न्यायपालिका में संघवाद: आवश्यकता और महत्त्व
यह एडिटोरियल 17/02/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A case for a more federal judiciary” लेख पर आधारित है। इसमें न्यायपालिका में संघवाद और केंद्रीकरण के मुद्दों के संबंध में चर्चा की गई है।
संदर्भ
लगभग 150 वर्ष पहले ए.वी. डाइसी (A.V. Dicey) ने लिखा था, ‘‘संघवाद (Federalism) की आवश्यक विशेषता उन निकायों के बीच सीमित कार्यकारी, विधायी और न्यायिक अधिकारिता का वितरण है जो एक-दूसरे के साथ समन्वित और एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं।’’ विधायिका और कार्यपालिका के संदर्भ में संघीय ढाँचे को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है।
भारत राज्यों का एक संघ है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना है कि हमारे देश की संघीय प्रकृति संविधान की मूल संरचना का अभिन्न अंग है। लेकिन क्या यह अवधारणा न्यायपालिका में भी समान रूप से लागू होती है?
न्यायपालिका में संघवाद का आशय
- संघवाद, एकात्मवाद (Unitarism)—जहाँ एक सर्वोच्च केंद्र होता है और राज्य/प्रांत उसके अधीन होते हैं और परिसंघवाद (Confederalism)—जहाँ राज्य सर्वोच्च होते हैं और वे एक कमज़ोर केंद्र द्वारा केवल समन्वित होते हैं, के बीच का मध्य-बिंदु होता है।
- संघवाद के अंदर निहित विचार यह है कि प्रत्येक अलग-अलग राज्य के पास लगभग समान राजनीतिक अधिकार हों और इस तरह वे एक बड़े संघ के भीतर अपनी निर्भरता-रहित विशेषताओं को बनाए रखने में सक्षम हों।
- किसी संघीय राज्य की एक अभिन्न आवश्यकता यह होती है कि वहाँ एक मज़बूत संघीय न्यायिक प्रणाली मौजूद हो जो उसके संविधान की व्याख्या करती हो और इस प्रकार संघीय इकाइयों एवं केंद्रीय इकाई के अधिकारों और नागरिक एवं इन इकाइयों के बीच अधिकारों पर अधिनिर्णय करती हो।
- संघीय न्यायिक प्रणाली में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय इस अर्थ में शामिल होते हैं कि केवल यही दो न्यायालय हैं जो अधिकारों पर अधिनिर्णयन कर सकते हैं।
- डॉ. बी.आर अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि ‘‘भारतीय संघ यद्यपि एक द्वैध राजव्यवस्था है, यहाँ द्वैध न्यायपालिका नहीं है। उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय एक एकल एकीकृत न्यायपालिका का निर्माण करते हैं जिसका संवैधानिक कानून, नागरिक कानून या आपराधिक कानून के अंतर्गत उत्पन्न सभी मामलों में न्यायाधिकार होता है और उपचार प्रदान करती है।’’
क्या सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय की स्थिति एकसमान है?
- भारतीय संविधान ने उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की शक्तियों में समानता की परिकल्पना की है, जहाँ उच्च न्यायालय का न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के अधीनस्थ नहीं होता है।
- इस संबंध में एक घटना काफी चर्चित है, जहाँ बॉम्बे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम.सी. छागला और मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.वी. राजमन्नार ने नवगठित सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था, क्योंकि उन्होंने नवगठित न्यायालय में सामान्य न्यायाधीश बनने के बजाय प्रतिष्ठित उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश बने रहने को प्राथमिकता दी थी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कई अवसरों पर इस स्थिति को दुहराया है कि सर्वोच्च न्यायालय केवल अपीलीय अर्थों में उच्च न्यायालय से उच्चतर है।
- इस प्रकार, सैद्धांतिक स्थिति हमेशा से यह रही है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश एकसमान हैं।
- आज़ादी के बाद से 1990 के दशक तक दोनों न्यायालयों के बीच एक बेहतर संतुलन बना रहा था। हालाँकि उसके बाद से यह संतुलन केंद्रीय न्यायालय के पक्ष में झुकता जा रहा है।
- संतुलन की यह आवश्यकता आपातकाल के दौरान रेखांकित हुई थी जब उच्च न्यायालय (सभी नहीं, लेकिन उनकी एक उल्लेखनीय संख्या) स्वतंत्रता के प्रकाशस्तंभ के रूप में सामने आए थे जबकि सर्वोच्च न्यायालय इस कर्तव्य के निर्वहन में विफल रहा था।
- हाल के वर्षों में तीन विशिष्ट प्रवृत्तियों ने उच्च न्यायालय की स्थिति को अत्यंत कमज़ोर कर दिया है, जिससे न्यायपालिका के संघीय ढाँचे में एक असंतुलन उत्पन्न हुआ है।
- पहली प्रवृत्ति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय (बल्कि इसके न्यायाधीशों का एक वर्ग जिसे ‘कॉलेजियम’ कहा जाता है) के पास उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की शक्ति है। इस कॉलेजियम के पास न्यायाधीशों और मुख्य न्यायाधीशों को एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति भी है।
- दूसरा यह की उत्तरवर्ती सरकारों ने ऐसे कानून पारित किये हैं, जो न्यायालयों एवं न्यायाधिकरणों की एक समानांतर न्यायिक प्रणाली का निर्माण करते हैं और जहाँ उच्च न्यायालयों को दरकिनार करते हुए सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के प्रावधान किये गए हैं।
- तीसरी, सर्वोच्च न्यायालय मामूली विषयों से संबंधित मामलों की भी सुनवाई में पर्याप्त उदार रहा है।
न्यायपालिका के केंद्रीकरण से संबद्ध समस्याएँ
- केंद्रीकृत शासन: इससे अनिवार्य रूप से न्यायपालिका के केंद्रीकरण के पक्ष में संतुलन बिगड़ गया है। न्यायपालिका का केंद्रीकरण जितना अधिक होगा, संघीय ढाँचा उतना ही कमज़ोर होगा।
- केंद्रीकृत न्यायपालिका का केंद्र के हितों के अधिक अनुकूल होना: संयुक्त राज्य अमेरिका में विधि शोधकर्त्ताओं के एक अनुभवजन्य शोध से पता चलता है कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संघीय कानून की तुलना में किसी राज्य कानून को असंवैधानिक मानते हुए निरस्त कर देने की संभावना अधिक होती है।
- इस शोध से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक केंद्रीकृत न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा एकात्मवाद (संघवाद के विपरीत) की ओर झुके होने की प्रवृत्ति रखती है।
- समान संघीय व्यवस्था वाले नाइजीरिया में हुए एक शोध से पता चला कि सर्वोच्च न्यायालय राज्य इकाइयों पर केंद्र सरकार की अधिकारिता का पक्ष-समर्थन करता है। उसका यह दृष्टिकोण हाल ही में खनिज अधिकारों एवं उप-अधिकारों संबंधी मुकदमों में प्रकट हुआ जहाँ उसने उन व्याख्याओं की पुष्टि की जो राज्यों पर केंद्र के अधिकारों के अधिभावी होने का समर्थन करते हैं।
- उच्च न्यायालयों में सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप: वर्तमान में भारत का सर्वोच्च न्यायालय एक कॉलेजियम की भूमिका निभाते हुए उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति या उनके स्थानांतरण अथवा उपयुक्त रूप से वरिष्ठ उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश या उच्चतम न्यायालय के एक न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति (या नियुक्ति में देरी) में प्रभावी शक्ति का उपभोग करता है। इस स्थिति में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बीच शक्ति संतुलन के संबंध में कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता।
- स्थानीय महत्त्व के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय के इस आक्रामक हस्तक्षेपकारी रुख के ही कारण देश की किसी भी समस्या के रामबाण उपचार के लिये सीधे सर्वोच्च न्यायालय पहुँचने की प्रवृत्ति बढ़ी है। ज्ञात हो कि वर्ष 2018 में दिल्ली के कुछ लोगों ने दीपावली मनाने के तरीकों पर अंकुश के लिये अपनी याचिका सीधे सर्वोच्च न्यायालय को पेश कर दी थी।
- सर्वोच्च न्यायालय उन मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा है जो स्पष्ट रूप से स्थानीय महत्त्व के होते हैं और किसी संवैधानिक प्रश्न से उनका संबंध नहीं होता। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं ही हाल में कहा कि ‘‘ऐसे मामले संस्था को निष्क्रिय बना रहे हैं... ये मामले न्यायालय के महत्त्वपूर्ण समय को बर्बाद करते हैं, जो समय गंभीर मामलों पर या अखिल भारतीय मामलों पर निवेश किया जा सकता था।’’
- उच्च न्यायालय का निरर्थक होना: जब भी सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध किसी अपील पर विचार करता है तो वह उच्च न्यायालय को प्रश्नगत करता है। यह उच्च न्यायालय को एक निरर्थक निकाय की तरह प्रकट करता है।
- उच्च न्यायालय प्रभावी रूप से जनहित याचिकाओं का निपटारा कर सकता है: जब भी सर्वोच्च न्यायालय किसी ऐसे मामले पर जनहित याचिका (PIL) की सुनवाई करता है जिसे उच्च न्यायालय द्वारा प्रभावी ढंग से निपटाया जा सकता है, तब उच्च न्यायालय की प्रभावशीलता पर संदेह पैदा होता है।
- न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के समानांतर पदानुक्रमों का निर्माण (चाहे वह प्रतिस्पर्द्धा आयोग हो या कंपनी कानून न्यायाधिकरण या उपभोक्ता अदालतें) उच्च न्यायालयों की स्थिति की अनदेखी करता प्रतीत होता है।
- कानूनों का मसौदा इस तरह तैयार किया गया है जैसे उच्च न्यायालय की कोई भूमिका ही नहीं है और सर्वोच्च न्यायालय ही सीधे अपीलीय अदालत के रूप में कार्य करता है।
आगे की राह
- सर्वोच्च न्यायालय को स्वयं ही आत्म-त्याग (self-abnegation) के महत्त्व की पहचान करनी चाहिये और उच्च न्यायालयों को पुन:सशक्त कर संघीय संतुलन बहाल करना चाहिये। यह देश के सर्वश्रेष्ठ हित में होगा।
- सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना भारतीय संविधान के तहत हुई थी और यह अपेक्षाकृत नया संस्थान है। दूसरी ओर देश के कुछ उच्च न्यायालय 1860 के दशक से अस्तित्व में हैं (और उनमें से कुछ तो प्रेसीडेंसियों के सर्वोच्च न्यायालयों के रूप में इससे भी पहले से अस्तित्व में थे)।
- इसलिये यह उचित होगा कि अनजाने में भी उनकी भूमिका को कमतर नहीं किया जाए।
- डॉ. अंबेडकर द्वारा परिकल्पित संवैधानिक ढाँचे के कुशल कार्यकरण के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के बीच एक बेहतर संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है।
अभ्यास प्रश्न: संवैधानिक ढाँचे के कुशल कार्यकरण के लिये सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के बीच एक बेहतर संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। भारत में एकीकृत न्यायपालिका के संदर्भ में विद्यमान समस्याओं की चर्चा कीजिये।