एडिटोरियल (09 May, 2022)



भारत में बिजली संकट

यह एडिटोरियल 06/05/2022 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में प्रकाशित “Three Interlinking Factors That Explain The Coal Crisis” लेख पर आधारित है। इसमें हाल ही में भारत में उभरे बिजली संकट के कारणों के बारे में चर्चा की गई है और इससे दूर करने के उपायों पर विचार किया गया है।

संदर्भ 

हाल ही में भारत तब बिजली संकट की चपेट में आ गया जब डेली पीक पावर शॉर्टेज़ 10,778 मेगावाट तक बढ़ गया और राष्ट्रीय स्तर पर ऊर्जा की कमी 5% तक पहुँच गई। देश के कुछ राज्यों को 15% तक की भारी कमी का सामना करना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप बिजली वितरण कंपनियों/डिस्कॉम ने लोड-शेडिंग का सहारा लिया, जिससे घरों के लिये लंबे समय तक आउटेज की स्थिति बनी और आर्थिक गतिविधियों के लिये राशनबद्ध आपूर्ति की गई। 

  • ताप विद्युत संयंत्रों के लिये कोयले की आपूर्ति में कमी से यह संकट उत्पन्न हुआ। हालाँकि यह कोई नई घटना नहीं है। प्रायः हर साल कमी की यह समस्या उभरती है और सरकार विभिन्न उपायों को अपनाने के बावजूद इस समस्या पर काबू पाने में सफल नहीं हो पाई है। 
  • जब तक अंतर्निहित मुद्दों और संरचनात्मक समस्याओं का समाधान नहीं किया जाएगा तब तक यह संकट सामने आता रहेगा। इसका सरल समाधान यह सुनिश्चित करना है कि कोयला बिजली संयंत्रों के पास पर्याप्त ईंधन का भंडार हो। 

भारत में बिजली के लिये कोयले पर निर्भरता की स्थिति

  • सितंबर 2021 तक की स्थिति के अनुसार भारत की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता में ताप विद्युत (कोयला, गैस और पेट्रोलियम के दहन से उत्पन्न बिजली) की हिस्सेदारी 60% थी। 
  • कोयला आधारित बिजली उत्पादन (कुल 396 GW में से लगभग 210 GW की क्षमता के साथ) भारत की कुल बिजली क्षमता में लगभग 53% की हिस्सेदारी रखता है (मार्च 2022 तक की स्थिति)। 
    • भारत ताप विद्युत हेतु कोयले की अपनी आवश्यकताओं का लगभग 20% आयात करता है। 
  • ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (Council on Energy, Environment and Water- CEEW) के एक आकलन के अनुसार उत्पादन का एक विषम भाग पुराने अक्षम संयंत्रों से प्राप्त होता है, जबकि नए और कुशल संयंत्र अनुकूल कोयला आपूर्ति अनुबंधों या बिजली खरीद समझौतों के अभाव में निष्क्रिय बने हुए हैं। 

बिजली संकट के संभावित कारण  

  • आर्थिक गतिविधियों का पुनरुद्धार: कोविड-19 व्यवधानों के बाद आर्थिक गतिविधियों के पुनरुद्धार और ग्रीष्म लहर (heatwaves) ने बिजली की मांग में वृद्धि कर दी। 
    • अप्रैल 2022 में औसत दैनिक ऊर्जा आवश्यकता अप्रैल 2021 के 3,941 मिलियन यूनिट (MU) से बढ़कर 4,512 मिलियन यूनिट हो गई जो वर्ष-दर-वर्ष लगभग 5% औसत वृद्धि की तुलना में 14.5% की वृद्धि को दर्शाती है। मार्च से अप्रैल के बीच यह छलांग 6.5% रही। 
    • रेलवे (जो लंबी दूरी के परिवहन का मुख्य माध्यम है) को भी साझा ट्रैक पर उच्च यात्री यातायात का सामना करना पड़ रहा है। 
  • ताप विद्युत संयंत्रों की अक्षमता: अपनी क्षमता से पर्याप्त कम पर (59% क्षमता उपयोग पर) संचालित ताप विद्युत संयंत्रों (Thermal Power Plants- TPPs) के 236 GW के साथ भारत थर्मल उत्पादन को बढ़ाकर इस मांग में वृद्धि को प्रबंधित कर सकता था। 
    • बिजली उत्पादन में तेज़ी ला सकने में TPPs की अक्षमता को संयंत्र स्थलों पर कोयला भंडार के महत्त्वपूर्ण स्तरों के संदर्भ में समझा जा सकता है। 
    • जबकि TPPs को ईंधन आवश्यकता के दो-तीन सप्ताह के भंडार को बनाए रखने की आवश्यकता होती है, 100 से अधिक संयंत्र आवश्यक स्तर के 25% से भी कम ईंधन स्टॉक के साथ संचालित हैं, जबकि इनमें से आधे से अधिक के पास 10% से भी कम स्टॉक है। 
  • बिजली क्षेत्र में नकदी प्रवाह की समस्या: लागत वसूल कर सकने में डिस्कॉम की अक्षमता के कारण बिजली उत्पादन कंपनियों का 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक का बकाया हो गया है। नतीजतन, बिजली उत्पादन कंपनियाँ (power generation companies- GenCos) कोल इंडिया लिमिटेड (CIL) को भुगतान के मामले में डिफ़ॉल्ट पर हैं। 
    • यूक्रेन युद्ध के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्पॉट मार्केट कोयला मूल्यों में भारी वृद्धि हुई है और वे वर्ष 2020 में लगभग 50 डॉलर प्रति टन से बढ़कर 400 डॉलर प्रति टन तक हो गए हैं। 
  • डिस्कॉम की हानियाँ: दो दशकों से जारी क्षेत्रीय सुधारों के बावजूद डिस्कॉम की कुल हानि 21% तक पहुँच गई है (वर्ष 2019-20)। 
    • यह परिचालन अक्षमता और उपभोक्ताओं (राज्य सरकारों और नगर निकायों से संबद्ध उपभोक्ताओं सहित) से बकाया राशि की वसूली की बदतर स्थिति, दोनों को दर्शाता है।  
    • इन हानियों के कारण भी डिस्कॉम समय पर बिजली उत्पादकों को भुगतान करने में सक्षम नहीं हो पा रहे, जिसके परिणामस्वरूप कोल इंडिया को भुगतान में देरी की स्थिति बनी है और इसके कारण कोल इंडिया अनुरोध पर कोयले की आपूर्ति करने के प्रति अनिच्छुक बना हुआ है। 
  • विभिन्न संरचनात्मक दोष: सर्वप्रथम, डिस्कॉम गंभीर अशोधन (Insolvency) के शिकार हैं, जिसने अपस्ट्रीम आपूर्ति शृंखला को बाधित कर दिया है। 
    • दूसरा दोष यह है कि ये निकाय प्रभावी संसाधन नियोजन नहीं करते हैं। 
    • इसके अलावा, ऐसे मामलों में दोषारोपण अपरिहार्य है; हर संकट के समय राज्य दोषपूर्ण कोयला आवंटन और प्रेषण के लिये केंद्र को दोषी ठहराते है तो केंद्र अपस्ट्रीम आपूर्तिकर्ताओं को भुगतान करने में राज्यों की अक्षमता को दोषी ठहराता है। 
      • संरचनात्मक दोष रेखाओं को ठीक करने के बजाय संकट को तत्काल टाल सकने के लिये अस्थायी समाधानों (Band-aid Solutions) का सहारा लिया जाता है। 

आगे की राह  

  • योजना-निर्माण और नीतिगत सुधार: हमारे योजना-निर्माण में परिवर्तन लाना आवश्यक है जहाँ मुख्यतः कमी का प्रबंधन करने के दृष्टिकोण से आगे बढ़ते हुए लचीली प्रत्यास्थता (Fexible Resiliency) का दृष्टिकोण अपनाया जाए। 
    • हमें पारितंत्र में ‘फीडबैक लूप’ (Feedback Loops) भी शुरू करने की आवश्यकता है ताकि हितधारकों के पास पुरस्कार और दंड दोनों विकल्प मौजूद हों; यानी अनुपालन की पूर्ति या अनुपालन से अधिक के लिये प्रोत्साहन (Incentives), लेकिन इसमें चुकने पर इसके परिणाम भुगतने होंगे। 
    • नीतिगत मुख्य ध्यान दीर्घकालिक संरचनात्मक समाधानों पर होना चाहिये जो वितरण संबंधी वित्तीय व्यवहार्यता और संसाधन नियोजन के लिये एक सुदृढ़ तंत्र को संबोधित करे। 
  • पारितंत्र को सक्षम बनाना: बिजली संयंत्रों के कुशलतापूर्वक कार्य कर सकने के लिये एक सक्षम पारितंत्र का निर्माण करने की आवश्यकता है। 
    • चूँकि दीर्घावधिक अनुबंधों के माध्यम से 90% से अधिक बिजली की खरीद की जाती है, डिस्कॉम के पास गतिशील रूप से मांग का आकलन और प्रबंधन कर सकने के लिये बहुत कम प्रोत्साहन या प्रेरणा होती है। 
      • डिस्कॉम को स्मार्ट मूल्यांकन और मांग के प्रबंधन के लिये सक्षम बनाया जाना चाहिये। 
    • ईंधन आवंटन पर पुनर्विचार और कुशल संयंत्रों के प्राथमिकता प्रेषण को समर्थन से भारत को हमारी वार्षिक आवश्यकता के 6% तक कोयले की मांग को कम करने में मदद मिल सकती है और संकट के समय के लिये अधिक कोयले को अलग से भंडारित किया जा सकता है। 
  • रणनीतिक ऊर्जा संक्रमण: मौजूदा संकट पर आनन-फानन की प्रतिक्रिया जीवाश्म संसाधनों की ओर निवेश को पुनर्निर्देशित करने का दबाव उत्पन्न कर सकती है, जिससे भारत के दीर्घकालिक ऊर्जा संक्रमण प्रयासों को नुकसान पहुँचेगा। कोयले पर निर्भरता न तो अपेक्षित है, न ही यह लागत-प्रभावी है। 
    • लगातार जारी बिजली की कमी की समस्या को दूर करने के लिये ऊर्जा संक्रमण का ऐसा रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाना होगा जो नवीकरणीय ऊर्जा के निम्न-लागत बिजली वादे और ऊर्जा मिश्रण में विविधीकरण के अवसरों का दोहन करता हो। 
  • संकट का मध्यावधिक समाधान: जबकि अपेक्षित है कि भारत कोयले की कमी की मौजूदा समस्या से जल्द ही निपट लेगा, देश की दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करने का एकमात्र उपाय यह है कि नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन में तेज़ी लाई जाए। 
    • हालाँकि, मध्यम अवधि में कोयला खनन सुविधाओं में अवसंरचनाओं का उन्नयन और कोयले की आपूर्ति बढ़ाने के लिये खनन हेतु मौजूदा खदानों को निजी क्षेत्र के लिये खोलना भी अनिवार्य है। 
    • ऐसा नहीं होने पर आपूर्ति में असंतुलन का संकट उत्पन्न होता रहेगा जिसके हानिकारक ‘ट्रिकल-डाउन इफेक्ट’ भी दीखते रहेंगे। 
  • घरेलू उत्पादन बढ़ाना और आयात कम करना: आयात को कम करने या उससे पूरी तरह मुक्त होने के लिये घरेलू उत्पादन बढ़ाना अनिवार्य है। इसके लिये आवश्यक होगा कि नए पर्यावरण मंज़ूरी की आवश्यकता से छूट दी जाए। 
    • भारत को संपूर्ण कोयला मूल्य शृंखला में स्वच्छ कोयला प्रौद्योगिकियों के उपयोग में निवेश बढ़ाना चाहिये। 
    • निजी वाणिज्यिक खनन के अब वैध होने के साथ निजी क्षेत्र को आवंटित खनन ब्लॉक में जल्द से जल्द उत्पादन शुरू करने हेतु मदद दी जा सकती है। 
      • ऐसा करने से उच्च कोयला आयात की आवश्यकता और परिणामी भारी वित्तीय बोझ को कम किया जा सकता है। 

निष्कर्ष 

  • देश की विकास आकांक्षाओं को देखते हुए, बिजली की मांग में भारी वृद्धि होना और इसका अधिकाधिक परिवर्तनीय या अस्थिर होना तय है। बढ़ती जलवायु और भू-राजनीतिक अनिश्चितताएँ ऊर्जा के उत्पादन, वितरण और उपभोग के तरीके में अधिक कुशल बनने की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं। भारत के बिजली क्षेत्र की दीर्घकालिक प्रत्यास्थता के लिये ज़रूरी कदम उठाने का यह उपयुक्त समय है। 

अभ्यास प्रश्न: भारत में हर वर्ष ही उभर आने वाले बिजली संकट के समाधान के लिये किये जा सकने वाले उपायों की चर्चा कीजिये।