जैव विविधता और पर्यावरण
बाढ़ एवं आपदा प्रबंधन
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में बाढ़ तथा इसके कारकों एवं भारत के संदर्भ में इसके परिणामों और रोकथाम पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
भारत में घटित होने वाली सभी प्राकृतिक आपदाओं में सबसे अधिक घटनाएँ बाढ़ की हैं। यद्यपि इसका मुख्य कारण भारतीय मानसून की अनिश्चितता तथा वर्षा ऋतु के चार महीनों में भारी जलप्रवाह है, परंतु भारत की असम्मित भू-आकृतिक विशेषताएँ विभिन्न क्षेत्रों में बाढ़ की प्रकृति तथा तीव्रता के निर्धारण में अहम भूमिका निभाती हैं। बाढ़ के कारण समाज का सबसे गरीब तबका प्रभावित होता है, बाढ़ जान-माल की क्षति के साथ-साथ प्रकृति को भी हानि पहुँचती है। अतः सतत् विकास के नज़रिये से बाढ़ के आकलन की ज़रूरत है।
बाढ़ क्या है?
नदी का जल उफान के समय जल वाहिकाओं को तोड़ता हुआ मानव बस्तियों और आस-पास की ज़मीन पर पहुँच जाता है और बाढ़ की स्थिति पैदा कर देता है। दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में बाढ़ आने के कारण जाने-पहचाने हैं। बाढ़ आमतौर पर अचानक नहीं आती, साथ ही यह और कुछ विशेष क्षेत्रों और वर्षा ऋतु में ही आती है। बाढ़ तब आती है जब नदी जल-वाहिकाओं में इनकी क्षमता से अधिक जल बहाव होता है और जल, बाढ़ के रूप में मैदान के निचले हिस्सों में भर जाता है। कई बार तो झीलें और आंतरिक जल क्षेत्रों में भी क्षमता से अधिक जल भर जाता है। बाढ़ आने के और भी कई कारण हो सकते हैं, जैसे- तटीय क्षेत्रों में आने वाला तूफान, लंबे समय तक होने वाली तेज़ बारिश, हिम का पिघलना, ज़मीन की जल अवशोषण क्षमता में कमी आना और अधिक मृदा अपरदन के कारण नदी जल में जलोढ़ की मात्रा में वृद्धि होना।
दूसरी प्राकृतिक आपदाओं की तुलना में बाढ़ की उत्पत्ति और इसके क्षेत्रीय फैलाव में मानव गतिविधियाँ महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। मानवीय क्रियाकलापों, अंधाधुंध वन कटाव, अवैज्ञानिक कृषि पद्धतियाँ, प्राकृतिक अपवाह तंत्रों का अवरुद्ध होना तथा नदी तल और बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मानव बसाव की वजह से बाढ़ की तीव्रता, परिमाण और विध्वंसता बढ़ जाती है।
भारत के विभिन्न राज्यों में बाढ़
भारत के विभिन्न राज्यों में बार-बार आने वाली बाढ़ के कारण जान-माल का भारी नुकसान होता है। राष्ट्रीय बाढ़ आयोग ने देश में 4 करोड़ हैक्टेयर भूमि को बाढ़ प्रभावित क्षेत्र घोषित किया है। असम, पश्चिम बंगाल और बिहार राज्य सबसे अधिक बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर भारत की ज़्यादातर नदियाँ, विशेषकर पंजाब और उत्तर प्रदेश में बाढ़ लाती रहती हैं। राजस्थान, गुजरात, हरियाणा और पंजाब आकस्मिक बाढ़ के कारण पिछले कुछ दशकों में जलमग्न होते रहे हैं। इसका कारण मानसूनी वर्षा की तीव्रता तथा मानव कार्यकलापों द्वारा प्राकृतिक अपवाह तंत्र का अवरुद्ध होना है। कई बार तमिलनाडु में बाढ़ नवंबर से जनवरी माह के बीच लौटते मानसून से होने वाली तीव्र वर्षा द्वारा आती है।
बाढ़ के कारण
सामान्यतः भारी बारिश के बाद जब प्राकृतिक जल संग्रहण स्रोतों/मार्गों (Natural Water Bodies/Routes) की जल धारण करने की क्षमता का संपूर्ण दोहन हो जाता है, तो पानी उन स्रोतों से निकलकर आस-पास की सूखी भूमि को डूबा देता है। लेकिन बाढ़ हमेशा भारी बारिश के कारण नहीं आती है, बल्कि यह प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों ही कारणों का परिणाम है, जिन्हें हम कुछ इस प्रकार से वर्णित कर सकते हैं।
- मौसम संबंधी तत्त्व: दरअसल, तीन से चार माह की अवधि में ही देश में भारी बारिश के परिणामस्वरूप नदियों में जल का प्रवाह बढ़ जाता है जो विनाशकारी बाढ़ का कारण बनता है। एक दिन में लगभग 15 सेंटीमीटर या उससे अधिक वर्षा होती है, तो नदियों का जलस्तर खतरनाक ढंग से बढ़ना शुरू हो जाता है।
- बादल फटना: भारी वर्षा और पहाड़ियों या नदियों के आस-पास बादलों के फटने से भी नदियाँ जल से भर जाती हैं।
- गाद का संचय: हिमालय से निकलने वाली नदियाँ अपने साथ बड़ी मात्रा में गाद और रेत लाती हैं। वर्षों से इनकी सफाई न होने कारण नदियों का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, जिससे आस-पास के क्षेत्रों में पानी फ़ैल जाता है।
- मानव निर्मित अवरोध: तटबंधों, नहरों और रेलवे से संबंधित निर्माण के कारण नदियों के जल-प्रवाह क्षमता में कमी आती है, फलस्वरूप बाढ़ की समस्या और भी गंभीर हो जाती है। कुछ सालों पहले उत्तराखंड में आई भयंकर बाढ़ को मानव निर्मित कारकों का परिणाम माना जाता है।
- वनों की कटाई: पेड़ पहाड़ों पर मिट्टी के कटाव को रोकने और बारिश के पानी के लिये प्राकृतिक अवरोध पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिये पहाड़ी ढलानों पर वनों की कटाई के कारण नदियों के जलस्तर में वृद्धि होती है।
बाढ़ का परिणाम
असम, पश्चिम बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश (मैदानी क्षेत्र) और ओडिशा, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और गुजरात के तटीय क्षेत्र तथा पंजाब, राजस्थान, उत्तर गुजरात एवं हरियाणा में बार-बार बाढ़ आने और कृषि भूमि तथा मानव बस्तियों के डूबने से देश की अर्थव्यवस्था तथा समाज पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बाढ़ न सिर्फ फसलों को बर्बाद करती है बल्कि आधारभूत ढाँचा, जैसे- सड़कें, रेल मार्गों, पुल और मानव बस्तियों को भी नुकसान पहुँचाती है। बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में कई तरह की बीमारियाँ, जैसे- हैजा, आंत्रशोथ (Enteritis), हेपेटाईटिस एवं अन्य दूषित जलजनित बीमारियाँ फैल जाती हैं। दूसरी ओर बाढ़ के कुछ लाभ भी हैं। हर वर्ष बाढ़ खेतों में उपजाऊ मिट्टी जमा करती है जो फसलों के लिये बहुत लाभदायक है।
बाढ़: राज्य सूची का विषय है
कटाव नियंत्रण सहित बाढ़ प्रबंधन का विषय राज्यों के क्षेत्राधिकार में आता है। बाढ़ प्रबंधन एवं कटाव-रोधी योजनाएँ राज्य सरकारों द्वारा प्राथमिकता के अनुसार अपने संसाधनों द्वारा नियोजित, अन्वेषित एवं कार्यान्वित की जाती हैं। इसके लिये केंद्र सरकार राज्यों को तकनीकी मार्गदर्शन और वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
राष्ट्रीय जल नीति 2012 (बाढ़ एवं सूखे का प्रबंधन)
- जहाँ संरचनात्मक एवं गैर-संरचनात्मक उपायों के माध्यम से बाढ़ एवं सूखे जैसी जल संबंधी आपदाओं को रोकने के लिये हर संभव प्रयास किया जाना चाहिये, वहीं बाढ़/सूखे से निपटने के लिये तंत्र सहित पूर्व तैयारी जैसे विकल्पों पर ज़ोर दिया जाना चाहिये। साथ ही प्राकृतिक जल निकास प्रणाली के पुनर्स्थापन पर भी अत्यधिक ज़ोर दिये जाने की आवश्यकता है।
- सूखे से निपटने के लिये विभिन्न कृषि कार्यनीतियों को विकसित करने तथा मृदा एवं जल उत्पादकता में सुधार के लिये स्थानीय, अनुसंधान एवं वैज्ञानिक संस्थानों से प्राप्त वैज्ञानिक जानकारी सहित भूमि, मृदा, ऊर्जा एवं जल प्रबंधन की व्यवस्था की जानी चाहिये। आजीविका सहायता और गरीबी उपशमन के लिये समेकित खेती प्रणालियों और गैर-कृषि विकास पर भी विचार किया जा सकता है।
- नदी द्वारा किये गए भूमि कटाव जैसे स्थायी नुकसान को रोकने के लिये तटबंधों इत्यादि के निर्माण हेतु आयोजना, निष्पादन, निगरानी भू-आकृति विज्ञानीय अध्ययनों के आधार पर किया जाना चाहिये। चूँकि जलवायु परिवर्तन के कारण अत्यधिक तीव्र वर्षा होने तथा मृदा कटाव की संभावना बढ़ने से यह और भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है।
- बाढ़ का सामना करने के लिये तैयार रहने हेतु बाढ़ पूर्वानुमान अति महत्त्वपूर्ण है तथा इसका देश भर में सघन विस्तार किया जाना चाहिये और वास्तविक समय आँकड़ा संग्रहण प्रणाली (Real Time Data Collection System) का उपयोग करते हुए आधुनिकीकरण किया जाना चाहिये। साथ ही इसे पूर्वानुमान मॉडल से जोड़ा जाना चाहिये। पूर्वानुमान समय को बढ़ाने के लिये विभिन्न बेसिन भागों हेतु भौतिक मॉडल विकसित करने के प्रयास किये जाने चाहिये।
- जलाशयों के संचालन की प्रक्रिया को विकसित करने तथा इसका कार्यान्वयन इस प्रकार किया जाना चाहिये ताकि बारिश के मौसम के दौरान बाढ़ को सहन करने संबंधी क्षमता प्राप्त हो सके और अवसादन के असर को कम किया जा सके। ये प्रक्रियाएँ ठोस निर्णय सहयोग प्रणाली पर आधारित होनी चाहिये।
- बाढ़ प्रवण (Prone) तथा सूखा प्रवण समस्त क्षेत्रों का संरक्षण करना व्यवहार्य नहीं हो सकता; अतः बाढ़ तथा सूखे से निपटने के लिये पद्धतियों को बढ़ावा दिया जाना आवश्यक है। बाढ़ से निपटने की कार्यनीतियों को विकसित करने के लिये बारंबारता आधारित बाढ़ आप्लावन मानचित्रों को तैयार किया जाना चाहिये जिसमें बाढ़ के दौरान एवं इसके तुरंत बाद सुरक्षित जल की आपूर्ति करने की पूर्व तैयारी शामिल है। बाढ़/सूखे की स्थितियों से निपटने के लिये कार्ययोजना तैयार करने की प्रक्रिया में समुदायों को शामिल किये जाने की आवश्यकता है।
- आकस्मिक बाढ़ से संबंधित आपदाओं से निपटने के लिये तैयारी हेतु प्रभावित समुदायों को शामिल करते हुए बांध/तटबंध क्षति संबंधी अध्ययन किये जाने चाहिये तथा आपातकालीन कार्रवाई योजनाओं/आपदा प्रबंधन योजनाओं को तैयार किया जाना चाहिये और इन्हें आवधिक आधार पर अद्यतन किया जाना चाहिये। पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लेशियर, झील टूटने से बाढ़ तथा भू-स्खलन और बांध टूटने से बाढ़ आने संबंधी अध्ययन किये जाने चाहिये और यंत्रीकरण आदि सहित आवधिक निगरानी की जानी चाहिये।
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन
- 23 दिसंबर, 2005 को भारत सरकार द्वारा ‘आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005’ अधिनियमित किया गया, जिसके तहत ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ (NDMA) एवं ‘राष्ट्रीय आपदा मोचन बल’ (NDRF) का गठन किया गया।
बाढ़ प्रबंधन और सीमा क्षेत्र कार्यक्रम
(Flood Management and Border Areas Programme-FMBAP)
- FMBAP योजना प्रभावी बाढ़ प्रबंधन, भू-क्षरण पर नियंत्रण के साथ-साथ समुद्र तटीय क्षेत्रों के क्षरण की रोकथाम पर भी ध्यान केंद्रित करेगी।
- यह प्रस्ताव देश में बाढ़ और भू-क्षरण से शहरों, गाँवों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों, संचार नेटवर्क, कृषि क्षेत्रों, बुनियादी ढाँचों आदि को बचाने में मदद करेगा।
- जलग्रहण उपचार कार्यों से नदियों में गाद कम करने में सहायता मिलेगी।
- बाढ़ प्रबंधन कार्यक्रम (FMP) तथा नदी प्रबंधन गतिविधियों और सीमावर्ती क्षेत्रों से संबंधित कार्य (River Management Activities and Works related to Border Areas-RMBA) नामक दो स्कीमों के घटकों का आपस में विलय करके FMBAP (Flood Management and Border Area Management) योजना तैयार की गई है।
- इस योजना के तहत पड़ोसी देशों के साथ साझा नदियों पर जल संसाधन परियोजनाओं, जैसे- नेपाल में पंचेश्वर तथा सप्तकोसी-सनकोसी परियोजनाओं का सर्वेक्षण और जाँच-पड़ताल एवं डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट आदि तैयार करना भी शामिल है। इस कार्यक्रम की अनुमानित लागत 3342 करोड़ रुपए है।
- सामान्य श्रेणी के राज्यों में किये जाने वाले कार्यों के लिये वित्त प्रबंधन केंद्र और राज्य हेतु 50-50 प्रतिशत के अनुपात में रहेगा, जबकि पूर्वोत्तर राज्यों, सिक्किम, जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की परियोजनाओं के लिये वित्तपोषण पद्धति 70 प्रतिशत (केंद्र) और 30 प्रतिशत (राज्य) के अनुपात में रहेगी।
- सुझावः
- राज्य स्तर पर बाढ़ नियंत्रण एवं शमन के लिये प्रशिक्षण संस्थान स्थापित करना तथा स्थानीय स्तर पर लोगों को बाढ़ के समय किये जाने वाले उपायों के बारे में प्रशिक्षित करना।
- जनता के बीच शीघ्र तथा आवश्यक सूचना जारी करना।
- एक ऐसे संचार नेटवर्क का निर्माण करना जो बाढ़ के दौरान भी कार्य कर सके।
- बाढ़ की प्रकृति के अनुसार आपदा मोचन बल को प्रशिक्षित करना तथा आवश्यकता पड़ने पर तुरंत तैनात करना।
- बाढ़ के पूर्वानुमान तथा चेतावनी नेटवर्क को रिमोट सेंसिंग टेक्नोलॉजी तथा अन्य संस्थानों के सहयोग से मजबूत करना।
- संरचनात्मक उपाय जैसे कि तटबंध, कटाव रोकने के उपाय, जल निकास तंत्र का सुदृढ़ीकरण, तटीय सुरक्षा के लिये दीवार जैसे उपाय जो कि उस खास भू-आकृतिक क्षेत्र के लिये सर्वश्रेष्ठ हों।
- गैर-संरचनागत उपाय, जैसे कि आश्रय गृहों का निर्माण, सार्वजनिक उपयोग की जगहों को बाढ़ सुरक्षित बनाना, अंतर्राज्यीय नदी बेसिन का प्रबंधन, बाढ़ के मैदानों का क्षेत्रीकरण इत्यादि।
- पुनर्वनीकरण, जल निकास तंत्र में सुधार, वाटर-शेड प्रबंधन, मृदा संरक्षण जैसे उपाय।
- रियल टाइम डेटा का एकत्रीकरण तथा हस्तांतरण।
- बांध प्रबंधन और समय पर लोगों को सचेत किये जाने में पर्याप्त सावधानी बरती जानी चाहिये।
- विनिर्माण में संरचना के प्रारूप, स्थान, सामग्री और अनुमेय क्षति (Permissible Damage) के प्रकार एवं आकार के विषय में उचित निर्णय लेना महत्त्वपूर्ण है ताकि प्रकृति को कम-से-कम नुकसान पहुँचे।
- प्राकृतिक आपदाओं के कारण प्राकृतिक पारिस्थितिकी प्रणालियों को हुए नुकसान का आकलन किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
भारत की अवस्थिति भौगोलिक रूप से अधिक विविधता वाली है। इसमें एक ओर हिमालय जैसे पर्वत शिखर तो दूसरी ओर बड़े-बड़े समुद्री तट हैं। इसके अतिरिक्त, सदाबहार से लेकर मौसमी नदियों तक भारत में नदियों का विस्तृत संजाल मौजूद है, साथ ही भारत के मुख्य भागों में वर्षा की अवधि का वर्ष में निश्चित समय है। इससे वर्षा ऋतु के दौरान बड़ी मात्रा में जलभराव एवं बाढ़ की समस्या का सामना करना पड़ता है। उपर्युक्त भौगोलिक कारकों के अतिरिक्त मानवीय कारक भी इसके लिये ज़िम्मेदार हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ से बड़ी मात्रा में जन-धन की हानि होती है, साथ ही इससे सर्वाधिक नकारात्मक रूप से समाज का सबसे गरीब वर्ग प्रभावित होता है। इस आलोक में बाढ़ जैसी आपदा की रोकथाम तथा बाढ़ आने के पश्चात् होने वाली हानि को कम करने के लिये ज़रूरी प्रयास किये जाने की आवश्यकता है। विभिन्न सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों द्वारा बाढ़ के प्रभावों को कम करने के प्रयास किये जा रहे हैं। किंतु यह प्रयास तब तक ऐसी आपदाओं को रोकने में कारगर नहीं हो सकेंगे जब तक मानव निर्मित कारकों जैसे- जलवायु परिवर्तन, निर्वनीकरण, अवैज्ञानिक विकास कार्य आदि को नहीं रोका जाता।
प्रश्न: भारत में वर्षा ऋतु के समय बाढ़ एक सामान्य घटना के रूप में स्थापित होती जा रही है। बाढ़ को रोकने के उपाय बताइये।