भारत-ताइवान औपचारिक राजनयिक संबंधों का महत्त्व
इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में भारत और ताइवान के बीच औपचारिक राजनयिक संबंधों की स्थापना का महत्त्व व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ:
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद से संबंधित वार्ताओं की विफलता के बाद लद्दाख में दोनों देशों की सेनाओं के मध्य गतिरोध अभी भी बना हुआ है। इसके अतिरिक्त चीनी प्रशासन ने कई ऐसे कदम उठाए हैं जो राजनयिक समाधान के प्रयासों/संभावनाओं को खतरे में डाल सकते हैं।
हालाँकि भारत की सरकार और सशस्त्र बल यह स्पष्ट करते रहे हैं कि वे भारत की संप्रभुता तथा अखंडता की रक्षा के लिये हर संभव कदम उठाएंगे, इसके अतिरिक्त भारत को विदेश नीति के मोर्चे पर भी उपलब्ध संभावित विकल्पों की तलाश करनी चाहिये।
विदेश नीति के मोर्चे पर भारत ने क्वाड सुरक्षा समूह (जिसे चीन "एशियाई नाटो" के रूप में संदर्भित करता है) में भागीदारी की इच्छा व्यक्त की है। हालाँकि चीन का मुकाबला करने के लिये एक औपचारिक सैन्य दल के रूप में इस समूह को स्थापित करने के मामले में क्वाड देशों में भारी अनिश्चितता देखी गई है।
अतः इस स्थिति में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि चीन का मुकाबला करने के लिये भारत वैकल्पिक राजनयिक और सैन्य विकल्पों को खोजे। इसका एक व्यवहार्य विकल्प ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित करना हो सकता है।
पृष्ठभूमि:
- वर्ष 1949 में चियांग काई शेक (पूर्व चीनी राष्ट्रपति और पूर्व राष्ट्राध्यक्ष) लंबे समय से चल रहे चीनी गृह युद्ध में माओ ज़ेदोंग (माओ-त्से-तुंग) की जीत के बाद फॉर्मोसा द्वीप (ताइवान के द्वीप का पूर्व नाम) चले गए।
- इसके बाद से वर्ष 1980 के दशक में चीन और ताइवान के बीच संबंधों में सुधार शुरू हुआ। इसी दौरान चीन द्वारा एक नया फार्मूला प्रस्तुत किया गया, जिसे "एक देश, दो प्रणाली" के रूप में जाना जाता है, जिसके तहत यह निर्धारित किया गया कि यदि ताइवान चीन के साथ एकीकरण को स्वीकार करता है तो इसे व्यापक स्वायत्तता दी जाएगी।
- हालाँकि ताइवान द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया था, परंतु चीन अपने सभी विदेशी मामलों के विचार-विमर्श में एक चीन नीति को प्रोत्साहित करता है।
मज़बूत इंडो-ताइवान संबंधों का औचित्य:
- निपुण कूटनीति: हालाँकि ताइवान (जिसे चीन अपना ही एक अलग हुआ प्रांत मानता है) के साथ भारत के औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं, परंतु भारत ने हाल के वर्षों में ताइवान के साथ धीरे-धीरे आर्थिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक क्षेत्रों में द्विपक्षीय भागीदारी को बढ़ाने का प्रयास किया है।
- यह साझेदारी कुछ निपुण कूटनीतियों के साथ भविष्य की वार्ताओं में भारत को महत्त्वपूर्ण बढ़त प्रदान कर सकती है।
- पाकिस्तान को नियंत्रित करना: कुछ सेवानिवृत्त राजनयिकों का मानना है कि भारत को चीन के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने और चीन व पाकिस्तान ( जो अब चीन का सैटेलाइट स्टेट बनने के करीब है) के "गठबंधन" को विफल करने के लिये ताइवान के साथ अपने संबंधों का लाभ उठाना चाहिये।
- एक्ट ईस्ट नीति और न्यू साउथबाउंड पॉलिसी: वर्तमान परिस्थिति में भारत की एक्ट ईस्ट नीति (जो हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ घनिष्ठ आर्थिक, सामरिक और कूटनीतिक जुड़ाव का समर्थन करती है) तथा ताइवान की न्यू साउथबाउंड पॉलिसी (जो ताइवान और दक्षिण-पूर्व एशिया, दक्षिण एशिया तथा ऑस्ट्रेलेशिया में 18 देशों के बीच सहयोग एवं विनिमय बढ़ाने का प्रयास करती है।) में समन्वय की काफी संभावना है।
- गौरतलब है कि दोनों नीतियों का उद्देश्य क्षेत्रीय प्रभाव को बढ़ाना और क्षेत्र में अपने सहयोगियों से राजनीतिक तथा आर्थिक लाभ प्राप्त करना है।
ताइवान के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने के लाभ:
ताइवान को मान्यता देना भारत की विदेश नीति के लिये कई अर्थों में लाभदायक होगा।
- लोकतांत्रिक विश्व के नेता के रूप में भारत: ताइवान एक मज़बूत अर्थव्यवस्था के साथ एक ठोस लोकतंत्र है।
- ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित करके भारत लोकतांत्रिक विश्व के नेता के रूप में अपनी छवि को मज़बूत कर सकता है, विशेषकर ऐसे समय में जब वैश्विक मंचों पर अमेरिका की भूमिका कमज़ोर हुई है।
- चीन के साथ गठबंधन का विस्तार: भारत एक नई आपूर्ति शृंखला गठबंधन (जिसे हाल ही में भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया द्वारा औपचारिक रूप दिया गया है) बनाने के अपने प्रयास में अन्य शक्तिशाली सहयोगियों का समर्थन प्राप्त कर सकता है।
- इसके अलावा नए सदस्यों को शामिल करने के लिये क्वाड समूह का विस्तार किया जा सकता है।
- चीन को उसी की भाषा में उत्तर देना: चीन ने कई बार कश्मीर मुद्दे पर चर्चा करने के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद को उकसाने का प्रयास किया है।
- ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंधों को संस्थागत रूप देकर भारत चीन को स्पष्ट संदेश दे सकता है कि यदि वह "वन इंडिया नीति" का सम्मान नहीं करता है, तो भारत भी "वन चाइना नीति” का पालन नहीं करेगा।
- इसके अलावा ताइवान को मान्यता देने से चीन के लिये यह स्पष्ट हो जाएगा कि यदि आवश्यकता पड़ती है, तो भारत नौपरिवहन सिद्धांत की स्वतंत्रता को लागू करने के लिये विवादित दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में नौसैनिक और हवाई सैन्य सहायता भेजने से पीछे नहीं हटेगा।
चुनौतियाँ:
- ताइवान की तरफ भारत की प्रत्येक पहल पर चीन से तीखी प्रतिक्रियाएँ देखने को मिली हैं। चीन की इस आक्रामकता ने भारत और ताइवान के बीच संस्कृति, शिक्षा तथा निवेश के क्षेत्र से परे व्यापक संबंधों के विकास को बाधित किया है।
- गौरतलब है कि अभी तक चीन के मुख्य प्रतिद्वंद्वी और विश्व के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका ने ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं स्थापित किये हैं, ऐसे में ताइवान को मान्यता देना भारत के लिये गंभीर चुनौतियों का कारण बन सकता है। उदाहरण के लिये:
- चीन हमारा दूसरा सबसे बड़ा द्विपक्षीय व्यापार साझेदार है और कच्चे माल एवं वस्तुओं के संबंध में वह भारत का प्रमुख निर्यात साझेदार है।
- फिक्की की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत सक्रिय दवा सामग्री (API), टेलीविज़न, रसायन, कपड़ा और कई तरह के अन्य महत्त्वपूर्ण वस्तुओं की अपनी कुल ज़रूरत का लगभग 40% से अधिक हिस्सा चीन से आयात करता है।
- एक संभावित प्रतिशोधात्मक कदम के रूप में चीन इन वस्तुओं के निर्यात को रोक सकता है।
- वह अपने आतंकी वित्तपोषण नेटवर्क को भी सक्रिय कर सकता है, जो वर्षों तक पूर्वोत्तर में भारत के लिये एक आंतरिक सुरक्षा का मुद्दा बना रहा।
- चीन पाकिस्तान के सहयोग से कश्मीर घाटी और भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में आतंकवाद को तेज़ करने का प्रयास कर सकता है।
- हालाँकि भारत इस प्रकार की चुनौतियों से निपटने में पूर्णरूप से सक्षम है, परंतु ये प्रयास देश की शांति व्यवस्था और आर्थिक विकास को कुछ समय के लिये प्रभावित कर सकते हैं, जिसके कारण विभिन्न क्षेत्रों में इसके गंभीर नकारात्मक परिणाम प्रदर्शित होंगे।
निष्कर्ष:
हालाँकि पिछले कुछ दशकों में चीन और भारत दोनों ने अपनी सैन्य एवं आर्थिक शक्ति में काफी वृद्धि की है परंतु चीन भारत को पछाड़ते हुए स्वयं को एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित करने में सफल रहा है और अब उसने एक विस्तारवादी दृष्टिकोण लागू करने के लिये प्रत्यक्ष आक्रामक रवैया अपनाया है। ऐसी स्थिति में ताइवान की स्वायत्तता को वैधता प्रदान करने की पहल को एक आवश्यक कदम माना जा सकता है।
अभ्यास प्रश्न: भारत द्वारा ताइवान के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित करने की पहल से चीन को एक मज़बूत संदेश जाएगा। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।