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एडिटोरियल

  • 16 Feb, 2022
  • 13 min read
शासन व्यवस्था

व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य

यह एडिटोरियल 14/02/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A Dipping Graph in Occupational Safety” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य परिदृश्य के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ 

व्यावसायिक और औद्योगिक सुरक्षा को बढ़ावा देने के मामले में भारत का प्रदर्शन वर्षों से जारी मज़बूत आर्थिक विकास के बावजूद कमज़ोर ही बना हुआ है। कार्य वातावरण को सुरक्षित बनाने को कम प्राथमिकता दी गई है जबकि इस तरह के निवेशों के उत्पादकता लाभ हमेशा से स्पष्ट रहे हैं। इसके परिणामस्वरूप बार-बार दुर्घटनाएँ सामने आती रहती हैं जिसमें जान-माल का नुकसान होता रहता है, लेकिन एक ऐसे बाज़ार में जहाँ श्रम की स्थिर आपूर्ति की स्थिति है नीति-निर्माता इस तरह के नुकसान के व्यापक प्रभाव की अनदेखी करते रहे हैं। यद्यपि व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य (Occupational Safety and Health- OSH) एक अस्तित्वपरक मानव एवं श्रम अधिकार है इस विषय पर भारत के विधि निर्माताओं और यहाँ तक कि ट्रेड यूनियनों द्वारा भी उचित ध्यान नहीं दिया गया है। सभी के लिये सुरक्षित कार्यस्थल सुनिश्चित करने हेतु सुधारात्मक कार्रवाई और नीतियाँ तैयार करने के लिये सभी राज्यों में सुदृढ़ निगरानी (निरीक्षण) व्यवस्था और व्यापक डेटाबेस की आवश्यकता है।

भारत में व्यावसायिक सुरक्षा

व्यावसायिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के प्रावधान:

  • भारत में औद्योगिक दुर्घटनाओं और व्यावसायिक सुरक्षा से संबंधित अंतिम आँकड़े श्रम एवं  रोज़गार मंत्रालय के श्रम ब्यूरो द्वारा प्रदान किये जाते हैं।
  • व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थल स्थिति संहिता, 2020 नियोक्ताओं और कर्मियों के कर्तव्यों का वर्णन करती है और विभिन्न क्षेत्रों के लिये सुरक्षा मानकों की परिकल्पना करती है जहाँ कामगारों के स्वास्थ्य एवं कार्यस्थल स्थिति, काम के घंटे, छुट्टी आदि पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
    • यह संहिता संविदा कर्मियों के अधिकारों को भी मान्यता देती है।
    • यह संहिता सामाजिक सुरक्षा और निश्चित अवधि के कर्मचारियों को उनके स्थायी समकक्षों के बराबर वेतन/मज़दूरी जैसे वैधानिक लाभ प्रदान करती है।
  • यह संहिता लैंगिक समानता लाने और महिला कार्यबल को सशक्त बनाने की भी भावना रखती है।
    • महिलाएँ सभी प्रकार के कार्यों के लिये सभी प्रतिष्ठानों में नियोजित होने की हकदार होंगी और अपनी सहमति से (सुरक्षा, छुट्टियों और काम के घंटों से संबंधित ऐसी शर्तों के अधीन) सुबह 6 बजे से पहले और शाम 7 बजे के बाद भी कार्य कर सकती हैं।

श्रम ब्यूरो द्वारा प्रस्तुत आँकड़े में विद्यमान दोष: 

  • उपलब्ध सरकारी आँकड़े विनिर्माण और खनन क्षेत्रों में व्यावसायिक आघातों (Occupational Injuries) की घटती प्रवृत्ति को दर्शाते हैं क्योंकि आँकड़ों के विश्लेषण के समय अपंजीकृत कारखानों और खदानों को इसके दायरे में शामिल नहीं किया जाता है।
    • वर्ष 2011-16 के दौरान सरकार को रिपोर्ट किये गए व्यवसाय संबंधी रोगों के मामलों की संख्या केवल 562 थी। इसके विपरीत नेशनल मेडिकल जर्नल ऑफ इंडिया, 2016 में प्रकाशित एक वैज्ञानिक लेख में सिलिकोसिस (Silicosis) और बिसिनोसिस (Byssinosis) जैसे व्यावसायिक रोगों के प्रसार की पुष्टि की गई।
  • श्रम ब्यूरो कारखानों, खदानों, रेलवे, डॉक और बंदरगाह जैसे केवल कुछ क्षेत्रों से संबंधित औद्योगिक समस्याओं पर ही आँकड़ों का संकलन और प्रकाशन करता है। 
    • ब्यूरो ने अभी तक वृक्षारोपण, निर्माण, सेवा क्षेत्र आदि क्षेत्रों को शामिल कर आघातों पर आँकड़ों के दायरे का विस्तार नहीं किया है।
  • इसके अलावा प्राप्त आँकड़े भारत की स्थिति का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं क्योंकि कई प्रमुख राज्य श्रम ब्यूरो को सही आँकडें प्रदान नहीं कर पाते हैं।
    • उदाहरण के लिये वर्ष 2013-14 के दौरान दिल्ली, गुजरात, केरल, ओडिशा, पंजाब, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे कई प्रमुख राज्यों ने आँकडें प्रदान करने में चूक की और इस प्रकार अखिल भारतीय स्तर पर प्राप्त आँकड़ों  में कमी देखी गई थी।
  • मामलों की अंडर-रिपोर्टिंग (Under-Reporting) एक अन्य गंभीर मुद्दा है जो स्पष्ट कारणों से घातक चोटों की तुलना में गैर-घातक चोटों के मामले में अधिक है।
    • लघु स्तर के उद्योगों में औद्योगिक आघातों की बड़े पैमाने पर अंडर-रिपोर्टिंग की स्थिति बनी रहती है।

कारखाना निरीक्षकों की नियुक्ति और निरीक्षण दर की स्थिति 

  • महानिदेशालय, कारखाना सलाह सेवा और श्रम संस्थान (DGFASLI) के अनुसार, वर्ष 2019 में भारत में कारखाना निरीक्षकों (factory inspectors) के लिये स्वीकृत पदों पर कार्य करने का अनुपात (रोज़गार दर) 70.60% था।
    • यद्यपि महाराष्ट्र (38.93%), गुजरात (57.52%), तमिलनाडु (58.33%) और बिहार (47.62%) जैसे प्रमुख राज्यों में निरीक्षकों की रोज़गार दर अत्यधिक खराब थी।
    • वर्ष 2019 में प्रत्येक 487 पंजीकृत कारखानों पर केवल एक निरीक्षक था (प्रत्येक 25,415 श्रमिकों के लिये एक निरीक्षक) जो निरीक्षकों पर भारी कार्यभार का खुलासा करता है।
  • अखिल भारतीय स्तर पर निरीक्षण दर (Inspection Rates) वर्ष 2008-11 के 36.23% से घटकर वर्ष 2012-2015 में 34.65% और वर्ष 2018-19 में 24.76% रह गई।
    • वर्ष 2008-2019 के दौरान जब केरल और तमिलनाडु में उच्च निरीक्षण दर (63%-66%) की स्थिति थी, तब गुजरात और महाराष्ट्र में 26%-30% की निम्न दर और हरियाणा में 11.09% की न्यूनतम दर मौजूद थी।
    • महाराष्ट्र (31% से 12%) और हरियाणा (14% से 7%) के लिये ऊपर उल्लिखित तीन उप-अवधियों में गिरावट की दर अन्य राज्यों की तुलना में बहुत अधिक (50% और उससे अधिक) थी।
      • पिछले 12 वर्षों में लगभग सभी राज्यों में निरीक्षण दरों में गिरावट आई है।

आगे की राह

  • अभिसमयों का पालन करना: भारत ने अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के विभिन्न अभिसमयों, श्रम निरीक्षण अभिसमय, 1947 एवं श्रम सांख्यिकी अभिसमय, 1985 की पुष्टि की है और इसलिये उसे इन अभिसमयों के उल्लंघन को रोकने के लिये तत्काल और सख्त कार्रवाई करनी चाहिये।
    • यह महत्त्वपूर्ण है कि भारत प्रभावी हस्तक्षेप के लिये स्थिति को बेहतर ढंग से समझने हेतु कुशल व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य (OSH) आँकड़ा संग्रह प्रणाली स्थापित करे।
  • मौजूदा नीतियों का पुनरीक्षण: श्रम संहिताओं (विशेष रूप से OSH कोड), निरीक्षण और श्रम सांख्यिकीय प्रणालियों की समीक्षा किये जाने की आवश्यकता है क्योंकि सरकार श्रम मंत्रालय के लिये ‘विज़न@2047’ दस्तावेज़ तैयार करने की प्रक्रिया में है।
    • ऐसी नीतियाँ बनाना आवश्यक है जो अनुभवी सांसदों के सतर्क निरीक्षण से होकर गुजरें और इनमें कामगारों, नियोक्ताओं और विशेषज्ञों के परामर्श भी शामिल हों।
    • सुरक्षा से समझौता करने के गंभीर परिणाम सामने आ सकते हैं और उनका प्रभाव कारखानों की सीमा से आगे निकल देश के लिये एक बुरी स्मृति बन सकता है, जैसा भोपाल गैस त्रासदी मामले में हुआ था।
  • जन जागरूकता: कार्य-संबंधी दुर्घटनाओं एवं बीमारियों को रोकने और खतरनाक कार्यस्थल वातावरण में सुधार के लिये जन जागरूकता को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
    • भारत कामगारों एवं नियोक्ताओं के लिये मज़बूत राष्ट्रीय अभियायों और जागरूकता प्रसार गतिविधियों का संचालन कर सकता है।
      • युवा लोग विशेष रूप से OSH जोखिमों के प्रति अधिक सुभेद्य/संवेदनशील होते हैं और उन्हें OSH समाधान खोजने में सक्रिय भूमिका निभाने की आवश्यकता है।
    • इसी प्रकार, मास मीडिया एवं पत्रकार विभिन्न आर्थिक क्षेत्रों में कामगारों की सुरक्षा और स्वास्थ्य चुनौतियों को उजागर कर सकते हैं और दुर्घटनाओं एवं बीमारियों को कम करने के बारे में सूचना का प्रसार कर सकते हैं।
  • OSH समितियाँ: कार्यस्थल स्तर पर सर्वप्रथम OSH समितियों की स्थापना की जानी चाहिये और खतरों की पहचान करने एवं OSH में सुधार लाने हेतु अभिकर्ताओं को संलग्न किया जाना चाहिये।
    • OSH जोखिमों की पहचान करने और समाधानों को लागू करने हेतु कामगार स्वयं अग्रिम पंक्ति के अभिकर्त्ता होते हैं।
    • यह बात सुस्थापित है कि एक सुरक्षित एवं स्वस्थ कार्यस्थल एक उत्पादक एवं गतिशील कार्यस्थल होता है, जो संवहनीय व्यवसाय की ओर ले जाता है।

निष्कर्ष

कार्य के दृष्टिकोण में गहरे बदलाव आ रहे हैं। सरकारों, नियोक्ताओं, कामगारों एवं अन्य हितधारकों के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि वे सभी के लिये भविष्य के सुरक्षित और स्वस्थ कार्यस्थल बन सकने के अवसरों का लाभ उठाएँ। कार्यस्थल पर सुरक्षा और स्वास्थ्य में सुधार के लिये उनके दिन-प्रतिदिन के प्रयास भारत के ठोस सामाजिक-आर्थिक विकास में प्रत्यक्ष योगदान कर सकते हैं।

अभ्यास प्रश्न: ‘एक ‘सुरक्षित एवं स्वस्थ’ कार्यस्थल एक उत्पादक एवं गतिशील कार्यस्थल होता है। यह भारत के ठोस सामाजिक-आर्थिक विकास में प्रत्यक्ष योगदान करता है।’’ टिप्पणी कीजिये।


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