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एडिटोरियल

  • 05 Nov, 2021
  • 12 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

कार्बन तटस्थता: भारत का लक्ष्य

यह एडिटोरियल 02/11/2021 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित ‘India must resist carbon neutrality demands at COP-26’ लेख पर आधारित है। इसमें शुद्ध-शून्य उत्सर्जन प्रतिज्ञा और विकासशील देशों के लिये इस प्रतिज्ञा से संबंधित मुद्दों के संबंध में चर्चा की गई है।

संदर्भ

जलवायु कार्रवाई के मामले में विकसित देश बेहद खराब ट्रैक रिकॉर्ड रखते हैं। इस संदर्भ में जलवायु कार्रवाई के लिये हाल ही में घोषित उनकी प्रतिज्ञाएँ—जिनमें वर्ष 2050 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन की घोषणा भी शामिल है, हमारे ग्रह की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये अपेक्षाकृत कम ही मानी जा सकती है। इस प्रकार, विकासशील देशों पर ‘डू मोर’ और सदृश शुद्ध-शून्य प्रतिज्ञाओं की घोषणा करने का दबाव जलवायु कार्रवाई के बोझ को दुनिया की निर्धनतम आबादी पर स्थानांतरित कर देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

इसके अलावा, भारत ने एक पाँच-सूत्री कार्ययोजना के अंग के रूप में वर्ष 2070 तक कार्बन तटस्थता प्राप्त कर लेने की घोषणा की है, जिसमें वर्ष 2030 तक उत्सर्जन को 50% तक कम कर लेना भी शामिल है। भारत की विकास आवश्यकताओं के हित में इस निर्णय का विश्लेषण किये जाने की आवश्यकता है।

विकास के लिये ऊर्जा

  • ऊर्जा के उपयोग और विकास के बीच एक मज़बूत संबंध होता है। कोई भी देश ऊर्जा आपूर्ति में वृद्धि किये बिना अपनी आबादी के लिये उचित स्तर का कल्याण सुनिश्चित करने में कामयाब नहीं हुआ है।
    • लेकिन दुर्भाग्य से, ऊर्जा के सभी उपलब्ध स्रोत—जिन्हें औद्योगिक उत्पादन या परिवहन जैसे विशिष्ट उद्देश्यों के लिये निर्देशित किया जा सकता है, प्रायः गंभीर प्रभाव उत्पन्न करते हैं, विशेष रूप से कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन, जो ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के लिये सर्वाधिक उत्तरदायी ग्रीनहाउस गैस है।
  • वर्ष 1850 से वर्ष 2019 तक विश्व ने लगभग 2,500 बिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन किया है। विकसित देश, जो वैश्विक आबादी के 18% का वहन करते हैं, इस उत्सर्जन के 60% से अधिक के लिये ज़िम्मेदार हैं।
    • जीवाश्म ईंधन संसाधनों के अनियंत्रित उपयोग ने इन देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं का आधुनिकीकरण करने और ‘वैश्विक दक्षिण’ अथवा ग्लोबल साउथ में निवास करने वाली शेष 82% आबादी की तुलना में अत्यधिक विकास करने का अवसर दिया है।
  • संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क कन्वेंशन (UNFCCC) अमीर और गरीब देशों के बीच अंतर या विभेदन के सिद्धांत पर बल रखता है और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या के समाधान में अमीर देशों से अग्रणी भूमिका निभाने की अपेक्षा रखता है।
    • लेकिन UNFCCC के लगभग तीन दशकों बाद भी जलवायु कार्रवाई के मामले में विश्व के सबसे अमीर देशों ने निष्क्रियता ही प्रदर्शित की है, जिन्होंने बार-बार उत्सर्जन में कमी और भविष्य के लिये जलवायु वित्त के लक्ष्यों में परिवर्तन करके अपने उत्तरदायित्वों से बचने का प्रयास किया है।
    • हाल के समय में शुद्ध शून्य घोषणाओं पर बल और सभी देशों पर इस संबंध में प्रतिज्ञा प्रकट करने का दबाव भी इसी दिशा में एक अन्य प्रयास है।

शुद्ध शून्य उत्सर्जन

  • शुद्ध-शून्य उत्सर्जन का तात्पर्य ग्रीनहाउस गैसों के मानवजनित निराकरण के साथ वैश्विक स्तर पर या क्षेत्र विशेष में मानवजनित कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को संतुलित करने से है।
  • सभी देशों पर इस तरह की घोषणाओं के लिये दबाव बनाने का आरंभ वर्ष 2019 के आसपास COP-25 के दौरान हुआ था, जब पेरिस समझौते को लागू होने में एक वर्ष बचा था।
  • अलग-अलग देशों और क्षेत्रों द्वारा शुद्ध-शून्य घोषणाएँ कराने का यह विचार पिछले 30 वर्षों से विकसित देशों की निष्क्रियता को छिपाने के लिये एक बहाने के रूप में किया जा रहा है।
  • हालाँकि भविष्योन्मुखी ये घोषणाएँ भी ग्रह की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। वर्ष 2030 के लिये अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ (27) की "वर्द्धित प्रतिज्ञा" और वर्ष 2050 के आसपास शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने के उनके वर्तमान घोषित इरादे का अर्थ यह है कि केवल ये दो प्रमुख भूभाग ही शेष कार्बन बजट के 30% से अधिक का उपभोग कर रहे होंगे।
    • संयुक्त रूप से ये दोनों भूभाग और चीन, वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने हेतु विश्व के लिये उपलब्ध कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में कम-से-कम 20% अधिक कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करेंगे।

आगे की राह

  • सभी के लिये विकास: जलवायु कार्रवाई के लिये दुनिया को विकसित देशों की ओर से अधिकाधिक महत्त्वाकांक्षाओं के प्रकटीकरण की आवश्यकता है, ताकि कम विकसित देशों को विकास के लिये कुछ अवसर मिल सके।
    • विश्व को श्रम नीरसता और अभाव के उन कई रूपों को समाप्त करने की आवश्यकता है जिससे हमारी अधिकांश आबादी ग्रस्त है।
    • इसके लिये आधुनिक, मितव्ययी और विश्वसनीय सुविधाओं एवं सेवाओं तक सभी व्यक्तियों की पहुँच सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। एक ऐसी दुनिया के लिये तैयारी करना भी महत्त्वपूर्ण है, जिसके 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म होने की संभावना है। ऐसी दुनिया में जलवायु प्रभावों के विरुद्ध हमारा पहला बचाव विकास ही होगा।
  • जलवायु कार्यान्वयन को सुदृढ़ बनाना: भारत को जलवायु कार्यान्वयन के लिये अपने घरेलू संस्थानों के निर्माण और सुदृढ़ीकरण पर ज़ोर देना चाहिये। इसके लिये विकास आवश्यकताओं और निम्न कार्बन अवसरों के बीच संबंधों की पहचान करने की आवश्यकता होगी। इस संदर्भ में एक जलवायु कानून का होना उपयोगी सिद्ध हो सकता है।
  • CBDR की पुष्टि: आगामी जलवायु परिवर्तन वार्ता में भारत को ‘सामान्य लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारी’ (Common But Differentiated Responsibility- CBDR) के दीर्घकालिक सिद्धांत की पुष्टि करने की आवश्यकता है, जिसके लिये अमीर देशों को नेतृत्वकारी भूमिका निभाने और ऐसी किसी भी प्रतिज्ञा के विरुद्ध बहस करने की आवश्यकता होगी जो विकास के लिये भारतीय ऊर्जा उपयोग को समय-पूर्व सीमित करने का जोखिम उत्पन्न करती हो।
  • नवीकरणीय क्षमता की वृद्धि करना: ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (Council on Energy, Environment and Waters- CEEW) के ‘इंप्लीकेशंस ऑफ ए नेट-ज़ीरो टारगेट फॉर इंडियाज़ सेक्टोरल एनर्जी ट्रांजिशन एंड क्लाइमेट पॉलिसी’ अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार भारत की कुल स्थापित सौर ऊर्जा क्षमता को वर्ष 2070 तक नेट ज़ीरो लक्ष्य प्राप्त करने के लिये 5,600 गीगावाट से अधिक की आवश्यकता होगी।
    • भारत को वर्ष 2070 तक शुद्ध शून्य लक्ष्य हासिल करने के लिये विशेष रूप से बिजली उत्पादन हेतु कोयले के उपयोग को वर्ष 2060 तक 99% तक कम करना होगा।
    • सभी क्षेत्रों में कच्चे तेल की खपत को वर्ष 2050 तक चरम स्थिति पर पहुँचाने और वर्ष 2050 तथा वर्ष 2070 के बीच 90% तक कम करने की आवश्यकता होगी।
      • ग्रीन हाइड्रोजन औद्योगिक क्षेत्र की कुल ऊर्जा आवश्यकता का 19% योगदान कर सकता है।
  • भारत का ऊर्जा भविष्य उसके लोगों की विकासात्मक आवश्यकताओं और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से उनकी सुरक्षा द्वारा निर्धारित किया जाना चाहिये।
    • ऊर्जा क्षेत्र में भारत के प्रयास इस बात के प्रमाण हैं कि जलवायु कार्रवाई के संबंध में भारत अपनी क्षमता से अधिक बढ़कर कार्य कर रहा है।
  • यद्यपि भारत ग्लोबल वार्मिंग पर नियंत्रण के लिये अपना उपयुक्त योगदान कर रहा है, यह विकसित देशों के लिये भारत के प्रयासों का लाभ उठाने का अवसर नहीं होना चाहिये।
    • यह आवश्यक है कि भारत के कार्बन स्पेस की उचित हिस्सेदारी और इसके परिणामस्वरूप इसके लोगों के ऊर्जा भविष्य को अभी ही समय रहते सुरक्षित कर लिया जाए।

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change) की नवीनतम रिपोर्ट द्वारा संकलित आँकड़ों के मुताबिक, जिन देशों ने शुद्ध शून्य उत्सर्जन के लिये प्रतिज्ञा प्रकट की है, उनसे यह घोषित करने के लिये कहा जाना चाहिये कि वे इस लक्ष्य तक पहुँचने से पहले कितने शेष कार्बन बजट का उपभोग करेंगे।

इस प्रश्न का उत्तर यह निर्धारित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है कि विश्व किस दिशा में आगे बढ़ रहा है। इस वैश्विक संदर्भ में, भविष्य के लिये हमारे ऊर्जा पथ को सावधानी से तैयार किया जाना चाहिये जहाँ पर्याप्त लचीलेपन का अवसर हो, जबकि हमारी निर्धनतम और सबसे कमज़ोर आबादी के हितों को केंद्र में रखते हुए कोई भी प्रतिज्ञा ली जानी चाहिये।

अभ्यास प्रश्न: ‘निर्धनतम और सबसे कमज़ोर आबादी के हितों को केंद्र में रखते हुए ही शुद्ध शून्य उत्सर्जन की प्रतिज्ञा ली जानी चाहिये।’ टिप्पणी कीजिये।


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