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एडिटोरियल

  • 10 May, 2022
  • 15 min read
भारतीय राजनीति

मृत्युदंड की सजा को रोकना

यह एडिटोरियल 07/05/2022 को ‘द हिंदू’ में प्रकाशित “A New Track for Capital Punishment Jurisprudence” लेख पर आधारित है। इसमें मृत्युदंड के प्रावधान को समाप्त करने की आवश्यकता और इस विषय पर भारतीय न्यायपालिका के मौजूदा रुख के बारे में चर्चा की गई है।

संदर्भ

भारत में मृत्युदंड या मौत की सज़ा (Death Penalty/Aapital Punishment) के संबंध में न्यायशास्त्र के विकास की एक हालिया प्रवृत्ति इस दंड के संबंध में न्यायिक दृष्टिकोण को रूपांतरित कर सकती है तथा इसका मृत्युदंड के निर्णयन पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकता है। हाल ही में मृत्युदंड की पुष्टि के विरुद्ध अपीलों पर सुनवाई के दौरान भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने शमनकारी परिस्थितियों के दृष्टिकोण से दंड देने की पद्धति पर अधिक सूक्ष्मता से विचार किया। मृत्युदंड देने के संबंध में हमारी समझ के प्रमुख पहलुओं पर इन मुद्दों पर गहराई से विचार करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय ने एक स्वतः संज्ञान रिट याचिका (आपराधिक) की भी पहल की। न्यायिक दृष्टिकोण का यह वर्तमान प्रक्षेपवक्र ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ सिद्धांत (Rarest Of Rare Principle) के मूलभूत बिंदुओं की पुनः पुष्टि करेगा तथा मृत्युदंड के संबंध में जुरिस्प्रूडन्स या न्यायशास्त्र के दृष्टि में एक नए दृष्टिकोण का नेतृत्व करेगा।

मृत्युदंड:

  • मृत्युदंड या मौत की सज़ा किसी जघन्य आपराधिक कृत्य के मामले में दोषसिद्धि के बाद न्यायालय द्वारा दी जाने वाली फाँसी की सज़ा है।
  • यह न्यायालय द्वारा किसी आरोपित को दिया जाने वाला उच्चतम और कठोरतम दंड है।
  • भारत में मृत्युदंड दुर्लभतम या ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ मामलों तक सीमित है जैसे भारतीय दंड संहिता 1860 की धारा 121 (राज्य के विरुद्ध हथियार उठाना) और धारा 302 (हत्या) के अंतर्गत निर्णित मामलें।
  • मृत्युदंड को जघन्यतम अपराधों के लिये सबसे उपयुक्त दंड और प्रभावी निवारक उपाय के रूप में देखा जाता है।

भारतीय संदर्भ में मृत्युदंड की स्थिति 

  • दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम (CrPC), 1955 से पूर्व भारत में मृत्युदंड नियम(rule) था, जबकि आजीवन कारावास एक अपवाद था।
  • वर्ष 1955 के संशोधन के बाद अदालतें अपने विवेक से मृत्युदंड या आजीवन कारावास देने के लिये स्वतंत्र हो गईं।
  • सीआरपीसी, 1973 की धारा 354 (3) के अनुसार न्यायालयों को उच्चतम/अधिकतम दंड देने के कारण को लिखित रूप से बताना आवश्यक है।
  • स्थिति को अब उलट दिया गया है जहाँ आजीवन कारावास ‘नियम’ है, जबकि जघन्यतम अपराध के लिये मृत्युदंड एक अपवाद है।
  • कानून (CrPC) के अंतर्गत सत्र न्यायालय/दंड न्यायालय (Court Of Sessions/Sentencing Court) द्वारा दिये गए मृत्युदंड का उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार (Jurisdictional High Court/ “Confirming Court”) द्वारा पुष्टि किया जाना आवश्यक है।
  • ट्रायल कोर्ट द्वारा दिये गए मृत्युदंड पर तब तक अमल नहीं किया जा सकता जब तक कि इसकी पुष्टि उच्च न्यायालय द्वारा भी नहीं की गई हो।

दुर्लभ से दुर्लभतम मामलें

  • जब हत्या बेहद क्रूर, हास्यास्पद, शैतानी, विद्रोही, या निंदनीय तरीके से की जाती है ताकि समुदाय में तीव्र और अत्यधिक आक्रोश पैदा हो।
  • जब हत्या के पीछे का मकसद पूरी तरह से भ्रष्टता और क्रूरता है।

मृत्युदंड देने के मामले में न्यायपालिका का रुख 

मृत्युदंड के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का मत:

  • बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘मीटिगेटिंग’ एवं ‘एग्रेवेटिंग’ परिस्थितियों (Mitigating and Aggravating Circumstances) को एक-दूसरे के साथ संतुलित किया जाना चाहिये और इस सिद्धांत की स्थापना की कि मृत्युदंड तब तक नहीं दिया जाना चाहिये जब तक कि आजीवन कारावास का विकल्प ‘‘निर्विवाद रूप से अनुपलब्ध’’ (Unquestionably Foreclosed) न हो। 
  • मोफिल खान बनाम झारखंड राज्य (2021) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि ‘‘राज्य का कर्तव्य है कि वह यह साबित करने हेतु साक्ष्य हासिल करे कि आरोपी के सुधार और पुनर्वास की कोई संभावना नहीं है।’’

अन्य मत 

  • नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के प्रोजेक्ट 39A (जिसे पहले ‘सेंटर ऑन द डेथ पेनल्टी’ के नाम से जाना जाता था) की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में मृत्युदंड देने के संबंध में कोई न्यायिक एकरूपता या निरंतरता नहीं रही है।
  • ‘डेथ पेनेल्टी सेन्टन्सिंग इन ट्रायल कोर्ट’ (Death Penalty Sentencing in Trial Court)’ शीर्षक रिपोर्ट (प्रोजेक्ट 39A) में दिल्ली, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में वर्ष 2000 से वर्ष 2015 के बीच मृत्युदंड से जुड़े मामलों के एक अध्ययन के आधार पर बताया गया कि अदालतें सज़ा सुनाते समय अपराधियों में सुधार की संभावना के पहलू पर विचार करने के मामले में सजग नहीं रही हैं।
  • रावजी बनाम राजस्थान राज्य (1995) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि दंड का निर्णय करते समय अपराधी के बजाय अपराध की प्रकृति पर विचार करना उचित है। न्यायालय का यह मत वस्तुतः बचन सिंह मामले में स्थापित मत के सर्वथा विपरीत है।
  • मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य (1983) मामले में न्यायालय ने संकेत दिया कि अन्य दंडों की अपर्याप्तता मृत्युदंड को उचित ठहरा सकती है।

मृत्युदंड के पक्ष में तर्क:

  • प्रतिशोध: प्रतिशोध के प्रमुख सिद्धांतों में से एक यह है कि लोगों को उनके अपराध की गंभीरता के अनुपात में वह सज़ा मिलनी चाहिये जिसके वे हकदार हैं।
    • इस तर्क में कहा गया है कि हत्या करने वाला व्यक्ति किसी के जीवन जीने का अधिकार छीन लेता है जिसके कारण उसके जीवन का अधिकार भी समाप्त हो जाता है। इस प्रकार मृत्युदंड एक प्रकार का प्रतिकार होता है।
  • निवारण: मृत्युदंड को अक्सर इस तर्क के साथ उचित ठहराया जाता है कि सज़ायाफ्ता हत्यारों को मृत्युदंड देकर हम हत्यारों को लोगों को मारने से रोक सकते हैं।
  • समापन : सामान्यतय: यह तर्क दिया जाता है कि मृत्युदंड पीड़ितों के परिवारों को एक समापन का अवसर देता है।

मृत्युदंड को समाप्त करने की आवश्यकता:

  • ‘दंड के सिद्धांत’ के विपरीत: वैश्विक स्तर पर आपराधिक न्याय प्रणाली में, सजा के तत्व को 'दंड के सिद्धांत' (Theory of Punishment) के रूप में रेखांकित किया जाता है
    • यह निर्धारित करता है कि राज्य द्वारा अधिरोपित व्यवस्थित दंड में चार तत्त्व शामिल होने चाहिये:
      • समाज की रक्षा
      • अपराध की रोकथाम
      • अपराधी का पुनर्वास और सुधार
      • पीड़ितों और समाज के लिये प्रतिकारी प्रभाव।
    • मृत्युदंड, अपने सार में ‘दंड के सिद्धांत’ की भावना और इससे आगे प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध सिद्ध होता है।
      • जो लोग मृत्युदंड का विरोध करते हैं, उनका विचार है कि प्रतिकार (Retribution) अनैतिक है और यह प्रतिशोध (Vengeance) का ही एक रूप है।
      • मृत्युदंड कैदी का पुनर्वास नहीं करता और उन्हें समाज में वापस जाने का अवसर नहीं देता है।
      • जिन लोगों को मृत्युदंड दिया जाता है संभव है उनमें से कुछ मानसिक रोग या दोष के कारण अपराध करने के परिणामों के प्रति भय महसूस न करते हों।
    • मानव जीवन का संरक्षण: यद्यपि मृत्युदंड उपयुक्त मामलों में उचित सजा की समाज की मांग पर जवाब के रूप में कार्य करता है, दंड के सिद्धांत समाज के अन्य दायित्वों को संतुलित करने हेतु विकसित हुए हैं अर्थात मानव जीवन को संरक्षित करने के लिये, चाहे वह अभियुक्त का हो (जब तक कि उसकी समाप्ति अपरिहार्य न हो) और अन्य सामाजिक कारणों एवं समाज के सामूहिक विवेक की पूर्ति के लिये हो।
    • मृत्युदंड के विरुद्ध सामाजिक कारक: मौत की सज़ा को समाप्त करने के संभावित कारणों का एक विश्लेषण लोचन श्रीवस बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (2021) और भागचंद्र बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021) जैसे हालिया फैसलों की एक शृंखला में परिलक्षित हुआ है। 
      • इन कारणों में सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन, मानसिक स्वास्थ्य, आनुवंशिकता, पालन-पोषण, समाजीकरण, शिक्षा आदि शामिल हो सकते हैं।
    • वर्ग विशेष के प्रति भेदभावपूर्ण: तथ्य यह भी है कि अमीरों के बजाय प्रायः गरीबों को ही फाँसी दी गई है।
      • मृत्युदंड पाने वाले अशिक्षित और अनपढ़ लोगों की संख्या शिक्षित और साक्षर लोगों से कहीं अधिक है।
      • इसके साथ ही शमनकारी घटकों (Mitigating Factors) को उजागर करने में (जिससे मृत्युदंड से बचा जा सकता था) बचाव पक्ष के वकील की विफलता विधिक सहायता को अप्रभावी बना देती है।
      • भारत में गंभीर आरोपों का सामना कर रहे गरीबों को मिलने वाली विधिक सहायता संतोषजनक नहीं है।

आगे की राह 

  • अभियुक्त का मनो-सामाजिक विश्लेषण: भारत में मृत्युदंड देने के विषय पर अधिक विचार नहीं किया गया है।
    • सज़ा सुनाते समय शमन विश्लेषण (Mitigation Analysis) को शामिल करने और कैदी की मनो-सामाजिक रिपोर्टों पर विचार करने के संबंध में दिशा-निर्देश तैयार करने हेतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समयबद्ध और आवश्यक हस्तक्षेप किया गया है।
    • इस संदर्भ में भारतीय न्यायपालिका को सामाजिक कार्य, मनोचिकित्सा, मनोविज्ञान, नृविज्ञान, आदि क्षेत्र के विशेषज्ञों से अभियुक्तों की सामाजिक-आर्थिक और वंशानुगत पृष्ठभूमि से संबंधित एक व्यापक रिपोर्ट प्राप्त करने हेतु एक कानूनी साधन भी विकसित करने की आवश्यकता है।
  • ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ के सिद्धांत को सशक्त करना: बचन सिंह मामले में प्रस्तुत किये गए ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ के सिद्धांत अर्थात् दुर्लभ से दुर्लभतम मामलों को सशक्त करना और मृत्युदंड के निर्णयन में निष्पक्षता बहाल करना महत्त्वपूर्ण है।
    • बचन सिंह मामले में न्यायालय ने बलपूर्वक यह मत दिया था कि कोई भी व्यक्ति अनिवार्य रूप से ‘अपरिवर्तनीय’ नहीं है।
  • निवारण (Deterrence) को सच्चे अर्थों में सुनिश्चित करना: जब अपराध के तुरंत बाद सज़ा दी जाती है तो निवारण या अवरोध सर्वाधिक प्रभावी होता है। कानूनी प्रक्रिया अपराध और दंड के बीच जितनी दूरी उत्पन्न करती है (समय के संदर्भ में या निश्चितता के संदर्भ में), वह दंड उतना कम प्रभावी निवारक हो सकता है।
    • इस परिप्रेक्ष्य में हमारी कानूनी प्रणाली में जनता के विश्वास को सुदृढ़ करने के लिये फास्ट ट्रैक ट्रायल द्वारा समर्थित एक सुप्रशिक्षित एवं सुसज्जित पुलिस प्रणाली के हाथों जाँच में तेज़ी लाये जाने की आवश्यकता है।
  • सामाजिक सुधार: केवल दंड बढ़ाने के बजाय महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराधों से निपटने के लिये व्यापक सामाजिक सुधारों, सतत शासन प्रयासों और जाँच व रिपोर्टिंग तंत्र को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘भारतीय संदर्भ में, जहाँ बहुधा न्यायिक त्रुटि की घटना होती रहती है, मृत्युदंड का न्यायिक उन्मूलन आवश्यक है।’’ आलोचनात्मक चर्चा कीजिये।


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