एडिटोरियल (23 Sep, 2021)



भारत में हाई-एंड उत्पाद: दशा और दिशा

यह एडिटोरियल 21/09/2021 को ‘द हिंदू बिज़नेसलाइन’ में प्रकाशित ‘‘How to boost export of high-end products’’ लेख पर आधारित है। इसमें भारत के हाई-एंड उत्पादों (High End Products) के निर्यात की स्थिति और इनके उत्पादन से संबद्ध समस्याओं के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय अर्थव्यवस्था काफी लंबे समय तक कृषि क्षेत्र पर निर्भर रही। इस समय सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 50% से भी अधिक था। समय के साथ भारत धीरे-धीरे कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से सेवा आधारित अर्थव्यवस्था में परिणत हो गया। हालाँकि कई अर्थशास्त्रियों का मानना ​​है कि माध्यमिक क्षेत्र की अनदेखी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तरह तेज़ी से विकसित नहीं हो सकी है।

बीते कुछ वर्षों में भारत सरकार द्वारा विनिर्माण क्षेत्र पर मुख्य रूप से ध्यान केंद्रित किया जा रहा है। विनिर्माण क्षेत्र के महत्त्व और रोज़गार सृजन में इसकी क्षमता को समझते हुए वर्तमान सरकार द्वारा इस क्षेत्र के विकास को प्रोत्साहन देने हेतु कई महत्त्वपूर्ण कदम उठाए जा रहे हैं।

हालाँकि, कई जानकार मानते हैं कि उच्च आर्थिक विकास दर प्राप्त करने के लिये विनिर्माण को ‘लो-एंड’ से ‘हाई-एंड’ उत्पादों की ओर स्थानांतरित किया जाना अत्यंत आवश्यक है।

हाई-एंड उत्पाद निर्यात की मौजूदा स्थिति

  • अध्ययन की सुविधा के लिये हम निर्यातित उत्पादों को दो श्रेणियों या बास्केट में विभाजित कर सकते हैं- बास्केट ‘A’ और बास्केट ‘B’।
  • बास्केट ‘A’ में वे उत्पाद शामिल हैं जिनका विश्व स्तर पर बड़े मूल्यों में कारोबार किया जाता है, लेकिन जिसमें भारत की हिस्सेदारी काफी कम है। उदाहरण के लिये मशीनरी, इलेक्ट्रॉनिक्स और परिवहन उत्पाद वैश्विक माल निर्यात बास्केट के 37% हिस्से का निर्माण करते हैं।
    • लेकिन इनमें से प्रत्येक के वैश्विक निर्यात में भारतीय निर्यात की हिस्सेदारी बेहद कम है।
    • भारत मशीनरी में 0.9%, इलेक्ट्रॉनिक्स में 0.4% और परिवहन उत्पादों में 0.9% की हिस्सेदारी रखता है।
    • कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण उत्पादों जैसे- इंटीग्रेटेड सर्किट (0.03%), कंप्यूटर (0.04%), सोलर-सेल (0.3%), एलईडी टीवी (0.02%), मोबाइल फोन (0.9%) में भी भारत की हिस्सेदारी काफी कम ही है।
  • बास्केट ‘B’ में वे उत्पाद शामिल हैं जिनके वैश्विक निर्यात में भारत बड़ी हिस्सेदारी है, लेकिन इन उत्पादों में विश्व व्यापार का मूल्य काफी निम्न है। 
    • उदाहरण के लिये वैश्विक वस्त्र निर्यात में भारत की हिस्सेदारी 5.9% है, किंतु वस्त्र एक बहुत छोटी श्रेणी है, जिसकी वैश्विक निर्यात बास्केट में मात्र 1.3% हिस्सेदारी है।
    • इसी प्रकार, समुद्री उत्पादों में भारत की हिस्सेदारी 5.4% है, लेकिन वैश्विक निर्यात बास्केट में समुद्री उत्पादों की हिस्सेदारी मात्र 0.6% है।
    • ऐसे ही कई अन्य उदाहरण हैं, जहाँ वैश्विक निर्यात मूल्य निम्न है, लेकिन भारत के पास उनमें एक बड़ी हिस्सेदारी है। उदाहरण के लिये कटे और पॉलिश किये गए हीरे (28.8%), आभूषण (13.5%), चावल (35%), झींगा (25.4%) और चीनी (12.4%) आदि।
  • ‘निर्यात जटिलता सूचकांक’ (Export Complexity Index- ECI) ) 130 देशों द्वारा निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की विविधता और तकनीकी परिष्करण (Technological Sophistication) को मापता है। इस सूचकांक में वर्ष 2000 में भारत की रैंक 42 और वर्ष 2019 में 43 थी, जिसका मुख्य कारण है कि बास्केट ‘A’ उत्पादों के मामले में भारत की स्थिति कमज़ोर है।
    • इसी अवधि में बास्केट ’A’ उत्पादों में विस्तार के कारण चीन की रैंक 39 से सुधरकर 16 हो गई है।
    • ऐसे में भारत को बास्केट ‘A’ के उत्पादों के मामले में अपनी उपस्थिति बढ़ाने पर विशेष बल देना चाहिये।
  • दूसरी ओर बास्केट ‘B’ का छोटा आकार विकास क्षमता को सीमित करता है। इस श्रेणी के अधिकांश उत्पाद श्रम-गहन और निम्न प्रौद्योगिकी वाले हैं, जिन्हें कम-लागत वाले देशों से प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है।

भारत में विनिर्माण से संबद्ध समस्याएँ

  • अपर्याप्त कुशल कार्यबल: विनिर्माण क्षेत्र को अपने विकास के लिये आवश्यक कौशल एवं प्रशिक्षण से संपन्न एक शिक्षित कार्यबल की आवश्यकता है।  
    • भारत में कौशल पारितंत्र को दुरुस्त किये जाने की आवश्यकता है।
  • आधारभूत अवसंरचना: विकसित देशों की तुलना में भारत में विनिर्माण प्रयोगशालाओं, कनेक्टिविटी और परिवहन की स्थिति मंद एवं अधिक लागतपूर्ण है जो उद्योगों के लिये एक बड़ी बाधा है।  
    • निर्बाध बिजली आपूर्ति एक अन्य प्रमुख चुनौती है।
  • लघु आकार: लघु उद्यम अपने छोटे आकार के कारण कम उत्पादकता की समस्या से ग्रस्त हैं जो अर्थव्यवस्था को व्यापाक आकार प्राप्त करने से रोकता है। 
  • अनुसंधान एवं विकास पर निम्न व्यय के कारण नवाचार की कमी: वर्तमान में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.7% ही अनुसंधान एवं विकास (R&D) पर खर्च करता है जो अन्य विकसित देशों की तुलना में बेहद कम है।
    • यह नवाचार क्षमता और विकास को अवरुद्ध करता है।
  • निम्न उत्पादकता: भारत में श्रम उत्पादकता और पूँजी उत्पादकता- दोनों ही काफी निम्न हैं। भारत की तुलना में इंडोनेशिया की विनिर्माण उत्पादकता लगभग दोगुनी है, जबकि चीन और दक्षिण कोरिया की उत्पादकता चार गुना अधिक है।  
    • आँकड़ों के मुताबिक, दक्षिण कोरिया का इलेक्ट्रॉनिक्स विनिर्माण क्षेत्र भारत की तुलना में 18 गुना अधिक उत्पादन करता है और दक्षिण कोरिया का रसायन निर्माण क्षेत्र भी 30 गुना अधिक उत्पादक है।

हाई-एंड उत्पाद निर्यात बढ़ाने के उपाय

  • इनपुट पर निम्न आयात शुल्क अधिरोपित करना: इनपुट पर उच्च शुल्क के परिणामस्वरूप तैयार उत्पाद काफी महँगे होते हैं, जिसके कारण वे घरेलू और निर्यात बाज़ार दोनों में आयातित वस्तुओं से मूल्य-प्रतिस्पर्द्धा में पिछड़ जाते हैं।
    • निम्न शुल्क घरेलू फर्मों को प्रतिस्पर्द्धी बनाएंगे और जल्द ही इनमें से कई प्रत्यक्ष शिपिंग शुरू कर सकेंगी।
    • समय के साथ बेहतर फॉरवर्ड और बैकवर्ड लिंकेज के साथ, निर्यात और आयात दोनों क्षेत्रों के विकास के साथ-साथ रोज़गार अवसरों की वृद्धि होगी।
    • उदाहरण के रूप में वियतनाम को देखा जा सकता है, जहाँ 5 मिलियन कामगार प्रत्यक्ष रूप से निर्यातकों के साथ संलग्न हैं, जबकि 7 मिलियन कामगार इन निर्यातकों को उत्पादों की आपूर्ति करने वाली फर्मों के लिये कार्य कर रहे हैं।
  • औपचारिक वित्त तक पहुँच में वृद्धि करना: शीर्ष दस लाख छोटी विनिर्माण फर्मों को नियमित ब्याज दरों पर किसी संपार्श्विक के बिना बैंक वित्त प्राप्त करने में सक्षम बनाया जाना आवश्यक है।  
    • भारत की छोटी फर्मों के पास मात्र 4% औपचारिक वित्त तक पहुँच हैं। अमेरिका, चीन, वियतनाम और श्रीलंका के लिये यह आँकड़ा 21% है।
  • निम्न मूल्य उत्पादों की निर्यात प्रक्रिया को सरल बनाना: बहुत से लोग स्थानीय स्तर पर उत्पादित साड़ी, सूट, हस्तशिल्प, तैयार/पके हुए खाद्य उत्पाद की खरीद करते हैं और उन्हीं दुकानों से विदेश में अपने मित्रों और परिजनों तक इन्हें कुरियर किये जाने की अपेक्षा रखते हैं।  
    • ऐसे निम्न मूल्य के उत्पादों के निर्यात के लिये सीमा शुल्क, वस्तु एवं सेवा कर, विदेश व्यापार महानिदेशालय (DGFT) और अन्य संबद्ध एजेंसियों से संबंधित अनुपालनों को सरल एवं एकीकृत किये जाने की आवश्यकता है।
    • ऐसे सरलीकरण से ज़िलों को ‘निर्यात हब’ के रूप में विकसित किया जा सकेगा। 
    • इस सरलीकरण से क्लास ‘B’ और ‘C’ शहरों में कार्यरत छोटे कारीगरों और फर्मों को भी अपने माल के निर्यात में मदद मिलेगी।
  • महत्त्वपूर्ण उत्पादों से संलग्न बड़ी प्रमुख फर्मों को भारत में अपना परिचालन शुरू करने के लिये आमंत्रित करना: बास्केट ‘A’ के उत्पादों के विनिर्माण और निर्यात को बढ़ावा देने के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण रणनीति है। सरल श्रम कानून, PLI प्रोत्साहन, नए विनिर्माण परिचालनों पर निम्न कॉर्पोरेट कर और पूर्वव्यापी कर को समाप्त करने जैसी सरकारी पहलों ने ‘चाइना प्लस-वन’ (China Plus-One) नीति का अनुसरण करने वाली कई फर्मों को भारत में अपना आधार स्थानांतरित करने के लिये प्रोत्साहित किया है।
    • इस संदर्भ में बड़ी संख्या में प्रतिस्पर्द्धी सहायक इकाइयों की उपस्थिति और कौशल आधार भारत को अन्य प्रतिस्पर्द्धी देशों की तुलना में अधिक अनुकूल बनाता है।
  • उत्पादकता बढ़ाना: वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बनने के लिये भारत की विनिर्माण मूल्य शृंखलाओं को अपनी उत्पादकता को वैश्विक मानकों के करीब लाना होगा।  
    • प्रमुख विनिर्माण प्रक्रियाओं में सुधार करने से चयनित मूल्य शृंखलाओं में भारतीय कंपनियों की उत्पादकता में वृद्धि हो सकती है।
    • उद्योग 4.0 एवं स्वचालन प्रौद्योगिकी को अपनाकर और रि-स्किलिंग तथा अप-स्किलिंग में निवेश के माध्यम से भारतीय विनिर्माता हाई-एंड उत्पादों के उत्पादन में तेज़ी ला सकते हैं।

Advantage-India

अभ्यास प्रश्न: उच्च आर्थिक विकास दर प्राप्त करने के लिये विनिर्माण को लो-एंड से हाई-एंड उत्पादों की ओर स्थानांतरित करना अनिवार्य है। चर्चा कीजिये।