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  • 12 Mar, 2020
  • 19 min read
शासन व्यवस्था

न्यायिक पारदर्शिता: एक ज्वलंत मुद्दा

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में न्यायिक पारदर्शिता व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

किसी भी लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता व न्याय तक पहुँच प्रत्येक नागरिक का अधिकार है तथा इसे सुनिश्चित करना राज्य का उत्तरदायित्व होता है। भारत में न्यायिक व्यवस्था व न्यायिक प्रक्रिया दोनों जटिल हैं। न्यायिक व्यवस्था में पारदर्शिता व न्याय तक पहुँच जनता के एक बड़े वर्ग के लिये अभी भी दुर्लभ है। हाल ही में न्याय के अनुपालन में पारदर्शिता व पहुँच सुनिश्चित करने के लिये दायर मुख्य सूचना आयुक्त बनाम गुजरात उच्च न्यायालय वाद पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दुर्भाग्यपूर्ण रूप से, नागरिकों को सूचना के अधिकार अधिनियम (Right to Information- RTI) के अंतर्गत न्यायालय के रिकॉर्ड की सूचना प्राप्त करने से रोक दिया है। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पूर्व की भाँति संविधान के अनुच्छेद 225 द्वारा प्रत्येक उच्च न्यायालय के नियमों के अधीन रहते हुए न्यायालय के रिकॉर्ड की सूचना प्राप्त की जा सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि न्यायपालिका RTI के दायरे में न तो पहले आती थी और न अब। किंतु न्यायपालिका का न्यायिक प्रशासन सार्वजनिक प्राधिकरण होने के कारण RTI के अंतर्गत आता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि RTI अधिनियम के महत्त्व को रेखांकित कर उसके दायरे को विस्तारित करने वाली न्यायपालिका आखिर क्यों स्वयं को RTI अधिनियम के दायरे से बाहर रखने का प्रयास करती है। इस आलेख में हम इन प्रश्नों का उत्तर जानने का प्रयत्न करेंगे।

पृष्ठभूमि

  • तीन जजों की खंडपीठ ने मुख्य सूचना आयुक्त बनाम गुजरात उच्च न्यायालय व अन्य के मामले में कहा कि न्यायालय के दस्तावेज़ों की प्रमाणित प्रतियाँ प्राप्त करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 225 के अंतर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय के नियमों के अधीन आवेदन किया जाना चाहिये।

अनुच्छेद 225 में उल्लिखित प्रावधान

  • इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए और इस संविधान द्वारा समुचित विधान-मंडल को प्रदत्त शक्तियों के आधार पर उस विधान-मंडल द्वारा बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी विद्यमान उच्च न्यायालय की अधिकारिता और उसमें प्रशासित विधि तथा उस न्यायालय में न्याय प्रशासन के संबंध में उसके न्यायाधीशों की अपनी-अपनी शक्तियाँ, जिनके अंतर्गत न्यायालय के नियम बनाने की शक्ति तथा उस न्यायालय और उसके सदस्यों की बैठकों का चाहे वे अकेले बैठें या खंड न्यायालयों में बैठें विनियमन करने की शक्ति है, वहीं होंगी जो इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले थीं।

[परंतु राजस्व संबंधी अथवा उसका संग्रहण करने में आदिष्ट या किए गए किसी कार्य संबंधी विषय की बाबत उच्च न्यायालयों में से किसी की आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग, इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले, जिस किसी निर्बंधन के अधीन था, वह निर्बंधन ऐसी अधिकारिता के प्रयोग को ऐसे प्रारंभ के पश्चात लागू नहीं होगा।]

  • खंडपीठ ने इस संबंध में नवंबर 2019 में भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को RTI अधिनियम में शामिल करने के निर्णय को आधार नहीं बनाया बल्कि दिल्ली उच्च न्यायालय के वर्ष 2017 के फैसले का संदर्भ दिया, जिसमें न्यायालय ने एक याचिकाकर्त्ता को इस बात की जानकारी देने से इनकार कर दिया था कि उसकी याचिका क्यों खारिज की गई।
  • पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के नियम 151 की वैधता को बरकरार रखा।
  • इस नियम के अनुसार, निर्धारित कोर्ट फीस के साथ आवेदन दाखिल करने पर वादी को दस्तावेज़ों/निर्णयों आदि की प्रतियाँ प्राप्त करने का अधिकार है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि गुजरात उच्च न्यायालय और RTI अधिनियम की धारा 22 के प्रावधानों के मध्य किसी भी प्रकार की असंगतता नहीं है। यदि असंगतता होती तो निसंदेह RTI अधिनियम की धारा 22 के प्रावधान स्वत: लागू होते।

निर्णय का प्रभाव

  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के परिणामस्वरूप अब उच्च न्यायालय के रिकॉर्ड संबंधी दस्तावेज़ केवल उस वाद से जुड़े पक्षकारों को ही प्राप्त हो सकते हैं।
  • यदि किसी तीसरे पक्ष को उच्च न्यायालय के रिकॉर्ड संबंधी दस्तावेज़ चाहिये तो उसे अपनी आवश्यकता की प्रासंगिकता को न्यायालय के सम्मुख साबित करना होगा।

पारदर्शिता से तात्पर्य

  • पारदर्शिता का अर्थ है - खुलापन, सूचना की आसानी से प्राप्ति और उत्तरदायित्व। किसी भी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में जवाबदेही और पारदर्शिता बुनियादी मूल्य हैं। सरकार हो या नौकरशाही, राजनीतिक दल हो या न्यायिक तंत्र सभी से आशा की जाती है कि वे लोगों के प्रति जवाबदेह और पारदर्शी होंगे। न्यायिक पारदर्शिता के अंतर्गत न्यायिक नियुक्तियों में खुलापन, न्यायिक दस्तावेज़ों तक जनता की सुगम पहुँच तथा जनता के प्रति न्यायालय का उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवहार इत्यादि शामिल हैं।

न्यायिक पारदर्शिता के पक्ष में तर्क

  • न्यायालयों द्वारा दिये गए निर्णय नागरिकों के व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करते हैं, इसलिये न्यायिक दस्तावेज़ों तक नागरिकों की पहुँच सुगम होनी चाहिये।
  • न्यायिक दस्तावेज़ों का प्रयोग शैक्षिक संस्थानों में शोध व अनुसंधान के लिये, विभिन्न समाचार चैनलों के संवाददाताओं तथा गैर सरकारी संगठनों द्वारा किया जाता है।
  • आपराधिक मामलों में पुलिस की कार्य प्रणाली की न्यायालय में जाँच की जाती है तथा न्यायालय में दायर रिट याचिकाओं पर सुनवाई की जाती है। न्यायिक पारदर्शिता के द्वारा ही हमें इस संदर्भ में जानकारी प्राप्त होती है।
  • राज्य के शक्तिशाली अंगों के रूप में किसी भी अन्य निकाय की तरह न्यायालयों का कामकाज भी पारदर्शी और सार्वजनिक जाँच के लिये खुला होना चाहिये। न्यायालयों की वैधता सत्यापित तथ्यों और कानून के सिद्धांतों के आधार पर उचित आदेश प्रदान करने की उनकी क्षमता पर आधारित है।
  • उच्च न्यायपालिका में कानूनी दलीलों का परीक्षण पहले दिये जा चुके निर्णयों या एक ही न्यायालय की बड़ी बेंचों के निर्णयों के आधार पर किया जाता है। इसलिये पारदर्शी व्यवस्था को न अपनाने का कोई कारण नहीं है।
  • न्यायपालिका में न्यायालयों का एक पदानुक्रम (Hierarchy) होता है। ट्रायल कोर्ट से लेकर अपीलीय कोर्ट तक पहुँचते-पहुँचते तथ्यों और कानून का विभिन्न चरणों में परीक्षण हो जाता है।
  • न्यायालयों का RTI अधिनियम से पूर्णतः छूट खुले न्याय (Open Justice) के मूल सिद्धांत को खत्म करने के लिये पर्याप्त है।

न्यायिक पारदर्शिता के विपक्ष में तर्क

  • कॉलेजियम व्यवस्था के संबंध में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि कॉलेजियम में सूचनाओं को दो रूपों में देखा जा सकता है - प्रथम ‘इनपुट’ एवं दूसरा ‘आउटपुट’। कॉलेजियम का ‘आउटपुट’ न्यायाधीशों के चयन से संबंधित अंतिम निर्णय है जो सार्वजनिक होती है किंतु ‘इनपुट’ के अंतर्गत न्यायाधीशों की विभिन्न सूचनाओं का डेटा होता है जिसे सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है क्योंकि इससे न्यायाधीशों की निजता के अधिकार का हनन होगा।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि RTI के अंतर्गत न्यायाधीशों की संपत्ति आदि की जानकारी सार्वजनिक नहीं की जा सकती है क्योंकि इससे न्यायाधीशों के निजता का अधिकार प्रभावित होगा।
  • न्यायालय ने कहा है कि प्रत्येक RTI के अंतर्गत ‘मोटिव’ या ‘उद्देश्य’ को ध्यान में रखना होगा। अगर कहीं जनहित में सूचनाओं की मांग हो, वहीं दूसरी ओर स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा हेतु किसी मामले में गोपनीयता की आवश्यकता होगी तो गोपनीयता को वरीयता दी जाएगी।
  • स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा को केशवानंद भारती मामले में “संविधान के आधारभूत ढाँचे” के अंतर्गत रखा गया था। अत: किसी भी रूप में इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे ध्यान में रखते हुए स्पष्ट किया कि पारदर्शिता के नाम पर न्यायपालिका की गोपनीयता को भंग नहीं किया जा सकता है।

पारदर्शिता की राह में बाधाएँ

  • न्यायपालिका में जनता का भरोसा बनाए रखने के लिये खुले न्यायालयों (Open Courts) का सिद्धांत महत्त्वपूर्ण है। प्रसिद्ध दार्शनिक जेरेमी बेंथम ने खुले न्यायालयों के महत्त्व को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है- “गोपनीयता के अंधेरे में, तमाम तरह के क्षुद्र स्वार्थ और बुरी नीयतें खुलकर सामने आ जाती हैं। प्रचार-प्रसार के माध्यम से ही न्यायिक अन्याय पर अंकुश लग सकता है। जहाँ सूचना का प्रसार न हो, वहाँ न्याय भी नहीं हो सकता है। प्रचार ही न्याय की आत्मा है।”
  • पिछले दशक में, खुले न्यायालयों के सिद्धांत पर न्यायपालिका की ओर से ही सबसे अधिक हमले हुए हैं। यह कई तरह से होता है जैसे- सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में आम आदमी के प्रवेश को सुरक्षा का हवाला देकर रोक दिया जाता है, संवेदनशील मामलों में न्यायिक कार्यवाही की रिपोर्टिंग से रोकने वाले आदेश, सरकार से सीलबंद लिफाफे में जवाब मंज़ूर करना, न्यायपालिका को RTI अधिनियम के दायरे से बाहर रखना इत्यादि।
  • इसके अतिरिक्त भारत उन चुनिंदा देशों में से एक है, जहाँ न्यायाधीशों को कॉलेजियम तंत्र के माध्यम से न्यायिक नियुक्तियों पर अंतिम अधिकार प्राप्त है। कॉलेजियम तंत्र का उल्लेख संविधान में कहीं भी नहीं किया गया है और यह अपने आप में एक अति गोपनीय व्यवस्था भी है।
  • न्यायिक नियुक्तियाँ अक्सर तदर्थ और मनमाने तरीके से की जाती हैं ऐसा मानने वालों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है।
  • जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता नहीं होने और इनमें परिवारवाद को वरीयता देने का मुद्दा समय-समय पर चर्चा में रहा है, इसे अंकल सिंड्रोम कहते हैं। इसमें होता यह है कि जब जज बनाने के लिये अधिवक्ताओं के नाम प्रस्तावित किये जाते हैं तो किसी भी स्तर पर किसी से कोई राय नहीं ली जाती। इनमें जिन लोगों का नाम प्रस्तावित किया जाता है उनमें से कई पूर्व न्यायाधीशों के परिवार से होते हैं या उनके संबंधी होते हैं।

पारदर्शिता में वृद्धि हेतु सर्वोच्च न्यायालय के पूर्ववर्ती निर्णय

  • विदित है कि नवंबर 2019 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को सार्वजनिक प्राधिकरण (Public Authority) बताते हुए इसे RTI के दायरे में ला दिया है। इस निर्णय के बाद अब RTI के तहत आवेदन देकर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय से सूचना मांगी जा सकती है।
  • दरअसल न्यायिक व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं- एक न्यायपालिका दूसरा न्यायपालिका का प्रशासन। अब न्यायपालिका का न्यायिक प्रशासन सार्वजनिक प्राधिकरण होने के कारण RTI के अंतर्गत आता है।

क्या है सार्वजनिक प्राधिकरण?

  • सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 की धारा 2(h) के तहत सार्वजनिक प्राधिकरण से तात्पर्य निम्नलिखित संस्थाओं से है-
    • जो संविधान या इसके अधीन बनाए गए किसी अन्य विधान द्वारा निर्मित हो;
    • राज्य विधानमंडल द्वारा या इसके अधीन बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा निर्मित हो;
    • केंद्र या राज्य सरकार द्वारा जारी किसी अधिसूचना या आदेश द्वारा निर्मित हो;
    • पूर्णत: या अल्पत: सरकारी सहायता प्राप्त हो।
  • वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक पारदर्शिता को बढ़ावा देने के लिये संवैधानिक महत्त्व वाले मामलों में की जाने वाली न्यायिक कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग को अनुमति दे दी है।
  • कॉलेजियम पद्धति की गोपनीयता बरकरार रखते हुए इसमें पारदर्शिता लाने के लिये अब उच्च न्यायालयों के जजों को नियमित करने, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की पदोन्नति, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों/न्यायाधीशों के स्थानांतरण और सर्वोच्च न्यायालय में उनकी नियुक्तियों के बारे में कॉलेजियम द्वारा लिये गए निर्णय कारण सहित उस समय शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर डाले जाने लगे हैं।

आगे की राह

  • न्यायिक कदाचार के मामलों से निपटने और न्यायिक जवाबदेही के विचार को बाधित करने वालों के लिये न्यायपालिका के भीतर एक पारदर्शी प्रणाली का होना अनिवार्य है। इसका एकमात्र तरीका न्यायपालिका के आवरण को थोड़ा खोलना है।
  • जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण जैसे महत्त्वपूर्ण मामलों को न्यायिक परिवार के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसमें आम लोगों को भागीदार बनाने के लिये कॉलेजियम व्यवस्था की निर्णय प्रक्रिया में और अधिक पारदर्शिता लाने की बेहद आवश्यकता है।
  • न्यायाधीशों को बिना किसी संकोच के निजता का अधिकार नामक आवरण से बाहर निकल कर स्वयं को RTI अधिनियम के दायरे में लाना चाहिये।
  • न्यायिक उत्तरदायित्व तय करने के लिये कानून बनाने की आवश्यकता है ताकि न्यायिक प्रणाली पर लोगों का भरोसा बना रहे और न्यायिक भ्रष्टाचार की प्रभावी जाँच हो सके।
  • अंत में लॉर्ड वुल्फ के शब्दों में- "न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायपालिका की संपत्ति नहीं है, बल्कि न्यायपालिका द्वारा जनता के विश्वास के लिये रखी जाने वाली एक वस्तु है।”

प्रश्न- ‘भारतीय संविधान में न्यायिक स्वतंत्रता को विशेष महत्त्व दिया गया है परंतु यह गोपनीयता को बढ़ावा नहीं दे सकती है।’ इस कथन के आलोक में न्यायिक पारदर्शिता की प्रासंगिकता का मूल्यांकन कीजिए।


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