एडिटोरियल (12 Dec, 2020)



मानव अधिकारों के बदलते प्रतिमान

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में वर्तमान समय में मानव अधिकारों के बदलते प्रतिमान (विशेष कर COVID-19 महामारी के संदर्भ में), इसकी चुनौतियों व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ:

संयुक्त राष्ट्र महासभा (United Nations General Assembly)  द्वारा वर्ष 1948 में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा (Universal Declaration of Human Rights- UDHR) को अपनाए जाने की स्मृति में प्रतिवर्ष 10 दिसंबर के दिन को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया जाता है।

UDHR मानवाधिकारों के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ होने के साथ ही इस क्षेत्र की बड़ी उपलब्धि है। यह उन अविच्छेद्य अधिकारों की घोषणा करता है, जिन्हें हर किसी को एक मनुष्य होने के नाते बगैर उनकी जाति, रंग, धर्म, लिंग, भाषा, राजनीतिक या अन्य विचारधारा, राष्ट्रीय या सामाजिक मूल, संपत्ति, जन्म या किसी अन्य स्थिति के भेदभाव के प्राप्त करने का हक है।  यह दिन UDHR के मूलभूत योगदान के साथ मानव अधिकारों की अविच्छेद्यता और सार्वभौमिकता के महत्त्व को भी रेखांकित करता है। 

हालाँकि वर्तमान में विश्व भर में (विशेषकर विकासशील देशों में) मानवाधिकारों की अवधारणा और इसकी सार्वभौमिकता को पूरी तरह प्राप्त नहीं किया जा सका है।  

इसके अतिरिक्त COVID-19 महामारी ने गरीबी, संरचनात्मक भेदभाव में वृद्धि के साथ- साथ मानव अधिकारों के संरक्षण में बाधक अन्य असमानताओं को अधिक गहरा कर दिया है।  

अतः वर्तमान में मानवाधिकारों की परिभाषा और इनके संरक्षण के प्रावधानों पर पुनः विचार करने की आवश्यकता है।  

मानव अधिकारों का विकास: 

नागरिक और राजनीतिक अधिकार (पहली पीढ़ी के अधिकार): 

  • इन अधिकारों का उदय सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के दौरान कुछ सिद्धांतों के रूप में हुआ और इनमें से ज़्यादातर राजनीतिक चिंताओं पर आधारित थे।
  • इन अधिकारों के दो केंद्रीय विचार थे- ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता और राज्य (State) की निरंकुशता से लोगों की रक्षा’।
  •  नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्‍ट्रीय नियम (ICCPR) में नागरिक और राजनीतिक अधिकारों का वर्णन किया गया है।   

सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार (दूसरी पीढ़ी के अधिकार):

  • ये अधिकार लोगों के साथ रहने, काम करने और उनकी बुनियादी आवश्यकताओं से संबंधित हैं। 
  • ये अधिकार समानता के विचारों और आवश्यक सामाजिक, आर्थिक, वस्तुओं, सेवाओं एवं अवसरों तक पहुँच की गारंटी पर आधारित हैं।  
  •  ये औद्योगीकरण की शुरुआत और श्रमिक-वर्ग के उदय के साथ अंतर्राष्ट्रीय मान्यता के विषय बन गए।
  • इन अधिकारों ने जीवन की गरिमा के मायने को लेकर नए विचारों और मांग का मार्ग प्रसस्त किया। 
  • ‘आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिज्ञा-पत्र’ (ICESCR) में इन अधिकारों को रेखांकित किया गया है।    

तीसरी पीढ़ी के अधिकार- ‘एकजुटता का अधिकार’:

  • आवश्यकता क्यों?:  COVID-19 महामारी ने  हमें ऐसी बहुत सी बाधाओं के बारे में परिचित कराया है जो दूसरी पीढ़ी के अधिकारों के लिये एक चुनौती बन सकते हैं।   
  • विश्व के विभिन्न हिस्सों में युद्ध, अत्यधिक गरीबी, पारिस्थितिक और प्राकृतिक आपदाओं जैसी स्थितियों से स्पष्ट है कि मानवाधिकारों के संदर्भ में बहुत सीमित प्रगति ही हुई है।     
  • इन कारणों ने मानव अधिकारों की एक नई श्रेणी की मान्यता को आवश्यक बना दिया है।
  • एकजुटता का अधिकार: तीसरी पीढ़ी के अधिकारों का वैचारिक आधार एकजुटता के का है। तीसरी पीढ़ी के तहत सामान्य रूप से सबसे अधिक शामिल किये जाने वाले विशिष्ट अधिकारों में से कुछ निम्नलिखित हैं:
    •  विकास, शांति, स्वस्थ पर्यावरण, मानव जाति की सामूहिक विरासत के दोहन को साझा करना, संचार और मानवीय सहायता आदि।

एकजुटता के अधिकार से जुड़ी चुनौतियाँ: 

  •  व्यक्तिगत उन्मुखता: कुछ विशेषज्ञ इन अधिकारों के विचार के खिलाफ हैं,  क्योंकि ये अधिकार सामूहिक हैं (समुदायों या पूरे राज्य द्वारा धारण किये जाने के अर्थ में)।   
    • उनका तर्क है कि मानवाधिकार आंतरिक रूप से व्यक्तिगत हैं या केवल व्यक्तियों द्वारा ही धारण किये जा सकते हैं।
  • उत्तरदायित्व: चूँकि तीसरी पीढ़ी के अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व राज्य (State) का न होकर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का है, ऐसे में इनके प्रति जवाबदेही की गारंटी देना असंभव है।

आगे की राह:

  • COVID-19 महामारी के बाद विश्व में मानवाधिकारों के मुद्दे को वैश्विक व्यवस्था के केंद्र में रखा जाना चाहिये। इस संदर्भ में मानवाधिकारों में वर्तमान समय की ज़रूरतों के अनुरूप नए सुधारों को शामिल करने के लिये इसका विकास और विस्तार किया जाना चाहिये। इनमें से कुछ सुधार निम्नलिखित हैं: 
  • सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करना:  COVID-19 महामारी ने जहाँ समाज के सभी वर्गों के लिये आर्थिक चुनौतियों को जन्म दिया हैं, वहीं इसके कारण समाज में संरचनात्मक भेदभाव और नस्लवाद को बढ़ावा मिला है। ऐसे में  COVID-19 महामारी के बाद समानता और गैर-भेदभाव विश्व की प्रमुख आवश्यकताओं में से एक होंगे।
  • असमानता से निपटना: इस महामारी से उबरने के साथ-साथ असमानता की चुनौती से निपटना बहुत आवश्यक है। इसके लिये देशों को व्यापक आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों को बढ़ावा देना चाहिये और उनकी रक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिये तथा उन्हें UDHR के दायरे में भी लाना चाहिये।   
  • भागीदारी और एकजुटता को प्रोत्साहित करना: मानवाधिकारों की रक्षा के लिये यह बहुत ही आवश्यक है कि समाज के विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों से आने वाले लोगों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक किया जाए तथा उन्हें अपने अधिकारों के लिये खड़े होने के साथ ही दूसरों की स्वतंत्रता का सम्मान करने के लिये प्रोत्साहित किया जाए।  
  • COVID-19 महामारी के बाद वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी के लिये एक बेहतर विश्व के निर्माण में व्यक्तियों से लेकर सरकारों तक, सिविल सोसाइटी और ज़मीनी स्तर के समुदायों से लेकर निजी क्षेत्र तक, हर किसी की भूमिका  महत्त्वपूर्ण होगी।
  • सतत् विकास को बढ़ावा: मानवाधिकार सभी सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) पर होने वाली प्रगति से प्रेरित हैं, और SDGs मानवाधिकारों की प्रगति से।
    • ऐसे में मानवाधिकार, एसडीजी एजेंडा (SDG-2030) और पेरिस समझौते को इस महामारी के दुष्प्रभावों से उबरने की नीतियों के लिये आधारशिला के रूप में अपनाया जाना चाहिये ताकि समाज के किसी भी वर्ग का कोई भी व्यक्ति इसमें पीछे न रह जाए।  

निष्कर्ष: वर्तमान में समाज में व्याप्त भेदभाव सहित अन्य बाधाओं को दूर करते हुए मानवाधिकारों को बढ़ावा देकर इस महामारी से पूरी तरह से उबरकर एक बेहतर, अधिक लचीले, न्यायसंगत और टिकाऊ  विश्व की स्थापना की जा सकती है।

अभ्यास प्रश्न:  ‘COVID-19 महामारी ने सामाजिक असमानताओं और संरचनात्मक भेदभाव को गहरा  किया है, ऐसे में वर्तमान परिस्थिति को देखते हुए मानवाधिकारों की परिभाषा पर पुनः विचार किया जाना बहुत ही आवश्यक हो गया है।’ चर्चा कीजिये।