कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व पर पुनर्विचार
यह एडिटोरियल 07/10/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A plan for better CSR funds to boost rural livelihoods” लेख पर आधारित है। इसमें कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व (CSR) और ग्रामीण विकास के लिये इसकी क्षमता के बारे में चर्चा की गई है।
भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व (Corporate Social Responsibility- CSR) को कॉर्पोरेट परोपकार के अंग के रूप में देखा जाता है जहाँ कॉर्पोरेशन या निगम, सरकार की पहलों का समर्थन करते हुए सामाजिक विकास को आगे बढ़ाते हैं।
यहाँ भारतीय परंपरा के अनुरूप यह माना जाता है कि सामाजिक दायित्वों के निर्वहन में सक्रिय भूमिका निभाना हर कंपनी का नैतिक दायित्व है।
महात्मा गांधी द्वारा वर्ष 1909 में सर्वप्रथम सामाजिक-आर्थिक विकास में मदद करने के लिये ट्रस्टीशिप की अवधारणा प्रस्तुत की गई थी। 1940 के दशक तक आते वे मानने लगे थे थे कि ट्रस्टीशिप के सिद्धांत का अनुपालन सुनिश्चित कराने के लिये राज्य कानून का होना आवश्यक है।
भारत विश्व का पहला देश बना जिसने इस संबंध में कानून बनाया और कंपनी अधिनियम, 2013 की धारा 135 के तहत CSR गतिविधियों को अपनाने और CSR पहलों की अनिवार्य रूप से रिपोर्टिंग करने की व्यवस्था की। लेकिन मौजूदा CSR ढाँचे में पारदर्शिता, CSR गतिविधियों में सामुदायिक भागीदारी की कमी और समय पर ऑडिट के अभाव जैसी कुछ खामियाँ मौजूद हैं।
सतत विकास हासिल करने के लिये भारत को अपने CSR ढाँचे को सुव्यवस्थित करना चाहिये और साझा ज़िम्मेदारी के माध्यम से सामूहिक बेहतरी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व के दायरे में आने वाली कंपनियाँ:
- ऐसी कंपनी जिसका टर्नओवर कम से कम 1,000 करोड़ रुपए है, निवल मूल्य कम से कम 500 करोड़ रुपए है, या शुद्ध लाभ कम से कम 5 करोड़ रुपए है— कंपनी अधिनियम, 2013 के CSR प्रावधानों के दायरे में आती है।
- अधिनियम के तहत, ऐसी कंपनियों को एक कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व समिति का गठन करना होगा जो बोर्ड को एक कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व नीति की अनुशंसा करे और इसकी निगरानी करे।
- यह अधिनियम कंपनियों को CSR गतिविधियों पर पिछले तीन वर्षों के उनके औसत शुद्ध लाभ का 2% खर्च करने के लिये प्रोत्साहित करता है।
CSR श्रेणी के अंतर्गत शामिल गतिविधियाँ
- कंपनी अधिनियम 2013 की अनुसूची VII के तहत निर्दिष्ट कुछ प्रमुख गतिविधियों में शामिल हैं:
- भूख, गरीबी एवं कुपोषण का उन्मूलन, निवारक स्वास्थ्य देखभाल और स्वच्छता सहित स्वास्थ्य देखभाल को बढ़ावा देना, स्वच्छता को बढ़ावा देने और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने के लिये केंद्र सरकार द्वारा स्थापित ‘स्वच्छ भारत कोष’ में योगदान देना।
- शिक्षा को बढ़ावा देना, विशेष रूप से बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों और दिव्यांगजनों के लिये, जिसमें विशेष शिक्षा एवं रोज़गार बढ़ाने वाले व्यावसायिक कौशल शामिल हैं, साथ ही आजीविका संवर्द्धन परियोजनाओं का कार्यान्वयन।
- शिक्षा को बढ़ावा देना, जिसमें प्रगत और विशेष शिक्षा प्रदान करना, विशेष रूप से बच्चों, महिलाओं, बुजुर्गों और अलग-अलग सक्षम और आजीविका वृद्धि परियोजनाओं के बीच व्यावसायिक कौशल बढ़ाने वाली विशेष शिक्षा और रोजगार सहित शिक्षा को बढ़ावा देना।
- लैंगिक समानता को बढ़ावा देना, महिलाओं को सशक्त बनाना, महिलाओं और अनाथों के लिये घरों एवं छात्रावासों की स्थापना करना; वरिष्ठ नागरिकों के लिये वृद्धाश्रम, डे केयर सेंटर और ऐसी अन्य सुविधाएँ स्थापित करना तथा सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों द्वारा सामना की जाती असमानताओं को कम करने के उपाय करना।
- पर्यावरणीय स्थिरता, पारिस्थितिक संतुलन, वनस्पतियों एवं जीवों की सुरक्षा, पशु कल्याण, कृषि वानिकी, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और मृदा, वायु एवं जल की गुणवत्ता बनाए रखने में योगदान करना; गंगा नदी के कायाकल्प के लिये केंद्र सरकार द्वारा स्थापित स्वच्छ गंगा फंड में योगदान करना।
भारत में CSR गतिविधियों से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ
- सरकार की सीमित होती भूमिका: सरकारें कानूनों और विनियमों के माध्यम से व्यवसायों में सामाजिक एवं पर्यावरणीय उद्देश्यों की पूर्ति किया करती थीं।
- सिकुड़ते सरकारी संसाधनों और विनियमों के प्रति अविश्वास के कारण स्वैच्छिक और गैर-नियामक पहलों की ओर आगे बढ़ा जा रहा है।
- स्पष्ट CSR दिशानिर्देशों की अनुपस्थिति: भारत में CSR के बारे में कोई स्पष्ट सिद्धांत एवं निर्देश नहीं हैं और स्पष्ट वैधानिक दिशानिर्देशों की कमी के कारण CSR का स्तर संगठनों के आकार पर निर्भर करता है—जिसका अर्थ है जितना बड़ा संगठन, उतना बड़ा CSR कार्यक्रम।
- यह छोटे संगठनों के लिये भी एक बाधा है जो इस क्षेत्र में योगदान करना चाहते हैं।
- CSR गतिविधियों का दोहराव: CSR परियोजनाओं के संबंध में स्थानीय एजेंसियों के बीच आम सहमति की कमी है।
- आम सम्मति की इस कमी के परिणामस्वरूप प्रायः कॉर्पोरेट घरानों द्वारा उनके हस्तक्षेप के क्षेत्रों में गतिविधियों के दोहराव की स्थिति बनती है और इसके परिणामस्वरूप विषय पर सहयोगी दृष्टिकोण बनाने के बजाय स्थानीय कार्यान्वयन एजेंसियों के बीच प्रतिस्पर्द्धात्मक भावना पैदा होती है।
- सुसंगठित NGOs की कमी: भारत में विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों की मान्यता की कमी के कारण निगमों के पास सीमित विकल्प एवं लाभ उपलब्ध होते हैं और वे महज दृश्यता और ब्रांड पहचान हासिल करने के लिये NGOs को आंशिक रूप से धन प्रदान करते हैं, यह अनुभव नहीं करते कि CSR एक अधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य रखता है।
- इसके साथ ही, दूरदराज के और ग्रामीण इलाकों में सुसंगठित NGOs की कमी से समुदाय की वास्तविक आवश्यकताओं की पहचान करना और सफल CSR कार्यान्वयन सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है।
- समयबद्ध ऑडिट की कमी: समयबद्ध ऑडिट की कमी के कारण कई भारतीय कंपनियाँ अपनी CSR गतिविधियों और उनमें उपयोग किये गए धन के बारे में जानकारी का खुलासा नहीं करती हैं।
- इसके परिणामस्वरूप, ये कंपनियाँ अपनेपन की भावना पैदा करने और समाज से संलग्न होने में विफल रहती हैं।
आगे की राह
- नियमित CSR अनुपालन: कंपनियों को CSR अनुपालन की नियमित समीक्षा करनी चाहिये और अधिक पेशेवर दृष्टिकोण अपनाने के उपाय करने चाहिये। उन्हें स्पष्ट उद्देश्य भी निर्धारित करने चाहिये और सभी हितधारकों को इनके साथ संरेखित करना चाहिये।
- उनके NGO भागीदारों को उनकी व्यावसायिक आवश्यकताओं से अवगत कराना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है।
- सरकार की सक्रिय भूमिका: सरकारों को गैर-सरकारी संगठनों की अनुपलब्धता के मुद्दे को संबोधित करना चाहिये और समाज में CSR के महत्त्व के बारे में जागरूकता बढ़ानी चाहिये।
- सरकार निर्दिष्ट रिपोर्टों से डेटा माइनिंग के लिये आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग टूल्स का इस्तेमाल कर सकती है ताकि नियमित ऑडिट कार्रवाइयों को पूरा कर सके।
- अनुसंधान संस्थानों के साथ CSR को संबद्ध करना: इसमें वहनीय और पुनर्चक्रण योग्य संवहनीय निर्माण सामग्री को डिज़ाइन करने से लेकर उदार ताप एवं बिजली प्रबंधन प्रणालियों जैसे भारत-केंद्रित हरित विकल्प विकसित करने तक की गतिविधियाँ शामिल होंगी।
- इस तरह की परियोजनाओं को CSR फंडिंग के माध्यम से और उच्च शिक्षा संस्थानों के नेतृत्व में सक्षम किया जा सकता है जो प्रयोगशाला स्तर से वास्तविक धरातल पर संक्रमण को साकार करने को गति प्रदान करेगा और अभिनव तरीकों से समुदायों की सेवा करेगा।
- CSR के साथ SDGs को संयुक्त करना: भारत द्वारा सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राथमिकता देने और हासिल करने पर गंभीर ध्यान के साथ नीति आयोग ने इसे राष्ट्रीय एजेंडे में प्रमुख बना दिया है। यह उपयुक्त समय है कि CSR और SDGs को संयुक्त भी किया जाए।
- इस तरह, भारत हरित और सतत विकास की ओर बढ़ते हुए CSR की जवाबदेही में सुधार ला सकता है।
- एकीकृत CSR इंटरफेस: कॉर्पोरेट कार्य मंत्रालय द्वारा केंद्रीकृत एक राष्ट्रीय मंच की आवश्यकता है जहाँ सभी राज्य अपनी संभावित CSR-स्वीकार्य परियोजनाओं को सूचीबद्ध कर सकें ताकि कंपनियां यह निर्धारित कर सकें कि उनके CSR फंड का सबसे अधिक प्रभाव कहाँ केंद्रित होगा।
- इंडिया इन्वेस्टमेंट ग्रिड (IIG) में ‘कॉरपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी प्रोजेक्ट्स रिपॉजि’टरी ऐसे प्रयासों के लिये एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य कर सकता है।
- ‘End of Life’ अवधारणाओं को CSR से प्रतिस्थापित करना: उत्पादों के लिये ‘End of Life’ अवधारणाओं को प्रौद्योगिकियों और विनियमों की सहायता से (जो पुनःप्रयोज्यता और पुनर्चक्रण को सुगम बनाते हैं) CSR द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये।
- इस तरह, उत्पादों के जीवन चक्र को बढ़ाया जा सकता है, अपव्यय को कम किया जा सकता है और प्रदूषण में कमी लाई जा सकती है। इस क्रम में भारत एक चक्रीय अर्थव्यवस्था की ओर आगे बढ़ सकता है।
- यह एक न्यायसंगत, मानवीय और समतामूलक विज़न को साकार करने का प्रयास हो सकता है जहाँ प्रत्येक कार्रवाई, चाहे वह कितनी ही छोटी क्यों न हो, इस व्यापक संवहनीय विज़न से प्रेरित होगी।
अभ्यास प्रश्न: व्याख्या कीजिये कि कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्त्व भारत को सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में किस प्रकार मदद कर सकता है।