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एडिटोरियल

  • 21 May, 2020
  • 15 min read
भारतीय राजव्यवस्था

राज्यसभा की भूमिका

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में राज्यसभा की भूमिका व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

यह सर्वविदित है कि लोकतांत्रिक सरकारें शक्ति संतुलन के सिद्धांत पर आधारित हैं, लिहाजा लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में दो सदनों का होना अहम है एक सदन लोकप्रिय इच्छा का प्रतीक (लोकसभा) होता है वहीं दूसरा सदन किसी तरह की भीड़तंत्र वाली मानसिकता को रोकने (राज्यसभा) का काम करता है। राज्यसभा या राज्यपरिषद (Council of States) भारतीय संसद का दूसरा सदन है, जिसकी स्थापना मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार, 1919 के आधार पर की गई

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 के अनुसार, संघ के लिये एक संसद होगी, जो राष्ट्रपति और दो सदनों से मिलकर बनेगी। भारतीय संविधान, लोकसभा और राज्यसभा को कुछ अपवादों को छोड़कर कानून निर्माण की शक्तियों में समान अधिकार देता है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-80, राज्यसभा के गठन का प्रावधान करता है। राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 250 हो सकती है, परंतु वर्तमान में यह संख्या 245 है। इनमें से 12 सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा से संबंधित क्षेत्रों से मनोनीत किया जाता है। यह एक स्थायी सदन है अर्थात् राज्यसभा का विघटन कभी नहीं होता है। राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष होता है। जबकि राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्यों का चुनाव हर दूसरे वर्ष में किया जाता है।

इस आलेख में संविधान सभा में राज्यसभा को लेकर पक्ष-विपक्ष की बहस, राज्यसभा की भूमिका तथा उससे संबंधित मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की जाएगी।

संविधान सभा में राज्यसभा के पक्ष में तर्क

  • राज्यसभा के गठन का सबसे अहम पक्ष यह था कि यह सदन राज्यों के पक्ष को मज़बूती से रखेगा। यदि लोकसभा द्वारा किसी विधेयक को जल्दबाज़ी में पारित किया गया है तो राज्यसभा उस पर व्यापक चर्चा करेगा। 
  • संसद का उच्च सदन, लोकसभा के निर्णयों की समीक्षा करने और सत्तापक्ष के निरंकुशतापूर्ण निर्णयों पर अंकुश लगाने में सहायता करता है।
  • उच्च सदन शिक्षाविदों और बुद्धिजीवियों को एक मंच प्रदान करता है, जो सरकार की जन-कल्याण योजनाओं के माध्यम से राज्यों के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं।
  • इस व्यवस्था को नियंत्रण और संतुलन (Check and Balance) सिद्धांत के अनुसार किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये आवश्यक माना जाता है। 

राज्यसभा के विपक्ष में तर्क

  • संविधान सभा में विशेषज्ञों का राज्यसभा के विपक्ष में मुख्य तर्क यह था कि राज्यसभा का गठन ब्रिटेन की साम्राज्यवादी विरासत को स्थापित करेगी क्योंकि इसका स्वरूप ब्रिटेन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स (House of Lord’s) के समान था। 
  • राज्यसभा के सदस्यों में हाउस ऑफ लॉर्ड्स की भांति उद्योगपति और धनी लोग होंगे, जिनका भारत के लोगों व उनकी परिस्थितियों से कोई सरोकार नहीं होगा।
  • राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से जनता के द्वारा नहीं किया जाता है, ऐसे में जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से मिलकर बने सदन लोकसभा के द्वारा पारित किसी विधेयक पर राज्यसभा के द्वारा किये गए अनावश्यक विलंब से ‘देश आर्थिक रूप से पिछड़’ सकता है।

राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन 

  • राज्यसभा के सदस्यों का निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति द्वारा एकल संक्रमणीय मत के आधार पर होता है। भारत में राज्यसभा, राज्य विधान परिषद, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत के आधार पर ही होता है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 80(4) के अनुसार, राज्य विधानमंडल (विधान सभा) के निर्वाचित सदस्यों द्वारा राज्यसभा के सदस्यों का चयन किया जाता है।

एकल संक्रमणीय मत 

  • एकल संक्रमणीय मत अर्थात एकल मत, मतदाता एक ही मत देता है लेकिन वह कई उम्मीदवारों को अपनी प्राथमिकता के आधार पर रैंक देता है। अर्थात् वह बैलेट पेपर पर यह बताता है कि उसकी पहली पसंद कौन है और दूसरी तथा तीसरी पसंद कौन है। 
  • यदि पहली पसंद वाले मतों से विजेता का निर्णय नहीं हो सका, तो उम्मीदवार के खाते में मतदाता की दूसरी पसंद को नए एकल मत की तरह ट्रांसफर किया जाता है। इसलिये इसे एकल संक्रमणीय मत कहा जाता है।

राज्यसभा के सदस्यों की अर्हता

  • व्यक्ति भारत का नागरिक हो।
  • 30 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुका हो।
  • किसी लाभ के पद पर न हो।
  • विकृत मस्तिष्क का न हो।
  • यदि संसद विधि द्वारा कुछ और अर्हताएँ निर्धारित करे तो यह ज़रूरी है कि उम्मीदवार उसे भी धारण करे। 

राज्यसभा की शक्तियाँ एवं कार्य

  • विधायी शक्तियाँ 
    • गैर-वित्तीय विधेयकों के संदर्भ में लोकसभा की भांति राज्यसभा को भी उतनी ही शक्ति प्राप्त है। ऐसे विधेयक दोनों सदनों की सहमति के बाद ही कानून बनते हैं।
    • धन विधेयक के मामले में राज्यसभा को लोकसभा की तुलना में सीमित शक्ति प्राप्त है। इस संदर्भ में राज्यसभा को 14 दिनों के भीतर विचार करके अपनी राय लोकसभा को भेजनी होती है।
    • संविधान संशोधन विधेयकों के संदर्भ में राज्य सभा की शक्तियाँ लोकसभा की शक्तियों के बराबर है।
  • विशिष्ट शक्तियाँ 
    • देश के संघात्मक ढाँचे को बनाए रखने के लिये राज्यसभा के पास दो विशिष्ट अधिकार हैं, जो कि लोकसभा के पास नहीं है-
      • अनुच्छेद 249 के अंतर्गत राज्यसभा उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों के बहुमत से राज्य सूची में शामिल किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर सकती है।
      • अनुच्छेद 312 के अंतर्गत राज्यसभा उपस्थित और मतदान करने वाले दो तिहाई सदस्यों के समर्थन से कोई नई अखिल भारतीय सेवा स्थापित कर सकती है।
  • अन्य शक्तियाँ 
    • आपातकाल की अवधि यदि एक माह से अधिक है और उस समय लोकसभा विघटित हो तो राज्यसभा का अनुमोदन कराया जाना ज़रूरी होता है।
    • राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल का हिस्सा होते हैं।
    • उपराष्ट्रपति को हटाने का प्रस्ताव केवल राज्यसभा में ही लाया जाता है। 
    • राष्ट्रपति के महाभियोग तथा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों और अन्य संवैधानिक पदाधिकारियों को पद से हटाने में अपनी भूमिका निभाते हैं। 

राज्यसभा से संबंधित मुद्दे

  • राज्यों का प्रतिनिधित्व एक समान नहीं
    • संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जैसे संघीय देश अपने उच्च सदन में सभी राज्यों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करके, संघवाद के सिद्धांत को भारत की तुलना में अधिक मज़बूती से स्थापित करते हैं।
    • भारत में अन्य देशों के विपरीत उच्च सदन अर्थात राज्यसभा में राज्यों को उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाता है। परिणामस्वरूप अधिक जनसंख्या वाले राज्यों से अधिक प्रतिनिधि व कम जनसंख्या वाले राज्यों से कम प्रतिनिधि पहुँचते हैं।
    • उदाहरण के लिये, केवल उत्तर प्रदेश में ही राज्यसभा के लिये आवंटित सीटों की संख्या संयुक्त रूप से उत्तर-पूर्वी राज्यों को आवंटित सीटों की संख्या के तुलना में काफी अधिक है।
  • राज्यसभा को दरकिनार करने का प्रयास
    • कुछ मामलों में ऐसा भी देखा गया है कि धन विधेयक का रूप देकर साधारण विधेयकों को पारित किया जा रहा है। यह विदित है कि धन विधेयक के संदर्भ में राज्यसभा को सीमित अधिकार प्राप्त है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सत्तारूढ़ दल द्वारा संसद के उच्च सदन की बहुत प्रभावकारिता को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। 
    • राज्यसभा को इस तरह से दरकिनार करने का कारण सत्तारूढ़ दल का इस सदन में बहुमत में न होना है। इसे हाल ही में आधार विधेयक को धन विधेयक के रूप में पारित कराने को लेकर देखा जा सकता है 
  • राज्यसभा की संघीय विशेषताओं में परिवर्तन 
    • जनप्रतिनिधित्व (संशोधन) अधिनियम, 2003 के माध्यम से, संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 3 से 'अधिवास' (Domicile) शब्द हटा दिया है।
    • इसका अनिवार्य रूप से यह अर्थ है कि कोई व्यक्ति जो किसी राज्य का न तो निवासी हैं और न ही उसका अधिवास है, वह व्यक्ति भी उस राज्य से राज्यसभा का चुनाव लड़ सकता है।
    • इस संशोधन के बाद राज्यसभा की सीटों का उपयोग सत्तारुढ़ दल द्वारा लोकसभा में अपने पराजित उम्मीदवारों को राज्यसभा में चुने जाने के लिये किया जा रहा है। 
  • मनोनीत सदस्यों की न्यून भागीदारी 
    • राज्यसभा के लिये मनोनीत सदस्यों में कुछ विशिष्ट हस्तियों का मनोनयन उनके प्रशंसकों की संख्या को देखकर किया जाता है, ताकि उन प्रशंसकों को वोट बैंक में परिवर्तित किया जा सके।
    • ऐसे सदस्य एक बार नामांकित होने के बाद सदन के कामकाज में शायद ही कभी भाग लेते हैं। उदाहरण के लिये सचिन तेंदुलकर को वर्ष 2012 में मनोनीत किया गया था, उनके मनोनयन के बाद कार्यकाल पूरा होने तक सदन 374 दिनों तक प्रचालन में रहा, लेकिन  सचिन तेंदुलकर की उपस्थिति मात्र 24 दिनों की ही रही।

आगे की राह

  • राज्यसभा के संघीय चरित्र को संरक्षित करने के लिये एक उपाय यह हो सकता है कि राज्य सभा के सदस्य प्रत्यक्ष रूप से किसी राज्य के नागरिकों द्वारा ही चुने जाएँ। इससे क्रोनी कैपिटलिज्म (धनबल के माध्यम से नीतियों को प्रभावित करना) व राजनैतिक तुष्टीकरण पर लगाम लगेगी।  
  • इसके साथ ही प्रत्येक राज्य के लिये समान प्रतिनिधित्व को सक्षम करने हेतु एक संघीय व्यवस्था तैयार की जा सकती है, ताकि बड़े राज्य सदन में अपने संख्या बल के आधार पर नीतियों को प्रभावित न कर सके। 
  • सदन में चर्चा की गुणवत्ता में सुधार के लिये मनोनयन की बेहतर प्रक्रिया की आवश्यकता है। 

निष्कर्ष

भारतीय राजनीति में उतार-चढ़ाव के बावजूद राज्यसभा राजनीतिक, सामाजिक मूल्यों तथा सांस्कृतिक विविधता का पोषण करने वाली एक संस्था बनी हुई है। इसके अलावा लोक सभा के साथ यह संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य जैसे मूल्यों का ध्वजवाहक भी है। इस प्रकार राज्यसभा को लोकतंत्र की 'विघटनकारी' शाखा के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये बल्कि भारतीय लोकतंत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका को बनाए रखने के लिये राज्यसभा को सक्षम बनाने के प्रयास किये जाने चाहिये। 

प्रश्न- भारतीय लोकतंत्र की संघीय व्यवस्था में राज्यसभा की भूमिका का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये।  


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