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  • 10 Jun, 2019
  • 16 min read
शासन व्यवस्था

देश में बेरोज़गारी की समस्या

सरकार ने हाल ही में देश में बेरोज़गारी को लेकर जो आँकड़े जारी किये हैं, उनसे स्थिति की गंभीरता का पता चलता है। सरकार भी इस मुद्दे को लेकर गंभीर है और इसके लिये एक नई कैबिनेट कमेटी गठित की गई है। टीम दृष्टि द्वारा तैयार किये गए इस Editorial में देश में व्याप्त रोज़गार संकट का समग्र विश्लेषण किया गया है।

संदर्भ

देश में 2017-18 में बेरोज़गारी दर कुल उपलब्ध कार्यबल का 6.1 प्रतिशत रही, जो 45 वर्षों में सर्वाधिक है। यानी वर्ष 1972-73 के बाद बेरोज़गारी दर सर्वोच्च स्तर पर पहुँच गई है। आम चुनाव से ठीक पहले बेरोज़गारी से जुड़े आँकड़ों पर नेशनल सैंपल सर्वे आफिस (NSSO) की यह रिपोर्ट लीक हो गई थी, लेकिन कुछ दिन पहले सरकार द्वारा जारी आँकड़ों में इसकी पुष्टि हो गई। सेंटर ऑफ मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, पिछले वर्ष लगभग 1.10 करोड़ रोज़गार भी कम हुए। 

क्या है बेरोज़गारी?

जब किसी देश में कार्य करने वाली जनशक्ति अधिक होती है और काम करने के लिये राजी होते हुए भी लोगों को प्रचलित मजदूरी पर कार्य नहीं मिलता, तो ऐसी अवस्था को बेरोज़गारी (Unemployment) की संज्ञा दी जाती है। बेरोज़गारी का होना या न होना श्रम की मांग और उसकी आपूर्ति के बीच स्थिर अनुपात पर निर्भर करता है।

बेरोज़गारी के प्रमुख प्रकार

संरचनात्मक बेरोज़गारी: सरचनात्मक बेरोज़गारी वह है जो अर्थव्यवस्था में होने वाले संरचनात्मक बदलाव के कारण उत्पन्न होती है।

अल्प बेरोज़गारी : अल्प बेरोज़गारी वह होती है जिसमें कोई व्यक्ति जितना समय काम कर सकता है उससे कम समय वह काम करता है अर्थात् काम के सामान्य घंटों से कम काम मिलता है।

पूर्ण बेरोज़गारी : इसमें व्यक्ति काम करना चाहता है और उसमें काम करने की आवश्यक योग्यता भी होती है, लेकिन उसे काम नहीं मिलता और वह पूरा समय बेकार रहता है। वह पूरी तरह से परिवार के कमाने वाले सदस्यों पर आश्रित होता है।

मौसमी बेरोज़गारी: इसमें किसी व्यक्ति को वर्ष के केवल कुछ ही महीनों में काम मिलता है। भारत में कृषि क्षेत्र में यह बेहद आम है क्योंकि बुआई तथा कटाई के सीज़न में अधिक लोगों को काम मिल जाता है, लेकिन शेष वर्ष वे बेकार रहते हैं।

चक्रीय बेरोज़गारी : ऐसी बेरोज़गारी तब उत्पन्न होती है जब अर्थव्यवस्था में चक्रीय उतार-चढ़ाव आते हैं। आर्थिक तेज़ी-मंदी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ हैं। आर्थिक तेज़ी की अवस्था में रोज़गार की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं, जबकि मंदी की स्थिति में रोज़गार मिलने की दर कम हो जाती है।

क्या कहती है NSSO की रिपोर्ट?

  • जुलाई 2017 से जून 2018 के बीच की आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण रिपोर्ट में बेरोज़गारी से जुड़े वर्तमान आँकड़ों की तुलना पूर्व के आँकड़ों से की गई है।
  • इन आँकड़ों के अनुसार, शहरी क्षेत्र में रोज़गार योग्य युवाओं में 7.8 प्रतिशत बेरोज़गार रहे, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह अनुपात 5.3 प्रतिशत रहा।
  • अखिल भारतीय स्तर पर पर पुरुषों की बेरोज़गारी दर 6.2 प्रतिशत जबकि महिलाओं के मामले में 5.7 प्रतिशत रही।
  • शहरों में पुरुषों की बेरोज़गारी दर ग्रामीण इलाके की 5.8 प्रतिशत की तुलना में 7.1 प्रतिशत है।
  • इसी प्रकार शहरों में महिलाओं की बेरोज़गारी दर 10.8 प्रतिशत है, जो ग्रामीण इलाकों में 3.8 प्रतिशत रही। 
  • ग्रामीण इलाकों की शिक्षित युवतियों में वर्ष 2004-05 से 2011-12 के बीच बेरोज़गारी की दर 9.7 से 15.2 प्रतिशत के बीच थी, जो वर्ष 2017-18 में बढ़कर 17.3 प्रतिशत तक पहुँच गई।
  • ग्रामीण इलाकों के शिक्षित युवकों में इसी अवधि के दौरान बेरोज़गारी दर 3.5 से 4.4 प्रतिशत के बीच थी जो वर्ष 2017-18 में बढ़कर 10.5 प्रतिशत तक पहुँच गई।
  • ग्रामीण इलाकों के 15 से 29 साल की उम्र वाले युवकों में बेरोज़गारी की दर वर्ष 2011-12 में जहाँ 5 प्रतिशत थी, वहीं वर्ष 2017-18 में यह तीन गुने से ज्यादा बढ़कर 17.4 प्रतिशत तक पहुँच गई। इसी उम्र की युवतियों में यह दर 4.8 से बढ़कर 13.6 प्रतिशत तक पहुँच गई।

शहरी और ग्रामीण बेरोज़गारी

उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि देश में प्रमुखतः दो प्रकार की बेरोज़गारी है- 1. ग्रामीण बेरोज़गारी, 2. शहरी बेरोज़गारी।

भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति इस समय ऐसी नहीं है कि इतनी बड़ी आबादी को काम-धंधे में लगा सके। औद्योगिक क्षेत्र में रोज़गार के नए अवसर नहीं बन पा रहे हैं तथा शहरी इलाकों में सबसे ज़्यादा रोज़गार सृजन करने वाले निर्माण क्षेत्र में आई मंदी के चलते रोज़गार कम हुए हैं।

दूसरी ओर खेती-किसानी में भी रोज़गार बढ़ने की गुंजाइश लगभग खत्म हो चुकी है। ग्रामीण युवा अब पुश्तैनी खेती-किसानी छोड़कर नौकरी या दिहाड़ी मजदूरी की तलाश में गाँव से शहरों और महानगरों की ओर रुख कर रहे हैं। लेकिन शहरों में भी कोई बेहतर हालात नहीं हैं। गाँवों से पलायन होने की वज़ह से शहरों में बेरोज़गारी भयावह रूप लेती जा रही है।

बेहद जटिल फॉर्मूला होता है इस्तेमाल

ऐसे में शहरी और ग्रामीण बेरोज़गारी को जोड़कर हालात देखें तो यह समझने में कोई संदेह नहीं रहेगा कि वर्तमान में देश के सामने यही सबसे बड़ी समस्या है। अभी बेरोज़गारी दर निकालने के लिये जो फॉर्मूला अपनाया जाता है वह भी बेहद जटिल है।

इस फॉर्मूले में रोज़गार पाए लोगों की संख्या, रोज़गार चाहने वालों की संख्या और देश में काम करने लायक कुल लोगों की संख्या को जोड़, घटा, गुणा, भाग करके निकाला जाता है। इस प्रक्रिया में यह सवाल नेपथ्य में रह जाता है कि क्या रोज़गार मांगने वालों की संख्या वास्तव में उतनी ही है जितनी बेरोज़गारों की वास्तविक संख्या है?

  • हमारे देश में गाँवों की आबादी देश की कुल आबादी की आधी से अधिक है। 2017-18 में 18.7 प्रतिशत शहरी युवक और 27.2 प्रतिशत युवतियाँ रोज़गार की तलाश में थे। ये युवा 15 से 39 साल के थे।
  • गाँवों में यह आँकड़ा क्रमश: 17.4 और 13.6 प्रतिशत बताया गया यानी इस उम्र के पाँच युवाओं में एक नौकरी या काम की तलाश में था।

प्रति व्यक्ति आय नहीं है देश की खुशहाली का पैमाना

इसमें कोई दो राय नहीं कि देश की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा आज़ जरूरतें पूरी होने का पैमाना देश के नागरिकों की आर्थिक स्थिति को माना जाता है। इसीलिये प्रति व्यक्ति आय को देश की खुशहाली का पैमाना मान लेने का चलन है, लेकिन इसमें एक विसंगति है। प्रति व्यक्ति आय देश की कुल आय को देश की आबादी से भाग देकर निकलती है। यानी यह अंदेशा बना रहता है कि कहीं आर्थिक विषमता की स्थिति तो नहीं है।

सटीक आँकड़ों का अभाव

सरकारी और संगठित क्षेत्र में तो फिर भी आँकड़े मिल जाते हैं, लेकिन असंगठित और निजी क्षेत्र में काम ढूंढ रहे युवाओं की संख्या का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं है। रोज़गार की मांग का मोटा-मोटा हिसाब लगाएँ तो देश में इस समय नौकरी चाहने वालों की संख्या छह करोड़ से कम नहीं बैठेगी, जबकि सरकारी अनुमान में यह आँकड़ा तीन करोड़ बैठता है। ये अनुमान सिर्फ पूर्ण बेरोज़गारों की संख्या के हैं, यदि सभी प्रकार की बेरोज़गारी का लेखा-जोखा जुटाया जाए तो यह समस्या और बड़ी दिख सकती है।

इसीलिये अन्य देशों की तुलना में हमारे देश में बेरोज़गारी की समस्या कुछ अधिक गंभीर है। यह समस्या तब और गंभीर हो जाती है, जब हम खुद को एक युवा देश बताते हैं। आज हमारी आधी से अधिक आबादी 35 साल से कम उम्र के युवाओं की है। हर साल देश की आबादी डेढ़ करोड़ प्रतिवर्ष की रफ्तार से बढ़ती जा रही है और उसी रफ्तार से युवा बेरोज़गार भी बढ़ रहे हैं।

विभिन्न राज्यों में बेरोज़गारी के आँकड़े

भारत में रोज़गार पर किसी विश्वस्त और विस्तृत सर्वेक्षण के अभाव में इसकी सही स्थिति का आकलन कर पाना हमेशा से एक मुश्किल काम रहा है।

  • राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय के आँकड़ों के मुताबिक, पूरे देश में इस दौरान बेरोज़गारी की दर अक्तूबर से दिसंबर तिमाही के बीच 9.9 प्रतिशत रही। वहीं ठीक पिछली तिमाही यानी जुलाई से सितंबर 2018 के बीच यह आँकड़ा 9.7 प्रतिशत रहा।
  • सभी राज्यों के आँकड़ों की बात करें तो युवाओं में बेरोज़गारी का असर ज़्यादा देखने को मिला है। साथ ही पुरुषों के मुकाबले महिलाएँ अधिक प्रभावित हुई हैं।
  • पुरुषों में कुल बेरोज़गारी का आँकड़ा दिसंबर तिमाही में जहाँ 9.2 प्रतिशत रहा, वहीं महिलाओं में यह आँकड़ा बढ़कर 12.3 हो गया। 
  • हर उम्र के लोगों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी 15.8 प्रतिशत, ओडिशा में 14.2, उत्तराखंड में 13.6, जम्मू और कश्मीर में 13.5, बिहार में 13.4 तथा दिल्ली में 11.8 प्रतिशत रही।
  • कुछ राज्य ऐसे भी रहे जहाँ बेरोज़गार अपेक्षाकृत कम थे। इनमें गुजरात में 4.5 प्रतिशत, कर्नाटक में 5.9 प्रतिशत, असम में 6 प्रतिशत, पंजाब में 7 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 7.8 प्रतिशत और पश्चिम बंगाल में 8 प्रतिशत बेरोज़गारी रही।
  • युवाओं में बेरोज़गारी की बात करें तो यहाँ हालात जुलाई से सितंबर की तिमाही के मुताबिक दिसंबर तिमाही में खराब हुए। सितंबर तिमाही के 23.1 प्रतिशत बेरोज़गारी के मुकाबले दिसंबर तिमाही में 23.7 प्रतिशत युवा जिनकी उम्र 29 साल तक है, बेरोज़गार रहे। युवाओं में बेरोज़गारी के मामले में बिहार सबसे आगे रहा, जहाँ इस दौरान 41 प्रतिशत युवा बेरोज़गार रहे। उत्तराखंड में 32, झारखंड में 29, उत्तर प्रदेश में 28, दिल्ली में 25.3 और हरियाणा में 22.3 प्रतिशत युवा बेरोज़गार रहे। 

(ये आँकड़े मई 2019 के अंत में जारी किये गए तथा विभिन्न इलाकों में लगातार एक सप्ताह के दौरान रोज़गार के मौकों के आधार पर इकट्ठा किये गए। किसी व्यक्ति को बेरोज़गार तब माना गया जब उसे सप्ताह में एक घंटे का भी रोज़गार नहीं मिला।)

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि किसी भी अच्छी अर्थव्यवस्था में चार प्रतिशत से अधिक बेरोज़गारी ठीक नहीं होती। देश में बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है और शिक्षित बेरोज़गारों की संख्या भी करोड़ों में पहुँच चुकी है। तीन दशक पहले नव-उदारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू होने से पहले तक देश में सकल रोज़गार में सरकारी नौकरियों का हिस्सा दो प्रतिशत होता था, लेकिन उदारवादी आर्थिक नीतियों के बाद विभिन्न क्षेत्रों के निजीकरण के चलते रोज़गार के अवसर लगातार कम होते जा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सभी बेरोज़गार युवाओं को रोज़गार मुहैया कराना केवल सरकार की ही ज़िम्मेदारी है?

सरकार अकेले ही सारे रोज़गार पैदा नहीं कर सकती, इसीलिये उद्यमिता की भावना को बढाने के लिये स्टैंडअप, स्टार्टअप इंडिया और मुद्रा योजनाओं पर अमल किया जा रहा है,  फिर भी वर्तमान में सरकार के पास रोज़गार के बेहद सीमित अवसर हैं। निजी क्षेत्र कम श्रम में काम चलाना चाहता है और वहीं निवेश करता है जहाँ उसे लाभ होता दिखाई देता है। दूसरी ओर गाँवों में परंपरागत और पैतृक व्यवसायों का खत्म होना भी चिंता की बात है क्योंकि पढ़े-लिखे युवाओं को इन व्यवसायों में अब कोई संभावना नहीं दिखती।

जब तक देश के सभी युवाओं को उनकी योग्यता और आवश्यकता के अनुसार काम नहीं मिलता तब तक एक स्वच्छ, सुखी और उन्नत देश के निर्माण की कल्पना करना बेमानी है। दुनिया में जितने भी विकसित देश हैं उनकी जनसंख्या बहुत कम है, ऐसे में हमारे देश में बेरोज़गारी की समस्या को दूर करने के लिये जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगानी होगी। कम जनसंख्या वाले देशों में रोज़गार के पर्याप्त अवसर रहते हैं, लेकिन भारत में बढ़ती जनसंख्या की वज़ह से बेरोज़गार बढ़ रहे हैं।यदि हमने अपने जनसांख्यिकी लाभ को समय रहते सही दिशा में नहीं लगाया तो यह बहुत बड़ी समस्या बन जाएगा।

अभ्यास प्रश्न: लघु, मध्यम तथा कुटीर उद्योग रोज़गार सृजन की दृष्टि से बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। भारत जैसे ग्राम्य प्रधान और विकासशील देश में बेरोज़गारी की समस्या के संभावित समाधानों में इनका स्थान सर्वोपरि होना चाहिये। विश्लेषण कीजिये।


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