भारत में गुप्त निगरानी: चिंताएँ और चुनौतियाँ
यह एडिटोरियल 20/07/2021 को ‘द हिंदू में’ प्रकाशित ‘‘Surveillance reform is the need of the hour’’ लेख पर आधारित है। यह भारत में निगरानी व्यवस्था से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करता है।
संदर्भ
'पेगासस प्रोजेक्ट' (Pegasus Project) के अनुसार 300 से भी अधिक सत्यापित भारतीय मोबाइल टेलीफोन नंबरों—जिनमें मंत्रियों, विपक्षी नेताओं, पत्रकार, विधिक समुदाय, व्यापारियों, सरकारी अधिकारियों, वैज्ञानिकों, अधिकार कार्यकर्त्ताओं और अन्य लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जाते नंबर शामिल हैं—को इज़रायली कंपनी ‘एनएसओ ग्रुप’ (NSO Group) द्वारा निर्मित स्पाइवेयर का उपयोग कर निशाना बनाया गया है।
भारत में सरकार मौजूदा कानूनों के दायरे में गुप्त निगरानी (Surveillance) कर सकती है जो ऐसी निगरानी के लिये दण्ड से मुक्ति का प्रावधान रखते हैं। यद्यपि निगरानी व्यवस्था से जुड़े कई मुद्दे भी विद्यमान हैं।
भारत में निगरानी के प्रावधान
- निगरानी के लिये भारत सरकार वर्ष 1885 के भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम (Indian Telegraph Act) और वर्ष 2000 के सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम (Information Technology Act) के तहत प्रदत्त कानूनी प्रावधानों का सहारा लेती है।
- ये प्रावधान समस्याग्रस्त हैं और सरकार को इसके अवरोधन और निगरानी गतिविधियों के संबंध में पूरी अपारदर्शिता बरतने का अवसर प्रदान करते हैं।
- टेलीग्राफ अधिनियम के प्रावधान टेलीफोन पर बातचीत और आईटी अधिनियम के प्रावधान कंप्यूटर संसाधन का उपयोग कर किये जाने वाले सभी संचारों पर लागू होते हैं।
- आईटी अधिनियम की धारा 69 और वर्ष 2009 के अवरोधन नियम (Interception Rules of 2009) टेलीग्राफ अधिनियम से भी अधिक अपारदर्शी हैं और निगरानी किये जाते लोगों को बेहद कम सुरक्षा प्रदान करते हैं ।
- हालाँकि, कोई भी प्रावधान सरकार को किसी भी व्यक्ति के फोन को हैक करने की अनुमति नहीं देता है, क्योंकि मोबाइल फोन और एप सहित कंप्यूटर संसाधनों को हैक करना आईटी अधिनियम के तहत एक आपराधिक कृत्य माना गया है।
- बहरहाल, निगरानी स्वयं में—चाहे वह कानून के प्रावधान के तहत की जा रही हो या इसके बिना—नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
निगरानी के प्रभाव
- प्रेस की स्वतंत्रता को खतरा: निगरानी प्रेस की स्वतंत्रता को प्रभावित करती है। वर्ष 2019 में पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं के खिलाफ ‘पेगासस’ के इस्तेमाल को लेकर भी इसी तरह के आरोप लगाए गए थे।
- ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (World Press Freedom Index) में वर्ष 2021 में 180 देशों की सूची में भारत को 142वें स्थान पर रखा गया है। निश्चय ही प्रेस को अभिव्यक्ति और गोपनीयता के संबंध में अधिकाधिक सुरक्षा की आवश्यकता है।
- गोपनीयता और स्वतंत्र अभिव्यक्ति ही अच्छी रिपोर्टिंग को सक्षम बनाती है। वे वैध रिपोर्टिंग के विरुद्ध निजी और सरकारी प्रतिशोध की धमकियों से पत्रकारों की रक्षा करती हैं।
- निजता के अधिकार के विरुद्ध: किसी निगरानी प्रणाली का अस्तित्व मात्र निजता के अधिकार और संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत प्रदत्त क्रमशः अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करता है।
- नागरिकों के अंदर यह भय कि उनका ईमेल सरकार द्वारा पढ़ा जा रहा है, जो कि अपरंपरागत विचारों को व्यक्त करने, सुनने और चर्चा करने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
- निजता के अभाव में पत्रकारों की सुरक्षा, विशेषकर उन पत्रकारों की जिनकी रिपोर्ट्स सरकार की आलोचना करती है और उनके स्रोतों/सूत्रों की व्यक्तिगत सुरक्षा खतरे में पड़ जाती है ।
- सत्तावादी शासन: निगरानी व्यवस्था सरकारी कार्यकरण में सत्तावाद के प्रसार को बढ़ावा देती है, क्योंकि यह कार्यपालिका को नागरिकों पर अधिक मात्रा में अपनी अधिकाधिक शक्ति का प्रयोग करने और उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करने की अनुमति देती है।
- सम्यक प्रक्रिया के विरुद्ध: पूरी तरह से कार्यपालिका के नियंत्रण में की जाने वाली निगरानी संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के प्रभाव को सीमित करती है क्योंकि इसे गुप्त रूप से अंजाम दिया जाता है।
इस प्रकार, प्रभावित व्यक्ति अपने अधिकारों का उल्लंघन साबित कर सकने में असमर्थ रहता है। यह न केवल सम्यक या निर्धारित प्रक्रिया के आदर्शों और शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा का उल्लंघन करती है, बल्कि के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले में अनिवार्य किये गए प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता के भी विरुद्ध जाती है।
आगे की राह
- न्यायपालिका द्वारा निरीक्षण: ’विधि की सम्यक प्रक्रिया’ के आदर्श को संतुष्ट करने के लिये शक्तियों के प्रभावी पृथक्करण को बनाए रखने हेतु और प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों एवं प्राकृतिक न्याय की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये न्यायिक निरीक्षण (Judicial Oversight) की आवश्यकता है।
- केवल न्यायपालिका ही यह तय करने के लिये सक्षम हो सकती है कि निगरानी के विशिष्ट उदाहरण आनुपातिक हैं या नहीं अथवा नागरिकों के लिये कम दुःसह विकल्प उपलब्ध हैं या नहीं और न्यायपालिका ही सरकार के उद्देश्यों की आवश्यकता और प्रभावित व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के बीच संतुलन बनाए रख सकती है।
- सामान्य रूप से निगरानी प्रणालियों पर न्यायिक निरीक्षण की आवश्यकता है और पेगासस हैकिंग की न्यायिक जाँच भी आवश्यक है, क्योंकि लक्षित नंबरों के लीक हुए डेटाबेस में सर्वोच्च न्यायालय के एक मौजूदा न्यायाधीश का फोन नंबर भी शामिल है जो भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रश्नगत करता है।
- भारत में निगरानी व्यवस्था में सुधार समय की माँग है और वस्तुतः निगरानी ढाँचे में व्यापक सुधार की आवश्यकता लंबे समय से अपेक्षित रही है।
- प्रणाली में वृहत पारदर्शिता की आवश्यकता है, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था में सरकारी एजेंसियाँ सरकार के अतिरिक्त किसी और के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रखतीं।
- इसलिये वर्तमान बहस केवल इस बारे में नहीं है कि 'निगरानी व्यवस्था हो या न हो’, बल्कि इस बारे में भी है कि 'कैसे, कब और किस तरह की निगरानी' की अनुमति हो।
- यदि लक्ष्य (जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा) मूल अधिकारों के मामूली अतिक्रमण से प्राप्त किया जा सकता हो तो सरकार संवैधानिक रूप से उस उपाय को अपनाने के लिये बाध्य है जहाँ वास्तव में न्यूनतम अतिक्रमण या उल्लंघन शामिल हो।
- भारतीय निगरानी व्यवस्था में लाए जाने वाले सुधारों में निगरानी की नैतिकता (Ethics of Surveillance) को संलग्न किया जाना चाहिये जो निगरानी के नियोजन के तरीकों के नैतिक पहलुओं पर विचार करता है।
निष्कर्ष
यह विश्व भर में इस मामले पर विचार करने का भी उपयुक्त समय है जहाँ एक आक्रामक और हस्तक्षेपकारी राज्य द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर निगरानी तंत्र के उपयोग के विरुद्ध मौलिक अधिकारों की रक्षा पर लगातार तेज़ बहसें जारी हैं।
अभ्यास प्रश्न: निगरानी स्वयं में- चाहे वह कानून के प्रावधान के तहत की जा रही हो या इसके बिना- नागरिकों के मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन है। टिप्पणी कीजिये।