भारतीय राजव्यवस्था
चुनावी बॉण्ड के निहितार्थ
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में चुनावी बॉण्ड और भारतीय लोकतंत्र में उनकी भूमिका पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
राजनीतिक प्रायोजन की प्रचलित संस्कृति में पारदर्शिता लाने के मकसद से चुनावी बॉण्ड योजना की शुरुआत की गई थी, परंतु हाल के कुछ दिनों में इसे लेकर काफी विवाद उत्पन्न हो गए हैं। गौरतलब है कि एक हालिया RTI के जवाब से पता चला था कि चुनावी बॉण्ड की प्रक्रिया को लेकर न सिर्फ चुनाव आयोग (EC) बल्कि भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने भी आपत्ति जताई थी और RBI के तत्कालीन गवर्नर ने इस संदर्भ में तत्कालीन कानून मंत्री को पत्र भी लिखा था, परंतु सरकार द्वारा RBI और EC की आपत्तियों को दरकिनार कर इस योजना को वित्त विधेयक के रूप में लोकसभा में पास कर दिया गया।
- RBI गवर्नर ने अपने पत्र में कहा था कि यह योजना पारदर्शी नहीं है एवं इससे न सिर्फ मनी लांड्रिंग बिल कमज़ोर होता है बल्कि इससे केंद्रीय बैंकिंग प्रथाओं के बुनियादी सिद्धांतों का भी उल्लंघन होता है।
- साथ ही RBI ने यह भी आशंका जताई थी कि इस योजना से उन कंपनियों को भी बॉण्ड खरीदने की अनुमति मिल जाएगी जो घाटे में चल रही हैं, जो कि शेल कंपनियों की स्थापना की संभावनाओं को उत्पन्न करती है।
- वर्ष 2018 में चुनाव आयोग ने उच्चतम न्यायलय में हलफ़नामा दायर करते हुए बताया था कि इस योजना के दूरगामी खतरनाक परिणाम हो सकते हैं।
- EC का मानना था कि इससे न केवल पारदर्शिता खत्म होगी बल्कि, इलेक्टोरल बॉण्ड फाइनेंस सिस्टम और कमज़ोर हो जाएगा।
भारतीय चुनाव और भ्रष्टाचार
चुनावों को लोकतंत्र का महापर्व कहा जाता है और प्रत्येक देश के जीवंत लोकतंत्र की नीव वहाँ होने वाले स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनावों पर टिकी होती है। चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेना एक नागरिक का विशेषाधिकार है, हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देश में यह प्रक्रिया भ्रष्टाचार से पूरी तरह प्रभावित है। देश में होने वाले चुनावों का भरी-भरकम खर्च भारतीय चुनाव प्रणाली की सबसे बड़ी समस्या है। संविधान के कामकाज की समीक्षा हेतु गठित राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, चुनावों की उच्च लागत सार्वजनिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने हेतु काफी हद तक ज़िम्मेदार है। चुनाओं में खर्च होने वाले अनगिनत पैसे या चुनावी फंडिंग के स्रोत को कुछ विशेषज्ञ अपराधीकरण से भी जोड़कर देखते हैं, जिससे देश में कानून तोड़ने वाले ही कानून निर्माता बन जाते हैं। कई बार यह पैसे सुरक्षा के बदले दिया जाता है, जबकि कई स्थिति में यह बड़े व्यावसायिक समूहों से भी प्राप्त होता है जो इस प्रकार के निवेश से लाभ कमाना चाहते हैं। भारतीय चुनावों में काले धन के उपयोग की बात भी समय-समय पर सामने आती रही है। गौरतलब है कि यह न केवल मनी लांड्रिंग को बढ़ावा देता है, बल्कि यह इसके गंभीर आर्थिक और सामाजिक परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं। यह भ्रष्टाचार और क्रोनी कैपिटलिज्म को भी बढ़ावा देता है।
राजनीतिक फंडिंग से संबंधी प्रमुख प्रावधान
- भारत में राजनीतिक या चुनावी फंडिंग को विनियमित करने के उद्देश्य से भिन्न-भिन्न अधिनियमों में कुछ प्रावधान किये गए हैं।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29(C) के तहत राजनीतिक दलों के लिये यह अनिवार्य किया गया है कि वे 20, 000 रुपये से अधिक की फंडिंग की घोषणा करें।
- विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, 1976 की धारा 2(e) के अनुसार, किसी भी विदेशी स्रोत से योगदान स्वीकार करना पूरी तरह से निषिद्ध है। अधिनियम के तहत इस संदर्भ में दंड का भी प्रावधान किया गया है।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 77 राजनीतिक दलों के चुनावी खर्चों को परिभाषित करती है और इसमें उस दल के उम्मीदवार या एजेंट द्वारा किये गए खर्चे भी शामिल किये जाते हैं।
क्या होते हैं चुनावी बॉण्ड?
- यदि हम बॉण्ड की बात करें तो यह एक ऋण सुरक्षा है। चुनावी बॉण्ड का जिक्र सर्वप्रथम वर्ष 2017 के आम बजट में किया गया था।
- दरअसल, यह कहा गया था कि RBI एक प्रकार का बॉण्ड जारी करेगा और जो भी व्यक्ति राजनीतिक दल को दान देना चाहता है, वह पहले बैंक से बॉण्ड खरीदेगा फिर जिस भी राजनैतिक दल को दान देना चाहता है उसे दान के रूप में बॉण्ड दे सकता है।
- राजनीतिक दल इन चुनावी बॉण्ड की बिक्री अधिकृत बैंक को करेंगे और वैधता अवधि के दौरान राजनैतिक दलों के बैंक खातों में बॉण्ड के खरीद के अनुपात में राशि जमा करा दी जाएगी।
- गौरतलब है कि चुनावी बॉण्ड एक प्रॉमिसरी नोट की तरह होगा, जिस पर किसी भी प्रकार का ब्याज नहीं दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि चुनावी बॉण्ड को चेक या ई-भुगतान के ज़रिये ही खरीदा जा सकता है।
- भारत के किसी भी नागरिक और कॉर्पोरेट निकाय को चुनावी बॉण्ड खरीदने की अनुमति है, वे सरकार द्वारा अधिसूचित शाखाओं से इस प्रकार के बॉण्ड खरीद सकते हैं जो कि जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर में 10 दिनों के लिये बेचे जाते हैं।
चुनावी बॉण्ड योजना
- सरकार द्वारा चुनावी बॉण्ड योजना वर्ष 2018 में अधिसूचित की गई थी।
- योजना के प्रमुख प्रावधान
- भारत के प्रत्येक नागरिक द्वारा चुनावी बॉण्ड की खरीदारी की जा सकती है।
- किसी व्यक्ति द्वारा चुनावी बॉण्ड में निवेश की कोई सीमा नहीं है।
- चुनावी बॉण्ड में निवेश की गई राशि पर कोई ब्याज नहीं दिया जाएगा।
- जारी करने की तारीख से पंद्रह दिनों के भीतर चुनावी बॉण्ड को भुनाना (Encashed) करना आवश्यक है।
- चुनावी बॉण्ड व्यापार योग्य नहीं होते।
- केवल वे राजनीतिक दल ही चुनावी बॉण्ड प्राप्त करने के योग्य हैं जो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 29(A) के तहत पंजीकृत हैं और जिन्होंने बीते आम चुनाव में कम-से-कम 1% मत प्राप्त किया है।
- सरकार ने चुनावी बॉण्ड को जारी करने के लिये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) को अधिकृत किया है।
- चुनावी बॉण्ड जारी होने की तारीख से पंद्रह कैलेंडर दिनों के लिये ही मान्य होगा।
क्यों ज़रूरी है चुनावी बॉण्ड?
- विदित हो कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। हालाँकि, पिछले सात दशकों से विभिन्न संस्थानों को मजबूत करने के बावज़ूद, भारत एक पारदर्शी राजनीतिक वित्त पोषण प्रणाली विकसित नहीं कर पाया है।
- राजनीतिक दान की पारंपरिक प्रणाली अनुदान पर निर्भर करती है। ये अनुदान मुख्यतः बड़े और छोटे राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं एवं उद्योगपतियों के स्रोतों से आते हैं।
- पारंपरिक व्यवस्था के तहत जो भी चुनावी चंदा मिलता था वह मुख्यतः नकद में दिया जाता था, जिसे काले धन की संभावना काफी बढ़ जाती थी। परंतु चूँकि वर्तमान प्रणाली के तहत चुनावी बॉण्ड केवल चेक या ई-भुगतान के ज़रिये ही खरीदा जा सकता है, इसलिये काले धन संबंधी चिंताएँ खत्म हो जाती हैं।
- चुनावी बॉण्ड का उद्देश्य राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले नगद व गुप्त चंदे के चलन को रोकना है।
- चुनावी बॉण्ड की अवधि अधिकतम 15 दिन रखी गई है जिसका मुख्य उद्देश्य है इसके दुरुपयोग को रोकना, साथ ही राजनीतिक दलों को वित्त उपलब्ध कराने में कालेधन के उपयोग पर अंकुश लगाना।
- इसके ज़रिये पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सकती है, क्योंकि बॉण्ड खरीदने वाले को उसका उल्लेख अपनी बैलेंस शीट में भी करना होगा।
चुनावी बॉण्ड से संबंधी विवाद के कारण
- इस व्यवस्था के तहत न तो फंड देने वाला के नाम की घोषणा की जाती है और न ही फंड लेने वाले के नाम की। यह व्यवस्था राजनीतिक जानकारी की स्वतंत्रता के मौलिक संवैधानिक सिद्धांत की अवहेलना करता है। गौरतलब है कि यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) का एक अनिवार्य तत्व है।
- साथ ही यह राजनीतिक वित्त में पारदर्शिता के मूल सिद्धांत की भी अवहेलना करता है। यह प्रणाली उन कॉरपोरेट्स की पहचान छिपाने में मदद करती है जो राजनीतिक दलों विशेष रूप से सत्ताधारी दलों को राजनीतिक लाभ के लिये भारी मात्रा में अनुदान देते हैं।
- कई आलोचक तर्क देते हैं कि चूँकि चुनावी बॉण्ड केवल SBI के माध्यम से ही खरीदे जाते हैं, इसलिये सरकार इन की निगरानी कर सकती है। ध्यातव्य है कि कई मीडिया संस्थानों ने इस बात की पुष्टि भी की थी।
- चुनावी बॉण्ड के माध्यम से विदेशी फंडिंग प्राप्त करने संबंधी कोई शर्त नहीं है जिससे आर्थिक रूप से कंगाल हो रही कोई कंपनी भी पैसा दान सकती है। इन परिस्थितियों में सबसे पहले यह प्रतीत होता है कि यह योजना वास्तव में अपने शुरुआती उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाई है।
- चुनावी बॉण्ड की प्रक्रिया के तहत चुनाव आयोग इन पर निगरानी नहीं कर सकता जो कि स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के उद्देश्य में बाधा उत्पन्न करता है।
- इसके अतिरिक्त, किसी दानकर्त्ता कंपनी को दान करने से कम-से-कम तीन साल पहले अस्तित्व में होने की पूर्व शर्त को भी हटा दिया गया है। यह शर्त शेल कंपनियों के माध्यम से काले धन को राजनीति में प्रयोग करने से रोकती थी।
क्या लोकतंत्र के लिये खतरा है चुनावी बॉण्ड?
विशेषज्ञ मानते हैं कि चुनावी बॉण्ड का लोकतंत्र पर दीर्घकालिक प्रभाव होता है। इस विषय पर शोध कर रहे कई शोधकर्ताओं का कहना है कि चुनावी बॉण्ड की प्रक्रिया संबंधी गुप्त जानकारी प्रवर्तन एजेंसी के साथ सरकार को भी होती है, परंतु जनता को इस संदर्भ में कोई जानकारी नहीं होती। जिसके कारण यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि गोपनीयता के साये में एक अच्छा लोकतंत्र कैसे निर्मित किया जा सकता है? अक्सर यह देखा गया है कि चुनावी बॉण्ड प्रक्रिया के माध्यम से अधिकतर पैसा सत्ताधारी डाल को ही मिलता है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में खरीदे गए कुल चुनावी बॉण्ड में से लगभग 95% एक दल विशेष के खाते में गए।
आगे की राह
- चुनाव आयोग सहित विभिन्न आयोगों ने इस प्रक्रिया में सुधार करके संबंधी उपायों पर विस्तृत सिफारिशें दी हैं। परंतु अभी तक उनमें से किसी को भी लागू नहीं किया गया है।
- आवश्यक है कि चुनावी फंडिंग को लेकर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मॉडलों का अध्ययन किया जाए और भारतीय परिवेश के अनुसार इस योजना में सुधार किया जाए। साथ ही इसे चर्चाओं और प्रतिक्रियाओं के लिये भी खुला रखा जाना चाहिये।
- इस संदर्भ में निम्नलिखित दो सिद्धांतों का पालन किया जा सकता है:
- फंडिंग पूर्णतः पारदर्शी होनी चाहिये।
- राजनीतिक दलों को RTI के तहत लाया जाना चाहिये।
- फंडिंग और खर्चे की सीमा निर्धारित की जानी चाहिये। साथ ही नियमों का पालन न करने वाले के लिये विशेष दंडात्मक प्रावधान किये जाने चाहिये।
निष्कर्ष
देश को ऐसे मतदाता जागरूकता अभियानों की आवश्यकता है जो भारत के नागरिकों को परिवर्तन की मांग करने के लिये प्रेरित कर सकें। यदि मतदाता उन उम्मीदवारों और पार्टियों को अस्वीकार करना प्रारंभ कर देंगे जो अतिव्यय करते हैं या उन्हें रिश्वत देते हैं तो देश का लोकतंत्र स्वयं ही एक स्तर और ऊपर उठ जाएगा।
प्रश्न: भारतीय लोकतंत्र में चुनावी बॉण्ड योजना की प्रासंगिकता पर चर्चा कीजिये।