एडिटोरियल (12 Apr, 2023)



भारत में सहकारिता को बढ़ावा देना

यह एडिटोरियल 10/04/2023 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The knotty business of running cooperatives” लेख पर आधारित है। इसमें भारत में सहकारी आंदोलन की वर्तमान स्थिति पर, विशेष रूप से ग्रामीण एवं शहरी सहकारी बैंकों जैसी वित्तीय सहकारी समितियों के संबंध में, प्रकाश डाला गया है।

संदर्भ

सहकारिता (Cooperatives) का भारत में एक समृद्ध इतिहास रहा है और यह स्वतंत्रता के समय से देश के विकास का एक अभिन्न अंग रही है। 10 लाख से अधिक सहकारी समितियों के साथ, जिनमें से 1.05 लाख वित्तीय सहकारी समितियाँ (Financial Cooperatives) हैं, भारत के सहकारी आंदोलन में विकास को बढ़ावा देने, अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने और असमानता को कम करने की अपार क्षमता निहित है।

  • हालाँकि, सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण की मौजूदा प्रणाली के साथ कुछ समस्याएँ मौजूद हैं, जिससे क्षेत्राधिकार संबंधी विवाद पैदा हुए हैं, जिन्होंने उनके व्यवस्थित विकास को बाधित किया है। इसके बावजूद, सहकारी समितियाँ भारत के आर्थिक परिदृश्य का एक महत्त्वपूर्ण तत्व बनी हुई हैं और निर्धनों के जीवन स्तर में सुधार के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण या साधन हैं।
  • एक प्रतिस्पर्द्धी परिदृश्य में उन्नति करने के लिये सहकारी बैंकों को अपने शासन में सुधार लाने की आवश्यकता है। वैकल्पिक रूप से, राज्य सरकारों को वित्तीय सहकारी समितियों के विवादों में संलग्न होने के बजाय गैर-वित्तीय सहकारी समितियों का समर्थन करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।

भारत में वित्तीय सहकारी समितियों के साथ संबद्ध प्रमुख चुनौतियाँ

  • विनियमन और पर्यवेक्षण (Regulation and Supervision):
    • भारत में वित्तीय सहकारी समितियों के लिये विनियामक और पर्यवेक्षी ढाँचा खंडित है, जहाँ विभिन्न प्रकार की सहकारी समितियों को विभिन्न प्राधिकरणों द्वारा शासित किया जाता है। इससे विनियमन और पर्यवेक्षण में विसंगतियाँ एवं अंतराल उत्पन्न हो सकते हैं, जो वित्तीय प्रणाली में कमज़ोरियाँ पैदा कर सकते हैं।
      • सहकारी बैंकों (शहरी और ग्रामीण दोनों) के संबंध में दोहरे नियंत्रण की स्थिति क्षेत्राधिकार संबंधी विवादों को जन्म देती है।
      • उल्लेखनीय है कि सहकारी बैंकों के संबंध में निगमन (Incorporation), प्रबंधन (Management), लेखा परीक्षा (Audit), बोर्ड के अधिक्रमण (Supersession) और परिसमापन (Liquidation) को सहकारी समिति के रजिस्ट्रार द्वारा प्रशासित किया जाता है, जबकि बैंकिंग लाइसेंस, विवेकपूर्ण विनियमन (Prudential Regulation), पूंजी पर्याप्तता (Capital Adequacy) आदि RBI द्वारा निर्धारित किये जाते हैं।
  • शासन और प्रबंधन (Governance and Management):
    • भारत में कई वित्तीय सहकारी समितियाँ खराब शासन और प्रबंधन से त्रस्त हैं, जिससे कुप्रबंधन, धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार की स्थिति बन सकती है। ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं जहाँ खराब प्रशासन के कारण सहकारी समितियाँ विफल हो गई हैं, जिससे जमाकर्ताओं को हानि उठानी पड़ी।
      • कई सहकारी बैंकों की विफलता के पीछे खराब कॉर्पोरेट प्रशासन मुख्य कारण रहा है। वर्ष 2004-05 के बाद से गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों (Urban Cooperative Banks- UCBs) के 145 विलय (mergers) हुए हैं, जिनमें 9 विलय वर्ष 2021-22 में हुए।
      • वर्ष 2019 में पंजाब और महाराष्ट्र सहकारी (PMC) बैंक का पतन मुख्य रूप से वित्तीय अनियमितताओं, आंतरिक नियंत्रण की विफलता और जोखिमों की कम रिपोर्टिंग के कारण हुआ था।
  • पूंजी पर्याप्तता (Capital Adequacy):
    • भारत में वित्तीय सहकारी समितियाँ प्रायः पूंजी के पर्याप्त स्तर को बनाए रखने हेतु संघर्षरत होती हैं, जो घाटे को अवशोषित कर सकने और वित्तीय तनाव की अवधि के दौरान कार्यकरण जारी रख सकने की उनकी क्षमता को प्रभावित कर सकती है। यह अपने परिचालनों का विस्तार कर सकने और नए उत्पादों एवं सेवाओं की पेशकश कर सकने की उनकी क्षमता को भी सीमित कर सकता है।
  • ऋण जोखिम प्रबंधन (Credit Risk Management):
    • भारत में वित्तीय सहकारी समितियाँ आमतौर पर लघु एवं मध्यम आकार के उद्यमों (SMEs) और व्यक्तियों को उधार देती हैं जिनके पास सीमित क्रेडिट इतिहास या संपार्श्विक हो सकता है। यह सहकारी समितियों के लिये ऋण जोखिम प्रबंधन को एक प्रमुख चुनौती बनाता है, क्योंकि चूक (डिफ़ॉल्ट) और ऋण हानि उनकी वित्तीय स्थिरता को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित कर सकती है।
  • प्रौद्योगिकी और नवाचार (Technology and Innovation):
    • भारत में कई वित्तीय सहकारी समितियाँ प्रौद्योगिकी एवं नवाचार के मामले में पीछे हैं, जो बड़े बैंकों और फिनटेक फर्मों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने की उनकी क्षमता को सीमित कर सकती है। सहकारी समितियों को अपनी परिचालन दक्षता बढ़ाने और अपने ग्राहकों के लिये नए उत्पादों एवं सेवाओं की पेशकश करने के लिये आधुनिक प्रौद्योगिकी एवं डिजिटल अवसंरचना में निवेश करने की आवश्यकता है।
  • प्रतिस्पर्द्धा (Competition):
    • भारत में वित्तीय सहकारी समितियों को वाणिज्यिक बैंकों, लघु वित्तीय बैंकों और फिनटेक कंपनियों सहित अन्य वित्तीय संस्थानों से कड़ी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है। इससे सहकारी समितियों के लिये ग्राहकों को आकर्षित करना और उन्हें बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है, विशेष रूप से उन ग्राहकों को जो अधिक उन्नत एवं परिष्कृत वित्तीय सेवाओं की तलाश में रहते हैं।

गैर-वित्तीय सहकारी समितियों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता क्यों है?

  • समानता और लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा देना (Promoting Equality and Democratic Participation):
    • गैर-वित्तीय सहकारी समितियाँ (Non-financial cooperatives) ‘एक सदस्य, एक मत’ (one member, one vote) के सिद्धांत पर आधारित होती हैं, जिसका अर्थ है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी सदस्यों को एकसमान अधिकार है। यह लोकतांत्रिक भागीदारी को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि सभी के पास एक समान अभिव्यक्ति हो, भले ही उनके वित्तीय संसाधन कुछ भी हों।
  • सामुदायिक विकास को प्रोत्साहित करना (Encouraging Community Development):
    • गैर-वित्तीय सहकारी समितियाँ प्रायः विशिष्ट समुदायों या व्यक्ति समूहों की सेवा करती हैं, जैसे स्थानीय किसान या छोटे व्यवसायों के स्वामी। इन समुदायों को उत्पाद या सेवाएँ प्रदान कर, गैर-वित्तीय सहकारी समितियाँ स्थानीय आर्थिक विकास का समर्थन करने और प्रबल समुदायों का निर्माण करने में मदद कर सकती हैं।
  • सतत्/संवहनीय अभ्यासों को बढ़ावा देना (Fostering Sustainable Practices):
    • गैर-वित्तीय सहकारी समितियाँ प्रायः सतत अभ्यासों को बढ़ावा देने पर केंद्रित होती हैं, जैसे कि उचित व्यापार या जैविक खेती। पर्यावरणीय और सामाजिक स्थिरता को प्राथमिकता देकर, गैर-वित्तीय सहकारी समितियाँ अधिक निष्पक्ष एवं न्यायसंगत समाज के सृजन में मदद कर सकती हैं।
  • कामगारों और उपभोक्ताओं का सशक्तीकरण (Empowering Workers and Consumers):
    • गैर-वित्तीय सहकारी समितियाँ प्रायः कामगारों या उपभोक्ताओं के स्वामित्व एवं नियंत्रण में होती हैं, जो उन्हें अपने काम या उपभोग के संबंध में वृहत स्वामित्व एवं नियंत्रण की भावना प्रदान करती है। यह कामगार सशक्तीकरण और उपभोक्ता अधिकारों को बढ़ावा देने में मदद कर सकता है, जिससे एक अधिक न्यायसंगत एवं निष्पक्ष समाज का निर्माण हो सकता है।

गैर-वित्तीय सहकारी समितियों के विकास के लिये सरकार क्या योजना रखती है?

  • सहकारिता मंत्रालय:
    • सरकार ने हाल ही में देश में सहकारी क्षेत्र को बढ़ावा देने और विकसित करने के लिये एक अलग सहकारिता मंत्रालय (Ministry for Cooperation) का निर्माण किया है। मंत्रालय को सहकारी समितियों के लिये एक सहायक नीति एवं नियामक वातावरण प्रदान करने, सहकारी आंदोलन को प्रबल करने और देश भर में उनकी पहुँच का विस्तार करने का दायित्व सौंपा गया है।
  • FPOs के लिये राजकोषीय प्रोत्साहन:
    • सरकार किसान उत्पादक संगठनों (Farmer Producer Organisations- FPOs) के लिये कर छूट, क्रेडिट गारंटी योजनाओं और सब्सिडी जैसे राजकोषीय प्रोत्साहन प्रदान करती है।
  • हस्तशिल्प और हथकरघा के लिये योजनाएँ:
    • सरकार ने हस्तशिल्प और हथकरघा क्षेत्र—जो ग्रामीण कारीगरों के लिये आजीविका का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं, को बढ़ावा देने और उन्हें विकसित करने के लिये कई योजनाएँ शुरू की हैं।
  • सरकारी इलेक्ट्रॉनिक मार्केटप्लेस (GeM):
    • इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (eNAM) के बाद अब सरकारी इलेक्ट्रॉनिक मार्केटप्लेस (Government’s electronic Marketplace- GeM) का चौथा संस्करण लॉन्च किया गया है जो MSMEs और गैर-वित्तीय सहकारी समितियों द्वारा उत्पादित विभिन्न वस्तुओं एवं सेवाओं के विपणन पर समर्पित एक सफल नवोन्मेषी ऑनलाइन मंच है।
      • अब तक इस प्लेटफॉर्म पर 62000 से अधिक सरकारी क्रेता, 49 लाख विक्रेता, 10000 उत्पाद और 290 सेवाएँ पंजीकृत हो चुकी हैं।
  • एक-ज़िला-एक उत्पाद योजना (One-District-One-Product Scheme):
    • इसका उद्देश्य देश के प्रत्येक ज़िले के अनूठे उत्पादों को बढ़ावा देना और उन्हें ब्राण्ड के रूप में विकसित करना है।
  • डेयरी विकास के लिये कल्याणकारी योजनाएँ:
    • सरकार ने डेयरी विकास और मात्स्यिकी के लिये कई कल्याणकारी योजनाएँ शुरू की हैं, जो ग्रामीण परिवारों के लिये आजीविका का महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं।
      • भारत में दुग्ध सहकारिता वृहत रूप से सफल रही है।
  • व्यवसाय मॉडल के रूप में सहकारिता:
    • सहकारिता को पोस्ट-हार्वेस्ट प्रसंस्करण, भंडारण और पैकेजिंग जैसे कई क्षेत्रों में एक व्यवसाय मॉडल के रूप में अपनाया जा सकता है।
  • प्रौद्योगिकी का उपयोग:
    • सरकार डिजिटल इंडिया, भारतनेट (BharatNet) और ई-गवर्नेंस जैसी कई योजनाओं के तहत ग्रामीण विकास के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग करने की दृष्टि रखती है।
  • स्टार्ट-अप के लिये बढ़ते अवसर:
    • ग्रामीण क्षेत्रों में स्टार्ट-अप के लिये अवसर बढ़ रहे हैं, जिन्हें गैर-वित्तीय सहकारी समितियों के तहत आगे बढ़ाया जा सकता है।

आगे की राह

  • प्रौद्योगिकी को अपनाना:
    • आज के डिजिटल युग में वित्तीय सहकारी समितियों के लिये प्रौद्योगिकीय प्रवृत्तियों को बनाए रखना और मोबाइल बैंकिंग, ऑनलाइन अकाउंट ओपनिंग और रिमोट डिपॉजिट कैप्चर जैसी डिजिटल सेवाओं की पेशकश करना अत्यंत आवश्यक है। यह नए सदस्यों को आकर्षित करने और मौजूदा सदस्यों को बनाए रखने में मदद कर सकता है, विशेष रूप से युवा पीढ़ी को जो अधिक तकनीक-प्रेमी (tech-savvy) है।
  • सेवाओं का विस्तार करना:
    • वित्तीय सहकारी समितियाँ पारंपरिक बचत एवं ऋण सेवाओं से आगे बढ़ते हुए निवेश उत्पादों, बीमा और वित्तीय शिक्षा को शामिल करने के लिये अपनी सेवाओं का विस्तार कर सकती हैं।
    • इससे सदस्यों को अपने वित्तीय लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है और सहकारिता के प्रति उनकी निष्ठा सुदृढ़ हो सकती है।
  • अन्य सहकारी समितियों के साथ सहयोग करना:
    • वित्तीय सहकारी समितियाँ संसाधनों, विशेषज्ञता और सर्वोत्तम प्रथाओं की साझेदारी के लिये क्रेडिट यूनियनों सहित अन्य सहकारी समितियों के साथ सहकार्यता स्थापित कर सकती हैं। यह दक्षता में सुधार लाने और लागत कम करने में मदद कर सकता है।
  • गैर-वित्तीय सहकारी समितियों पर ध्यान केंद्रित करना:
    • जबकि वित्तीय सहकारी समितियाँ (जैसे कि क्रेडिट यूनियन और माइक्रोफाइनेंस संस्थान) क्रेडिट एवं अन्य वित्तीय सेवाओं तक पहुँच प्रदान करने हेतु महत्त्वपूर्ण हैं, वे कभी-कभी संघर्ष और विवाद का स्रोत भी बन सकती हैं।
    • गैर-वित्तीय सहकारी समितियों के संभावित लाभों को देखते हुए, वित्तीय सहकारी समितियों पर संघर्षों में शामिल होने के बजाय राज्य सरकारों के लिये इस प्रकार के संगठनों का समर्थन करने पर ध्यान देना अधिक उत्पादक सिद्ध हो सकता है।
      • इसमें गैर-वित्तीय सहकारी समितियों की स्थापना एवं विकास में मदद करने के लिये वित्तपोषण और तकनीकी सहायता प्रदान करने के साथ-साथ सार्वजनिक शिक्षा एवं आउटरीच अभियानों के माध्यम से इन संगठनों को बढ़ावा देना शामिल हो सकता है।

अभ्यास प्रश्न: भारत में सहकारी आंदोलनों की वर्तमान स्थिति और प्रभाव की चर्चा करें। वे देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार योगदान करते हैं?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्र. भारत में कृषि वित्त की पृष्ठभूमि में इस कथन की चर्चा कीजिये। कृषि वित्त की आपूर्ति करने वाली वित्तीय संस्थाओं को किन बाधाओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? ग्रामीण ग्राहकों तक बेहतर ढंग से पहुँचने और उनकी सेवा के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग कैसे किया जा सकता है?  (वर्ष 2014)