ब्रिटेन के लिये पेचीदा होता जा रहा ब्रेक्ज़िट का मुद्दा
संदर्भ
ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे का यूरोपीय संघ से अलग होने संबंधी ब्रेक्ज़िट (Brexit) समझौता संसद में पारित नहीं हो सका। ‘हाउस ऑफ कॉमंस' में उनके प्रस्ताव को 432 के मुकाबले 202 मतों से हार का सामना करना पड़ा। अब प्रधानमंत्री को जल्दी ही संसद में Plan-B पेश करना होगा।
बेशक यह आधुनिक इतिहास में ब्रिटेन की संसद में किसी भी प्रधानमंत्री की सबसे बड़ी हार थी, लेकिन इसके अगले ही दिन टेरेसा मे ने संसद में विश्वास मत जीत लिया। 325 सांसदों ने उनकी सरकार का समर्थन किया, जबकि 306 सांसदों ने अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया। इस वज़ह से यूरोपीय संघ से बाहर निकलने की ब्रिटेन की राह और मुश्किल हो गई है।
क्यों पहुँचा यह मुद्दा ब्रिटिश संसद में?
दरअसल 2017 में ब्रिटेन के सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ब्रेक्ज़िट पर संसद में मतदान होना चाहिये कि क्या सरकार इसकी प्रक्रिया शुरू कर सकती है या नहीं? और इस मुद्दे पर स्कॉटलैंड, वेल्स और उत्तरी आयरलैंड की संसद से मंज़ूरी लेने की आवश्यकता नहीं है। कोर्ट ने कहा था कि ब्रेक्ज़िट पर संसद की राय नहीं लेना अलोकतांत्रिक होगा। इस निर्णय के बाद ब्रिटिश सरकार लिस्बन संधि के अनुच्छेद 50 को आत्मनिर्णय के आधार पर लागू नहीं कर पाई और यह मामला संसद में लाना पड़ा। आपको बता दें कि लिस्बन संधि के अनुच्छेद 50 के तहत किसी सदस्य देश के यूरोपीय संघ से अलग होने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू होती है।
ब्रेक्ज़िट के लिये जनमत संग्रह हुआ था UK में?
- ब्रेक्ज़िट (Brexit) दो शब्दों- Britain+Exit से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है ब्रिटेन का बाहर निकलना।
- यूरोपीय संघ में रहने या न रहने के सवाल पर यूनाइटेड किंगडम में 23 जून 2016 को जनमत संग्रह कराया गया था, जिसमें लगभग 52 फीसदी वोट यूरोपीय संघ से बाहर होने के पक्ष में पड़े थे।
- जनमत संग्रह में केवल एक प्रश्न पूछा गया था- क्या यूनाइटेड किंगडम को यूरोपीय संघ का सदस्य बने रहना चाहिये या इसे छोड़ देना चाहिये?
- इसके पीछे ब्रिटेन की संप्रभुता, संस्कृति और पहचान बनाए रखने का तर्क देते हुए इसे Brexit नाम दिया गया।
- ब्रेक्ज़िट तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन का चुनावी वादा था, इसीलिये यह जनमत संग्रह हुआ।
- इसके बाद प्रधानमंत्री डेविड कैमरन को इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि वह यूरोपीय संघ में बने रहने के पक्षधर थे।
गौरतलब है कि कि 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के कार्यकाल में ब्रिटेन यूरोपीय संघ में शामिल हुआ था। लेकिन ब्रिटेन ने साझा मुद्रा ‘यूरो’ नहीं अपनाई, वह शेंगेन (Schengen) के पासपोर्ट-मुक्त क्षेत्र से बाहर रहा और अपनी मुक्त बाज़ार नीति जारी रखी। आपको बता दें कि ग्रेट ब्रिटेन में तीन देश (इंग्लैंड, वेल्स तथा स्कॉटलैंड) शामिल हैं...और जब बात यूनाइटेड किंगडम की होती है तो इनके साथ उत्तरी आयरलैंड भी शामिल हो जाता है।
क्या हो सकती हैं संभावनाएँ...कैसे दूर हो सकता है गतिरोध?
- यूनाइटेड किंगडम एक बेहतर डील के लिये प्रयास कर सकता है। लेकिन यूरोपीय संघ किसी अन्य डील पर विचार करने से लगातार इनकार करता रहा है।
- यूनाइटेड किंगडम बिना किसी डील के 29 मार्च को यूरोपीय संघ से बाहर आ जाए। लेकिन इससे यूनाइटेड किंगडम के कारोबार पर गहरा असर पड़ सकता है। इससे आयरलैंड की सीमा प्रभावित हो सकती है, जो गुड फ्राइडे एग्रीमेंट (Good Friday Agreement) में तय शर्तों के विपरीत होगा।
- ब्रेक्ज़िट की प्रक्रिया विलंबित कर दी जाए अर्थात यूनाइटेड किंगडम 29 मार्च को यूरोपीय संघ से बाहर न आए। इसकी संभावना सबसे अधिक है। लेकिन समय-सीमा जून 2019 से आगे नहीं खिसकाई जा सकती, क्योंकि तब नई यूरोपियन पार्लियामेंट कार्यभार संभालेगी जिसमें ब्रिटिश शामिल नहीं होंगे।
- ब्रिटेन में आम चुनाव करवाए जाएं और नई सरकार नए सिरे से यूरोपीय संघ के साथ बातचीत कर इस समस्या का हल निकालने का प्रयास करे।
- ब्रेक्ज़िट के मुद्दे पर यूनाइटेड किंगडम में एक बार फिर से जनमत संग्रह कराया जाए, लेकिन वर्तमान में इस विचार का अधिकांश सांसद विरोध कर रहे हैं।
इंग्लैंड में अनिश्चितता का माहौल
ब्रेक्ज़िट पर अब इंग्लैंड में अनिश्चितता का माहौल बन गया है। हर आँख एक ही सवाल पूछती प्रतीत होती है...अब आगे क्या होगा? लेकिन ऐसा नहीं है कि सारे रास्ते बंद हो गए हैं। यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के हटने की अंतिम तारीख 29 मार्च, 2019 है। एक संभावना यह है कि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से और अधिक रियायतें लेने की कोशिश करेगा और इस बारे में कोई नया प्रस्ताव वहाँ की संसद में आ सकता है। दूसरी संभावना यह है कि यदि सरकार ब्रेक्ज़िट पर संसद का विश्वास नहीं जीत पाती है, तो इस मुद्दे पर फिर से जनमत संग्रह कराया जा सकता है। लेकिन समय की कमी की वज़ह से इसे दो महीने में अंजाम तक पहुँचाने की चुनौती लगभग असंभव प्रतीत होती है। आज हालात चाहे जैसे हों, पर जनमत संग्रह के बाद से अब तक यह साफ हो चुका है कि यूरोपीय संघ से अलग होने के बाद भी ब्रिटेन उन दायित्वों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकेगा, जिनके विरोध में वहाँ के लोगों ने जनमत संग्रह का पक्ष लिया था। इसके अलावा, अन्य यूरोपीय देशों की भी अपनी मांग है, जिसको पूरा करना ब्रिटेन के लिये ज़रूरी होगा।
भारत पर क्या होगा असर?
- ब्रेक्ज़िट से भारतीय कारोबार पर भी असर पड़ने की बात कही जा रही है। यह तय है कि यदि ब्रेक्ज़िट को अमलीजामा पहनाया जाता है तो इसका असर वैश्विक बाज़ार पर भी पड़ सकता है।
- ब्रिटेन और भारत के द्विपक्षीय कारोबार के भी इसे प्रभावित होने की संभावनाएँ जताई जा रही हैं।
- इसके पीछे वजह यह है कि किन शर्तों पर ब्रिटेन अलग होता है और अलग होने के बाद यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच निवेश व कारोबार को लेकर किस तरह के समझौते होते हैं?
- ब्रेक्ज़िट की वजह से ही न तो भारत व ब्रिटेन के बीच नए कारोबारी समझौते की शुरुआत हो पाई है और न ही भारत व यूरोपीय संघ के बीच होने वाले FTA पर बातचीत आगे बढ़ पाई है।
- इस अनिश्चितता का असर ब्रिटेन में कारोबार करने वाली भारतीय कंपनियों पर भी पड़ेगा। नैसकॉम के अनुसार, देश की IT कंपनियों के कुल कारोबार में ब्रिटेन की हिस्सेदारी लगभग 10 फीसदी है।
- ब्रिटेन में आर्थिक मंदी होने का असर वहां से भारत आने वाली रेमिटेंस की राशि पर भी पड़ सकता है। अभी भारत में कुल जितनी राशि प्रवासी भारतीय भेजते हैं, उसका पाँच फीसदी ब्रिटेन से आता है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ब्रेक्ज़िट ने ब्रिटेन में अनिश्चितता का माहौल पैदा कर दिया है। वहाँ कई सवाल हवा में तैर रहे हैं। जैसे-
- ब्रिटेन जब यूरोपीय संघ से अलग होगा तो क्या उसकी अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो जाएगी?
- यूरोप के देशों से आकर ब्रिटेन में रहने वालों की नागरिकता क्या होगी?
- उन्हें ब्रिटेन में रहने की अनुमति होगी या नहीं?
- यूरोप में ब्रिटेन के नागरिकों को रहने की इजाज़त होगी या नहीं?
- क्या दोनों पक्षों के देशों के नागरिकों को बग़ैर वीज़ा के प्रवेश करने की आज़ादी होगी?
ब्रेक्ज़िट के पक्षधर और ब्रेक्ज़िट के विरोधी
यूरोपीय संघ से नाता तोड़ लेने के समर्थक ब्रिटिश लोगों की दलील है कि ब्रिटेन की पहचान, आज़ादी और संस्कृति को बनाए एवं बचाए रखने के लिये ऐसा करना ज़रूरी हो गया है। ये लोग ब्रिटेन में भारी संख्या में आने वाले प्रवासियों पर भी सवाल उठा रहे हैं। इनका यह भी कहना है कि ब्रिटेन को हर साल अरबों पाउंड यूरोपीय संघ को देने पड़ते हैं और यह ब्रिटेन पर अपने 'अलोकतांत्रिक' कानून थोपता है। दूसरी ओर, यूरोपीय संघ में बने रहने के समर्थकों का कहना है कि यूरोपीय संघ में बने रहना ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के लिये ज़्यादा अच्छा रहेगा। इनके विचार में यूरोप ही ब्रिटेन का सबसे अहम बाज़ार है और विदेशी निवेश का सबसे बड़ा स्रोत भी। ऐसे में ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर निकलना उसकी अर्थव्यवस्था के लिये घातक हो सकता है।
अब सारी दुनिया साँस रोककर बैठी देख रही है कि ब्रेक्ज़िट का ऊँट किस करवट बैठता है।