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  • 21 Sep, 2019
  • 12 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

दीर्घकालिक विकास हेतु संरचनात्मक सुधार

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारत के दीर्घकालिक विकास हेतु संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

वित्तीय वर्ष 2019-20 की पहली तिमाही (Q1) में भारत की GDP वृद्धि दर 5 प्रतिशत पर पहुँच गई है, उल्लेखनीय है कि यह बीते 6 वर्षों में भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे खराब प्रदर्शन है। साथ ही कई विशेषज्ञों ने यह चिंता ज़ाहिर की है कि वर्तमान वित्तीय वर्ष (2019-20) में भारत की कुल GDP वृद्धि दर 6 प्रतिशत या उससे भी कम रह सकती है। रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर वाई. वी. रेड्डी ने वर्तमान आर्थिक सुस्ती या स्लोडाउन के लिये चक्रीय और संरचनात्मक कारकों को संयुक्त रूप से ज़िम्मेदार माना था, इसका प्रमुख उदाहरण ऑटोमोबाइल सेक्टर है। परंतु इस तथ्य के विपरीत यदि RBI की माने तो वर्तमान आर्थिक सुस्ती केवल चक्रीय कारकों से प्रभावित है एवं संरचनात्मक कारक इसके लिये ज़िम्मेदार नहीं हैं।

चक्रीय सुस्ती (Cyclical Slowdown)

चक्रीय सुस्ती मुख्यतः अल्पावधि के लिये होती है एवं अर्थव्यवस्था में नियमित अंतराल पर इसके प्रभाव दिखाई देते हैं। इस प्रकार का स्लोडाउन सामान्यतः व्यापार चक्र में परिवर्तन के कारण दिखाई देता है। इसमें सुस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिये आमतौर पर राजकोषीय और मौद्रिक उपायों तथा आवश्यकता पड़ने पर नियामक परिवर्तनों का प्रयोग किया जाता है।

संरचनात्मक सुस्ती (Structural Slowdown)

चक्रीय सुस्ती के विपरीत संरचनात्मक सुस्ती एक दीर्घकालिक अवधारणा है और अर्थव्यवस्था पर इसका दुष्प्रभाव अपेक्षाकृत लंबे समय तक दिखाई देता है। इस प्रकार के स्लोडाउन का मुख्य कारण वर्तमान संरचनात्मक प्रतिमानों में होने वाले परिवर्तनों को माना जाता है।

संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता

देश की घरेलू मांग में लगातार गिरावट दर्ज़ की जा रही है जिसे देश में सुस्ती का एक प्रमुख कारण मान सकते हैं, इसके अलावा वैश्विक अनिश्चितताओं ने समस्या को और अधिक बढ़ाया है। बीते कुछ दिनों में सरकार ने विभिन्न क्षेत्रों में उपभोग और निवेश में सुधार के लिये कई उपायों की घोषणा की है। हाल ही में निगम कर (Corporate Tax) में कटौती की घोषणा भी इसी उद्देश्य से उठाया गया एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इससे न केवल देश के निजी निवेश में वृद्धि होगी बल्कि निजी क्षेत्र को गति प्रदान करने में भी सहायता मिलेगी, परंतु सरकार के इस कदम से देश के राजस्व में कमी आएगी और राजकोषीय घाटा भी बढ़ जाएगा। गौरतलब है कि इस प्रकार के सभी प्रोत्साहन उपाय और मौद्रिक नीतियाँ निकट भविष्य में केवल कुछ हद तक ही देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकती हैं, यदि हम यह सोचें कि इनके सहारे हम पुनः सर्वाधिक तेज़ी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का तमगा पा लेंगे तो यह संभव नहीं होगा। विशेषज्ञों की मानें तो दीर्घकालिक और निवेश आधारित विकास के लिये संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता होती है। इस कार्य हेतु मुख्यतः निम्नलिखित संरचनात्मक सुधारों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है

  • अवसंरचना का विकास
  • मानव पूंजी को बढ़ाना
  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार

संरचनात्मक सुधार का अर्थ

संरचनात्मक सुधार का आशय ऐसे दीर्घकालिक उपायों से होता है, जिनके सहारे अर्थव्यवस्था की कुशलता में वृद्धि की जाती है एवं अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों की अनम्यताओं को दूर कर उसकी अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा क्षमता को बढ़ाया जाता है। संरचनात्मक सुधार की दृष्टि से भारत में अब तक कई प्रयास किये गए हैं, जिनमें वर्ष 1991 में किये गए LPG सुधार उल्लेखनीय हैं।

अवसंरचना का विकास

सामान्यतः यह कहा जाता है कि यदि कोई देश विकास करना चाहता है तो उसे सर्वप्रथम अपनी अवसंरचना का विकास करना होगा, इससे न केवल चक्रीय कारकों बल्कि संरचनात्मक कारकों को भी मदद मिलती है। 2000 के दशक में भारतीय अर्थशास्त्री आई.जी. पटेल ने कहा था कि भारत को तब तक अपना GDP विकास लक्ष्य 6 प्रतिशत रखना चाहिये जब तक कि हम अपनी अवसंरचना या बुनियादी ढाँचे का पूर्णतः विकास न कर लें। साथ ही पूर्व RBI गवर्नर वाई.वी. रेड्डी ने भी अपने एक भाषण में उल्लेख किया था कि भारत में बुनियादी ढाँचे की कमी देश के विकास में बड़ी बाधा उत्पन्न कर सकती है। हालाँकि यह भी सत्य है कि भारत में अब तक बुनियादी ढाँचे के विकास हेतु कई उल्लेखनीय कदम उठाए गए हैं, परंतु इस संदर्भ में लगभग सभी संकेतक यह स्पष्ट करते हैं कि चीन जैसे देशों की तुलना में भारत के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों का बुनियादी ढाँचा काफी कमज़ोर है।

आर्थिक जानकारों का कहना है कि वर्तमान परिदृश्य में चक्रीय तथा संरचनात्मक दोनों कारकों का ध्यान रखने के लिये सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में नकदी को बढ़ावा देना आवश्यक है। इस कार्य को राजकोषीय घाटे के साथ समझौता किये बिना विनिवेश और कर-आधार में वृद्धि जैसे उपायों के माध्यम से भी किया जा सकता है। हाल ही में सरकार ने देश के बुनियादी ढाँचे के विकास हेतु अगले पाँच वर्षों में 100 लाख करोड़ रुपए निवेश करने की घोषणा की है, जो कि एक महत्त्वपूर्ण कदम है परंतु अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि सरकार इसके लिये धन की व्यवस्था कहाँ से करेगी एवं इसमें निजी निवेश की भूमिका क्या होगी। विशेषज्ञों का मानना है कि इस संदर्भ में PPP पर गठित विजय केलकर समिति की सिफारिशें उपयोगी साबित हो सकती हैं।

विजय केलकर समिति

  • वित्त आयोग के पूर्व चेयरमैन विजय केलकर की अध्यक्षता में देश के बुनियादी ढाँचे के विकास हेतु एक समिति का गठन किया गया था, जिसने वर्ष 2015 में PPP मॉडल पर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।
  • समिति की मुख्य सिफारिशें:
    • अनुबंधों के मामले में वित्तीय लाभों के बजाय सेवा वितरण पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
    • सभी हितधारकों के जोखिमों की सही पहचान और आवंटन होना चाहिये।
    • देश में जनसांख्यिकीय परिवर्तन की तात्कालिकता को देखते हुए सरकार को PPP को नई दिशा देने का प्रयास करना चाहिये।
    • जोखिम प्रबंधन की लागत प्रभावशीलता का आकलन किया जाना आवश्यक है।
    • रेलवे जैसे क्षेत्रों में PPP के उपयोग को प्रोत्साहित करने की ज़रूरत है।

मानव पूंजी को बढ़ाना

देश में आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिये दूसरा संरचनात्मक मुद्दा है मानव पूंजी को बढ़ाना, जिसके लिये स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में कार्य किया जाना आवश्यक है। कुछ वर्ष पूर्व सिंगापुर के उप-प्रधानमंत्री ने भारत में स्कूली शिक्षा के बारे में चेतावनी देते हुए कहा था कि “आज भारत में स्कूल सबसे बड़े संकट हैं और यह लंबे समय से इसी प्रकार चलता आ रहा है।” भारत के श्रमिकों में कौशल की कमी सर्वविदित है, नीति आयोग के आँकड़े बताते हैं कि वर्तमान में भारत के मात्र 2.3 प्रतिशत श्रमिकों के पास ही औपचारिक कौशल प्रशिक्षण है, जबकि अन्य देशों में यह आँकड़ा 70 से 80 प्रतिशत के आस-पास है। इन आँकड़ों के आधार पर भारत में मानव पूंजी के विकास की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता है, क्योंकि मानव पूंजी में कमी के साथ कभी भी जनांकिकीय लाभ प्राप्त नहीं होता है। यह एक सर्वविदित अवधारणा है कि कृषि से लेकर गैर-कृषि तथा संगठित क्षेत्र से लेकर असंगठित क्षेत्र तक संरचनात्मक सुधारों हेतु शिक्षा एवं कौशल की आवश्यकता होती है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार

भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है, जहाँ उनकी आय अपेक्षाकृत काफी कम है जिसके कारण देश में दीर्घकालिक मांग वृद्धि की आशा नहीं की जा सकती, यदि सरकार मांग में वृद्धि करना चाहती है तो उसे ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार का प्रयास करना होगा। इस कार्य हेतु कृषि विपणन सुधारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। बेहतर मूल्य की खोज के लिये हमें थोक बिक्री, भंडारण, रसद, प्रसंस्करण और फुटकर बिक्री से संबंधित मूल्य श्रृंखलाओं को विकसित करना होगा। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में जल प्रबंधन भी एक अन्य प्राथमिकता हो सकती है। साथ ही विभिन्न नीतियों के साथ कृषि निर्यात को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

उच्च आर्थिक विकास दर प्राप्त करने के लिये तत्काल और दीर्घकालिक संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता होती है। देश को वर्तमान स्लोडाउन से निकलकर 7 प्रतिशत से 8 प्रतिशत की सतत् विकास दर प्राप्त करने के लिये देश में अवसंरचना का विकास, मानव पूंजी में वृद्धि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के पुनरुद्धार पर गंभीरता से विचार करना चाहिये और इसके लिये जल्द-से-जल्द कदम उठाया जाना चाहिये।

प्रश्न: “अर्थव्यवस्था के दीर्घकालिक विकास के हेतु भारत को संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है।” तर्क सहित कथन का परीक्षण कीजिये।


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