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  • 12 Jun, 2019
  • 16 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिये कृषि अर्थव्यवस्था को मज़बूत करें

इस Editorial में 10 जून को The Indian Express में प्रकाशित From Plate to Plough: The farm-factory connect का विश्लेषण किया गया है। इसमें देश के समग्र विकास में कृषि के महत्त्व पर चर्चा करते हुए कृषि विकास के लिये सुधारात्मक उपाय सुझाए गए हैं तथा इस पर भी चर्चा की गई है कि इन्हें विनिर्माण और सेवा क्षेत्र से कैसे जोड़ा जा सकता है।

संदर्भ

हाल ही में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, वित्त वर्ष 2018-19 में देश की आर्थिक विकास दर 5.8 फीसदी रही, जो कि पिछले पाँच साल का सबसे निचला स्तर है। इन आँकड़ों में देश की आर्थिक विकास दर घटने का मुख्य कारण कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर में कमी को बताया गया है। कृषि प्रधान देश कहलाने के बावजूद भारत में पिछले कुछ वर्षों से कृषि क्षेत्र हाशिये पर चला गया है। इसे समझने के लिये यही तथ्य पर्याप्त है कि देश में किसानों की आय दोगुनी करने में 22 साल लग गए। 1993-1994 से 2015-16 के बीच देश में किसानों की आय में केवल 3.31 फीसदी की वार्षिक वृद्धि हुई। इसी पैमाने पर देखें तो 2015-16 से 2022-23 के बीच किसानों की आय दोगुनी करने के लिये उनकी वास्तविक आय में 10.4 फीसदी की वार्षिक दर से बढ़ोतरी करनी होगी। लेकिन पिछले पाँच वर्षों से कृषि-GDP में प्रतिवर्ष 2.9 फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है।

चीन ने निरंतर हासिल की प्रतिवर्ष 5 फीसदी से अधिक की वृद्धि दर

चीन ने लंबे समय तक ऐसा कर दिखाया है, इसीलिये आज उसे दुनिया की फैक्ट्री की संज्ञा दी जाती है। दुनिया का शायद ही कोई देश ऐसा होगा जहाँ के बाज़ारों में चीन के उत्पाद न दिखाई दें। चीन ने सबसे पहले 5 फीसदी की विकास दर 1978 में हासिल की, जब वहाँ आर्थिक सुधारों की शुरुआत हुई थी। चीन के आर्थिक सुधारों में कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने का एजेंडा भी शामिल था। इसी के बल पर चीन ने 1978 से 2016 के दौरान कृषि क्षेत्र में 4.5 फीसदी प्रतिवर्ष की विकास दर बनाए रखी। इसने चीन में विनिर्माण क्रांति के लिये आधार तैयार किया क्योंकि इसकी वज़ह से वहाँ कृषि क्षेत्र में आय में वृद्धि से उत्पन्न ग्रामीण क्षेत्रों से घरेलू मांग को पूरा करने के लिये शहरी और ग्रामीण उद्यमों की स्थापना हुई।

भारत में क्यों नहीं हुआ ऐसा?

भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत 1991 में हुई थी और इससे पहले देश में हरित क्रांति भी हो चुकी थी। लेकिन इसके बावजूद भारत में कभी कोई विशेष कृषि-सुधार नहीं हुआ और इस वज़ह से किसानों की आय में भी इज़ाफ़ा नहीं हुआ।

आज भी स्थिति में कोई सुधार देखने को नहीं मिलता, बल्कि हालात बद-से-बदतर हुए हैं। देश के अग्रणी थिंक टैंक नीति आयोग का भी मानना है कि पिछले दो वर्षों यानी 2017-18 में किसानों की आय में वास्तविक बढ़ोतरी लगभग शून्य हुई है। इससे पहले के पाँच वर्षों के दौरान किसानों की आय में हर साल आधा फीसदी से भी कम बढ़ोतरी हुई यानी सात सालों से किसानों की आय में वृद्धि न के बराबर हुई है तो इसका मतलब कृषि संकट गंभीर है।

हम कई दशकों से विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों की आर्थिक सोच के मुताबिक आर्थिक नीतियाँ बनाते आ रहे हैं और उन नीतियों को व्यावहारिक बनाने के लिये कृषि को हाशिये पर रखा जा रहा है, जबकि चीन में ऐसा नहीं हुआ। हम विकास के मामले में अपनी तुलना चीन के मॉडल से करते हैं, लेकिन हम यह नहीं देख पाते कि चीन सरकार 2018 में अपने 70 लाख लोगों को शहरों से गाँवों में लेकर गई और उनमें से 60 फीसदी लोग वहीं रह गए। अब वे ग्रामीण क्षेत्र में रोज़गार को मज़बूत बनाने में लगे हैं। सही मायने में आर्थिक सुधार तभी व्यावहारिक बन सकेगा जब किसानों को उनका वाजिब हक मिलेगा।

देश की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्र की भूमिका

  • हाल ही में केंद्रीय सांख्यिकी संगठन (CSO) द्वारा जारी आँकड़ों से पता चलता है कि देश की आर्थिक विकास दर पिछले पाँच वर्षों के निम्नतम स्तर पर पहुंच गई है।
  • जनवरी से मार्च की तिमाही में आर्थिक विकास दर 5.8 फीसदी रही और इसमें सबसे खराब प्रदर्शन कृषि और निर्माण के क्षेत्र का रहा।
  • 31 मई को ये आधिकारिक आँकड़े जारी किये गए। GDP की विकास दर इससे पहले 2013-14 में कम रही थी।
  • इस मंदी का कारण ग्रामीण मांग का कम होना है। जब लोगों को पर्याप्त आमदनी नहीं होती या उनकी आय स्थिर रहती है या उसमें कमी होती है तो विनिर्मित वस्तुओं की मांग सीमित रहती है और ऐसे में उद्योग जगत के पहिये थम जाते हैं या उनकी रफ्तार पर ब्रेक लग जाता है।
  • देश की अर्थव्यवस्था में कृषि की महत्त्वपूर्ण भूमिका है और लगभग 60 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है, लेकिन GDP में इसका योगदान सिर्फ 17 फीसदी है।

कृषि में कम विकास के प्रमुख कारण

  • भारत में अधिकांश फसलों का मौजूदा उपज स्तर वैश्विक औसत के मुकाबले बहुत कम है। इसकी प्रमुख वज़हों में सिंचाई के साधनों की कमी, कम गुणवत्ता वाले बीजों का उपयोग, उन्नत तकनीक का इस्तेमाल न करना और बेहतर कृषि पद्धतियों के बारे में जानकारी की कमी शामिल है।
  • देश के लगभग 53 फीसदी फसल उत्पादन क्षेत्र में पानी की कमी बनी रहती है और वर्षा जल प्रबंधन की जो स्थिति है वह किसी से छिपी नहीं है।
  • इसके अलावा मुद्रास्फीति का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये विभिन्न प्रकार के नियंत्रणों के माध्यम से खाद्य पदार्थों की कीमतों को दबाकर रखना भी किसानों के हित के खिलाफ काम करता है।
  • इसकी वज़ह से किसान की कई फसलें लेने की क्षमता सीमित हो जाती है और आगे चलकर यह भू-संसाधनों के न्यूनतम उपयोग के रूप में सामने आता है।

कम उपज के अलावा भी कई ऐसी समस्याएँ हैं जो कृषि क्षेत्र में तकनीक के इस्तेमाल को बाधित करती हैं...

  • अन्य क्षेत्रों की तरह कृषि क्षेत्र में भी कौशल की मांग और आपूर्ति के बीच भारी अंतर है, जिसकी वज़ह से कृषि विविधिकरण, कृषि की उचित पद्धति को अपनाने और फसल पश्चात् मूल्य संवर्द्धन में बाधा आती है।
  • APMC कानून जैसी नियंत्रक नीतियों की वज़ह से निजी क्षेत्र उत्पादक और विक्रेता के बीच सीधी आपूर्ति श्रृंखला बनाने से कतराता है, जबकि इससे उत्पादक, उपभोक्ता और विक्रेता तीनों को ही लाभ होता है, क्योंकि इसमें बिचौलियों और मंडियों की कोई भूमिका नहीं होती।
  • इसके अलावा आवश्यक वस्तु अधिनियम जैसे कानून भी हैं, जो कृषि प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे में बड़े निवेश के लिये बाधक बने हुए हैं। इसकी वज़ह से कृषि-निर्यात की अवसंरचना कमज़ोर रह जाती है और इसीलिये कृषि-निर्यात में गिरावट देखने को मिल रही है।
  • विगत पाँच वर्षों में देश के कृषि निर्यात में नकारात्मक वृद्धि देखने को मिली है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) भी कृषि निर्यात पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। वैश्विक कीमतों की तुलना में उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य का विपरीत असर देखने को मिल सकता है। दरअसल, वैश्विक मूल्यों से अधिक MSP रखने की नीति अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के समान है। इसके अलावा इससे कृषि में विविधीकरण प्रक्रिया पर अनावश्यक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिसकी वज़ह से उच्च मूल्य वाली यानी कीमती फसलों की उपज लेना कठिन हो सकता है।

कुल मिलाकर इन सब का असर यह होता है कि भारतीय किसान वैश्विक बाज़ारों से मिलने वाले अवसरों का लाभ उठाने से वंचित रह जाता है।

यदि हमारी नीतियाँ इसी प्रकार चलती रहीं तो 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य दिवास्वपन बनकर रह जाएगा। सचाई तो यह है कि यदि भारत समृद्ध होना चाहता है तो हमें 4 फीसदी से अधिक कृषि-GDP का लक्ष्य सामने रखकर आगे बढ़ना होगा, लेकिन यह इतना आसान नहीं है।

इसके लिये...

  • राज्यों को मॉडल कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट, 2018 और मॉडल एग्रीकल्चर लैंड लीजिंग एक्ट, 2016 अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना होगा।
  • उच्च कीमत वाली फसलें कुल उत्पादन में लगभग समान राशि का योगदान करती हैं जितना कि मुख्य फसलें करती हैं, लेकिन ये सकल फसल क्षेत्र का केवल 19 फीसदी हिस्सा ही लेती हैं। ऐसे में सकल फसल क्षेत्र में उच्च कीमत वाली फसलों का भाग बढ़ाकर किसानों की आमदनी में उल्लेखनीय सुधार किया जा सकता है।
  • किसान उत्पादक संघों/संगठनों को प्रोत्साहन देना होगा।
  • कृषि-R & D में निवेश करने से कृषि में वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा बढ़ सकती है और इसे प्रयोगशालाओं से बाहर निकालकर खेतों तक ले जाना होगा।
  • इसके अलावा कुशल जल-प्रबंधन में निवेश और कृषि-निर्यात मूल्य श्रृंखलाओं के लिये बुनियादी ढाँचे में निवेश पर जोर देना होगा।
  • मोटे तौर पर भारत अपनी कृषि-GDP का 0.7 फीसदी कृषि-R & D में खर्च करता है। आने वाले सालों में इसे बढ़ाकर दोगुना करने की आवश्यकता है।
  • आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करने की ज़रूरत है ताकि किसानों और उपभोक्ताओं के हितों के बीच संतुलन स्थापित किया जा सके।
  • सभी हितधारकों के साथ विचार-विमर्श करने के बाद भारत सरकार को एक सुसंगत और स्थिर कृषि निर्यात नीति बनानी चाहिये।

श्रमिकों को कृषि से दूर रखने के लिये भारत को विनिर्माण, सेवाओं और निर्यात क्षेत्रों के विकास में तेज़ी लानी होगी। लेकिन श्रम को कृषि क्षेत्र के स्थान पर विनिर्माण गतिविधियों में लगाने से किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य तक पहुँचने का सफर और लंबा हो जाएगा। फिर भी 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये सामान्य कृषि से कृषि व्यवसाय पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।

देश में किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य

सरकार ने 2022-23 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य रखा है और इसके लिये कृषि सहयोग एवं किसान कल्याण विभाग के राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण के मुख्य कार्यकारी अधिकारी की अध्य्क्षता में एक अंतर-मंत्रिस्तररीय समिति गठित की है। इस समिति को किसानों की आय दोगुनी करने से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श करने और वर्ष 2022 तक सही अर्थों में किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये एक उपयुक्त रणनीति की सिफारिश करने की ज़िम्मेंदारी सौंपी गई है।

समानांतर रूप से सरकार आय को केंद्र में रखते हुए कृषि क्षेत्र को नई दिशा देने पर विशेष ध्या़न दे रही है। किसानों के लिये शुद्ध धनात्मक रिटर्न सुनिश्चित करने हेतु राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के ज़रिये निम्नलिखित योजनाओं को बड़े पैमाने पर क्रियान्वित किया जा रहा है:

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना, नीम लेपित यूरिया, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, परंपरागत कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय कृषि बाज़ार योजना (e-NAM), बागवानी के एकीकृत विकास के लिये मिशन, राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, इत्यादि।

इनके अलावा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिशों के आधार पर खरीफ और रबी दोनों ही फसलों के लिये MSP को अधिसूचित किया जाता है। यह आयोग खेती-बाड़ी की लागत पर विभिन्न आँकड़ों का संकलन एवं विश्लेषण करता है और फिर MSP से जुड़ी अपनी सिफारिशें पेश करता है।

किसानों की आमदनी में उल्लेखनीय वृद्धि सुनिश्चित करने के उद्देश्य से सरकार ने वर्ष 2018-19 के सीजन के लिये सभी खरीफ फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्यों में वृद्धि की थी। गौरतलब है कि वर्ष 2018-19 के बजट में MSP को उत्पादन लागत का कम-से-कम 150 फीसदी तय करने की बात कही गई थी।

अभ्यास प्रश्न: भारत की आर्थिक वृद्धि के लिये देश में एक मज़बूत औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का होना ज़रूरी है, लेकिन इससे कृषि विकास को भी मज़बूती मिलनी चाहिये। विवेचना कीजिये।


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