जैव विविधता और पर्यावरण
ग्लोबल वार्मिंग पर IPCC की रिपोर्ट
संदर्भ
हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) द्वारा एक विशेष रिपोर्ट जारी की गई है। गौरतलब है कि इसे विशेष रूप से ग्लोबल वार्मिंग पर पेरिस समझौते में तय किये गए 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान की वैज्ञानिक व्यवहार्यता का पता लगाने के लिये अधिकृत किया गया था। जारी की गई IPCC की आकलन रिपोर्ट ने धरती के भविष्य की खतरनाक तस्वीर का अनुमान लगाया है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु
- IPCC की इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्सर्जन को कम करके 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरी तरह से प्राप्त करना असंभव हो गया है।
- इस रिपोर्ट के मुताबिक, उत्सर्जन की वर्तमान दर यदि बरकरार रही तो ग्लोबल वार्मिंग 2030 से 2052 के बीच 1.5 डिग्री सेल्सियस को भी पार कर जाएगा। पूर्व-औद्योगिक युग के मुकाबले वर्तमान में ग्लोबल वार्मिंग 1.2 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा है।
- 2015 में विभिन्न देशों ने तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस के अंदर रखने की संभावनाओं का पता लगाने हेतु इस रिपोर्ट के लिये अनुरोध किया था। यह कई छोटे और गरीब देशों, विशेष रूप से छोटे द्वीप पर स्थित देशों द्वारा की गई प्रमुख मांग थी। ऐसे देश जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से ज़्यादा पीड़ित होते हैं।
- इस रिपोर्ट के प्रमुख संदेशों में से एक यह है कि ग्लोबल वार्मिंग के मात्र 1 डिग्री सेल्सियस तापमान के कारण हम पहले से ही मौसम में उतार-चढ़ाव, समुद्र का बढ़ता जल-स्तर और आर्कटिक बर्फ के गायब होने जैसे दुष्प्रभावों का सामना कर रहे हैं।
पृष्ठभूमि
- फिलहाल, दुनिया 2015 के पेरिस समझौते के घोषित उद्देश्य के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग में 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि को रोकने के लिये प्रयास कर रही है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये, 2010 के मुकाबले ग्रीनहाउस गैस स्तर को 2030 तक मात्र 20 प्रतिशत कम करना है और वर्ष 2075 तक कुल शून्य उत्सर्जन स्तर का लक्ष्य प्राप्त करना है।
- कुल शून्य उत्सर्जन तब हासिल किया जा सकेगा जब कुल उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को जंगलों जैसे प्राकृतिक अवशोषकों द्वारा अवशोषित कर संतुलित कर लिया जाएगा या तकनीकी हस्तक्षेप के द्वारा वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को हटा दिया जाएगा।
- पिछली रिपोर्टों में, जो कि पर्यावरण को लेकर वैश्विक कार्रवाई का आधार बनीं, IPCC ने कहा है कि यदि वैश्विक औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाता है तो जलवायु परिवर्तन "अपरिवर्तनीय" और "विनाशकारी" हो सकता है।
मुख्य निष्कर्ष
- रिपोर्ट के मुताबिक, 1.5 डिग्री सेल्सियस पर दुनिया में समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि, वर्षा में वृद्धि और सूखे तथा बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि, अधिक गर्म दिन एवं ग्रीष्म लहर, अधिक तीव्र उष्णकटिबंधीय चक्रवात, महासागर की अम्लीयता और लवणता में वृद्धि होगी।
- रिपोर्ट बताती है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस से 2 डिग्री सेल्सियस तक का संक्रमण जोखिमों से भरा है। यदि ग्लोबल वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस के स्तर को पार करता है तो इसका असर IPCC की पिछली रिपोर्ट में कथित विनाश के मुकाबले कई गुना ज़्यादा विनाशकारी होगा।
- तटीय राष्ट्रों और एशिया तथा अफ्रीका की कृषि अर्थव्यवस्था सबसे ज़्यादा प्रभावित होगी। फसल की पैदावार में गिरावट, अभूतपूर्व जलवायु अस्थिरता और संवेदनशीलता 2050 तक गरीबी को बढ़ाकर कई सौ मिलियन के आँकड़े तक पहुँचा सकती है।
- भारतीय तटों पर समुद्री जल-स्तर में प्रति दशक 1 सेमी की वृद्धि दर्ज की गई है। मॉनसून की तीव्रता के साथ हिमखंडों का त्वरित गति से पिघलना हिमालयी क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं का कारण बन सकता है।
- ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुँचने से रोकने पर होने वाले फायदे-
♦ समुद्री जल-स्तर की वृद्धि दर में कमी।
♦ खाद्य उत्पादकता, फसल पैदावार, जल संकट, स्वास्थ्य संबंधी खतरे और आर्थिक संवृद्धि के संदर्भ में जलवायु से जुड़े खतरों में कमी की संभावना।
♦ आर्कटिक महासागर में समुद्री बर्फ के पिघलने की दर में कमी। - ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने हेतु चार अनुमानित तरीके - प्रत्येक माध्यम से इस सदी का तापमान अंत तक अनुमानित स्तर पर लौटने से पहले 1.5 डिग्री सेल्सियस से कुछ अधिक होने का अनुमान है। इन तरीकों में वैश्विक ऊर्जा की मांग का एक अलग परिदृश्य दिखता है-
- ऐसी स्थिति जिसमें खासकर दक्षिणी ग्लोब में सामाजिक, व्यापार संबंधी और तकनीकी नवाचारों के परिणामस्वरूप 2050 तक ऊर्जा की मांग में कमी होगी, जबकि जीवन स्तर में वृद्धि होगी। ऊर्जा-आपूर्ति प्रणाली के आकार का न्यूनीकरण कार्बन डाइऑक्साइड को तेज़ी से कम करने में सक्षम बनाता है। वनीकरण एकमात्र CDR का विकल्प माना जाता है, जिसमें न तो CCS और न ही BECCS युक्त जीवाश्म ईंधन का उपयोग होता है।
- इसमें ऊर्जा तीव्रता, मानव विकास, आर्थिक अभिसरण और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग सहित सतत् विकास पर ध्यान देना शामिल है। इसमें BECCS के लिये सीमित सामाजिक स्वीकार्यता वाले टिकाऊ और स्वस्थ उपभोग पैटर्न, कम कार्बन युक्त प्रौद्योगिकी नवाचार तथा सुनियोजित प्रबंधित भूमि प्रणालियों की ओर झुकाव भी शामिल है।
- एक मध्य मार्ग जिसमें सामाजिक तथा तकनीकी विकास ऐतिहासिक प्रक्रिया का पालन करते हैं। उत्सर्जन में कमी मुख्य रूप से ऊर्जा और उत्पादों के उत्पादन के तरीकों को बदलकर तथा मांग में कटौती के द्वारा लाई जा सकती है।
- उत्सर्जन में कमी मुख्य रूप से तकनीकी माध्यमों के द्वारा हासिल की जाती है, जिसमें BECCS के इस्तेमाल द्वारा CDR का प्रभावी तरीके से उपयोग होता है।
आगे की राह
- कार्बन डाइऑक्साइड रिमूवल (सीडीआर) के लिये तकनीकें अभी भी अविकसित हैं। वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा 100 से 1000 गीगाटन (बिलियन टन) के बीच है जिसे हटाया जाना है। वर्तमान में पूरी दुनिया 47 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करती है।
- कार्बन उत्सर्जन को रोकने के लिये ऊर्जा, भूमि, शहरी अवसंरचना (परिवहन और भवनों सहित) तथा औद्योगिक प्रणालियों में तीव्र एवं दूरगामी नजरिये से बदलाव की आवश्यकता है।
- विकासशील देशों को बड़े पैमाने पर कार्बन उत्सर्जन से बचना चाहिये, जबकि विकसित देशों को अपने देश में ऐसी खपत पर रोक लगानी चाहिये, जो कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को बढ़ावा देती हो।
- वैश्विक रूप से कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने के लिये अर्थव्यवस्था के कार्बन डाइऑक्साइड-गहन क्षेत्रों में कम कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाली तकनीक, ऊर्जा दक्ष मशीनों और कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषकों को शामिल करना होगा।
- विज्ञान ने अपना फैसला सुना दिया है। इसने कार्रवाई और परिणामों की आशा भी प्रदान की है। अब नीति निर्माताओं की ज़िम्मेदारी बनती है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस पर अस्तित्त्व बनाए रखने हेतु आवश्यक कार्रवाई करें।
IPCC क्या है?
UNEP क्या है?
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