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एडिटोरियल

  • 13 Apr, 2022
  • 12 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

शहरी नियोजन और जलवायु परिवर्तन

यह एडिटोरियल 12/04/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Climate in the City” लेख पर आधारित है। इसमें जलवायु परिवर्तन पर खराब शहरी नियोजन के प्रभाव के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

भारत, इतिहास में सबसे बड़े शहरी विकास उछाल में से एक का सामना कर रहा है। हालाँकि वर्ष 2050 तक शहरों में जो अवसंरचनाएँ होंगी, उनके तीन-चौथाई भाग का निर्माण होना अभी शेष ही है। इससे भारतीय शहरों को आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभाव को सक्षम कर सकने के लिये दीर्घकालिक रणनीतिक दृष्टिकोण से शहरी नियोजन एवं विकास को साकार कर सकने का अभूतपूर्व अवसर प्राप्त हो रहा है।

हमारे लिये ऐसा विकास उपयुक्त नहीं होगा जो जलवायु संकट-जोखिम के इस कालखंड में सतत् नहीं है। IPCC की नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि स्मार्ट शहरी नियोजन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम कर सकता है।

शहरों और जलवायु परिवर्तन के संबंध में IPCC के AR6 के निष्कर्ष

शहरी विकास के विषय में

  • 21वीं सदी शहरी विकास की सदी होगी जो वैश्विक शहरी आबादी में भारी वृद्धि से परिभाषित होगी।
    • वर्ष 2018 में विश्व की लगभग 55% आबादी शहरों में निवास कर रही थी। एशियाई और अफ्रीकी शहरों में जारी भारी जनसंख्या वृद्धि के साथ यह आँकड़ा वर्ष 2050 तक बढ़कर 68% हो जाने का अनुमान है।
  • IPCC की AR6 रिपोर्ट (भाग - II) के अनुसार तीव्र गर्मी व लुप्त होते हरित क्षेत्रों के कारण शहर सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
    • बढ़ते शहरीकरण का अर्थ है कि यदि विश्व को ‘शुद्ध शून्य’ पर पहुँचना है, तो उसे जलवायु-प्रत्यास्थी विकास सुनिश्चित करना होगा। जलवायु अनुकूल शहरी नीतियाँ भी वायु प्रदूषण को कम कर सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करेंगी।

शहरों का उत्सर्जन परिदृश्य

  • वर्ष 2020 में शहर वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के 72% (वर्ष 2015 में 62% से ऊपर बढ़ते हुए) हेतु उत्तरदायी थे।
    • ग्लोबल वार्मिंग को पूर्व-औद्योगिक स्तरों के 1.5 ℃ के भीतर सीमित रखने हेतु दुनिया को अवसर दे सकने के लिये शहरों को द्रुत गति से कार्य करने की आवश्यकता है, साथ ही वित्तपोषण में भी पर्याप्त वृद्धि की आवश्यकता होगी।
    • आक्रामक जलवायु कार्रवाई वर्ष 2050 तक शहर के उत्सर्जन को शुद्ध शून्य पर ला सकती है, लेकिन कार्रवाई में विफल रहने पर उस समय शहरी उत्सर्जन के दोगुना हो जाने का भी खतरा है।
  • IPCC की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शहरी अवसंरचना और गतिविधियाँ वर्तमान वैश्विक उत्सर्जन के लगभग दो-तिहाई भाग के लिये ज़िम्मेदार हैं। हालाँकि इसका अर्थ यह भी है कि शहर संभावित रूप से दो-तिहाई समस्या का समाधान कर सकते हैं।

शहरी अवसंरचना से संबद्ध समस्याएँ

  • जलवायु गैर-अनुकूलता: शहरी अवसंरचनाओं के विकास के परिणामस्वरूप उच्च आर्थिक मूल्यवर्द्धन होता है लेकिन यह प्रायः असमान और असंगत विकास की ओर ले जाता है।
    • वायु एवं जल प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, बाढ़ और चरम गर्मी जैसे नकारात्मक बाह्य कारक शहरी अवसंरचना के आर्थिक मूल्य को प्रभावित करते हैं।
    • घरों को बिना वेंटिलेशन के बनाया जाता है, ऐसी निर्माण सामग्रियों का उपयोग किया जाता है जो इन्सुलेशन प्रदान नहीं करते हैं और ऐसे वास्तुशिल्प डिज़ाइन चुने जाते हैं जो प्रकृति के साथ संगत नहीं होते। जलवायु संकट इनसे संबद्ध जोखिमों को और बढ़ा देगा।
  • पुरानी नियोजन तकनीक: भारत में शहर एवं देश नियोजन अधिनियम पिछले 50 वर्षों में प्रायः अपरिवर्तित ही बने रहे हैं और आज भी अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित तकनीकों पर ही निर्भर हैं।
    • शहर अभी भी भूमि उपयोग और नियामक नियंत्रण-आधारित मास्टर प्लान तैयार करते हैं, जो स्वयं अपने दोष के कारण शहरों की योजना और प्रबंधन में अप्रभावी हैं।
    • वायु प्रदूषण, शहरी बाढ़ और सूखा जैसी कई शहर-केंद्रित समस्याएँ शहरी भारत के समग्र विकास में अवरोधों के रूप में मौजूद हैं और ये सभी ही अवसंरचना की कमियों एवं योजना की अपर्याप्तता का संकेत देते हैं।
  • प्रक्रियात्मक देरी और लचर कार्यान्वयन: मास्टर प्लान अपने निर्माण, स्वीकृति और कार्यान्वयन में लंबी देरी का सामना करते हैं। इनमें अन्य क्षेत्रीय अवसंरचना योजनाओं के साथ एकीकरण हेतु अधिदेश की भी कमी है।
    • शहरों के प्रति प्रायः एक स्थिर, 'ब्रॉड-ब्रश' दृष्टिकोण अपनाया जाता है जिनमें गतिशील बारीक-संरचनाएँ और स्थानीय विशिष्टताएँ होती हैं। अधिकांश मामलों में कार्यान्वयन दर पर्याप्त रूप से कम है।
    • पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (EIA) जैसे नियामक तंत्रों में वर्षा जल संचयन, सतत् शहरी जल निकासी प्रणाली जैसे प्रावधानों की उपस्थिति के बावजूद उपयोगकर्त्ता के साथ-साथ प्रवर्तन एजेंसियों के स्तर पर इनका अंगीकरण कम होता है।

आगे की राह

  • आर्थिक नियोजन और जलवायु कार्रवाई का सामंजस्य: शहरों के संबंध में भारत की पदानुक्रमित प्रणाली (नवाचार और आर्थिक विकास का नेतृत्व करते मेगा शहरों से लेकर स्थानीय एवं क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं का समर्थन एवं ग्रामीण इलाकों से जुड़ाव सुनिश्चित करते छोटे शहरों तक) को लक्षित आर्थिक विकास योजना और सकारात्मक जलवायु कार्रवाई की आवश्यकता है। 
    • शोध से पता चलता है कि यदि शहरों को सुगठित और जलवायु-प्रत्यास्थी केंद्रों के रूप में विकसित किया जाता है, तो अवसंरचना निवेश समय के साथ न्यूनतम जलवायु प्रभाव और अधिक आर्थिक लाभ पैदा कर सकता है, जबकि यह समान विकास भी सुनिश्चित करता है।
  • रणनीतिक डिज़ाइन और विकास: वैश्विक स्तर पर शहर स्थानीय क्षेत्र की योजनाओं के साथ-साथ रणनीतिक योजनाओं एवं परियोजनाओं को विकसित करने के अभ्यास की ओर आगे बढ़ रहे हैं।
    • परियोजनाओं को उस भूमि के संदर्भ में जिसे उपलब्ध कराया जा सकता है और उस पूंजीगत संसाधन के संदर्भ में जिसे जुटाया जा सकता है, डिज़ाइन और विकसित किया जाना चाहिये।
    • शहर की प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने के लिये प्रत्येक पाँच वर्ष में रणनीतिक योजनाएँ विकसित की जानी चाहिये और कार्यान्वित की जाने वाली प्रमुख परियोजनाओं की पहचान कर संवहनीयता एवं आर्थिक विकास के संबंध में इसके रणनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति में मदद की जानी चाहिये।
  • स्थानीय क्षेत्रों के लिये योजनाएँ: इन योजनाओं को मास्टर प्लान के समग्र उद्देश्यों का समर्थन करते हुए, सार्वजनिक भागीदारी, स्थानीय चुनौतियों, आवश्यकताओं एवं और महत्त्वाकांक्षाओं के संदर्भ में नागरिकों के स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं कल्याण को सुनिश्चित करने के लिये विकसित किया जाना चाहिये।
    • शहरों को शहरी-ग्रामीण सातत्य के बीच सुदृढ़ संबंध निर्माण के लिये स्थानिकृत सामाजिक, आर्थिक एवं पर्यावरणीय डेटा के उपयोग को मुख्यधारा में लाने का भी लक्ष्य रखना चाहिये।
  • शहर विकास के प्रति दृष्टिकोण पर पुनर्विचार: भारत अपने सतत् विकास लक्ष्यों और संयुक्त राष्ट्र के नए शहरी एजेंडा की पूर्ति कर सके, इसके लिये सरकार को देश की बसावटों और उनके बीच कनेक्टिंग नेटवर्क के योजना निर्माण एवं प्रबंधन के तरीके पर पुनर्विचार करने और उन्हें अभिनव रूप देने की आवश्यकता होगी।
    • आवश्यकता केवल यह नहीं है कि द्रुत गति से GHG उत्सर्जन में कमी लाई जाए, बल्कि यह भी है कि विकास के रास्ते पर हम ऐसे आगे बढ़ें जहाँ हम जलवायु संकट के घातक प्रभावों के अतिरिक्त जोखिमों का ‘प्रबंधन’ कर सकने में सक्षम हों। 
    • शहरों को कई संस्कृतियों के संगम स्थल और रोज़गार के अवसरों के सृजक के रूप में देखा जाना चाहिये तथा उनके भीतर और आसपास के प्राकृतिक वातावरण को भी संरक्षित करने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

योजनाओं का संबंध लोगों से होता है, न कि केवल भौतिक स्थानों से। जलवायु कार्रवाई और आर्थिक एवं सामाजिक एकीकरण पर ध्यान देने के साथ भविष्य के विकास एवं प्रगति के बारे में आम सहमति का निर्माण करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस तरह की भागीदारीपूर्ण प्रक्रिया ही एक जीवंत, समावेशी और वास योग्य शहरी भारत के निर्माण में मदद करेगी।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘जब भारत अपनी 100वीं वर्षगाँठ मनाएगा, तब तक उसकी लगभग आधी आबादी शहरी क्षेत्रों में रह रही होगी। इसलिये, न केवल भारत के मेगा शहरों का पोषण करना बल्कि टियर-2 और टियर-3 शहरों को अवसर देना भी अत्यंत आवश्यक है ताकि वे एक सतत् एवं जलवायु अनुकूल भविष्य के लिये तैयार हो सकें।’’ टिप्पणी कीजिये।


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