भारतीय अर्थव्यवस्था
तिलहन उत्पादन
यह एडिटोरियल दिनांक 21/05/2021 को 'द हिंदू बिज़नेस' में प्रकाशित लेख “Making India Atmanirbhar in oilseeds” पर आधारित है। इसमें भारत में तिलहन उत्पादन में सुधार के लिये चुनौतियों और नीतिगत उपायों के बारे में चर्चा की गई है।
विश्व व्यापार संगठन के सदस्य देशों ने विभिन्न कृषिगत मुद्दों के संदर्भ में भारत पर सवाल उठाया, जिसमें दालों के आयात पर निरंतर प्रतिबंध, गेहूं का भंडारण, अल्पकालिक फसल ऋण, निर्यात सब्सिडी या विभिन्न फसलों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि शामिल हैं।
हालाॅंकि नवीनतम मुद्दा घरेलू तिलहन उत्पादन बढ़ाने की भारत की महत्त्वाकांक्षी योजना को लेकर सामने आया है। हाल के निर्देशों के अनुसार, सरकार ने वनस्पति तेल (ताड़, सोयाबीन एवं सूरजमुखी के तेल) के आयात पर निर्भरता कम करने के लिये लगभग 10 बिलियन डॉलर का निवेश करने की योजना बनाई है।
विश्व व्यापार संगठन के किसी अन्य मुकदमे में देश को फॅंसने से बचाने के लिये, भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि इसके द्वारा दिए जाने वाले प्रोत्साहन स्वीकृति सीमा (Permissible Limits) के भीतर हैं।
हालाॅंकि लंबी अवधि में भारत को ऐसे तरीके खोजने होंगे जहाॅं वह उत्पादकों को प्रत्यक्ष वित्तीय प्रोत्साहन या मौद्रिक सहायता दिये बिना भी घरेलू तिलहन उत्पादन को बढ़ावा दे सके।
तिलहन आयात से संबद्ध चुनौतियाॅं
- व्यापार नीति: यह सर्वविदित है कि सामान्यतया वनस्पति तेल का आयात अत्यधिक एवं अनियंत्रित ढंग से संचालित होता है।
- इसके कारण, आयातक देश में कम कीमत पर आयातित तेलों को बड़े पैमाने पर जमा कर लेते हैं, इससे घरेलू तिलहन फसल की कीमतों में कमी आती है एवं तिलहन उत्पादक इससे हतोत्साहित होते हैं।
- ऋण अवधि और आयात ऋण-जाल: विदेशी आपूर्तिकर्त्ता भारतीय आयातकों को 90 से 150 दिनों का ऋण प्रदान करते हैं; लेकिन कार्गो लगभग 10 दिनों (ताड़ के तेल) या 30 दिनों (सॉफ्ट ऑयल) में भारतीय तटों पर पहुॅंच जाता है।
- भारतीय आयातक शीघ्र ही आयातित माल बेच देते हैं एवं ऋण चुकता करने की शेष अवधि तक उन पैसों का भुगतान करने से पहले वह उन्हें बड़े पैमाने पर सट्टा या अन्य व्यापार में लगा देता है। इससे कभी न खत्म होने वाला आयात चक्र बना रहता है।
- उत्पादन में गतिरोध: भारी मांग के बावजूद भारत में तिलहन उत्पादन 31-32 मिलियन टन तक ही हो पा रहा है। हमें इस गतिरोध को दूर करने और उत्पादन लक्ष्य को वर्ष भर में बहुत अधिक नहीं तो कम-से-कम 20 लाख टन तक बढ़ाने की आवश्यकता है।
आगे की राह
- ग्रीन बॉक्स सब्सिडी बढ़ाना: तिलहन फसलों की जैविक एवं अजैविक किस्मों के विकास और उपज में सफलता के लिये अन्य संभावित क्षेत्रों के साथ-साथ तिलहन फसलों में सार्वजनिक अनुसंधान खर्च बढ़ाने की आवश्यकता है।
- किस्म/वैरायटी आधारित मांग को पूरा करने के लिये उपज बढ़ाने हेतु तिलहन फसलों विशेष रूप से मूंगफली में बीज शृंखला को मज़बूत बनाने से अत्यधिक मदद मिलेगी।
- स्मार्ट कृषि: तिलहन फसलों के लिये महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्रों में प्रमुख भौतिक (उर्वरक, कीटनाशक), वित्तीय (ऋण सुविधा, फसल बीमा) और तकनीकी इनपुट (विस्तार सेवाएँ) की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
- विपणन सुधार: तिलहन और खाद्य तेल हेतु एक प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार सुनिश्चित करने के लिये अनुबंध कृषि एवं उत्पादन तथा प्रसंस्करण में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (जैसे बाज़ार सुधार एवं नीतियाँ) को लागू किया जाना चाहिये। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अनुचित प्रतिस्पर्द्धा से बचने के लिये पर्याप्त सुरक्षात्मक उपायों को अपनाए जाने की आवश्यकता है।
- अनिश्चितता को कम करना: वनस्पति तेल की आपूर्ति में अनिश्चितता और अत्यधिक आयात को कम करने से घरेलू तिलहन की कीमतों पर तुरंत लाभकारी प्रभाव पड़ेगा।
- इसके अलावा खतरनाक ऋण-जाल को रोकने के लिये, खाद्य तेल के आयात हते क्रेडिट अवधि ताड़ के तेल के लिये अधिकतम 30 दिनों और सॉफ्ट ऑयल के लिये अधिकतम 45 दिनों तक सीमित होनी चाहिये।
- यह स्वतः अत्यधिक आयात, अति-व्यापार और अनिश्चितता को हतोत्साहित करेगा तथा उत्पादकों को अधिक उपज, कृषि संबंधी प्रथाओं में सुधार करने एवं उच्च पैदावार के लिये प्रोत्साहित करेगा।
निष्कर्ष
प्रौद्योगिकी एवं सेवाओं के वितरण तथा संस्थानों को मजबूत करने के माध्यम से स्थानीय क्षमताओं में सुधार होगा साथ ही कृषि की सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय स्थिरता तिलहन फसल की अर्थव्यवस्था में वांछित वृद्धि लाएगी। इस वृद्धि से देश को अत्यधिक लाभ होगा क्योंकि तिलहन फसलें मुख्य रूप से वंचित क्षेत्रों में उगाई जाती हैं।
अभ्यास प्रश्न: रचनात्मक एवं नीतिगत हस्तक्षेप के माध्यम से सरकार किसी बड़े वित्तीय व्यय के बिना भी तिलहन उत्पादन को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है। विश्लेषण कीजिये।