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एडिटोरियल

  • 15 Feb, 2022
  • 12 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

कृषि-उत्सर्जकों से निपटना

यह एडिटोरियल 14/02/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “For ‘Climate Smart’ Agriculture” लेख पर आधारित है। इसमें कृषि क्षेत्र से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और जलवायु कुशल कृषि अभ्यासों की आवश्यकता के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

ग्लासगो में आयोजित CoP-26 में भारत द्वारा निर्धारित वर्ष 2070 तक कार्बन तटस्थता लक्ष्य की पृष्ठभूमि में वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट में ‘जलवायु कार्रवाई’ (Climate Action) और ‘ऊर्जा संक्रमण’ (Energy Transition) को ‘अमृत काल’ की चार प्राथमिकताओं में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। हालाँकि यह देखते हुए कि देश के मीथेन उत्सर्जन में कृषि क्षेत्र का योगदान 73% है, बजट की घोषणाएँ सीमित ही हैं। धान की खेती, पशुपालन और बायोमास जलाने जैसी कृषि और संबद्ध गतिविधियाँ वैश्विक मीथेन सांद्रता में 22%-46% का योगदान करती हैं।

कृषि उत्सर्जन और जलवायु कुशल कृषि

कृषि उत्सर्जन का योगदान:

  • नेशनल ग्रीनहाउस गैस इन्वेंटरी के अनुसार, कृषि क्षेत्र 408 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) CO2 समतुल्य का उत्सर्जन करता है।
  • कृषि और संबद्ध क्षेत्र में आंत्र किण्वन (Enteric Fermentation- 54.6%) और उर्वरक उपयोग (19%) के बाद धान की खेती (17.5%) GHG उत्सर्जन का तीसरा सबसे बड़ा स्रोत है।
  • धान के खेत वायुमंडलीय नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) और मीथेन (CH4) के मानवजनित स्रोत हैं जिन्हें 20 वर्षों में तापमान वृद्धि के लिये CO2 की तुलना में क्रमशः 273 गुना और 80-83 गुना अधिक ज़िम्मेदार माना गया है। (IPCC AR6, 2021 के अनुसार)।
    • भारत में धान के खेतों से उत्सर्जित CH4 की मात्रा 3.396 टेराग्राम (1 टेराग्राम = 109 किलोग्राम) प्रतिवर्ष या 71.32 MMT CO2 के समतुल्य है।

कृषि उत्सर्जन की अधिकता के कारण:

  • नुकसान की यह स्थित काफी हद तक यूरिया, नहर सिंचाई और सिंचाई के लिये बिजली जैसे विभिन्न क्षेत्रों में प्रदत्त सब्सिडी का परिणाम है।
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) एवं खरीद नीतियाँ कुछ राज्यों में ही अधिक प्रचलित हैं और मुख्यतः दो फसलों चावल और गेहूँ पर केंद्रित हैं जिसके कारण उनके अति-उत्पादन की स्थिति बनी है।
    • 1 जनवरी 2022 तक की स्थिति के अनुसार देश के केंद्रीय पूल में गेहूँ और चावल का स्टॉक बफर स्टॉकिंग की आवश्यकता से चार गुना अधिक था।
    • वर्ष 2020-21 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) के तहत चावल के रिकॉर्ड वितरण और निर्यात के बावजूद भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास चावल का स्टॉक चावल के बफर मानदंडों से सात गुना अधिक है।
    • यह आँकड़ा न केवल दुर्लभ पूंजी के अक्षम उपयोग को दर्शाता है, बल्कि इन भंडारों में निहित ग्रीनहाउस गैसों की बड़ी मात्रा को भी दर्शाता है।

अंतर्निहित समस्याएँ:

  • इस बात के वैज्ञानिक प्रमाण मिलते हैं कि समय-समय पर आने वाली बाढ़ से जल और मीथेन उत्सर्जन कम होते हैं लेकिन नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जन की वृद्धि होती है।
    • इस प्रकार नियंत्रित सिंचाई के माध्यम से मीथेन उत्सर्जन को कम करने से शुद्ध निम्न उत्सर्जन (Net low Emissions) की स्थिति प्राप्त नहीं होगी।
    • इसके अलावा भारत अपने नेशनल GHG इन्वेंट्री में N2O उत्सर्जन की रिपोर्टिंग नहीं करता है।
  • चावल उत्पादन से होने वाले GHG उत्सर्जन में निम्नलिखित की गणना शामिल नहीं है:
    • धान के अवशेष जलाने से होने वाला उत्सर्जन
    • उर्वरकों का प्रयोग
    • चावल के लिये उर्वरकों का उत्पादन
    • कटाई जैसी ऊर्जाचालित गतिविधि 
    • पंप
    • प्रसंस्करण
    • संबद्ध परिवहन गतिविधि
  • धान के खेत प्रति एक टन चावल के लिये लगभग 4,000 क्यूबिक मीटर जल (सिंचाई के रूप में) की आवश्यकता रखते हैं। जल की इतनी अधिक मात्रा के कारण मृदा में ऑक्सीजन का प्रवेश बाधित होता है जो मीथेन उत्सर्जित करने वाले बैक्टीरिया के लिये एक अनुकूल परिदृश्य का निर्माण करता  है।

जलवायु कुशल कृषि:

  • जलवायु कुशल कृषि (Climate Smart Agriculture- CSA) फसल-भूमि, पशुधन, वन एवं मत्स्यपालन आदि भूदृश्य के प्रबंधन के लिये एक एकीकृत दृष्टिकोण है जो खाद्य सुरक्षा और बढ़ते जलवायु परिवर्तन की परस्पर-संबद्ध चुनौतियों को संबोधित करता है। CSA का लक्ष्य एक साथ तीन परिणाम प्राप्त करना है:
    • उत्पादकता में वृद्धि: पोषण सुरक्षा में सुधार और आय बढ़ाने के लिये अधिक और बेहतर खाद्य पदार्थों का उत्पादन करना, विशेष रूप से दुनिया के 75% गरीबों के लिये जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और अपनी आजीविका के लिये मुख्यतः कृषि पर निर्भर हैं।
    • स्थिति-स्थापन/लचीलेपन (Resilience) में वृद्धि: सूखा, कीट, बीमारियों एवं अन्य जलवायु-संबंधी जोखिमों और आघातों के प्रति सुभेद्यता/संवेदनशीलता को कम करना और अल्पावधिक मौसमों एवं अनिश्चित मौसम पैटर्न जैसे दीर्घकालिक तनावों की स्थिति में अनुकूलन एवं विकास की क्षमता में सुधार लाना।
    • उत्सर्जन में कमी लाना: खाद्य उत्पादन के प्रत्येक कैलोरी या किलो पर निम्न उत्सर्जन की स्थिति प्राप्त करना, कृषि के लिये वनों की कटाई से बचना और वातावरण से कार्बन के अवशोषण हेतु उपायों की पहचान करना।

आगे की राह 

  • नीतियों का पुनरीक्षण: आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में बताया गया है कि देश अपने भूजल संसाधन का अत्यधिक दोहन कर रहा है, विशेष रूप से उत्तर-पश्चिम भारत और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में, जो मुख्य रूप से 44 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती के कारण है।
    • हालाँकि इससे भारत को खाद्य सुरक्षा हासिल करने में मदद मिली है, लेकिन अब उपयुक्त समय है कि भूजल और पर्यावरण की रक्षा पर केंद्रित नीतियों का निर्माण हो।
    • इस परिदृश्य में बिजली एवं उर्वरकों पर प्रदत्त सब्सिडी, MSP एवं खरीद संबंधी नीतियों के पुनरीक्षण और उन्हें GHG उत्सर्जन को कम करने की दिशा में उन्मुख करने की आवश्यकता है।
  • GHG उत्सर्जन के लिये त्रि-आयामी दृष्टिकोण: अंतर्राष्ट्रीय मक्का एवं गेहूँ सुधार केंद्र (CIMMYT) के एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत अपने कृषि और पशुधन क्षेत्र से होने वाले वार्षिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में 18% तक की कटौती कर सकने की क्षमता रखता है।
    • अध्ययन ने आकलन किया है कि निम्नलिखित तीन उपायों को लागू कर इस कटौती के 50% की प्राप्ति की जा सकती है:
      • उर्वरकों का कुशल उपयोग
      • शून्य-जुताई को अपनाना
      • धान की सिंचाई में प्रयुक्त जल का प्रबंधन
  • किसानों को प्रोत्साहन: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ही स्तरों पर कृषि क्षेत्र में कार्बन बाज़ार के विकास के लिये कृषक समूहों और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
    • इसके अलावा विशिष्ट जल, उर्वरक एवं मृदा प्रबंधन अभ्यासों से चावल जैसे सांस्कृतिक रूप से महत्त्वपूर्ण अनाज की उत्पादकता में वृद्धि करते हुए इसके जलवायु प्रभावों को कम करने और किसानों की आय बढ़ाने के रूप में तिहरी जीत प्राप्त की जा सकती है।
      • यह कदम भारत को ‘अमृत काल’ में जलवायु कुशल कृषि अपनाने में मदद करेगा।
    • इसके साथ ही, अगर हम निम्न कार्बन फुटप्रिंट के साथ उत्पादकता स्तरों की रक्षा कर सकें तो यह भारत को वैश्विक बाज़ारों तक पहुँच बनाने में मदद करेगा।
  • कार्बन मूल्य-निर्धारण: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार उत्सर्जन को 2℃ वार्मिंग लक्ष्य के अनुरूप स्तर तक कम करने के लिये विश्व को वर्ष 2030 तक 75 डॉलर प्रति टन कार्बन कर अधिरोपित करने की आवश्यकता है।
    • कई देशों ने कार्बन मूल्य निर्धारण को लागू करना शुरू कर दिया है; स्वीडन ने इस दिशा में अग्रणी कदम बढ़ाते हुए 137 डॉलर प्रति टन CO2 समतुल्य जैसा उच्च मूल्य निर्धारित किया है, जबकि यूरोपीय संघ ने इसका मूल्य 50 डॉलर प्रति टन CO2 समतुल्य घोषित किया है।
    • यह उपयुक्त समय है कि भारत सांकेतिक कार्बन मूल्य निर्धारण की घोषणा के साथ एक जीवंत कार्बन बाज़ार का सृजन करे जो ‘अमृत काल’ में हरित विकास को प्रोत्साहन दे सके।
  • कृषक जागरूकता में वृद्धि करना: उपयुक्त समाधान यह होगा कि चावल उत्पादक किसानों को सही समय पर उचित सलाह और प्रोत्साहन दिया जाए ताकि वे केवल उतने ही जल या उर्वरक का प्रयोग करें जितनी आवश्यकता है।
    • किसानों की आजीविका पर नकारात्मक प्रभाव डाले बिना चावल की खेती को और अधिक संवहनीय बनाया जाना चाहिये।
    • आगे बढ़ने के लिये आवश्यक है कि किसानों को सही समय पर सही सलाह देने की सांस्कृतिक सामर्थ्य और वैज्ञानिक क्षमता रखने वाले ज़मीनी संगठनों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराए जाएँ।

अभ्यास प्रश्न: कृषि क्षेत्र से उच्च ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारणों और इसको न्यूनतम करने के लिये उठाए जा सकने वाले कदमों की चर्चा कीजिये।


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