अंतर्राष्ट्रीय संबंध
परिवर्तित विश्व व्यवस्था में भारत
संदर्भ
यह एडिटोरियल 18/01/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “India’s Watchwords In A Not So Bright 2022” लेख पर आधारित है। इसमें विश्व की बदलती भू-राजनीतिक गतिशीलता और विभिन्न देशों के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने के लिये भारत द्वारा संभावित दृष्टिकोण के संबंध में चर्चा की गई है। वर्ष 2020 और 2021 में वैश्विक स्तर पर कई परिवर्तनकारी घटनाएँ देखने को मिली। इनमें से हिंद-प्रशांत क्षेत्र की भू-राजनीति में सबसे अधिक परिवर्तन नज़र आया जो विभिन्न गति और स्तरों पर लगातार परिवर्तित हो रही है। परिदृश्य यह है कि आगामी वर्ष में भी एक नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना दूरस्थ संभावना ही है। इसके बजाय वैश्विक मामलों में अनिश्चितता और अस्थिरता के ही प्रमुख पहलू बने रहने की संभावना है। भारत के लिये रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण भू-भागों में जारी आंतरिक संघर्ष और भारत एवं चीन के बीच चल रहे गतिरोध के मध्य भारत के लिये सही दृष्टिकोण यह होगा कि चीन के विरुद्ध पहले से मौजूद समूहों और उत्कृष्ट द्विपक्षीय संबंधों का लाभ उठाने के साथ-साथ अपने राजनयिक दृष्टिकोण में अधिक लचीलापन लेकर आए।
बदलती विश्व व्यवस्था की चुनौतियाँ
- अधिनायकवाद का उदय: निश्चय ही हाल के वर्षों में विश्व के कई देशों में अधिनायकवाद का उदय हुआ है। हालाँकि इसे एक नई परिघटना के रूप में शायद ही देखा जा सकता है।
- चीन ने 'एक देश, दो प्रणाली' (One Country Two Systems) की नीति का परित्याग कर दिया है और हॉन्गकॉन्ग की स्वतंत्रता का हनन है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी निंदा की जा रही है।
- इसके अलावा शिनजियांग में उइगर मुसलमानों के मानवाधिकारों का उल्लंघन और ताइवान के प्रति चीन की आक्रामक मुद्रा संघर्ष के प्रमुख कारण के रूप में उभर सकते हैं।
- वर्ष 2022 में युद्ध का एक दूसरा प्रमुख कारण रूस और यूक्रेन के मध्य जारी संघर्ष हो रहा है, जहाँ यूक्रेन को अमेरिका और उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) का समर्थन प्राप्त है।
- कज़ाखस्तान में वर्तमान अशांति एक ऐसे विश्व के लिये जोखिम उत्पन्न कर रही है जो पहले ही इथियोपिया, लीबिया और पश्चिम एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के कुछ क्षेत्रों में तख्तापलट या आंतरिक संघर्ष की विभिन्न घटनाओं से ग्रसित है।
- अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में पुन:वापसी ने भारत को परिधि पर पहले से हीअशांत भूभाग में शक्ति संतुलन में एक भौतिक परिवर्तन उत्पन्न कर दिया है।
- अफगानिस्तान के घटनाक्रम ने संपूर्ण क्षेत्र में कई 'राज्य विरोधी उग्रवादी समूहों' की महत्त्वाकांक्षाओं को हवा दी है।
- इन चिंताओं के साथ ही नए साक्ष्य प्राप्त हो रहे हैं जिनसे भारत के पूर्वी हिस्से में (इंडोनेशिया) में कट्टरपंथी इस्लामी गतिविधियों का पुनरुत्थान हो रहा है।
- चीन ने 'एक देश, दो प्रणाली' (One Country Two Systems) की नीति का परित्याग कर दिया है और हॉन्गकॉन्ग की स्वतंत्रता का हनन है जिसकी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी निंदा की जा रही है।
- चीनी प्रभुत्व का विस्तार: चीन की भूमिका संभवत: सबसे अधिक विघटनकारी है, क्योंकि मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिये यह एक प्रमुख चुनौती पेश करता है।
- हाइपर-सोनिक प्रौद्योगिकी जैसे 'अत्याधुनिक हथियार’ के साथ चीन सैन्य रूप से कई क्षेत्रों में अमेरिकी वर्चस्व को खुले तौर पर चुनौती दे रहा है।
- हाल में चीन के आर्थिक परिदृश्य में आई गिरावट भी वर्ष 2022 में एशिया-प्रशांत क्षेत्र में नए तनावों को जन्म दे सकती है।
- इसके अलावा ‘बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव’ (BRI) के माध्यम से चीन की विस्तारवादी नीतियों को भी अमेरिका, यूरोपीय संघ, G7 देशों जैसी वैश्विक शक्तियों के साथ ही भारत द्वारा एक खतरे के रूप में देखा जा रहा है।
- भारत के सीमा संबंधी मुद्दे: पाकिस्तान और चीन की ओर से दो मोर्चों पर लगातार खतरे ने भारत की सुरक्षा के एक कठिन महाद्वीपीय आयाम के लिये मंच तैयार किया है। पाकिस्तान और चीन की सीमाओं पर सैन्यीकरण लगातार वृद्धि हुई है।
- लद्दाख के विभिन्न सेक्टरों में वास्तविक नियंत्रण रेखा (Line of Actual Control) के उल्लंघन की घटनाएँ वर्ष 2022 में भी जारी रह सकती हैं।
- इस प्रकार लद्दाख या किसी अन्य विवादित क्षेत्र में इस वर्ष भी तनाव में कमी आने की संभावना नहीं है।
- पश्चिम और मध्य एशिया में भारत के लिये चुनौतियाँ: मध्य एशिया में भारत के समक्ष प्रमुख चुनौती रूस के साथ पारंपरिक मित्रता के सर्वोत्कृष्ट प्रबंधन की होगी जबकि हाल में अधिक मुखर झुकाव भारत-अमेरिका संबंधों की ओर रहा है।
- पश्चिम एशिया में भारत के लिये चुनौती यह है कि इस क्षेत्र में विभिन्न देशों/समूहों के परस्पर विरोधी हितों के बीच दूसरे क्वाड (भारत, इज़राइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका) की अपनी सदस्यता का प्रबंधन वह कैसे करे।
- दोनों ही भू-भागों में मौजूदा परिदृश्य का प्रबंधन कर सकने में भारतीय कूटनीति की कड़ी परीक्षा होगी।
आगे की राह
- भारत की विदेश नीति में लचीलापन: भारत और भारत की विदेश नीति को विद्यमान अंतर्विरोधों को प्रबंधित करने में अधिक लचीलेपन का प्रदर्शन करने की आवश्यकता है।
- यह महत्त्वपूर्ण है कि भारत उन समस्याओं का तर्कसंगत उत्तर ढूंढे, जिन्हें वह अधिक समय तक ठंडे बस्ते में नहीं रख सकता।
- भारत को संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह के कारण उत्पन्न होने वाले ‘ब्लाइंड स्पॉट्स’ से बचना चाहिये और संकेतों को ठीक से पढ़ने के प्रति सचेत होना चाहिये।
- भारत के नेताओं और राजनयिकों को न केवल मौजूदा खतरों का जायजा लेना चाहिये बल्कि जो जोखिम साफ हैं उनके प्रबंधन के तरीकों को लेकर भी तैयार रहना चाहिये।
- चीन की सैन्य शक्ति का मुकाबला करना: भारत को तय करना होगा कि चीन की युद्ध भड़काने वाली गतिविधियों पर सर्वश्रेष्ठ प्रतिक्रिया किस प्रकार दी जाए।
- भारत को अपनी सैन्य मुद्रा को सशक्त करने की आवश्यकता होगी, जो चीन का मुकाबला करने का एक साधन तो होगा ही, पड़ोसी देशों को यह भरोसा दिलाने का माध्यम भी होगा कि वह चीन का मुकाबला कर सकने में सक्षम है।
- इसके साथ ही भारत को हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के नौसैनिक बल प्रक्षेपण को रोकने पर भी ध्यान देना चाहिये। बुद्धि और शक्ति की लड़ाई में बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि भारत इस स्थिति पर किस प्रकार प्रतिक्रिया देता है।
- द्विपक्षीय/बहुपक्षीय संबंधों का लाभ उठाना: भारत को वह करना चाहिये जो चीन नहीं कर सकता अर्थात क्षेत्रीय संपर्क का निर्माण, पड़ोसी देशों के लिये अपने बाज़ार, स्कूल एवं सेवाओं के द्वार खोल देना और उपमहाद्वीप में आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिरता के एक स्रोत के रूप में स्वयं को सबल करना।
- क्वाड जैसी साझेदारी का भी विस्तार किया जा सकता है और इसमें सिंगापुर, इंडोनेशिया और वियतनाम को शामिल किया जा सकता है। यह निश्चित रूप से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन का मुकाबला करने की भारत की क्षमता को मज़बूत करेगा।
- अफ्रीका के पूर्वी एवं दक्षिणी क्षेत्रों और हिंद महासागर के द्वीप राज्यों को निरंतर उच्च नीतिगत ध्यान और वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता है।
- एक स्पष्ट आर्थिक और व्यापारिक एजेंडा (इन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में कॉर्पोरेट भारत को संलग्न और प्रोत्साहित करते हुए) निश्चित रूप से दीर्घकालिक लाभांश प्रदान कर सकता है।
- यूरोपीय संघ और आसियान की भूमिका: यूरोपीय संघ की हिंद-प्रशांत रणनीति इस क्षेत्र में अपनी आर्थिक और सुरक्षा प्रोफ़ाइल की वृद्धि करने और इसके साथ संलग्नता बढ़ाने पर लक्षित है। चीन के प्रति अधिक स्पष्टता एवं मुखरता और भारत जैसे भागीदारों के साथ अधिक सहयोग के माध्यम से यूरोपीय संघ (और यू.के.) हिंद-प्रशांत में महत्त्वपूर्ण देश के रूप में उभरने की उम्मीद कर सकते हैं।
- आसियान देशों को चीन की आक्रामकता और तीव्र वृहत शक्ति प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ता है और इसलिये उन्हें सर्वाधिक कार्रवाई की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से क्वाड शक्तियों द्वारा आसियान सरकारों के साथ बहुपक्षीय वार्ताओं का आयोजन आवश्यक है।
- व्यक्तिगत स्तर पर भी भारत को इंडोनेशिया, वियतनाम, फिलीपींस और थाईलैंड जैसे प्रमुख दक्षिण-पूर्व एशियाई भागीदारों के साथ सहयोग बढ़ाना चाहिये।
- आसियान देशों को चीन की आक्रामकता और तीव्र वृहत शक्ति प्रतिद्वंद्विता का सामना करना पड़ता है और इसलिये उन्हें सर्वाधिक कार्रवाई की आवश्यकता है। इस दृष्टिकोण से क्वाड शक्तियों द्वारा आसियान सरकारों के साथ बहुपक्षीय वार्ताओं का आयोजन आवश्यक है।
निष्कर्ष
भारत ने महामारी के दौरान अपने मानवीय कर्तव्यों की पूर्ति में अच्छा प्रदर्शन किया है। अपनी परिधि में इन सद्भावनाओं को आर्थिक और रणनीतिक अवसरों में कुशलतापूर्वक बदल सकने की कला भारत को सीखनी होगी और यही वर्ष 2022 के लिये उसका केंद्रित कार्य होना चाहिये।
अभ्यास प्रश्न: परिवर्तित विश्व व्यवस्था में भारत द्वारा अपनाए जा सकने वाले विदेश नीति दृष्टिकोणों की चर्चा कीजिये।