भारतीय समाज
'सु-शहरीकरण’: महत्त्व और चुनौतियाँ
यह एडिटोरियल 20/09/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Why India needs 'good' urbanisation’’ लेख पर आधारित है। इसमें शहरीकरण से संबद्ध समस्याओं की चर्चा की गई है और विचार किया गया है कि 'सु'-शहरीकरण (‘Good’ Urbanisation) किस प्रकार इन समस्याओं को हल कर सकता है।
संदर्भ
शहरों को प्रायः गरीबी उन्मूलन की एक तकनीक के रूप में देखा जाता है; आँकड़ों की मानें तो न्यूयॉर्क शहर की समग्र जीडीपी रूस की जीडीपी के समान है, जबकि न्यूयॉर्क में रूस की तुलना में केवल 6% आबादी और 0.00005% भूमि ही मौजूद है।
हालाँकि कोविड-19 महामारी ने ग्रामीण इलाकों की उस धारणा को प्रोत्साहन दिया है, जिसमें माना जाता है कि एक तकनीक के रूप में शहर, प्रवासियों के प्रति उनकी शत्रुता, रोग संक्रमण हॉटस्पॉट प्रवृत्ति और डिजिटलीकरण के परिणामस्वरूप कार्य की घटती हुई केंद्रीयता के कारण अवांछनीय हैं।
किंतु, कोविड-19 को हमारे शहरों को अधिक शक्ति और धन के साथ सशक्त बनाकर ’सु-शहरीकरण’ (Good Urbanization) को उत्प्रेरित करने के अवसर के रूप में देखा जा सकता है।
डिबेट: द विज़ार्ड vs प्रोफेट
- शहरों का ‘वांछनीय या अवांछनीय’ होना पोस्ट-कोविड समय में बहस के एक विषय के रूप में उभरा है। यह 1960 के दशक में भोजन के बारे में उभरी एक बहस की याद दिलाता है जिसे चार्ल्स मान (Charles Mann) की महत्त्वपूर्ण किताब ‘द विज़ार्ड एंड द प्रोफेट’ में समेटा गया था।
- नॉर्मन बोरलॉग (Norman Borlaug)—यानी ‘द विज़ार्ड’—एक नोबेल विजेता वैज्ञानिक हैं, जिनका मानना था कि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सभी चुनौतियों का सामना कर लेंगे और उन्होंने वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति का आगाज़ किया था।
- विलियम वोग्ट (William Vogt) —यानी ‘द प्रोफेट’—का मानना था कि समृद्धि इंसानों को मितव्ययिता का अवसर दिये बिना बर्बाद कर देगी और इस प्रकार उन्होंने पर्यावरण संरक्षण आंदोलन का आगाज़ किया था।
- जहाँ एक ओर नॉर्मन बोरलॉग ने ‘नवप्रवर्तन’ (Innovation) का नारा दिया, वहीं विलियम वोग्ट ने पीछे हटने (Retreat) का आह्वान किया।
शहरीकरण: एक समाधान या समस्या
- यदि शहरीकरण की प्रक्रिया एक उचित समय-सीमा के भीतर घटित होती है, तो यह कई सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती है। इस प्रकार, शहरीकरण के कुछ सकारात्मक प्रभावों में रोज़गार के अवसरों का सृजन, तकनीकी एवं अवसंरचनात्मक प्रगति, बेहतर परिवहन एवं संचार, गुणवत्तापूर्ण शैक्षिक एवं चिकित्सा सुविधाएँ और जीवन स्तर में सुधार आदि शामिल हैं।
- वहीं यदि शहरीकरण की प्रकिया लंबे समय तक अनियमित रूप से जारी रहती है तो इसके कुछ प्रतिकूल प्रभाव भी उत्पन्न हो सकते हैं।
- शहरीकरण लोगों को नगरों और कस्बों की ओर आकर्षित करता है जिससे उच्च जनसंख्या वृद्धि होती है। शहरी केंद्रों में वास करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि के साथ आवासों की निरंतर कमी की स्थिति बनती है।
- महानगर या मेगासिटी (10 मिलियन से अधिक आबादी) उन लोगों के लिये एक चुनौतीपूर्ण स्थिति पैदा करती है, जो अमीर या शक्ति-संपन्न नहीं हैं।
- बेरोज़गारी की समस्या शहरी क्षेत्रों में सर्वाधिक होती है और शिक्षित लोगों के बीच यह और भी गंभीर होती है। एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया भर के आधे से अधिक बेरोज़गार युवा महानगरीय शहरों में रहते हैं।
- शहरी क्षेत्रों में निवास की लागत बहुत अधिक होती है। जब यह लागत, अप्रत्याशित वृद्धि तथा बेरोज़गारी के साथ मिलती है तो इससे गरीब लोगों की चुनौतियाँ और भी गंभीर हो जाती हैं और अवैध बस्तियों का प्रसार होता है।
- विश्व की 33 मेगासिटीज़ में से 26 विकासशील देशों में हैं, क्योंकि उनके ग्रामीण क्षेत्रों में विधि के शासन, आधारभूत अवसंरचना और उत्पादक वाणिज्य की कमी होती है।
- इसके अतिरिक्त, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि मेगासिटीज़ के अलावा हमारे अन्य शहरी केंद्र अनुपयुक्त योजना, गैर-अनुमेय अवसंरचना, किफायती आवास की कमी और बदतर सार्वजनिक परिवहन जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं।
- हालाँकि, मेगासिटीज़ अनिवार्य रूप से चुनौतीपूर्ण नहीं होती हैं। उदाहरण के लिये टोक्यो में जापान की आबादी का लगभग एक-तिहाई हिस्सा मौजूद है, किंतु वहाँ योजना एवं निवेश के माध्यम से ऐसी व्यवस्था निर्मित की गई है, जिसमें शिक्षक, नर्स और पुलिसकर्मी जैसे आवश्यक कर्मचारियों को कार्यस्थल के लिये शायद ही कभी दो घंटे से अधिक की यात्रा करनी पड़ती हो।
- शहर की गुणवत्ता के लिये सबसे व्यावहारिक मीट्रिक इतालवी भौतिक विज्ञानी ’सेसारे मार्चेटी’ (Cesare Marchetti) ने पेश किया है जो मानते हैं कि 30 मिनट सबसे स्वीकार्य, या कहा जाए सभ्य यात्रा समय होता है (जबकि पैदल यात्रा से लेकर साइकिल, ट्रेन और कारों ने परिवहन का तरीका बदल दिया है)।
- बंगलुरू जैसे शहर में ‘मार्चेटी स्थिरांक’ (Marchetti Constant) को लागू करना लगभग असंभव ही है, क्योंकि यहाँ ट्रैफिक के कारण टैक्सी और ऑटो 8 किमी/घंटे की औसत गति से चलते हैं।
भारत में शहरीकरण की प्रमुख समस्या: कमज़ोर स्थानीय शहरी निकाय
- केंद्र सरकार का वार्षिक व्यय लगभग 34 लाख करोड़ रुपए और राज्य सरकारों का कुल वार्षिक व्यय लगभग 40 लाख करोड़ रुपए वहीं 15वें वित्त आयोग के अनुमान के मुताबिक, 2.5 लाख से अधिक स्थानीय निकाय प्रतिवर्ष केवल 3.7 लाख करोड़ रुपए ही खर्च करते हैं।
- इस असमान व्यय के कई कारण हैं:
- बिजली: राज्य सरकार के विभागों द्वारा पानी, बिजली, स्कूलों, स्वास्थ्य सेवा आदि विषयों को लेकर स्थानीय सरकार की शक्तियों को सीमित कर दिया गया है (यदि नगर निकायों द्वारा पानी की आपूर्ति की जाए तो संपत्ति कर संग्रह 100% होगा)।
- स्वायत्त: ग्रामीण एवं शहरी निकायों के बजट का केवल क्रमशः 13% और 44% ही स्वयं के प्रयास से जुटाया गया था।
- संरचना: प्रायः राज्यों को यह अस्वीकार्य होता है कि उनके वित्त एवं शासन संबंधी मामलों को किसी केंद्रीय मंत्रालय द्वारा नियंत्रित किया जाए, लेकिन राज्य सरकार स्वयं, स्थानीय निकायों पर असीमित नियंत्रण का प्रयोग करती है (अधिकांश राज्यों में महापौरों एवं अन्य निर्वाचित प्रतिनिधियों का निलंबन या उन्हें पद से हटाना अथवा निर्वाचित स्थानीय निकायों का अधिक्रमण एक सामान्य स्थिति है)।
- अलग-अलग केंद्रीय ग्रामीण और शहरी मंत्रालयों का होना नीति को विकृत करता है।
- बेहतर नेतृत्व की कमी: शक्ति एवं संसाधनों की कमी एक खतरनाक दुष्चक्र की शुरुआत कर देती है, जहाँ महत्त्वाकांक्षी एवं प्रतिभाशाली लोगों को शहरों में नेतृत्व के लिये आमंत्रित नहीं किया जाता है।
आगे की राह- सु-शहरीकरण की आवश्यकता
- सामाजिक-आर्थिक न्याय हेतु: महिलाओं, बच्चों और समाज के अन्य कमज़ोर वर्गों के लिये आर्थिक न्याय सुनिश्चित करने हेतु सु-शहरीकरण बेहद महत्त्वपूर्ण है।
- खराब गुणवत्ता वाले शहरीकरण के परिणामस्वरूप केवल पुरुषों का प्रवास होता है, जहाँ महिलाओं को कृषि कार्यों, बच्चों के पालन-पोषण और परिवार वालों की सेवा के लिये पीछे छोड़ दिया जाता है. उनके पास न तो स्वास्थ्य सेवाओं का कोई आश्रय होता है, न ही वे जीवनसाथी का भावनात्मक समर्थन पाने में सक्षम होती हैं।
- खराब गुणवत्ता वाले सरकारी स्कूलों में जाने वाले ग्रामीण बच्चे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों या सिविल सेवाओं के लिये अंग्रेज़ी-प्रधान प्रवेश परीक्षाओं में भाषा संबंधी चुनौतियों का सामान करते हैं।
- किसी भी मानक पर सर्वोत्कृष्ट नहीं होने के बावजूद शहरों में स्वास्थ्य देखभाल एवं शिक्षा दोनों की गुणवत्ता ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में काफी बेहतर है।
- छोटे और मध्यम शहरों का पुनर्विकास: इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मेगासिटीज़ के अलावा हमारे अन्य शहरी केंद्र अनुपयुक्त योजना, गैर-अनुमेय अवसंरचना, किफायती आवास की कमी और बदतर सार्वजनिक परिवहन जैसी समस्याओं से ग्रस्त हैं।
- इस प्रकार छोटे एवं मध्यम शहरों पर ध्यान केंद्रित किये बिना सु-शहरीकरण संभव नहीं है।
- शहरों को शक्ति और धन प्रदान करना: सु-शहरीकरण के लिये राज्य सरकार को अपने स्वार्थ का त्याग करने की आवश्यकता है। इससे उच्च गुणवत्तापूर्ण नौकरियों और अवसरों की प्रतीक्षा कर रहे लाखों युवाओं को रोज़गार प्रदान करने में मदद मिल सकती है।
- भारत इस मामले में भाग्यशाली रहा है कि ‘खाद्य प्रौद्योगिकी’ बहस में ‘नॉर्मन बोरलॉग’ ने ‘विलियम वोग्ट’ पर जीत हासिल की है यानी ‘नवप्रवर्तन’ की जीत हुई है।
- चूँकि पोस्ट-कोविड समय में शहरीकरण की बहस गति पकड़ रही है, हम आशा करते हैं कि एक बार फिर ‘प्रोफेट’ पर ‘विज़ार्ड’ की जीत होगी।
अभ्यास प्रश्न: ‘कोविड-19 महामारी इस बात को पुष्ट करती है कि निर्धनता कम करने हेतु सु-शहरीकरण हमारे सबसे शक्तिशाली उपायों में से एक है। टिप्पणी कीजिये।