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एडिटोरियल

  • 08 Aug, 2019
  • 15 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

सॉवरेन बॉण्ड्स

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में ‘सॉवरेन बॉण्ड्स’ की चर्चा की गई है, साथ ही इसके प्रभावों को भी दर्शाने का प्रयास किया गया है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

मौजूदा बजट में भारत सरकार ने सॉवरेन बॉण्ड्स को जारी करने की बात कही है। इन के माध्यम से भारत के राजकोषीय घाटे को कम किया जा जाएगा। वर्तमान में भारत का राजकोषीय घाटा लगभग 7 लाख करोड़ के करीब है। इस घाटे में 10 प्रतिशत की पूर्ति सॉवरेन बॉण्ड्स द्वारा की जाएगी अर्थात् लगभग 10 बिलियन डॉलर के सॉवरेन बॉण्ड्स जारी किये जाएंगे। हालाँकि भारत की इस नीति को लेकर आर्थिक विश्लेषक एक मत नहीं हैं। भारत के पूर्व गवर्नर (डी. सुब्बाराव एवं रघुराम राजन) इस कदम को लेकर आशंका व्यक्त कर रहे हैं, वहीं कुछ विश्लेषक इस नीति के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं। इस आलेख में सॉवरेन बॉण्ड्स के विभिन्न पक्षों की चर्चा करके एक संतुलित दृष्टिकोण प्राप्त करने का प्रयास किया जा सकता है।

सॉवरेन बॉण्ड्स तथा इसका गणित

सॉवरेन बॉण्ड्स सरकार द्वारा उधार लेने के लिये उपयोग किया जाने वाला एक उपकरण होता है। इस तरह के बॉण्ड्स विदेश तथा घरेलू मुद्रा में भी नामित किये जा सकते हैं, किंतु भारत जिस बॉण्ड्स को जारी करने का विचार कर रहा है, ये सिर्फ विदेशी मुद्रा में जारी किये जाएंगे। यद्यपि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि ये बॉण्ड्स किस मुद्रा में जारी किये जाने हैं। इस प्रकार के बॉण्ड्स में फेस वैल्यू (बॉण्ड्स पर अंकित मूल्य) के साथ-साथ एक निश्चित अवधि के लिये ब्याज भी देय होता है।

इस प्रकार के बॉण्ड्स पर ब्याज की दरें उस देश की आर्थिक स्थिति, क्रेडिट रेटिंग, वैश्विक साख आदि पर निर्भर करती है। इसी आधार पर वर्तमान में अमेरिका लगभग 1.5 प्रतिशत की ब्याज दर पर बॉण्ड्स जारी करता है भारत के लिये यही दर 3-4 प्रतिशत के करीब आँकी जा सकती है। यदि कोई बॉण्ड्स 10 वर्ष के लिये जारी किया जाता है तो उस बॉण्ड्स की फेस वैल्यू के अतिरिक्त जारी कर्त्ता द्वारा ब्याज की राशि भी देय होती है।

सॉवरेन बॉण्ड्स की आवश्यकता क्यों?

  • सरकार ने बजट भाषण में यह स्पष्ट किया कि भारत का बाह्य उधारी एवं GDP का अनुपात 5 प्रतिशत के करीब है, जो एक अच्छी आर्थिक स्थिति को दर्शाता है। इसके अतिरिक्त वर्तमान में भारत के कुल विदेशी उधार का GDP से अनुपात 19 प्रतिशत तथा कुल ऋण GDP अनुपात लगभग 68 प्रतिशत है, जो एक स्वस्थ आर्थिक स्थिति को दर्शाता है।
  • किंतु पिछले कुछ समय से भारत के आर्थिक विकास की गति धीमी हुई है तथा विदेशी निवेश में भी आशानुरूप वृद्धि नहीं हो सकी है, साथ ही भारत में कई कल्याणकारी योजनाओं, सुधारों तथा बुनियादी ढाँचे में अगले पाँच वर्षों में 100 लाख करोड़ रुपए का निवेश करने की योजना पर कार्य कर रही है। एक ओर भारत की समष्टि आर्थिक संरचना मज़बूत स्थिति में है, वहीं दूसरी ओर भारत में विभिन्न योजनाओं एवं कार्यक्रमों पर अधिक खर्च करने की आवश्यकता है। अधिक खर्च से भारत के राजकोषीय घाटे में भी बढ़ोतरी होगी। इसकी कुछ हद तक पूर्ति के लिये सॉवरेन बॉण्ड्स को जारी करने का विचार किया गया है।
  • हालाँकि राजकोषीय घाटे की पूर्ति एक कारक है, लेकिन कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कारक भी हैं, जिन पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। इससे पूर्व भारत घरेलू बाज़ार से उधार लेकर अपने राजकोषीय घाटे की पूर्ति करता रहा है, किंतु किसी भी अर्थव्यवस्था में पूंजी की क्षमता सीमित होती है। यदि सरकार बॉण्ड्स जारी कर घरेलू बाज़ार से धन प्राप्त कर लेती है, जिससे क्राउडिंग आउट की समस्या उत्पन्न होती है अर्थात निजी क्षेत्र के लिये बाज़ार में पूंजी की कमी हो जाती है। इसका प्रमुख कारण सरकारी बॉण्ड्स का अधिक प्रभावी होना होता है। सरकार विदेशी बाज़ार में सॉवरेन बॉण्ड्स जारी करके उपर्युक्त समस्या को दूर कर सकती है।
  • सरकार एवं कुछ आर्थिक विश्लेषकों का मानना है कि विश्व में मौजूदा समय में ब्याज दरें अपने न्यूनतम स्तर पर हैं। ऐसे में विदेशी बाज़ार से घरेलू बाज़ार की अपेक्षा सस्ता उधार मिल सकता है।

सॉवरेन बॉण्ड्स से लाभ

  • भारत वैश्विक दृष्टिकोण से एक ऐसी अर्थव्यवस्था के रूप में स्थापित हो चुका है, जो उदारीकरण के मानकों को लागू करने को अधिक दिलचस्पी नहीं दिखाता है अथवा शंकित रहता है। सरकार का यह कदम भारत की उदारीकरण के प्रति बढ़ते रुझान को इंगित करेगा। इससे न सिर्फ भारत में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश बढ़ेगा बल्कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में भी वृद्धि हो सकेगी।
  • ध्यातव्य है कि सॉवरेन बॉण्ड्स से कम ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध होगा। यदि सरकार उधारी की सीमा को बढ़ाए बिना सॉवरेन बॉण्ड्स का उपयोग बाह्य वाणिज्यिक उधारी को विस्थापित करने पर करती है तो इससे शुद्ध आर्थिक लाभ प्राप्त हो सकेगा।
  • भारत ने अब तक विदेशी मुद्रा में सॉवरेन बॉण्ड्स जारी नहीं किये हैं। इससे यह पता लगाना मुश्किल होता है कि भारत के बॉण्ड्स पर बेंचमार्क दर क्या होनी चाहिये। सॉवरेन बॉण्ड्स के पश्चात् इस प्रकार की दर की समझ प्राप्त हो सकेगी, साथ ही इससे भारत की क्रेडिट रेटिंग में सुधार भी हो सकेगा।
  • घरेलू बाज़ार में निजी क्षेत्र के लिये पूंजी उपलब्ध हो सकेगी, साथ ही क्राउडिंग आउट की समस्या को दूर किया जा सकेगा।

आशंकाएँ

  • कुछ विश्लेषकों का मानना है कि सरकार के इस गैर-ज़रूरी कदम से भारत वैश्विक घटनाक्रम के प्रति अधिक सुभेद्य हो जाएगा। निवेशक प्रायः उपयुक्त समय के मित्र समझे जाते हैं। यदि घरेलू और वैश्विक परिस्थिति सुगम है तो ये निवेश करते हैं तथा विपरीत परिस्थितियों में ये निवेशक बाज़ार से बाहर निकल जाते हैं। ऐसी स्थिति में देश की मुद्रा को अधिक उतार-चढ़ाव से गुजरना पड़ता है, साथ ही ये बाज़ार को भी उथल-पुथल कर देते हैं। ऐसे देश के लिये जो वर्ष 1991 में बाह्य भुगतान संकट से जूझ चुका हो तथा वर्ष 2013 में भी अमेरिकी नीति के भय से ऐसी ही स्थिति आ चुकी हो, के लिये ऐसी सोच गंभीर परिणाम उत्पन्न कर सकती हैं।
  • इस प्रकार के सॉवरेन बॉण्ड्स विदेशी मुद्रा में जारी किये जाते हैं। इससे भविष्य में मुद्रा विनिमय दर में होने वाले बदलाव का प्रभाव जारीकर्त्ता को वहन करना पड़ता है। भारत में पिछले कई वर्षों से रुपए का लगातार अवमूल्यन होता रहा है, साथ ही अगले 10 वर्ष में 3 प्रतिशत के आसपास और अवमूल्यन होने का अनुमान लगाया जा रहा है। ऐसी स्थिति में यह अवमूल्यन फेस वैल्यू को रुपए के सापेक्ष अधिक कर देगा अर्थात् बॉण्ड्स की परिपक्वता के समय भारत को अधिक मूल्य चुकाना पड़ सकता है। हालाँकि अधिमूल्यन से इस स्थिति में बदलाव भी आ सकता है, किंतु इससे भारत के निर्यात नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे, जो ऐसे बॉण्ड्स की अपेक्षा अधिक आर्थिक लाभ उत्पन्न करते हैं। ऐसे में यदि अधिक मात्रा में सॉवरेन बॉण्ड्स को जारी किया जाता है तो भारत के लिये द्वंद्व की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
  • सरकार का मानना है कि इस नीति से उसको कम लागत पर धन प्राप्त हो सकता है, क्योंकि विदेशी बाज़ार में ब्याज दर बहुत कम है, किंतु यदि सरकार मुद्रा विनिमय के जोखिम से बचने के लिये हेजिंग का उपयोग करती है अथवा रुपए का अवमूल्यन हो जाता है तो ऐसी स्थिति में यह नीति भारत के लिये घाटे की स्थिति उत्पन्न कर सकती है।
  • कुछ विश्लेषकों का मानना है कि जो देश अपनी मुद्रा में कर्ज लेने में अक्षम होते हैं, वे ही विदेशी मुद्रा में ऋण लेने जैसे मार्गों का उपयोग करते हैं, किंतु भारत की स्थिति ऐसी नहीं हैं, अर्थात् सरकार को पहले रुपए नामित बॉण्ड्स को जारी करना चाहिये था।
  • यह आवश्यक नहीं है कि ऐसे प्रयासों से विदेशी कोष ही प्राप्त हो। कुछ भारतीय निवेशक भी, जो भारतीय बाज़ार से रुपए नामित बॉण्ड्स खरीदते हैं, वे अब मुद्रा विनिमय जोखिम को सरकार पर डालने के लिये सॉवरेन बॉण्ड्स की ओर मुड़ सकते हैं।
  • हालाँकि भारत सिर्फ 10 बिलियन डॉलर के सॉवरेन बॉण्ड्स जारी करने की योजना बना रहा है, जो भारत की समष्टिगत आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर अधिक नहीं है, लेकिन यदि भारत इस नीति पर धीरे-धीरे आगे बढ़ता है और प्रत्येक वर्ष ऐसे बॉण्ड्स जारी करता है तो यह गंभीर परिणाम उत्पन्न कर सकता है। आर्थिक विश्लेषक इसी आधार पर भारत के संदर्भ में ओरिजिनल सिन सिद्धांत (Original Sin Theory) की बात बोल रहे हैं। इस सिद्धांत ने मौजूदा समय में विभिन्न उभरती अर्थव्यवस्थाओं को जकड़ लिया है। इसके अनुसार ऐसे देशों को लगने लगता है कि उनकी अर्थव्यवस्था मज़बूत है तथा इस प्रकार की नीतियों के नकारात्मक पहलुओं को अवशोषित कर लेगा, साथ ही ऐसे देश धीरे-धीरे विदेशी उधारी के आदी हो जाते हैं। वर्तमान में अर्जेंटीना तथा तुर्की इसी प्रकार के उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

क्या सॉवरेन बॉण्ड्स समाधान हैं?

भारत के समक्ष अपने राजकोषीय घाटे की पूर्ति भी करना है, साथ ही भारत की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ खर्चों में अधिक कटौती की भी अनुमति नहीं देती है। ऐसे में भारत को समष्टिगत अर्थात् संरचनात्मक सुधारों पर अधिक ज़ोर देने की आवश्यकता है। भारत को घरेलू बचत दर को बढ़ाना होगा, जिससे निवेश के लिये अधिक पूंजी उपलब्ध हो सके तथा गैर-ज़रूरी खर्चों को भी कम करना होगा। इसके अतिरिक्त सरकार को राजस्व संग्रहण को भी अधिक करने की आवश्यकता है। इस प्रकार के प्रयास न सिर्फ भारत में पूंजी की कमी को दूर कर सकते हैं बल्कि यदि सॉवरेन बॉण्ड्स जारी भी किये जाते हैं तो उपर्युक्त कदम भारत की विनिमय दर को भी संतुलित करने में सहायक हो सकते हैं।

मसाला बॉण्ड्स

इस प्रकार के बॉण्ड्स विदेशी बाज़ार में भारतीय मुद्रा में जारी किये जाते हैं। इससे विनिमय दर का जोखिम निवेशक पर आ जाता है। वर्ष 2016 में भारत के एचडीएफसी बैंक ने इस प्रकार के बॉण्ड्स को जारी किया था। मसालों से भारत के सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक जुड़ाव के कारण विश्व बैंक ने इसे ‘मसाला बॉण्ड्स’ का नाम दिया था। यदि भारत विदेश से धन एकत्र करना चाहता है। मसाला बॉण्ड्स एक उपयोगी साधन सिद्ध हो सकता है। हालाँकि इस प्रकार के बॉण्ड्स की ब्याज दर अधिक होती है, लेकिन भारत एक उचित ब्याज दर के साथ ऐसे बॉण्ड्स जारी कर पाता है तो ये स्थिति भारत के निजी क्षेत्र तथा सरकार दोनों के लिये फायदेमंद हो सकती है।

निष्कर्ष

वर्तमान में सरकार की योजना 10 बिलियन डॉलर के सॉवरेन बॉण्ड्स जारी करने की है। यह राशि भारतीय परिस्थितियों के समक्ष अधिक नहीं है, किंतु यदि भारत सॉवरेन बॉण्ड्स को प्रत्येक वर्ष जारी करने लगता है तथा इसकी राशि में भी धीरे-धीरे वृद्धि करता है तो यह दीर्घ अवधि में गंभीर नकारात्मक परिणाम उत्पन्न कर सकता है। ऐसे में भारत को जब तक ज़रूरी न हो, इस प्रकार की नीति से बचना चाहिये, साथ ही मसाला बॉण्ड्स तथा समष्टिगत आर्थिक सुधारों के माध्यम से अपने हितों की पूर्ति करने का प्रयास करना चाहिये।

प्रश्न: सरकार सॉवरेन बॉण्ड्स के ज़रिये विदेश बाज़ार से उधारी लेने की योजना बना रही है. आपके अनुसार इस प्रकार के बॉण्ड्स से किस प्रकार के प्रभाव उत्पन्न हो सकते हैं?


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