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  • 19 Feb, 2020
  • 13 min read
आंतरिक सुरक्षा

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में जम्मू-कश्मीर के सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम और उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

विवादों के अतीत पर बसा जम्मू-कश्मीर स्वयं में सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास के तमाम रंग समेटे हुए है। कश्मीर को लेकर साहित्यकारों ने लिखा है, "अगर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त, हमी अस्तो हमी अस्तो हमी अस्त" (धरती पर यदि कहीं स्वर्ग है, तो यहीं है, यहीं है, यही हैं)। जम्मू-कश्मीर दुनिया भर में न केवल अपनी खूबसूरती के लिये जाना जाता है, बल्कि यह समय-समय पर होने वाले राजनीतिक उतार-चढ़ाव के कारण भी विश्व स्तर पर चर्चा में रहता है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के दो पूर्व मुख्यमंत्रियों को राज्य के सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA) के तहत हिरासत में लिया गया, जिसके कारण PSA और जम्मू-कश्मीर एक बार पुनः चर्चा में आ गए हैं। ज्ञात हो कि यह अधिनियम प्रशासन को परीक्षण के बिना किसी भी व्यक्ति को 2 वर्ष के लिये कैद करने का अधिकार देता है। 5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को क्षेत्र की प्रगति में बाधा मानते हुए समाप्त कर दिया था, साथ ही सरकार ने इस संबंध में क्षेत्रवासियों में किसी भी प्रकार की प्रतिशोध की भावना न होने का भी दावा किया था। हालाँकि अनुच्छेद 370 की समाप्ति के 6 महीनों बाद भी सरकार सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम (PSA) का अनवरत प्रयोग कर रही है, जिससे सरकार के दावों पर प्रश्नचिह्न लगता दिखाई दे रहा है। अंततः आवश्यक है कि अधिनियम का विश्लेषण करते हुए इसकी प्रासंगिकता पर चर्चा की जाए।

क्या कहता है सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम?

  • जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम, 1978 एक निवारक निरोध (Preventive Detention) कानून है, इसके तहत किसी व्यक्ति को ऐसे किसी कार्य को करने से रोकने के लिये हिरासत में लिया जाता है जिससे राज्य की सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था प्रभावित हो सकती है।
  • इस अधिनियम के तहत व्यक्ति को 2 वर्षों के लिये हिरासत में लिया जा सकता है।
  • यह कमोबेश राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के समान ही है, जिसका प्रयोग अन्य राज्य सरकारों द्वारा नज़रबंदी के लिये किया जाता है।
  • इस अधिनियम की प्रकृति दंडात्मक निरोध (Punitive Detention) की नहीं है।
  • यह अधिनियम मात्र संभागीय आयुक्त (Divisional Commissioner) या ज़िला मजिस्ट्रेट (District Magistrate) द्वारा पारित प्रशासनिक आदेश से लागू होता है। साथ ही इस संबंध में आदेश पारित करने वाले अधिकारी को किसी भी तथ्य का खुलासा करने की आवश्यकता नहीं होती है।

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम में संशोधन

  • जम्मू-कश्मीर राज्य विधानसभा ने वर्ष 2012 में अधिनियम में संशोधन कर इसके कुछ प्रावधानों को शिथिल बनाने का प्रयास किया था।
  • संशोधन के तहत निरीक्षण से पूर्व नज़रबंदी की अवधि को कम किया गया था। पहली बार अपराध करने वाले लोगों के लिये नज़रबंदी की अवधि को 2 वर्ष से घटाकर 6 महीने कर दिया गया था। हालाँकि अधिकारियों के पास इस 6 महीने की अवधि में सुधार ने होने पर इसे 2 वर्ष करने का विकल्प अब भी मौजूद है।
  • संशोधन के पश्चात् राज्य की कानून व्यवस्था को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने वाले लोगों को हिरासत में लेने संबंधी प्रावधान भी शिथिल किये गए थे। संशोधित प्रावधानों के अनुसार, पहली बार अपराध के लिये हिरासत में लिये गए व्यक्ति को 3 महीने के बाद रिहा किया जा सकता है।
  • वर्ष 2012 से पूर्व तक जम्मू-कश्मीर के इस अधिनियम में 16 वर्ष से अधिक उम्र के किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेने का प्रावधान था, परंतु वर्ष 2012 में अधिनियम को संशोधित कर उम्र सीमा बढ़ा दी गई और अब यह 18 वर्ष है।

PSA लागू होने के पश्चात्

  • सामान्यतः इस अधिनियम के तहत जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है तो गिरफ्तारी के 5 दिनों के भीतर ज़िले का DM उसे लिखित रूप में हिरासत के कारणों के बारे में सूचित करता है। कुछ विशेष परिस्थितियों में इस कार्य में 10 दिन भी लग सकते हैं।
  • हिरासत में लिये गए व्यक्ति को इस प्रकार की सूचना देना DM के लिये आवश्यक होता है, ताकि उस व्यक्ति को भी पता चल सके कि उसे क्यों गिरफ्तार किया गया है एवं वह इस संदर्भ में आगे की रणनीति तैयार कर सके। हालाँकि यदि DM को लगता है कि यह सार्वजनिक हित के विरुद्ध होगा तो उसे यह भी अधिकार है कि वह उन तथ्यों का खुलासा न करे जिनके आधार पर गिरफ्तारी या नज़रबंदी का आदेश दिया गया है।
  • DM को गिरफ्तारी या नज़रबंदी का आदेश सलाहकार बोर्ड के समक्ष प्रस्तुत करना होता है, इस बोर्ड में 1 अध्यक्ष सहित 3 सदस्य होते हैं एवं इसका अध्यक्ष उच्च न्यायालय का पूर्व न्यायाधीश ही हो सकता है। बोर्ड के समक्ष DM उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व भी करता है और यदि व्यक्ति चाहे तो वह बोर्ड के समक्ष खुद भी अपनी बात रख सकता है।
  • सलाहकार बोर्ड 8 हफ्तों के भीतर अपनी रिपोर्ट राज्य को देता है और रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार यह निर्णय लेती है कि यह नज़रबंदी या गिरफ्तारी सार्वजनिक हित में है या नहीं।

अधिनियम का इतिहास

  • जम्मू-कश्मीर में इस अधिनियम की शुरुआत वर्ष 1978 में लकड़ी तस्करी को रोकने के लिये की गई थी, क्योंकि लकड़ी की तस्करी उस समय एक बड़ी समस्या थी और इसके तहत गिरफ्तार लोग काफी आसानी से छोटी-मोटी सज़ा पाकर छूट जाते थे।
  • 1990 के दशक में जब राज्य में उग्रवादी आंदोलनों ने ज़ोर पकड़ा तो दंगाइयों पर काबू पाने के लिये राज्य सरकार ने इस अधिनियम का प्रयोग काफी व्यापक स्तर पर किया।
  • हाल के वर्षों में भी इस अधिनियम का कई बार प्रयोग किया गया है, वर्ष 2016 में हिजबुल मुजाहिदीन के आतंकी बुरहान वानी की गिरफ्तारी को लेकर हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान PSA का प्रयोग कर तकरीबन 550 लोगों को हिरासत में लिया गया था।

सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम की आलोचना

  • शुरुआत से ही इस कानून का व्यापक तौर पर दुरुपयोग किया जाता रहा है, 1990 के दशक तक विभिन्न सरकारों द्वारा बार-बार अपने राजनीतिक विरोधियों पर इसका उपयोग किया गया। जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के बाद से जम्मू-कश्मीर सरकार ने अक्सर अलगाववादियों पर नकेल कसने के लिये PSA का प्रयोग किया है।
  • सामान्य पुलिस हिरासत के विपरीत PSA के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति को नज़रबंदी के 24 घंटों के भीतर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं होती है। इसके अलावा हिरासत में लिये गए व्यक्ति के पास आपराधिक अदालत से ज़मानत पाने के लिये आवेदन करने का अधिकार नहीं होता और वह व्यक्ति अपने प्रतिनिधित्व के लिये किसी वकील की सहायता भी नहीं ले सकता है।
  • कुछ विश्लेषकों के अनुसार, बिना परीक्षण नज़रबंदी की अनुमति देना इस अधिनियम की आलोचना का सबसे मुख्य कारण है। PSA को पहले से पुलिस हिरासत में मौजूद किसी व्यक्ति अथवा हाल ही में ज़मानत पर लौटे किसी व्यक्ति पर भी लागू किया जा सकता है।
  • PSA के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति के समक्ष इस आदेश को चुनौती देने का एकमात्र तरीका बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका (Habeas Corpus Petition) है जिसे हिरासत में लिये गए व्यक्ति के परिवार वालों द्वारा दायर किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को इस प्रकार की याचिका की सुनवाई करने का अधिकार है। हालाँकि यदि न्यायालय इस याचिका को खारिज कर देता है तो हिरासत में लिये गए व्यक्ति के समक्ष और कोई कानूनी विकल्प नहीं बचता है।
  • इस अधिनियम में संभागीय आयुक्त अथवा ज़िला मजिस्ट्रेट द्वारा इस प्रकार के आदेश को पारित करना ‘सद्भाव में किया गया’ (Done in Good Faith) कार्य माना गया है, अतः आदेश जारी करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध किसी भी प्रकार की जाँच नहीं की जा सकती है।
  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 में जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल ने इस अधिनियम में संशोधन किया था, जिसके अनुसार इस अधिनियम के तहत हिरासत में लिये गए व्यक्ति को अब राज्य के बाहर भी रखा जा सकता है।
  • कई अवसरों पर इस अधिनियम का प्रयोग मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं और पत्रकारों पर किया गया है, जिसके कारण कई विशेषज्ञ इस अधिनियम को असंतोष के अधिकार के विरुद्ध मानते हैं।

आगे की राह

  • वर्ष 2010 में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर संबंधी विषयों का विश्लेषण करने के लिये वार्ताकारों के एक समूह का गठन किया था, इस समूह ने वर्ष 2012 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट तौर पर कहा था कि अधिनियम के तहत प्रशासन को दी गईं व्यापक शक्तियाँ इसके दुरुपयोग को आसान बनाती हैं। साथ ही समूह ने अधिनियम को लेकर निम्नलिखित सिफारिशें भी की थी:
    • नज़रबंदी की अवधि छोटे अपराधों के के मामलों में कम-से-कम एक सप्ताह और बड़े अपराधों के लिये एक महीने की होनी चाहिये।
    • किशोरों को PSA के तहत नज़रबंद नहीं किया जाना चाहिये।
  • अधिनियम का प्रयोग कर बार-बार क्षेत्रीय प्रतिनिधियों को नज़रबंद करना, क्षेत्र में शांति व्यवस्था स्थापित करने और राजनीतिक हल खोजने में बाधा उत्पन्न कर सकता है।

प्रश्न: सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम क्या है? आंतरिक सुरक्षा के एक मुख्य उपकरण के रूप में सार्वजानिक सुरक्षा अधिनियम की भूमिका का मूल्यांकन कीजिये।


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