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एडिटोरियल

  • 15 Jul, 2022
  • 14 min read
भारतीय राजव्यवस्था

भारत में शहरी स्थानीय शासन

यह एडिटोरियल 13/07/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The scale of municipal finances is inadequate” लेख पर आधारित है। इसमें शहरी स्थानीय निकायों से संबद्ध चुनौतियों और उन्हें सशक्त बनाने के उपायों के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

शहरीकरण भारतीय समाज की एक आम विशेषता बन गया है। चूँकि शहर वैश्वीकरण के मुख्य लाभार्थी रहे हैं और शहरी जनसंख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, रोज़गार की तलाश में लाखों लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं।

  • यह भारतीय शहरों को भारतीय अर्थव्यवस्था के संरचनात्मक परिवर्तन के संचालक या प्रेरक के रूप में स्थापित करने की आवश्यकता को दर्शाता है। इसके लिये आधारभूत संरचना में वृद्धि और उनके उन्नयन की आवश्यकता है जिसके लिये राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के सक्रिय समर्थन की ज़रूरत है।
  • हमारा संविधान न केवल राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों के माध्यम से बल्कि विशेष रूप से संविधान के 73वें और 74वें संशोधन, जो देश के शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में वास्तविक रूप से स्वशासी स्थानीय निकायों के माध्यम से ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र की बहाली के लिये एक संस्थागत ढाँचा तैयार करने का लक्ष्य रखते हैं, के माध्यम से भी लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के लिये एक स्पष्ट अधिदेश प्रदान करता है।
  • हालाँकि संवैधानिक अधिदेश के बावजूद देश में शासन के तृतीयक स्तर के रूप में स्वशासी स्थानीय निकायों का विकास असमान और धीमा ही रहा है। इन निकायों को 3‘F’ (Funds, Functions and Functionaries) का हस्तांतरण नाममात्र (केरल जैसे उल्लेखनीय अपवादों के साथ) ही रहा है।
  • स्थानीय शासन में संस्थागत सुधारों को आर्थिक सुधारों के साथ जोड़ना गांधीजी के ‘पूर्ण स्वराज’ में अंतर्निहित दूरदर्शी दृष्टि रही थी। लेकिन वर्तमान वस्तुस्थिति इसके विपरीत है जहाँ भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) ने नवंबर 2021 में जारी अपनी ‘राज्य वित्त: 2021-22 के बजट का अध्ययन’ शीर्षक रिपोर्ट में कहा है कि भारत में तृतीय स्तर की सरकारें रोकथाम रणनीतियों, स्वास्थ्य देखभाल, क्वारंटाइन एवं परीक्षण सुविधाओं को कार्यान्वित करके, टीकाकरण शिविर आयोजित करके और आवश्यक वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति को बनाए रखकर महामारी का मुकाबला करने में अग्रणी भूमिका निभा रही हैं, जिससे उनकी वित्तीय स्थिति गंभीर दबाव में आ गई है और वे अपने व्यय में कटौती करने तथा विभिन्न स्रोतों से धन जुटाने के लिये बाध्य हो रही हैं।

भारत में शहरी स्थानीय सरकार की संरचना का स्वरूप

शहरी स्थानीय सरकार आठ प्रकार के शहरी स्थानीय निकाय के रूप में कार्यरत हैं:

  • नगर निगम:
    • नगर निगम (Municipal corporations) आमतौर पर बंगलुरु, दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे बड़े नगरों में कार्यरत हैं।
  • नगरपालिका:
    • छोटे शहरों में नगरपालिकाओं (Municipalities) का प्रावधान है।
    • नगरपालिकाओं को प्रायः नगर परिषद, नगरपालिका समिति, नगरपालिका बोर्ड जैसे अन्य नामों से भी जाना जाता है।
  • अधिसूचित क्षेत्र समिति:
    • तेज़ी से विकसित हो रहे क़स्बों और बुनियादी सुविधाओं से वंचित क़स्बों के लिये अधिसूचित क्षेत्र समितियों (Notified area committees) का गठन किया जाता है।
    • अधिसूचित क्षेत्र समिति के सभी सदस्य राज्य सरकार द्वारा मनोनीत किये जाते हैं।
  • नगर क्षेत्र समिति:
    • नगर क्षेत्र समिति (Town Area Committee) छोटे शहरों में पाई जाती है।
    • इसके पास स्ट्रीट लाइटिंग, ड्रेनेज रोड और कंजर्वेंसी जैसे न्यूनतम अधिकार होते हैं।
  • छावनी बोर्ड:
    • छावनी बोर्ड (Cantonment Board) आमतौर पर छावनी क्षेत्र में रहने वाले नागरिक आबादी के लिये स्थापित किया जाता है।
    • इसे केंद्र सरकार द्वारा गठित और संचालित किया जाता है।
  • टाउनशिप:
    • किसी संयंत्र या प्लांट के पास स्थापित कॉलोनियों में रहने वाले कर्मचारियों और श्रमिकों को बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने के लिये टाउनशिप के रूप में शहरी सरकार स्थापित की जाती है।
    • इसका कोई निर्वाचित सदस्य नहीं होता और यह नौकरशाही संरचना का ही विस्तार होता है।
  • पोर्ट ट्रस्ट
    • पोर्ट ट्रस्ट (Port trusts) मुंबई, चेन्नई, कोलकाता जैसे बंदरगाह क्षेत्रों में स्थापित किये गए हैं।
    • यह बंदरगाह का प्रबंधन और देखभाल करता है।
    • यह उस क्षेत्र में रहने वाले लोगों को बुनियादी नागरिक सुविधाएँ भी प्रदान करता है।
  • विशेष प्रयोजन एजेंसी:
    • विशेष प्रयोजन एजेंसियाँ (Special Purpose Agency) नगर निगमों या नगरपालिकाओं से संबंधित निर्दिष्ट गतिविधियों या विशिष्ट कार्यों को पूरा करती हैं।

शहरी स्थानीय निकायों के समक्ष विद्यमान समस्याएँ

  • वित्तीय कमी:
    • ज़मीनी स्तर पर सुशासन हेतु वित्तीय तंगी सबसे बड़ी बाधा बन गई है।
    • अंतर-सरकारी स्थानांतरण पर निर्भरता:
      • शहरी स्थानीय सरकार राज्य की संचित निधि से सहायता अनुदान प्राप्त करने के लिये राज्य सरकारों पर बहुत अधिक निर्भर करती है।
    • राजस्व में हिस्सेदारी की गंभीर कमी:
      • सामान्यतः उनके कार्यों की तुलना में उनकी आय का स्रोत अपर्याप्त होता है। उनकी आय का मुख्य स्रोत उनके द्वारा एकत्र विभिन्न प्रकार के कर हैं।
      • हालाँकि शहरी निकायों द्वारा एकत्र किये जाते कर प्रदत्त सेवाओं पर व्ययों की पूर्ति के लिये पर्याप्त नहीं होते।
      • यद्यपि वे कुछ नए कर भी लगा सकते हैं, लेकिन इन स्थानीय निकायों के निर्वाचित सदस्य अपने मतदाताओं को नाराज कर देने के भय से ऐसा करने से संकोच रखते हैं।
  • अनियोजित शहरीकरण:
    • उचित योजना के अभाव में नगर निकाय सेवाओं के लिये गुणात्मक और मात्रात्मक दोनों रूप से जनसंख्या की बढ़ती आवश्यकताओं की पूर्ति करना कठिन होता है।
      • स्थानीय निकायों की प्रशासनिक मशीनरी अपर्याप्त है। भूमि का विवेकपूर्ण उपयोग नहीं हो रहा है, स्कूल, पार्क और अस्पताल जैसी आवश्यक सुविधाओं के बिना कॉलोनियों की स्थापना की जा रही है, मलिन बस्तियों के विकास पर नियंत्रण नहीं रखा जा रहा है और यातायात भीड़ की स्थिति समस्याजनक है।
        • इससे शहरी निर्धनता, बेरोज़गारी और पारिस्थितिक क्षरण जैसे परिणाम भी उत्पन्न होते हैं।
  • राज्य सरकार का अत्यधिक नियंत्रण:
    • राज्य सरकार शहरी स्थानीय निकायों का नियंत्रण रखती है। उन पर विधायी, प्रशासनिक, न्यायिक और वित्तीय नियंत्रण उन्हें स्वशासन सरकारों के रूप में कार्य करने देने के बजाय अधीनस्थ इकाइयों में परिणत कर देता है।
      • नगर निकायों को वैधानिक शर्तों के अनुरूप अपने बजट को संतुलित बनाए रखने की आवश्यकता होती है और उनके द्वारा लिये जाते किसी भी उधार को राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित किया जाना होता है।
      • केंद्र और राज्यों के विपरीत शहरी स्थानीय सरकार के स्तर पर राजस्व व्यय और पूंजीगत व्यय के बीच कोई अंतर नहीं किया जाता है।
  • एजेंसियों की बहुलता:
    • राज्य सरकार के प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण में और शहरी स्थानीय सरकार के प्रति किसी जवाबदेही के बिना एकल प्रयोजन एजेंसियों (Single Purpose Agencies) का गठन किया जाता है। नगर निकायों को इन एजेंसियों के लिये बजट में योगदान करना होता है, जबकि वे इनके ऊपर कोई नियंत्रण शक्ति नहीं रखते।
      • उदाहरण: राज्य परिवहन निगम, राज्य विद्युत बोर्ड, जल आपूर्ति विभाग आदि।
  • लोगों की निम्न भागीदारी:
    • साक्षरता और शैक्षिक स्तर के अपेक्षाकृत उच्च स्तर के बावजूद शहर के निवासी शहरी सरकारी निकायों के कार्यकरण में पर्याप्त रुचि नहीं लेते हैं।
      • विशेष प्रयोजन एजेंसियों और अन्य शहरी निकायों की बहुलता लोगों को उनकी भूमिका सीमितताओं के बारे में भ्रमित करती है।

शहरी स्थानीय सरकारों को कैसे सशक्त बना सकते हैं?

  • आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाना:
    • शहरी स्थानीय सरकारों के स्वतंत्र और वित्तीय रूप से सुरक्षित होने के लिये वित्तीय विकेंद्रीकरण अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • राजस्व को सुदृढ़ करना:
      • सभी वित्त आयोगों ने नगर निगम के वित्त में सुधार के लिये संपत्ति कर राजस्व बढ़ाने की आवश्यकता की अनुशंसा की है। विशेष रूप से—
      • 12वें वित्त आयोग ने संपत्ति कर प्रशासन में सुधार के लिये भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) और डिजिटलीकरण के उपयोग को प्रोत्साहित किया।
      • 13वें वित्त आयोग ने राज्यों की निष्पादन अनुदान पात्रता (Performance Grant Eligibility) के लिये आवश्यक शर्तों में से एक के रूप में राज्य संपत्ति कर बोर्ड (State Property Tax Board) की स्थापना को अनिवार्य बनाया।
        • राज्य संपत्ति कर बोर्ड का उद्देश्य एक पारदर्शी और कुशल संपत्ति कर व्यवस्था स्थापित करने में नगर निगमों और नगर परिषदों की मदद करना है।
      • 14वें वित्त आयोग ने अनुशंसा की कि नगर निकायों को खाली भूमि पर कर लगाने में सक्षम किया जाए।
  • बेहतर वित्तीय डेटाबेस:
    • स्थानीय स्तर पर खातों के रखरखाव और लेखा परीक्षा के अभाव में नगर निकायों के लिये कोई सत्यापन-योग्य वित्तीय डेटा नहीं होता जिसके कारण निष्पादन अनुदान से इनकार कर दिया जाता है।
      • 13वें और 14वें दोनों ही वित्त आयोगों ने बेहतर डेटा उपलब्धता को निष्पादन अनुदानों की प्राप्ति के लिये आवश्यक शर्त के रूप में शामिल किया।
  • सक्रिय नागरिक भागीदारी सुनिश्चित करना:
    • शासन प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिये सक्रिय नागरिक भागीदारी की आवश्यकता है।
      • इसे सुनिश्चित करने के लिये, शहरी स्थानीय निकाय क्षेत्रीय सभाओं और वार्ड समितियों जैसे कार्यात्मक, विकेंद्रीकृत मंच का गठन कर सकते हैं, जो निर्वाचित प्रतिनिधियों और नागरिकों के बीच चर्चा और विचार-विमर्श की सुविधा प्रदान करेगा।
  • नागरिक शिकायत निवारण तंत्र का सृजन:
    • शहरी स्थानीय निकाय शिकायतों को दर्ज करने के लिये एक प्रौद्योगिकी-सक्षम मंच स्थापित कर सकते हैं जो शहर की सरकारों को नागरिकों की आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी बनाएगा।
      • इस तंत्र के माध्यम से नागरिकों को फीडबैक देने और शिकायतें क्लोज़ करने की भी अनुमति दी जानी चाहिये।
      • शहरी शासन की इन संरचनात्मक और स्थापत्य संबंधी समस्याओं को संबोधित करने से शहरों में प्रभावी सेवा वितरण सुनिश्चित होगा, जिससे नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार होगा।

अभ्यास प्रश्न: विकेंद्रीकरण पर संवैधानिक अधिदेश के बावजूद शहरी स्थानीय निकायों का विकास असमान और धीमा रहा है। टिप्पणी कीजिये।


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