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  • 07 Dec, 2019
  • 15 min read
सामाजिक न्याय

मिड-डे मील कार्यक्रम की चुनौतियाँ

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में मिड-डे मील कार्यक्रम और उसकी चुनौतियों से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

देश भर के सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील को दिनचर्या का हिस्सा बनाए हुए लगभग 2 दशक बीत चुके हैं। देशव्यापी स्तर पर दो दशकीय इस लंबी यात्रा ने मिड-डे मील कार्यक्रम की सुधार प्रक्रिया को काफी धीमा बना दिया है, परंतु इससे जुड़ी घटनाएँ अनवरत सामने आती रही हैं। हाल में मिड-डे मील से जुड़ी एक ऐसी ही घटना देखी गई जिसमें पानी से भरी एक बाल्टी में एक लीटर दूध मिला दिया गया ताकि उसे स्कूल में मौजूद 80 बच्चों के बीच बाँटा जा सके। इस प्रकार की घटनाएँ ज़ाहिर तौर पर शर्मनाक हैं और यह स्पष्ट करती हैं कि इस कार्यक्रम के कार्यान्वयन पर जल्द-से-जल्द गंभीरता से ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

मिड-डे मील कार्यक्रम

  • मिड-डे मील कार्यक्रम को एक केंद्रीय प्रायोजित योजना के रूप में 15 अगस्त, 1995 को पूरे देश में लागू किया गया था।
  • इसके पश्चात् सितंबर 2004 में कार्यक्रम में व्यापक परिवर्तन करते हुए मेनू आधारित पका हुआ गर्म भोजन देने की व्यवस्था प्रारंभ की गई।
  • इस योजना के तहत न्यूनतम 200 दिनों हेतु निम्न प्राथमिक स्तर के लिये प्रतिदिन न्यूनतम 300 कैलोरी ऊर्जा एवं 8-12 ग्राम प्रोटीन तथा उच्च प्राथमिक स्तर के लिये न्यूनतम 700 कैलोरी ऊर्जा एवं 20 ग्राम प्रोटीन देने का प्रावधान है।
  • मिड-डे मील कार्यक्रम एक बहुद्देशीय कार्यक्रम है तथा यह राष्ट्र की भावी पीढ़ी के पोषण एवं विकास से जुड़ा हुआ है। इसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
    • प्राथमिक शिक्षा के सार्वजनीकरण को बढ़ावा देना।
    • विद्यालयों में छात्रों के नामांकन में वृद्धि तथा छात्रों को स्कूल में आने के लिये प्रोत्साहित करना।
    • स्कूल ड्राप-आउट को रोकना।
    • बच्चों की पोषण संबंधी स्थिति में वृद्धि तथा सीखने के स्तर को बढ़ावा देना।

कार्यक्रम की आवश्यकता

  • हाल ही में ‘काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट’ नामक एक NGO द्वारा किये गए अध्ययन में सामने आया था कि वर्तमान में 6-18 वर्ष आयु वर्ग के 4.5 करोड़ से अधिक बच्चे स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं, जो कि आयु वर्ग के कुल बच्चों का लगभग 16.1 प्रतिशत है। विदित हो कि इनमें से अधिकांश को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्राप्त है।
    • आँकड़ों की मानें तो ओडिशा (20.6 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (21.4 प्रतिशत) और गुजरात (19.1 प्रतिशत) जैसे बड़े राज्यों में प्रत्येक पाँचवाँ बच्चा स्कूली शिक्षा से वंचित है।
    • अध्ययन में यह भी सामने आया था कि स्कूली शिक्षा प्राप्त न कर पाने वाले कुल बच्चों में से तकरीबन 99.34 प्रतिशत बच्चे आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर वर्ग से थे। अध्ययन में पाया गया कि लगभग 58.19 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जिनके पिता की सालाना आमदनी 50000 से भी कम है।
    • साथ ही स्कूल न जाने वाले कुल बच्चों में से लगभग 51.18 प्रतिशत के पिता और 88.45 प्रतिशत की माताएँ अशिक्षित हैं।
  • इसके अलावा भारत में बच्चों से जुड़ी एक अन्य समस्या अल्पपोषण की है। हाल ही में जारी 'द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन- 2019’ के अनुसार, विश्व में 5 वर्ष तक की उम्र के प्रत्येक 3 बच्चों में से एक बच्चा कुपोषण अथवा अल्पवज़न की समस्या से ग्रस्त है।
  • उपरोक्त आँकड़ों से भारतीय बच्चों के बुनियादी मानवाधिकारों जैसे- भोजन और शिक्षा तक पहुँच आदि की स्थिति का स्पष्ट तौर पर पता चलता है। साथ ही ये आँकड़े स्कूली बच्चों की शैक्षिक और पोषण संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये एक नीतिगत चुनौती भी प्रस्तुत करते हैं।

मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने का है लंबा इतिहास

  • विदित हो कि भारतीय विद्यालयों में मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने का एक लंबा इतिहास रहा है। भारत में छात्रों को भोजन प्रदान करने की अवधारणा पहली बार वर्ष 1925 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार द्वारा तमिलनाडु के प्राथमिक स्कूलों में शुरू की गई थी।
  • बाद में फ्रांसीसी प्रशासन ने भी 1930 के दशक के आरंभ में केंद्रशासित प्रदेश पुद्दुचेरी में इसकी शुरुआत की।
  • आज़ादी के बाद वर्ष 1962-63 के दौरान विद्यालयों में और अधिक बच्चों को आकर्षित करने के उद्देश्य से तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा राज्य में एक बार फिर से इस तरह की योजना शुरू की गई।
  • योजना के व्यापक प्रसार के कारण वर्ष 1985 में गुजरात और केरल की सरकारों ने भी इसे लागू करने का निर्णय लिया। हालाँकि कुछ कारणों से जल्द ही गुजरात में इस योजना को बंद कर दिया गया, परंतु केरल में यह चालू रही और आवश्यकतानुसार इसमें सुधार भी किया गया।
  • 1990-91 में बारह अन्य राज्य सरकारों ने इस योजना को अपने-अपने राज्य में लागू करने का निर्णय लिया, जिसके बाद अगस्‍त 1995 में स्कूली बच्चों के पोषण स्तर में सुधार करने के लिये मिड-डे मील कार्यक्रम की शुरुआत की गई।

कार्यक्रम का महत्त्व

  • यह योजना एक साथ खाने की आदत को बढ़ावा देकर स्कूली बच्चों के बीच समाजीकरण को बढ़ाने में मदद करती है। एक साथ दोपहर का भोजन करने से विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच एकता और समरसता में बढ़ोतरी होती है।
    • विभिन्न जाति, धर्मों और मज़हबों के बीच भेदभाव को कम कर यह विद्यार्थियों को एक अच्छा नागरिक बनाने के लिये प्रेरित करती है।
  • यह योजना गरीब बच्चों के माता-पिता के लिये बच्चों को स्कूल भेजने हेतु एक प्रोत्साहन के रूप में कार्य करती है। साथ ही देश की साक्षरता दर को बढ़ाने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
  • यह योजना देश में गरीबी कम करने में भी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है, क्योंकि इससे जितने ज़्यादा लोग शिक्षित और स्वस्थ होंगे वे अर्थव्यवस्था के विकास में उतना ही अधिक योगदान देंगे।
  • उल्लेखनीय है कि मिड-डे मील कार्यक्रम 10 मिलियन से अधिक स्कूलों में 120 मिलियन से अधिक बच्चों को भोजन प्रदान कर यह अपनी तरह का दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम बन गया है, जिसके कारण इसके सफल कार्यान्वयन के लिये एक विशाल कार्यबल की आवश्यकता पड़ती है।
    • सरकार द्वारा प्रस्तुत आँकड़ों के अनुसार, इस कार्यक्रम से पूरे देश में तकरीबन 26 लाख लोगों को रोज़गार प्राप्त हुआ है।
  • मिड-डे मील कार्यक्रम के निर्धारित दिशा-निर्देशों के तहत जहाँ तक ​​संभव हो, सरकार को इस कार्यक्रम के संचालन के लिये सामुदायिक सहायता और सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करना चाहिये।

चुनौतियाँ

  • भोजन की गुणवत्ता: भोजन की गुणवत्ता के संदर्भ में CAG की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अध्ययन के दौरान लिये गए खाद्यान्न के कुल 2,012 नमूनों में से 1,876 पोषण मानकों को पूरा करने में विफल रहे थे, जिसका अर्थ है कि मिड-डे मील कार्यक्रम के तहत बच्चों को परोसे जाने वाले भोजन का 80 प्रतिशत गुणवत्ता मानकों पर खरा नहीं उतरता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इसका सबसे मुख्य कारण यही है कि इस योजना के तहत भोजन की गुणवत्ता से ज़्यादा भोजन की मात्रा पर ध्यान दिया जाता है। हाल ही में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आँकड़ा जारी किया था, उन्हें गत 3 वर्षों में घटिया खाद्य गुणवत्ता को लेकर 15 राज्य और केंद्रशासित प्रदेशों से कुल 35 शिकायतें प्राप्त हुई थीं। जानकारों का मानना है कि सरकार का ध्यान केवल उन आँकड़ों पर केंद्रित है कि वह कितने स्कूलों को कवर करने और भोजन पहुँचाने में सक्षम है, कोई भी भोजन की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देना चाहता।
  • जाति और धर्म: मिड-डे मील कार्यक्रम के संबंध में आने वाली शिकायतों में एक बड़ी संख्या जातिगत आधार पर होने वाले भेदभाव की भी है। जातिगत भेदभाव आधारित अधिकांश घटनाओं में यह देखने को मिलता है कि या तो उच्च जाति के बच्चे SC/ST महिलाओं द्वारा पकाया गया भोजन खाने से मना कर देते हैं या दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों को दूसरों से अलग बैठने के लिये विवश किया जाता है। विदित हो कि इस योजना का मुख्य उद्देश्य विभिन्न पृष्ठभूमियों से आए विद्यार्थियों के मध्य साझेपन की भावना का विकास करना है, परंतु घटनाएँ बताती हैं कि यह अपने उद्देश्य की प्राप्ति में विफल रही है।
  • निरीक्षण की व्यवस्था का अभाव: गाँव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे बहुत गरीब होते हैं और मिड-डे मील कार्यक्रम के तहत मिलने वाला भोजन ही उनके लिये अंतिम विकल्प होता है। ऐसे में यह भोजन उनके लिये खतरनाक भी साबित हो सकता है, क्योंकि भोजन का निरीक्षण करने के लिये कोई भी व्यवस्था नहीं होती। वर्ष 2013 की बिहार की घटना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ स्कूल में दोपहर का भोजन खाकर 23 बच्चों की मृत्यु हो गई थी।
  • भ्रष्टाचार: वर्ष 2015 में CAG द्वारा किये गए एक ऑडिट रिपोर्ट में मिड-डे मील कार्यक्रम के अंतर्गत वित्तीय कुप्रबंधन की बात की गई थी। रिपोर्ट में सामने आया था कि किस प्रकार कर्नाटक में भोजन सप्लाई करने वाली कंपनी ने एक साल के अंदर आवश्यक मापदंडों की तुलना में काफी कम अनाज का प्रयोग किया, जो कि स्पष्ट तौर पर भ्रष्टाचार की ओर इशारा करता है।

आगे की राह

  • लागू होने की तिथि से अब तक मिड-डे मील कार्यक्रम को काफी सराहना मिली है, क्योंकि यह दुनिया की अपनी तरह की सबसे बड़ी योजना है।
  • कई विशेषज्ञों का मानना है कि योजना को सफल बनाने के लिये आवश्यक है कि इसे पाठ्यक्रम का एक पहलू बनाने का प्रयास किया जाए। दरअसल इस योजना के पूर्णतः सफल न हो पाने का सबसे बड़ा कारण यही रहा है कि परिवर्तनकारी क्षमता होने के बावजूद भी इस योजना को दान के रूप देखा जाता है।
    • जबकि इसे सफल बनाने के लिये यह आवश्यक है कि सरकार इसे बच्चों के प्रति अपने दायित्व के रूप में देखे।
  • योजना के कार्यान्वयन में कार्यबल की कमी एक बड़ी समस्या है जिस पर अतिशीघ्र ध्यान दिया जाना आवश्यक है।

निष्कर्ष

तमाम समस्याओं के बावजूद भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मिड-डे मील कार्यक्रम ने आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर बच्चों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। हालाँकि इस कार्यक्रम में अभी भी सुधार की आवश्यकता है। आवश्यक है कि सरकार योजना के कार्यान्वयन को लेकर अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करे और मात्रा के साथ-साथ गुणवत्ता पर भी ध्यान दिया जाए।

प्रश्न: मिड-डे मील कार्यक्रम के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए इसके समक्ष मौजूद चुनौतियों पर चर्चा कीजिये।


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