एडिटोरियल (20 Jul, 2019)



भारत में जल संकट

इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल है। इस आलेख में भारत में उभरते जल संकट की चर्चा की गई है साथ ही इसको रोकने के कुछ उपाय भी सुझाए गए हैं तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

इस वर्ष भारत में मानसून आने में कुछ समय की देरी हुई। इस देरी ने भारत के कई हिस्सों में पानी के संकट को जन्म दे दिया। इसमें प्रमुख रूप से महाराष्ट्र एवं चेन्नई की स्थिति अधिक भयावह थी। यह स्थिति भारत में धीरे धीरे जन्म ले रहे जल संकट की ओर इशारा कर रही है। अभी तक देश की सरकारें जल संरक्षण तथा उसके दुरुपयोग को रोकने के लिये कोई गंभीर प्रयास नहीं कर सकी हैं। ऐसा माना जा रहा है कि स्थिति में यदि सुधार नहीं किया जाता तो आने वाले कुछ वर्षों में भारत को गंभीर जल संकट का सामना करना पड़ सकता है, दक्षिण अफ्रीका के एक शहर में कुछ समय पूर्व ही जल आपात की घोषणा की गई थी। ऐसी ही स्थिति चेन्नई के संदर्भ में भी देखी जा रही थी। उपर्युक्त संदर्भ में भारत के लिये जल संरक्षण एक अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न बनकर उभरा है, जिसे समय रहते हल करने की आवश्यकता है।

इस परिदृश्य में यह आश्चर्यजनक नहीं रहा कि अपने दूसरे कार्यकाल के पहले ‘मन की बात’ संबोधन में भारतीय प्रधानमंत्री ने इस विषय पर केंद्रित होते हुए एक-एक बूँद जल बचाने और जल संरक्षण को स्वच्छ भारत अभियान की तर्ज़ पर ही एक व्यापक जन आंदोलन बनाने का आह्वान किया। इससे पूर्व ‘नल से जल’ कार्यक्रम के माध्यम से देश के प्रत्येक घर तक वर्ष 2024 तक नल से जल आपूर्ति की प्रतिबद्धता वे पहले ही जता चुके हैं। ये सरकार के सराहनीय प्रयास हैं और अपेक्षा की जाती है कि समय के साथ इसके गुणवत्तापूर्ण परिणाम सामने आएंगे।

किंतु इस संदर्भ में यह विचार करना भी प्रासंगिक होगा कि हम इस वर्तमान संकट तक पहुँचे कैसे और देश में धारणीय जल-उपयोग के लिये हम किस सर्वोत्तम तरीके व तीव्रता से इस संकट से बाहर आ सकते हैं।

भारत में जल की स्थिति

भारत में जल उपलब्धता व उपयोग के कुछ तथ्यों पर विचार करें तो भारत में वैश्विक ताज़े जल स्रोत का मात्र 4 प्रतिशत मौजूद है जिससे वैश्विक जनसंख्या के 18 प्रतिशत (भारतीय आबादी) हिस्से को जल उपलब्ध कराना होता है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, वर्ष 2010 में देश में मौजूद कुल ताज़े जल स्रोतों में से 78 प्रतिशत का उपयोग सिंचाई के लिये किया जा रहा था जो वर्ष 2050 तक भी लगभग 68 प्रतिशत के स्तर पर बना रहेगा। वर्ष 2010 में घरेलू उपयोग में इनकी मात्रा 6 प्रतिशत थी जो वर्ष 2050 तक बढ़कर 9.5 प्रतिशत हो जाएगी। इस प्रकार भारत में कृषि क्षेत्र जल का सबसे बड़ा उपयोगकर्त्ता बना रहेगा ताकि भविष्य के लिये पर्याप्त खाद्य, चारे और रेशों का उत्पादन किया जा सके। इससे प्रतीत होता है कि जब तक इस क्षेत्र में जल की आपूर्ति व उपयोग के मामले में कुशलता नहीं आएगी, बहुत अधिक सुधार की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

भारत में सिंचित क्षेत्र

भारत के लगभग 198 मिलियन हेक्टेयर फसल क्षेत्र का लगभग आधा हिस्सा ही सिंचित हैं। सिंचाई के लिये सर्वप्रमुख स्रोत के रूप में भूमिगत जल (63 प्रतिशत) का उपयोग किया किया जाता है, जबकि नहर (24 प्रतिशत), जलकुंड/टैंक (2 प्रतिशत) एवं अन्य स्रोत (11 प्रतिशत) भी इसमें अंशदान करते हैं। इस प्रकार, भारतीय कृषि में सिंचाई का वास्तविक बोझ भूमिगत जल पर है जो किसानों के निजी निवेश से संचालित है।

Groundwater situation in india

भूमिगत जल दोहन

भूमिगत जल के प्रबंधन का कोई प्रभावी विनियमन मौजूद नहीं है। सिंचाई के लिये सस्ती अथवा निःशुल्क विद्युत आपूर्ति की नीति ने भूजल के उपयोग के संबंध में एक अव्यवस्था को जन्म दिया है। इस नीति से एक ओर कृषि को प्रदत्त बिजली सब्सिडी के कारण भारतीय राजकोष को प्रतिवर्ष 70,000 करोड़ रूपए का बोझ उठाना पड़ता है तो दूसरी ओर भूजल स्तर में संकटपूर्ण कमी आ रही है। समग्र स्थिति यह है कि 256 ज़िलों के 1,592 प्रखंड भूजल के संकटपूर्ण अथवा अति-अवशोषित स्थिति में पहुँच गए हैं। पंजाब जैसे क्षेत्रों में भौम जल स्तर में प्रतिवर्ष 1 मीटर तक की कमी आ रही है और यह प्रक्रिया लगभग दो दशकों से जारी है। पंजाब के लगभग 80 प्रतिशत प्रखंड भूजल के संकटपूर्ण अथवा अति-अवशोषित स्थिति में पहुँच चुके हैं। यह परिदृश्य हमारी असावधानी और अदूरदर्शिता को प्रकट करता है, साथ ही इस तरह हम आने वाली पीढ़ियों के जल अधिकारों का भी हनन कर रहे हैं।

धान और गन्ना जल-गहन फसलें हैं जो भारत के कुल सिंचाई जल के लगभग 60 प्रतिशत तक का उपयोग करते हैं। पंजाब में एक किलोग्राम चावल के उत्पादन पर 5,000 लीटर जल की खपत होती है और महाराष्ट्र में 1 किलोग्राम चीनी के उत्पादन के लिये 2,300 लीटर जल की आवश्यकता पड़ती है। हालाँकि फसलों द्वारा उपयोग हुए जल, वाष्पीकृत जल और पुनः भूजल में शामिल हो गए जल को लेकर आकलनों में भिन्नता भी है। पारंपरिक रूप से लगभग सौ वर्ष पहले गन्ने की खेती के केंद्र पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार हुआ करते थे, जबकि धान की खेती मुख्यतः पूर्वी व दक्षिणी भारत में होती थी जहाँ पर्याप्त वर्षा होती थी और जल की प्रचुरता थी। नई प्रौद्योगिकी एवं वाणिज्यिक लाभ के चलते महाराष्ट्र जहाँ अपेक्षा कृत कम वर्षा होती है, जैसे स्थानों में भी वर्षा गहन खेती की जाने लगी है।

जल की कमी के अन्य कारण

  • गैर नियोजित शहरीकरण ने भी जल की समस्या को बढ़ाया है। भारत में शहरीकरण भूजल संभरण तकनीकों का उपयोग नहीं किया गया। भूमिगत जल के माध्यम से ही जल की पूर्ति करने के प्रयास किये गए। एक ओर शहरीकरण ने प्राकृतिक जल संभरण को बर्बाद कर दिया वहीं दूसरी ओर किसी नई तकनीक का विकास नहीं किया गया।
  • भारत में कुशल सीवेज सिस्टम पर ध्यान नहीं दिया गया। वर्तमान में देश के अधिकांश हिस्से में सीवेज को प्राकृतिक जल स्रोतों से जोड़ दिया जाता है। इससे दोहरी समस्या का जन्म हुआ है। एक ओर सीवेज प्रणाली में उपस्थित जल का पुनर्चक्रण नहीं हो रहा है जिससे इस जल का द्वितीयक उपयोग किया जा सके, वहीं दूसरी ओर सीवेज के प्राकृतिक जल संसाधनों से जुड़ाव के कारण ये प्राकृतिक जल स्रोत भी सुपोषण एवं प्रदूषण का शिकार हो रहे हैं।
  • भारत में उद्योगों और कारखानों की स्थापना के दौर में जल स्रोतों की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखा गया। अधिकांश ऐसे कारखाने जो रसायन उद्योग एवं चमड़े से संबंधित हैं नदी स्रोतों के किनारे ही स्थापित हुए हैं। वर्तमान में गंगा एवं यमुना नदी में प्रदूषण ऐसे ही कारखानों का परिणाम है। ऐसी जीवनदायनी नदियाँ जो बड़े भौगोलिक क्षेत्र की पानी और सिंचाई कि समस्या को दूर कर सकती हैं, इनका जल पीने योग्य नहीं है।
  • भारत जैसे देश, जहाँ विश्व कि 18 प्रतिशत आबादी सिर्फ 4 प्रतिशत जल पर निर्भर है, में वर्षा जल संभरण जैसी तकनीकों का उपयोग बहुत कम होता है। रिहायशी मकानों में जल का अवैज्ञानिक उपयोग भारत में जल की कमी का एक महत्त्वपूर्ण कारक है।

कृषि हेतु बिजली के मूल्य निर्धारण के युक्तिकरण के लिये किसी भी सरकार द्वारा अतीत में गंभीर प्रयास नहीं किये जा सके हैं। ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर आदि जैसे तकनीकी समाधान तब तक अधिक प्रभावी नहीं होंगे जब तक नीतियों को सही रास्ते पर नहीं लाया जाए। विश्व में संभवतः इज़राइल के पास सर्वोत्कृष्ट जल प्रौद्योगिकी और प्रबंधन प्रणालियाँ मौजूद हैं जिनमें ड्रिप सिंचाई से लेकर गैर-लवणीकरण और कृषि में उपयोग के लिये शहरी अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण जैसे कार्यक्रम शामिल हैं। भारतीय प्रधानमंत्री ने अपनी इज़राइल यात्रा में देश के जल संकट के समाधान पर सहयोग का एक दृष्टिकोण प्रकट किया था। किंतु यह भी स्पष्ट है कि केवल प्रौद्योगिकी अधिक सफलता नहीं दिला सकती है इसके लिये अन्य सरकारी प्रयासों, जैसे- बिजली का मूल्य निर्धारण एवं सिंचाई में जल के उपयोग पर विशेष दृष्टिकोण को अपनाना होगा।

कुछ प्रयास

  • एक संभव उपाय यह हो सकता है कि सिंचाई के लिये जल एवं बिजली की बचत करने वाले किसानों को नकद ईनाम देकर प्रोत्साहित किया जाए।
  • वर्तमान बिजली खपत स्तर को मानक मानते हुए मीटर लगाने वाले और वर्तमान स्तर की खपत में बचत करने वाले किसानों को पुरस्कृत किया जा सकता है।
  • पंजाब में खरीफ मौसम में मक्का अथवा सोयाबीन जैसे जल-विरल फसलों का उत्पादन करने वाले किसानों को आय समर्थन (जैसे 15,000 रूपए प्रति हेक्टेयर) देकर प्रोत्साहित किया जा सकता है। यह बिजली सब्सिडी में तो बचत करेगा ही, भूजल स्तर में भी योगदान करेगा।
  • पंजाब/हरियाणा में धान के खेती क्षेत्र में कम-से-कम 1 मिलियन हेक्टेयर की कमी लाकर इन्हें पूर्वी भारत की ओर स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत पूर्वी भारत में धान खरीद की सुविधाओ में वृद्धि और पंजाब/हरियाणा से इनकी खरीद को हतोत्साहित करने की आवश्यकता है।
  • महाराष्ट्र-कर्नाटक पट्टी में गन्ने की खेती को नियंत्रित कर इनका विस्तार उत्तर प्रदेश-बिहार पट्टी में करने की आवश्यकता है।
  • नए Co 0238 (करन 4) किस्मों के विकास के साथ (जहाँ प्रतिलाभ दर 10.5 प्रतिशत से अधिक है) इसकी संभावना बढ़ी है कि इस पट्टी में गन्ने से एथेनॉल के उत्पादन में लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
  • प्राकृतिक जल स्रोतों के स्वास्थ्य को सुधारने के लिये एक कार्यनीति बनाई जा सकती है।
  • सीवेज के जल के पुनर्चक्रण के लिये अवसंरचना का विकास करने की आवश्यकता है जिससे ऐसे जल का द्वितीयक उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।
  • सरकार को एक ऐसी नीति बनाकर सभी घरों में वर्षा जल संचयन की व्यवस्था को अनिवार्य करना चाहिये।
  • भारत में वर्ष के एक निश्चित समय में ही वर्षा होती है जिसके परिणामस्वरूप वर्षाजल बाढ़ अथवा जलभराव में परिवर्तित हो जाता है। सरकार एक व्यापक नीति के द्वारा अवसादों को कम करके (Desiltation) जलभराव को रोक सकती है, साथ ही प्राकृतिक जल निकायों की जल संभरण क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है है।

निष्कर्ष

ज्ञात है कि भारत में लोगों के अनुपात में पहले ही जल कम मात्रा में उपलब्ध है। भारत की अवैज्ञानिक कृषि नीति तथा भूमिगत जल के तीव्र दोहन ने स्थिति को और भी भयावह बना दिया है। भारत की नव-निर्वाचित सरकार ने भविष्य में उत्पन्न होने वाले जल संकट से निपटने के लिये कुछ प्रयास किये हैं। किंतु स्थिति की गंभीरता को देखते हुए ये प्रयास नाकाफी सिद्ध हो सकते हैं। भारत को जल संकट से निपटने के लिये इसे एक आंदोलन का रूप देना होगा। स्वच्छ भारत मिशन की सफलता से प्रेरित होकर जल के क्षेत्र में भी ऐसे ही प्रयास करने होंगे। मज़बूत इच्छाशक्ति एवं कारगर नीति के बल पर भारत को आने वाले सबसे बड़े संकट से उभारा जा सकता है। इन प्रयासों को अंजाम देते समय भारत को कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि सर्वाधिक जल का उपयोग कृषि क्षेत्र में ही हो रहा है जिसको कम करने की प्रबल संभावनाएँ भी मौजूद हैं। इसके लिये भारत शुष्क कृषि तकनीक तथा इज़राइल का सहयोग भी ले सकता है। सरकार एवं जन भागीदारी द्वारा व्यापक प्रयासों के चलते ही भारत जल संकट की स्थिति से निपट सकता है।

प्रश्न: ग्रीष्म ऋतू में भारत के कई हिस्सों में प्रायः जल की कमी देखने को मिलती है, इसका मुख्य कारण भारत में अवैज्ञानिक कृषि को समझा जाता है। आपके विचार में किन उपायों द्वारा भारत में जल की कमी से निपटा जा सकता है?