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  • 15 Jul, 2019
  • 15 min read
भारत-विश्व

जेनेरिक दवाएँ तथा अमेरिकी नीति

इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण शामिल हैं। इस आलेख में जेनेरिक दवाओं तथा जेनेरिक दवाओं के प्रति अमेरिकी नीति की चर्चा की गई है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

अभी हाल में कई देशों, विशेषकर भारत में उत्पादित जेनेरिक दवाओं के संबंध में व्यापक धोखाधड़ी के आरोप अमेरिका में सुर्खियों में रहे। रैनबैक्सी कंपनी द्वारा विनिर्मित एक दवा में मौजूद संदूषण के विशेष हवाले के चलते यह चर्चा आगे बढ़ी। निश्चय ही रैनबैक्सी के इस निंदनीय आचरण का समर्थन नहीं किया जा सकता है लेकिन इसके साथ-साथ भारत के दवा नियामक ढाँचे में सुधार हेतु जारी प्रयासों के महत्त्व की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे देशों में उत्पादित जेनेरिक दवाओं के महत्त्व को कम करने पर अमेरिका विशेष रूप से फोकस कर रहा है।

जेनेरिक दवाएँ

  • अनुसंधान एवं नवाचार के पश्चात् दवाओं का निर्माण किया जाता है जिसका दवा निर्माता कंपनी द्वारा ट्रिप्स पद्धति के अंतर्गत पेटेंट कराया जाता है। पेटेंट द्वारा दवा का निर्माण तथा विक्रय संबंधित कंपनी के लिये अनन्य हो जाता है तथा किसी अन्य संस्था के लिये उस दवा का निर्माण करना प्रतिबंधित कर दिया जाता है।
  • यह पेटेंट 20 वर्षों के लिये ही संभव होता है। इस पेटेंट के नवीनीकरण के लिये दवा निर्माता को दवा में मौलिक परिवर्तन करना होता है। इसके बिना दवा का पेटेंट समाप्त हो जाता है।
  • पेटेंट समाप्ति के पश्चात् कोई भी कंपनी अथवा देश उस दवा का निर्माण कर सकने में सक्षम होता है। ऐसी दवाओं को जेनेरिक दवाएँ कहा जाता है। प्रायः यह दवाएँ ब्राण्ड के नाम के बिना या किसी अन्य नाम अथवा फोर्मुले द्वारा बेची जाती हैं। साथ ही इन दवाओं का प्रभाव तथा उपयोगिता पेटेंट दवाओं के समान ही होती है।
  • इसी प्रकार अनिवार्य लाइसेंसिंग (Compulsory license) भी ऐसी पद्धति है जिसमें कोई देश जनहित में किसी भी पेटेंट दवा के निर्माण का लाइसेंस किसी अन्य दवा निर्माता कंपनी को दे सकता है, ताकि दवा की कीमत को कम तथा उसके उपयोग को व्यापक किया जा सके। भारत में नैट्को कंपनी के मामले में अनिवार्य लाइसेंसिंग की व्यवस्था की गई है।

रैनबैक्सी घटनाक्रम 14 वर्ष पूर्व प्रकाश में आया था। तब से देशी-विदेशी अथवा जेनेरिक व नवोन्मेषी– सभी तरह की कई दवा कंपनियाँ ऐसे ही निंदनीय आचरण के दायरे में आती रही हैं। विशेष उदाहरण के रूप में, मार्टिन शकरेली (Martin Shkreli) के ट्यूरिंग फार्मास्यूटिकल्स (Turing Pharmaceuticals), जिसने एक दवा की कीमत 5000 प्रतिशत तक बढ़ा दी थी और पर्ड्यू फार्मास्यूटिकल्स (Purdue Pharmaceuticals), जिसे अभी हाल में व्यसन संकट (Opioid Crisis) उत्पन्न करने का दोषी बताया गया है, का उल्लेख किया जा सकता है।

‘संदूषित’ विदेशी जेनेरिक दवाओं के प्रति एक भय का संचार करने की रणनीति ने सफलतापूर्वक अमेरिकी नागरिकों के मन में वैध जेनेरिक दवाओं के विरुद्ध भी पूर्वाग्रह को जन्म दिया है, भले ही ये जेनेरिक दवाएँ एक व्यवहार्य विकल्प बनी रही हों।

दवाओं के संदूषण के संबंध में यह नया उन्माद आंशिक रूप से खाद्य सुरक्षा आधुनिकीकरण अधिनियम (Food Safety Modernization Act- FSMA) के विस्तार के कारण उत्पन्न हुआ है जिसमें वैश्विक निरीक्षणों को शामिल किया गया है। इस प्रकार खाद्य और औषधि प्रशासन (Food and Drug Administration- FDA) को सशक्त करने का एक उद्देश्य दूसरे देशों के नियामकों से सहयोग करना और दवाओं के लिये एक सार्वभौमिक वर्तमान उत्पाद विनिर्माण अभ्यास (Current Good Manufacturing Practice- CGMP) प्रणाली का निर्माण करना था।

FDA की नियामकीय अति-सक्रियता

किंतु, सहयोग और सार्वभौमिक प्रणाली के निर्माण के बजाय FDA ने स्वयं को एक ‘वैश्विक नियामक’ के रूप में प्रस्तुत किया है। उदाहरण के लिये, हाल के एक वक्तव्य में FDA द्वारा यह बताया गया कि वह मुखबिरों की सूचनाओं के आधार पर अथवा दवा सुरक्षा के प्रति चिंता रखते हुए विश्व भर में सभी ब्राण्ड के नामों और जेनेरिक विनिर्माण प्रतिष्ठानों का निरीक्षण करता है। निश्चय ही यह नियामकीय अति-सक्रियता का मामला है क्योंकि ऐसी कोई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था मौजूद नहीं है जो अमेरिकी CGMP अभ्यास को वैश्विक मानक के रूप में स्थापित करती हो।

इसके अतिरिक्त, FSMA के अंतर्गत यदि कोई विदेशी प्रतिष्ठान अपने निरीक्षण की अनुमति नहीं दे तो उसकी दवाओं या खाद्य के अमेरिका में प्रवेश को रोकने की बेहद सीमित शक्ति ही FDA के पास मौजूद है। अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिये बेहतर विनिर्माण अभ्यासों के पालन पर अमेरिका का यह बल देना सराहनीय है, लेकिन इसी प्रकार यदि भारत या चीन कोई कानून बनाकर अमेरिकी खाद्य या दवा प्रतिष्ठानों के निरीक्षण की बात करें तो अमेरिकी कंपनियाँ इस कदम का विरोध ही करेंगी।

पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण

वर्ष 2018 में विश्व भर में FDA द्वारा किये गए 4,676 मानव दवा प्रतिष्ठान निरीक्षणों में से 61 प्रतिशत निरीक्षण विदेशी प्रतिष्ठानों द्वारा किये गए। इसी प्रकार, 1,365 मानव दवा CGMP निरीक्षणों में से 55 प्रतिशत अमेरिका से बाहर स्थित प्रतिष्ठानों द्वारा किये गए। FDA का ‘वैश्विक निगरानी अनुभव’ (Global Vigilante Experience) दूसरे देशों में उत्पादित दवाओं को ‘दोषपूर्ण’ अथवा ‘संदूषित’ के रूप में चित्रित करता है जबकि अमेरिका में विद्यमान नियामकीय बाधाओं को खुलकर स्वीकार नहीं करता है। इस परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि अमेरिका की ‘ड्रग रिकॉल लिस्ट’ (Drug Recall List) 149 पृष्ठ लंबी है। यह उन दवाओं की सूची है जिन्हें दोषपूर्ण पाया गया जबकि पिछले 14 वर्षों से इन्हें FDA की नियामक मंज़ूरी प्राप्त होती आ रही थी। स्पष्ट है कि सभी परिप्रेक्ष्यों पर विचार नहीं करने वाला पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण एक गलत छवि का निर्माण कर सकता है।

FDA द्वारा किये गए उत्पादन प्रतिष्ठानों के निरीक्षण में छोटे-बड़े कई मुद्दे उभर सकते हैं। इस बात के निर्धारण का कोई पैमाना मौजूद नहीं है कि अंतिम रिपोर्ट में उजागर की गई समस्याएँ सरल समस्याएँ हैं अथवा जटिल समस्याएँ (जैसे संदूषित जल का उपयोग)। एक उपयुक्त पैमाने के अभाव के कारण एक खामी उत्पन्न होती है जहाँ नियामक को अपने हिसाब से किसी प्रतिष्ठान को चुनने और गैर-अनुपालन के सभी दृष्टांतों को अतिक्रांत उल्लंघन के रूप में चित्रित करने का अवसर मिलता है।

इसके साथ ही प्रायः प्रयुक्त ‘संदूषित दवा’ (Contaminated Drugs) शब्द के लिये अमेरिका में कोई स्पष्ट कानूनी परिभाषा मौजूद नहीं है। अमेरिकी संहिता के शीषर्क 21 की धारा 351 ‘मिलावटी दवा’ (adulterated drugs) को परिभाषित करती है। जब किसी दवा को संदूषित होने के लिये ‘मिलावटी’ माना जाता है, तब नियामक को स्पष्ट करना होता है कि यह मिलावट निर्माण के तरीके, पैक करने के मानक तरीके अथवा उत्पादन आचरण में से किससे संबंधित है।

WTO एवं WHO तथा जेनेरिक दवाएँ

विश्व व्यापार संगठन (WTO), व्यापार से जुड़े मुद्दों पर चर्चा करने और नीति बनाने वाला विश्व का सबसे बड़ा व्यापार मंच है। जेनेरिक दवाएँ भी WTO के समक्ष एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रही हैं। प्रायः विकासशील एवं कम विकसित देश जेनेरिक दवाओं का पक्ष लेते रहे हैं। इसके पीछे प्रमुख उद्देश्य इनकी सस्ती कीमतें है। वहीं विकसित देश जो दवा व्यापार के क्षेत्र में अग्रिणी हैं, प्रायः इन दवाओं का विरोध करते दिखाई देते हैं। इसका प्रमुख कारण है कि यहाँ जेनेरिक दवाएँ सस्ती कीमतों में बाज़ार में उपलब्ध होती हैं जबकि पेटेंट दवाएँ जो मुख्य रूप से विकसित देशों की कंपनियों द्वारा उत्पादित होती हैं, अधिक महंगी होती हैं।

इस मुद्दे पर WTO ने विकासशील देशों के लिये जेनेरिक दवाओं का उपयोग करने तथा आवश्यकता पड़ने पर अनिवार्य लाइसेंसिंग के ज़रिये महंगी दवाओं को कम कीमत पर उपलब्ध कराने के लिये छूट दी हुई है। साथ ही ऐसे देश जो सबसे कम विकसित हैं जैसे- अफ्रीकी महाद्वीप के देश, को जेनेरिक दवाओं को आयात करने की छूट दी गई है क्योंकि ये अवसंरचना एवं नवाचार के स्तर पर पिछड़े हैं तथा जेनेरिक दवाओं का निर्माण करने में सक्षम नहीं हैं।

इन सब के बावज़ूद अमेरिका तथा यूरोपीय संघ जैसे विकसित देश ट्रिप्स प्लस (TRIPS Plus) की अवधारणा पर को अपनाने पर बल दे रहे हैं। इससे जेनेरिक दवाओं का निर्माण तथा उपयोग और मुश्किल हो जाएगा। यह स्थिति विकासशील देशों तथा कम विकसित देशों के लिये गंभीर स्वास्थ्य संकट को जन्म दे सकती है। साथ ही विभिन्न देशों की गरीब आबादी के लिये स्वास्थ्य सेवाओं की वहनीयता को भी प्रभावित कर सकती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) विश्व में जेनेरिक दवाओं के निर्बाध आवागमन के पक्ष में है तथा विश्व स्तर पर स्वास्थ्य के अधिकार के क्रियान्वयन के लिये जेनेरिक दवाओं को आवश्यक मानता है। विशेषकर ऐसी दवाएँ जो जीवन की रक्षा से जुड़ी हैं, (एड्स, केंसर) को वैश्विक स्तर पर वहनीय कीमतों पर उपलब्ध कराने का पक्षधर है।

अमेरिका का दवा बाज़ार

एक अध्ययन के अनुसार, अमेरिका में जेनेरिक दवाओं का बाज़ार 100 बिलियन डॉलर से अधिक का है। साथ ही इसमें पिछले 6 वर्षों से प्रत्येक वर्ष 12 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अमेरिका में बड़ी मात्रा में लोगों को डॉक्टरों द्वारा जेनेरिक दवाएँ लेने की सलाह दी जाती है। इनमें से 40 प्रतिशत जेनेरिक दवाएँ भारतीय कंपनियों द्वारा उपलब्ध कराई जाती हैं। अमेरिका अपने दवा उद्योग को जेनेरिक दवाओं से संरक्षण देने के लिये पक्षपात पूर्ण नीति अपना रहा है। अमेरिका की यह नीति न सिर्फ विभिन्न देशों के दवा व्यापार के लिये बल्कि अमेरिका के नागरिकों के लिये भी नुकसानदेह है। ध्यान देने योग्य है कि पिछले एक दशक में अमेरिका को स्वास्थ्य क्षेत्र में 2 ट्रिलियन डॉलर की बचत हुई है जो मुख्य रूप से जेनेरिक दवाओं के उपयोग के कारण ही संभव हो सका है।

निष्कर्ष

भारत के लिये अमेरिका में जारी यह विमर्श न केवल इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि देश में कई जेनेरिक उत्पादन प्रतिष्ठान मौजूद हैं, बल्कि इसलिये भी महत्त्वपूर्ण है कि भारत एक नवोन्मेषी बाज़ार में रूपांतरित होने के मुहाने पर खड़ा है। यह उपयुक्त समय होगा कि भारत जेनेरिक दवाओं के महत्त्व और उनकी सीमितता, दोनों पर तथ्यों की सार्वजनिक उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिये एक अधिक दृढ़ भूमिका का निर्वाह करे। देश को मज़बूत सम्मति और भागीदारी के निर्माण की आवश्यकता है जो लाभ और दोष दोनों को उजागर करे ताकि नवोन्मेष के लिये मज़बूत आधार प्राप्त हो। नवोन्मेष और नीति विफलताओं के बहाने से उत्पादक कार्यबलों को जीवन रक्षक दवाओं तक पहुँच से वंचित रखना उपयुक्त नहीं होगा।

प्रश्न: जेनेरिक दवाएँ क्या हैं? विकसित देश प्रायः जेनेरिक दवाओं का विरोध करते हुए क्यों दिखाई देते हैं?


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