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एडिटोरियल

  • 12 Jan, 2022
  • 13 min read
अंतर्राष्ट्रीय संबंध

यूरेशिया के लिये रणनीति

यह एडिटोरियल 11/01/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “The Sail That Indian Diplomacy, Statecraft Need” लेख पर आधारित है। इसमें मध्य एशिया और यूरेशिया में हाल के भू-राजनीतिक बदलावों और इस परिदृश्य में भारत की कूटनीतिक आवश्यकताओं के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ  

वर्ष 2021 ईरान के परमाणु मसले, तेल एवं गैस की कीमतों में उछाल, यमन, इराक, सीरिया, लेबनान में गहराते संकट और अफगानिस्तान से अमेरिका की सैन्य बल वापसी के साथ तालिबान के पुनः सत्ता में लौट आने से संबंधित दुर्भाग्यजनक घटनाओं का वर्ष रहा। ये सभी घटनाक्रम भारत के महाद्वीपीय सुरक्षा हितों के लिये अत्यधिक चिंता के विषय हैं।  भारत की महाद्वीपीय रणनीति, जिसमें मध्य एशियाई क्षेत्र एक अनिवार्य कड़ी है, पिछले दो दशकों में धीरे-धीरे कर आगे बढ़ी है, जहाँ कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने, रक्षा एवं सुरक्षा सहयोग में वृद्धि, भारत के ‘सॉफ्ट पावर’ के प्रसार और व्यापार एवं निवेश को प्रोत्साहन देने जैसे क्षेत्रों में भारत ने दाँव आजमाए। यह प्रशंसनीय है लेकिन जैसा कि अब स्पष्ट है, यह इस भूभाग में व्याप्त व्यापक भू-राजनीतिक चुनौतियों का समाधान करने के लिये पर्याप्त नहीं है। महाद्वीपीय और समुद्री सुरक्षा के बीच सही संतुलन का निर्माण करना भारत के दीर्घकालिक सुरक्षा हितों के लिये सबसे अधिक आश्वस्तिकारक होगा।   

यूरेशिया में भू-राजनीतिक परिवर्तन

  • हाल के घटनाक्रम: चीन का मुखर उदय, अफगानिस्तान से अमेरिकी एवं नाटो सैन्य बलों की वापसी, इस्लामी कट्टरपंथी शक्तियों का उदय और रूस की ऐतिहासिक रूप से स्थिरताकारी भूमिका के कारण बदलती गतिशीलता (हाल ही में कज़ाखस्तान में)—इन सभी घटनाक्रमों ने यूरेशियाई भू-भाग में भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के तेज़ होने के लिये मंच तैयार कर दिया है।      
    • यह भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा चीन एवं अन्य बड़ी शक्तियों द्वारा प्रभुत्व प्रदर्शन के रूप में संसाधनों और भौगोलिक पहुँच के शस्त्रीकरण द्वारा चिह्नित होती है।  
  • यूरेशियाई भू-राजनीति में रूस की केंद्रीयता: बेलारूस, यूक्रेन, काकेशस और कज़ाखस्तान में विद्यमान संकटों में से प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट तर्क और प्रक्षेपवक्र हो सकता है लेकिन संयुक्त रूप से वे यूरेशिया की भू-राजनीति को पुनः आकार दे रहे हैं।      
    • यूरेशिया में अपने वृहत भौगोलिक विस्तार के साथ रूस इस पुनर्गठन के केंद्र में है। 
    • कज़ाखस्तान में मास्को का सैन्य हस्तक्षेप और यूरोप की सुरक्षा पर अमेरिका के साथ इसकी हाल की वार्ता यूरेशिया में रूस की केंद्रीयता को रेखांकित करती है।
  • चीन का बढ़ता हस्तक्षेप: सैन्य हस्तक्षेप एवं शक्ति प्रक्षेपण की चीनी इच्छा और क्षमता इसके निकटवर्ती भू-भाग से अब बहुत आगे बढ़ रही है। 
    • चीन का प्रमुख शक्ति के रूप में न केवल समुद्री क्षेत्र में उभार हो रहा है, बल्कि वह निम्नलिखित क़दमों के माध्यम से यूरेशियाई महाद्वीप पर भी अपना विस्तार कर रहा है:
      • मध्य एशिया में बेल्ट एंड रोड पहल (BRI) परियोजनाएँ मध्य एवं पूर्वी यूरोप और काकेशस तक विस्तृत हो रही हैं जो पारंपरिक रूसी प्रभाव को कम कर रही हैं  
      • ऊर्जा एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच प्राप्त करना। 
      • निर्भरता पैदा करने वाले निवेश।
      • साइबर और डिजिटल पैठ, और 
      • पूरे महाद्वीप में राजनीतिक और आर्थिक अभिजात वर्ग के बीच प्रभाव का विस्तार करना।  
  • अमेरिकी प्रभाव में गिरावट: हालाँकि महाद्वीपीय परिधि पर अमेरिका की पर्याप्त सैन्य उपस्थिति बनी हुई है, परंतु मुख्य यूरेशियाई भूभाग पर अमेरिकी सैन्य उपस्थिति पर्याप्त कम हो गई है।  
    • जबकि वर्ष 1992 में यूरोपीय कमान के तहत अमेरिका के 2,65,000 से अधिक सैनिक तैनात थे, अब उनकी संख्या 65,000 ही रह गई है।
    • आजकल ‘इंडो-पैसिफिक कमान’ के रूप में ज्ञात क्षेत्र में अमेरिका के 1990 के दशक के आरंभ में लगभग 1,00,000 सैनिक थे, जहाँ चीन की सैन्य शक्ति के उभार के बाद भी वर्तमान में लगभग 90,000 सैनिक ही हैं, जो प्रायः जापान और दक्षिण कोरिया की क्षेत्रीय रक्षा के लिये प्रतिबद्ध हैं।
    • हालाँकि इस क्षेत्र में अमेरिका एक पूर्व-प्रतिष्ठित नौसैनिक शक्ति है, विशेषकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र में, अपनी स्वयं की शक्ति के आलोक में अपनी रणनीतिक प्राथमिकताओं को परिभाषित करता है। 

Russia

संबद्ध चुनौतियाँ

  • स्थल क्षेत्र पर सीमित प्रभाव: अमेरिका, जो यूरेशिया में भारतीय स्थिति की सुदृढ़ता के लिये एक महत्त्वपूर्ण सहयोगी हो सकता है, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में तो एक शक्तिशाली पक्ष रखता है लेकिन इसने स्थल क्षेत्र पर तुलनात्मक रूप से कम प्रभाव छोड़ा है। 
    • समुद्री सुरक्षा और नौसैनिक शक्ति के संबद्ध आयाम राज्य नीति के पर्याप्त साधन नहीं हैं क्योंकि भारत चीन की एकतरफा कार्रवाइयों और एकध्रुवीय एशिया के उद्भव के विरुद्ध स्वयं को मज़बूत करने के लिये राजनयिक और सुरक्षा निर्माण की इच्छा रखता है।  
  • भारत की सीमा और कनेक्टिविटी की समस्याएँ: पाकिस्तान और चीन से दो मोर्चों पर लगातार खतरे की स्थिति ने भारत की सुरक्षा के एक कठिन महाद्वीपीय आयाम हेतु मंच तैयार किया। पाकिस्तान और चीन के साथ लगी सीमाओं के सैन्यीकरण की वृद्धि हुई है।      
    • भारत पाँच दशकों से अधिक समय से पाकिस्तान द्वारा थल प्रतिबंध (land embargo) का शिकार बना रहा है जो तकनीकी रूप से युद्ध में संलग्न नहीं रहे दो राज्यों के बीच के अजीब प्रकार के संबंध परिदृश्य को प्रकट करता है।
      • यदि अंतर्राष्ट्रीय कानून के सिद्धांतों के विपरीत शत्रु पड़ोसी राज्य द्वारा पहुँच को लगातार अवरुद्ध रखा जा रहा हो तो कनेक्टिविटी का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

आगे की राह

  • मध्य एशिया यूरेशिया की कुंजी है: चीनी समुद्री विस्तारवादी लाभ के विरुद्ध एक सुरक्षात्मक दीवार का निर्माण करना अपेक्षाकृत आसान है और इसके लाभ को उस दीर्घकालिक रणनीतिक लाभ की तुलना में उलटना आसान है जिसे चीन महाद्वीपीय यूरेशिया में सुरक्षित करने की आशा रखता है। 
    • जिस प्रकार दक्षिण पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ (आसियान) की केंद्रीयता इंडो-पैसिफिक की कुंजी है, मध्य एशियाई राज्यों की केंद्रीयता यूरेशिया के लिये महत्त्वपूर्ण होनी चाहिये।   
  • कनेक्टिविटी की समस्याओं को हल करना: यह बात अजीब लग सकती है कि भारत समुद्री क्षेत्र में नौवहन की स्वतंत्रता के अधिकार का समर्थन करने में अमेरिका और अन्य देशों के साथ खड़ा होता है , वह उसी बल के साथ अंतर्राज्यीय व्यापार, वाणिज्य और पारगमन के लिये भारत के अधिकार की माँग नहीं करता—चाहे यह पाकिस्तान द्वारा मध्य एशिया की ओर पारगमन पर लगाए अवरोध के संदर्भ में हो या ईरान के रास्ते यूरेशिया में पारगमन पर अमेरिकी प्रतिबंध को हटाने के संदर्भ में।   
    • अफगानिस्तान के हाल के घटनाक्रमों के साथ यूरेशिया के साथ भारत के भौतिक संपर्क की चुनौतियाँ और भी गंभीर हो गई हैं।
    • कनेक्टिविटी के मामले में यूरेशियाई महाद्वीप में भारत के वंचना की स्थिति को पलट दिये जाने की आवश्यकता है। 
  • महाद्वीपीय और समुद्री हित सुनिश्चित करना: यह बेहद स्पष्ट है कि भारत के पास एक देश की तुलना में दूसरे देश को चुनने जैसा अवसर नहीं होगा, इसलिये उसे समुद्री क्षेत्र में अपने हितों की अनदेखी किये बिना महाद्वीपीय हितों को आगे बढ़ाने के लिये आवश्यक रणनीतिक दृष्टि प्राप्त करनी होगी और आवश्यक संसाधनों की तैनाती करनी होगी।     
    • इसके लिये महाद्वीपीय अधिकारों (पारगमन और पहुँच) हेतु अधिक मुखर प्रयास, मध्य एशिया के भागीदारों और ईरान एवं रूस के साथ अधिकाधिक सहयोग तथा शंघाई सहयोग संगठन (SCO), यूरेशियाई आर्थिक संघ (EAEU) एवं सामूहिक सुरक्षा संधि संगठन (CSTO) के आर्थिक एवं सुरक्षा एजेंडों के साथ अधिक सक्रिय संलग्नता की आवश्यकता होगी।        

निष्कर्ष

भारत को अपने हितों के अनुरूप महाद्वीपीय और समुद्री सुरक्षा के अपने मानकों को परिभाषित करने की आवश्यकता होगी। ऐसा करने में निहित रणनीतिक स्वायत्तता भारत की कूटनीति और राज्य नीति को निकट और दूर भविष्य के कठिन परिदृश्य से आगे बढ़ने में मदद करेगी।

अभ्यास प्रश्न: महाद्वीपीय और समुद्री सुरक्षा के बीच सही संतुलन का निर्माण करना भारत के दीर्घकालिक सुरक्षा हितों के लिये सबसे अधिक आश्वस्तिकारक होगा। टिप्पणी कीजिये।   


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