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एडिटोरियल

  • 06 Jun, 2019
  • 20 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय फार्मास्यूटिकल क्षेत्र की नियामक समस्याएँ

यह Editorial Livemint में प्रकाशित आलेख Indian pharma at the crossroads as US cracks the whip पर आधारित है। इसमें भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग में व्याप्तविनियमन अनियमितताओं तथा विसंगतियों के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण किया गया है।

संदर्भ

संयुक्त राज्य अमेरिका के 44 राज्यों ने जेनेरिक दवा के मूल्यों पर गुटबंदी (Cartelization) के मुद्दे पर भारतीय फार्मास्यूटिकल कंपनियों के विरुद्ध मुकदमों की शुरुआत की है। इन राज्यों ने 20 जेनेरिक दवा कंपनियों के खिलाफ मुकदमा किया है, जिनमें से सात भारतीय कंपनियाँ हैं इनमें से 5 भारतीय कंपनियों को राज्यों के अटॉर्नी जनरल का नोटिस मिला है, जबकि बाकी को न्याय विभाग की जाँच का सामना करना पड़ेगा। इन सभी कंपनियों के खिलाफ अमेरिका में प्रतिस्पर्धारोधी गतिविधियों में शामिल होने को लेकर मुकदमा दायर किया गया। इस्ससे पहले 2013 में अमेरिकी दवा नियामक ने भारतीय दवा कंपनियों के खिलाफ गुड मैन्यूफैक्चरिंग प्रैक्टिस के उल्लंघन के मामले में सबसे ज़्यादा इंपोर्ट अलर्ट जारी किये थे। साथ ही कई जानी-मानी भारतीय दवा कंपनियों को अमेरिका से अपनी दवाएँ वापस मंगानी पड़ी थीं।

क्या हैं आरोप?

इन सभी दवा कंपनियों पर आरोप है कि उन्होंने 2013 से 2015 के बीच 112 दवाओं की कीमतें कृत्रिम तरीके से बढ़ाने के लिए गुटबंदी की है। इस मुकदमे में जिन सात भारतीय दवा कंपनियों का नाम है उनमें वॉकहार्ड्ट, डॉ. रेड्डीज लेबोरेटरीज, अरबिंदो फार्मा, ग्लेनमार्क फार्मा, ल्यूपिन, जाइडस फार्मा और टारो फार्मास्यूटिकल्स शामिल हैं। आरोप लगाया गया है कि अमेरिका की तेवा फार्मास्यूटिकल्स USA Inc ने 19 अन्य कंपनियों के साथ मिलकर एक ऐसी स्वीपिंग योजना तैयार की, जिससे दवाओं की कीमतें बढ़ा दी गईं। कई मामलों में तो दवाओं की कीमतें 1000 फीसदी से ज्यादा बढ़ गईं। तेवा ने करीब 112 जेनरिक दवाओं के दाम बढ़ा दिए और कम-से-कम 86 दवाओं के दाम अपने प्रतिस्पर्ध‍ियों के साथ मिलकर बढ़ाए।

लेकिन हाल ही में जानकारी मिली है कि अमेरिकी दवा नियामक यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) भारतीय फार्मा कंपनियों द्वारा अपनाए जाने वाले मानकों से कुछ हद तक संतुष्ट हुआ है। दरअसल, भारतीय दवा कंपनियों की अमेरिका के दवा बाजार में हिस्सेदारी तेज़ी से बढ़ रही है तथा ऐसे में इन कंपनियों के बारे में अधिक जाँच-पड़ताल हो रही है। ऐसे परिदृश्य में इस मुद्दे से सभी पक्षों तथा नियामक संरचना आदि पर विचार करने की ज़रूरत है।

विनियमन की आवश्यकता क्यों?

इस क्षेत्र में विनियमन इसलिये बेहद आवश्यक है कि वैश्विक स्तर पर निरंतर परिवर्तन आ रहे हैं। विशेषकर बेहतर विनिर्माण तरीकों (Good Manufacturing Practices-GMP), बेहतर नैदानिक विधियों (Good Clinical Practices-GCP) और प्रयोगशाला के बेहतर उपयोग (Good Laboratory Practices-GLP) के संदर्भ में। इसके अलावा देश में सस्ते मूल्य पर गुणवत्तायुक्त दवाओं की सुचारु आपूर्ति सुनिश्चित करने का उत्तरदायित्व भी नियामक निकायों के ऊपर ही है।

भारत में प्रमुख औषधि एवं औषध (Drugs and Pharmaceutical) विनियमन निकाय

स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय  वाणिज्य मंत्रालय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय पर्यावरण मंत्रालय

स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय (DGHS)
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICMR)

औषध विभाग (Department of Pharmaceuticals) पेटेंट कार्यालय जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) विनिर्माण के लिये पर्यावरणीय मंजूरी

केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (Central Drugs Standard Control Organization-CDSCO) (अध्यक्ष के रूप में भारत के औषधि महानियंत्रण-DCGI + सांविधिक समितियाँ + सलाहकारी समितियाँ + राज्य लाइसेंसिंग प्राधिकरण

राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (National Pharmaceutical Pricing Authority-NPPA); औषधि (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 2013 (DPCO)   पेटेंट नियंत्रक (Controller
General of
Patent)
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) प्रयोगशालाएँ

केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) के कार्य

  • देश में औषधि, प्रसाधनों, नैदानिकी और उपकरणों की सुरक्षा, प्रभावकारिता एवं गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये मानदंड व उपाय निर्धारित करना।
  • नई औषधियों के बाज़ार अनुमोदन और नैदानिक परीक्षण मानकों को नियंत्रित करना।
  • आयात होने वाली औषधियों की निगरानी करना और उपरोक्त उत्पादों के निर्माण के लिये लाइसेंस की मंज़ूरी देना।

राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA) के कार्य  

  • विनियंत्रित थोक औषधियों व फॉर्मूलों का मूल्य निर्धारित व संशोधित करना।
  • निर्धारित दिशा-निर्देशों के अनुरूप औषधियों के समावेशन व बहिर्वेशन के माध्यम से समय-समय पर मूल्य नियंत्रण सूची को अद्यतन करना।
  • दवा कंपनियों के उत्पादन, आयात-निर्यात और बाज़ार हिस्सेदारी से जुड़े डेटा का रखरखाव।
  • दवाओं के मूल्य निर्धारण से संबंधित मुद्दों पर संसद को सूचनाएँ प्रेषित करने के साथ-साथ दवाओं की उपलब्धता का अनुपालन व निगरानी करना।

नियामक स्तर पर समस्याएँ

  • राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (NPPA): इसका अध्यक्ष भारतीय प्रशासनिक सेवा के सचिव स्तर का अधिकारी होता है, जिसका कार्यकाल निश्चित नहीं है। इसके अलावा इसमें स्थायी कर्मचारी भी नहीं हैं। अपने आदेशों के अनुपालन के लिये NPPA को राज्य प्राधिकरणों पर निर्भर रहना पड़ता है।  
  • केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO): संसाधनों (भौतिक अवसंरचनाएँ व मानव संसाधन) तक पहुँच का अभाव।
  • भारत के औषधि नियंत्रक (DCGI): औषध विज्ञान (Pharmacology) और/अथवा सूक्ष्म-जीवविज्ञान (Microbiology) में MD (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) को इस पद पर नियुक्ति हेतु प्राथमिकता दी जाती है, जिससे कई बार हितों के टकराव की स्थिति बनती है।

राज्य औषधि नियामक प्राधिकरण (SDRA)

  • इसके अधिकांश नियामक औषध निर्माता (Pharmacist) होते हैं। इससे भी हितों के टकराव की स्थिति बनती है क्योंकि केंद्रीय स्तर पर अधिकांश नियामक चिकित्सक होते हैं।
  • संसाधनों (भौतिक अवसंरचनाएँ व मानव संसाधन) तक पहुँच का अभाव।

औषध विनियमन क्षेत्र की चुनौतियाँ

स्वायत्तता

  • CDSCO और SDRA, दोनों स्वास्थ्य के अपने मूल मंत्रालयों व विभागों से संबद्ध हैं।
  • इससे वित्त, नियुक्ति और संस्थागत नीति जैसे विभिन्न विषयों में निर्णयन व स्वायत्तता में लचीलेपन में बाधा पहुँचती है।
  • नियामक अपने-अपने मूल मंत्रालयों के नौकरशाहों के प्रति जवाबदेह होते हैं।    
  • किसी भी निर्णय को विभिन्न मंत्रालयों की प्रक्रियाओं से होकर गुज़रना पड़ता है, जो CDSCO की स्वायत्तता को कमज़ोर करता है।

शक्ति

  • धारा 33P15 (जो CDSCO को SDRA को निर्देश देने की शक्ति प्रदान करती है ताकि यह सुनिश्चित हो कि DCA के प्रावधान सभी राज्यों में एकसमान रूप अनुपालित हों) का उपयोग शायद ही कभी किया जाता है और इसका उपयोग किया भी जाए तो CDSCO के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं कि राज्यों से अनुपालन सुनिश्चित कराया जा सके।
  • ड्रग इंस्पेक्टरों को अपनी सुरक्षा को लेकर चिंता बनी रहती है और उनके पास गिरफ्तार करने की शक्ति नहीं है।

क्षमता

  • प्रशासनिक स्तर पर संसाधनों (भौतिक अवसंरचनाएँ व मानव संसाधन) तक पहुँच का अभाव है।
  • वित्तीय स्तर पर दोनों ही संस्थाएँ पूर्णरूपेण बजटीय आवंटन पर निर्भर हैं और उद्योगों से मामूली उपयोगकर्ता शुल्क ही वसूल किया जाता है।
  • ड्रग इंस्पेक्टरों के लिये प्रशिक्षण कार्यक्रमों की योजना बनाने तथा उनके निष्पादन का अभाव है।
  • CDSO और SDRA के बीच संवाद के संस्थागत माध्यमों का अभाव है।

औषधि विनियामक की खंडित प्रकृति

  • विभिन्न विनियामक इकाइयों की मौजूदगी के साथ भारतीय औषधि क्षेत्र अत्यंत खंडित प्रकृति का है, जो देश में नियामक प्रभावशीलता को बाधित करता है। उदाहरण के लिये, केंद्र व राज्यों के बीच नियामक उत्तरदायित्वों का विभाजन (कानूनी व्याख्या व प्रवर्तन कार्यों की सुसंगतता का अभाव); सार्वजनिक अवसंरचनाओं (विशेष रूप से प्रयोगशालाओं) व कर्मियों में निवेश का नितांत अभाव है, जिससे संसाधनों की बेहद कमी रहती है। इसके अलावा डिजिटलीकरण का अभाव जैसी कुछ अन्य समस्याएँ भी हैं।

औद्योगिक ‘लॉबीइंग’

  • स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण पर संसदीय स्थायी समिति की 59वीं रिपोर्ट में बताया गया कि लॉबीइंग अथवा अपने पक्ष में पैरवी के कारण विशेषज्ञों की सिफारिशें बेहद अटपटी प्रतीत होती हैं। बिना किसी ठोस वैज्ञानिक प्रमाण के ही विशेषज्ञों ने अपनी राय प्रकट कर दी थी। कई विशेषज्ञों के पत्र तो हू-ब-हू पैरोकारों के दावों की ही नकल थे।

नैदानिक परीक्षणों में अनैतिकता

  • भ्रष्टाचार, परीक्षण की अल्प लागत, बेतरतीब अनुपालन और दवा कंपनियों व चिकित्सकों की मिलीभगत ने भारत में अनैतिक दवा परीक्षणों को अवसर दिया है। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण पर संसदीय समिति ने CDSCO को सौंपी रिपोर्ट में कहा कि ऐसे पर्याप्त साक्ष्य हैं कि दवा निर्माताओं, CDSCO के कुछ कर्मियों और कुछ चिकित्सा विशेषज्ञों के बीच अनैतिक मिलीभगत है। समिति ने इस ओर भी ध्यान दिलाया कि CDSCO ने बेतरतीब ढंग से चयनित 42 दवा नमूनों में से 33 को भारतीय मरीज़ों पर किसी नैदानिक परीक्षण के बिना ही इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी।

भारत में नकली और दोयम दर्जे की दवाओं की उपलब्धता

  • औषधि एवं प्रसाधन अधिनियम, 1940 के अनुसार, गुणवत्ताहीन यानी दोयम दर्जे की दवाओं में नकली और मिलावटी दवाएँ शामिल हैं। CDSCO ने मानक गुणवत्ताहीन को A,B और C– तीन श्रेणियों में रखा है, जो उनके गुणवत्ता मूल्यांकन के समय उनके वर्गीकरण में सहायक होता है।

 श्रेणी A

श्रेणी A में नकली व मिलावटी दवा उत्पाद शामिल किये जाते हैं, जो किसी उत्पाद की असली पहचान को छुपाते हैं और किसी प्रसिद्ध ब्रांड से मिलते-जुलते नाम रखते हैं। इन उत्पादों में दवा के प्रभावी तत्त्व हो भी सकते हैं और नहीं भी। इनका निर्माण प्रायः बिना लाइसेंस के असामाजिक तत्त्वों द्वारा अथवा कई बार लाइसेंसधारी विनिर्माताओं द्वारा किया जाता है।

 श्रेणी B

श्रेणी B में ऐसे अत्यंत गुणवत्ताहीन दवा उत्पाद शामिल किये जाते हैं, जो विघटन परीक्षण (disintegration or dissolution test) में विफल रहते हैं और जहाँ सक्रिय संघटक अनुमत सीमा से कम पाए जाते हैं।


श्रेणी C

श्रेणी C में वे उत्पाद शामिल किये जाते हैं जिनमें इमल्शन क्रैकिंग, दवा के रंग में परिवर्तन, कुल संघटन में कुछ परिवर्तन, तरल बनाने के दौरान अवसादन, मात्रा विभिन्नता परीक्षण में गड़बड़ी, उत्पाद पर धब्बे पड़ना या रंग बिगड़ना, असमान कोटिंग, बाह्य तत्त्वों की उपस्थिति और लेबलिंग की गलतियों जैसे दोष शामिल होते हैं।  

  • भारत में गुणवत्ता का प्रवर्तन बाज़ार में होता है, जहाँ नियामक मेडिकल स्टोर से नमूने लेकर उनका परीक्षण करते हैं। चूँकि स्वास्थ्य राज्य सूची में शामिल विषय है, इसलिये CDSCO इस पर नियंत्रण नहीं कर सकता। हमारे यहाँ विकसित देशों जैसी व्यवस्था नहीं है, जहाँ प्रक्रियात्मक स्तर पर ही गुणवत्ता नियंत्रण को लेकर तमाम सावधानियाँ बरती जाती हैं।

फार्मा क्षेत्र का सिरमौर है भारत

पिछले वर्ष फार्मा एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल ने संभावना जताई थी कि देश से होने वाली दवाओं का निर्यात वर्ष 2020 तक 20 अरब डॉलर तक पहुँच सकता है। अमेरिका जैसे देशों को निर्यात घटने के बावजूद भारत को इस लक्ष्य तक पहुँचने में कठिनाई नहीं होगी। भारत से दवाएँ खरीदने में चीन जैसे पड़ोसी देशों की दिलचस्पी बढ़ रही है, जिससे फार्मा निर्यात में भारत का प्रदर्शन अच्छा बना रहेगा। चीन से भारत बड़े पैमाने पर दवाएँ बनाने के लिए एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रेडिएंट खरीदता है। लेकिन जेनेरिक फॉर्मूलेशन बिजनेस के साथ देश के दवा उद्योग को एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रेडिएंट बिजनेस को भी बढ़ाना होगा। वित्त वर्ष 2017-18 में भारत से दवाओं का निर्यात 17.27 अरब डॉलर रहा, जो 2016-17 में 16.78 अरब डॉलर था। 

भारत फार्मा क्षेत्र में सुरक्षित, दक्ष और गुणवत्तायुक्त दवाओं के बल पर अपनी स्थिति मजबूत करने की राह पर आगे बढ़ रहा है। हालाँकि सरकार के साथ विश्वास की कमी और नियामकीय बाधाएँ इस यात्रा के रास्ते में अड़चन खड़ी कर सकती हैं। भारत के 32 अरब डॉलर के जेनेरिक आधारित फार्मा उद्योग के सामने तमाम अवसर हैं, क्योंकि वैश्विक स्तर पर सुरक्षित और गुणवत्तायुक्त दवाओं की मांग बढ़ रही है, विशेष रूप से अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसी विकसित देशों में।

आगे की राह

  • राष्ट्रीय औषध नीति, 2017 के राज्य औषधि नियंत्रण में कैडर पुनर्संरचना, NPPA को मजबूत करने जैसे प्रावधानों को तुरंत लागू किया जाना चाहिये।
  • दवा नियामक प्रणाली को युक्तिसंगत बनाने, औषध क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने तथा संबंधित क्षेत्र के साथ सहक्रियता निर्माण व समान दृष्टिकोण विकसित करने जैसे राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 के प्रावधानों को लागू किया जाना चाहिये।
  • विभिन्न समिति/आयोगों (माशेलकर समिति रिपोर्ट, DCA विधेयक 2015, प्रो. रंजीत रॉय चौधरी समिति की रिपोर्ट) ने स्वतंत्र कर्मियों व वित्तीय अधिकारों के साथ CDSO को एक स्वायत्त व सशक्त निकाय के रूप में विकसित करने का सुझाव दिया है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य के हित में भारत में दवा विनियमन क्षेत्र में व्याप्त अराजकता को दूर करना बेहद आवश्यक है। अन्य विकसित देशों की तर्ज़ पर भारत में भी नियामक प्राधिकरणों द्वारा औषध कंपनी के माध्यम से किये जाने वाले नैदानिक तथा पूर्व-नैदानिक परीक्षणों के आँकड़ों का सत्यापन किया जाना चाहिए, इससे परीक्षण में शामिल लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सकेगी। इसके अलावा औषधियों के अनुमोदन एवं विक्रय हेतु पारदर्शी तथा सख्त नियामक प्रक्रिया अपनाई जाए तथा औषधियों की ओवर-द-काउंटर (OTC) बिक्री की निगरानी की जाए। ‘विश्व का दवाखाना’ (Pharmacy of the World) कहे जाने वाले भारत में बेहतर नियामक निकाय की आवश्यकता है ताकि इसकी साख पुनः बहाल की जा सके।

अभ्यास प्रश्न: ‘आयुष्मान भारत’ जैसी महत्त्वपूर्ण स्वास्थ्य योजनाओं की सफलता के लिये भारतीय फार्मास्यूटिकल क्षेत्र में व्याप्त नियामक अव्यवस्थाओं को दूर करना आवश्यक है। चर्चा करें


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