्था अर्थात् ‘पार्टी राज’ को बढ़ावा देता है।
- कई विशेषज्ञ यह भी तर्क देते हैं कि दुनिया के कई परिपक्व लोकतंत्रों में दल-बदल विरोधी कानून जैसी कोई व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिये इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों में यदि जन-प्रतिनिधि अपने दलों के विपरीत मत रखते हैं या पार्टी लाइन से अलग जाकर वोट करते हैं, तो भी वे उसी पार्टी में बने रहते हैं।
आगे की राह
- दल-बदल विरोधी कानून को भारत की नैतिक राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम के रूप में देखा जाता है। इसी कानून ने देश में ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हालाँकि विगत कुछ वर्षों से देश की राजनीति में इस कानून के अस्तित्व को कई बार चुनौती दी जा चुकी है।
- दल-बदल विरोधी कानून में संशोधन कर उसके उल्लंघन पर अयोग्यता की अवधि को 6 साल या उससे अधिक किया जाना चाहिये, ताकि कानून को लेकर नेताओं के मन में डर बना रहे।
- दल-बदल विरोधी कानून संसदीय प्रणाली में अनुशासन और सुशासन सुनिश्चित करने में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है, लेकिन इसे परिष्कृत किये जाने की ज़रूरत है, ताकि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सबसे बेहतर लोकतंत्र भी साबित हो सके।
- 170 वें विधी आयोग की रिपोर्ट ने यह तर्क देते हुए अंतर-दलीय लोकतंत्र (Intra-Party Democracy) के महत्त्व को रेखांकित किया कि एक राजनीतिक पार्टी आंतरिक रूप से अपने कामकाज में तानाशाही और लोकतांत्रिक नहीं हो सकती है।
प्रश्न- ‘दल-बदल विरोधी कानून को भारत की नैतिक राजनीति में एक ऐतिहासिक कदम के रूप में देखा जाता है।’ कथन की आलोचनात्मक समीक्षा कीजिये।