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एडिटोरियल

  • 01 Oct, 2021
  • 10 min read
शासन व्यवस्था

ग्रामीण ऋण जाल

यह एडिटोरियल 30/09/2021 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘What gives rise to the rural debt trap’?’ लेख पर आधारित है। इसमें ग्रामीण ऋण जाल की समस्याओं और संभव समाधानों के संबंध में चर्चा की गई है।

अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण (All-India Debt and Investment Surveys- AIDIS) भारत में ग्रामीण ऋण बाज़ार के संबंध में सर्वप्रमुख राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधिक डेटा स्रोतों में से एक है जो राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा आयोजित कराया जाता है।    

हाल ही में प्रकाशित, AIDIS रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण ऋण बाज़ार में गैर-संस्थागत स्रोतों की मज़बूत उपस्थिति है, इस तथ्य के बावजूद कि उनसे उधार लेने में उच्च लागत शामिल होती है। किफायती/सस्ते ऋण तक अपर्याप्त पहुँच ग्रामीण संकट के मूल में है।

AIDIS रिपोर्ट के निष्कर्ष:

  • रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में प्रति परिवार औसत ऋण 59,748 रुपए है, जो शहरी भारत में प्रति परिवार औसत ऋण का लगभग आधा है
  • ऋण तक पहुँच का एक प्रमुख संकेतक ऋणग्रस्तता की घटना (Incidence of Indebtedness- IOI) है, जो बकाया ऋण रखने वाले परिवारों का अनुपात बताता है।  
  • नवीनतम AIDIS रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण भारत में IOI 35% है - 17.8 प्रतिशत ग्रामीण परिवार, संस्थागत ऋण एजेंसियों की, 10.2 प्रतिशत गैर-संस्थागत एजेंसियों की और 7% दोनों के ऋणी हैं।
  • कुल बकाया ऋण में संस्थागत ऋण एजेंसियों से लिये गए ऋण की हिस्सेदारी शहरी भारत में 87% की तुलना में ग्रामीण भारत में 66% है।

ग्रामीण ऋण जाल के कारण:

  • घरेलू उद्देश्यों के लिये ऋण का उपयोग: यह समझने के लिये कि सामाजिक-आर्थिक असमानता घरेलू ऋणग्रस्तता को कैसे आकार देती है, ऋण लेने के उद्देश्ययों की जाँच की जानी चाहिये।  
    • ग्रामीण भारत में मुख्य रूप से कृषि व्यवसाय और आवास के लिये संस्थागत ऋण लिया जाता है। 
    • गैर-संस्थागत स्रोतों से लिये गए ऋण का एक बड़ा भाग अन्य घरेलू खर्चों के लिये उपयोग किया जाता है।
    • आँकड़ों के अनुसारी, संपन्न परिवारों की औपचारिक-क्षेत्र ऋण तक अधिक बेहतर पहुँच है और वे इसका उपयोग अधिक आय-सृजन उद्देश्यों के लिये करते हैं। 
      • संपत्ति के स्वामित्व के मामले में शीर्ष 10% ग्रामीण परिवार अपने संस्थागत ऋण का लगभग दो-तिहाई और गैर-संस्थागत ऋण का 40% कृषि/गैर-कृषि व्यवसाय पर खर्च करते हैं, जबकि निचले स्तर के 10% अपने कुल ऋण का आधा घरेलू खर्च पर व्यय करते हैं। 
  • सामाजिक पहचानों का कारक: सामाजिक पहचानों की परस्पर क्रिया से ऋण तक पहुँच जटिल बन जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के परिवारों की औसत संपत्ति स्वामित्व उच्च जाति के परिवारों की तुलना में एक तिहाई है। 
  • किफायती/सस्ते ऋण तक अपर्याप्त पहुँच ग्रामीण संकट के मूल में है। विपणन योग्य संपार्श्विक की कमी, उपभोग उद्देश्यों के लिये ऋण की माँग और सूचनात्मक बाधाएँ ग्रामीण आबादी के एक बड़े हिस्से को संस्थागत वित्त से बहिर्वेशित (Excluded) रखने के प्राथमिक कारण रहे हैं।  
    • ग्रामीण निर्धनों की उपभोग आवश्यकताओं को समायोजित करने और ग्रामीण परिवारों को संस्थागत वित्त नेटवर्क के अंतर्गत लाने हेतु संपार्श्विक के विकल्पों की खोज के लिये ऋण नीति को संशोधित किये जाने की आवश्यकता है।
  • ग्रामीण गरीबों के पास संपार्श्विक (Collateral) के लिये संपत्ति की कमी: संस्थागत ऋण तक पहुँच काफी हद तक परिवारों की संपत्ति को संपार्श्विक के रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता से निर्धारित होती है।  
    • रिपोर्ट के अनुसार संपत्ति स्वामित्व रखने वाले शीर्ष 10% परिवारों ने अपने कुल ऋण का 80% संस्थागत स्रोतों से उधार लिया, जबकि निचले स्तर के 50% परिवारों ने अपने कुल ऋण का लगभग 53% गैर-संस्थागत स्रोतों से उधार लिया।
  • ऋण माफी की नीति: ऋण माफी योजनाएँ ऋण अनुशासन को बाधित करती हैं क्योंकि कृषि ऋण माफी एक अस्थायी समाधान पेश करती है और भविष्य में एक नैतिक खतरा साबित हो सकती है।  
    • इसका कारण यह है कि जो किसान अपने ऋण का भुगतान कर सकते हैं, वे भी किसी ऋण माफी की अपेक्षा में इसके भुगतान के प्रति अनिच्छुक बने रहेंगे।

आगे की राह:

  • संस्थागत ऋण की पहुँच में सुधार के उपाय करना: 
    • भारत सरकार को राज्य सरकारों को समयबद्ध तरीके से डिज़िटलीकरण प्रक्रिया और भूमि अभिलेखों के अद्यतनीकरण को पूरा करने के लिये प्रेरित करना चाहिये ।  
    • राज्य सरकारों को बैंकों को डिज़िटल भूमि रिकॉर्ड तक पहुँच प्रदान करनी चाहिये ताकि वे भूमि के मालिकाना हक को सत्यापित कर सकें और ऑनलाइन भार सर्जित कर सकें।
  • संबद्ध गतिविधियों के लिये ऋण प्रवाह बढ़ाना: सरकार को संबद्ध गतिविधियों के लिये कार्यशील पूँजी और सावधि ऋण के लिये अलग-अलग लक्ष्य निर्धारित करने चाहिये। 
  • भूमि चकबंदी: राज्य सरकारों को भूमि चकबंदी (land Consolidation) के लिये जागरूकता अभियान को बढ़ावा देना चाहिये और इसका संचालन करना चाहिये ताकि किसान पैमाने की अर्थव्यवस्था/आकारिक मितव्ययिता प्राप्त कर सकें तथा दीर्घकालिक निवेश करने के लिये प्रोत्साहन पा सकें। 
  • संपार्श्विक के रूप में सोने (Gold) पर कृषि ऋण: वर्तमान में ऐसे ऋणों को बैंकों के कोर बैंकिंग समाधान (CBS) प्लेटफॉर्म में अलग से चिह्नित नहीं किया जाता है ।   
  • कृषि ऋण माफी: भारत सरकार और राज्य सरकारों को कृषि नीतियों और उनके कार्यान्वयन की समग्र समीक्षा करनी चाहिये साथ ही कृषि इनपुट तथा ऋण के संबंध में वर्तमान सब्सिडी नीतियों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन इस तरह से करना चाहिये की वह एक संवहनीय रूप में कृषि की समग्र व्यवहार्यता में सुधार ला सके।  
  • कृषि क्षेत्र के लिये ऋण गारंटी योजना: भारत में उधारकर्त्ताओं के डिफ़ॉल्ट जोखिम को कवर करने के लिये बैंकों के पास कोई गारंटी योजना उपलब्ध नहीं है। 
    • केंद्र सरकार को राज्य सरकारों के साथ साझेदारी के साथ MSMEs क्षेत्र में लागू की गई क्रेडिट गारंटी योजनाओं की तर्ज पर कृषि क्षेत्र के लिये भी एक ‘क्रेडिट गारंटी फंड’ स्थापित करना चाहिये।
  • वित्तीय समावेशन प्राप्त करना: कृषि परिवारों के वित्तीय बहिर्वेशन की सीमा को कम करने के लिये प्रौद्योगिकी संचालित समाधानों के माध्यम से संस्थागत ऋण वितरण में सुधार हेतु आक्रामक प्रयास करने की आवश्यकता है।  
    • बैंकों को एग्री-टेक कंपनियों/स्टार्ट-अप्स के साथ सहयोग की तलाश करनी चाहिये ताकि किसानों को एकीकृत, समयबद्ध और कुशल तरीके से ऋण उपलब्ध कराया जा सके।

अभ्यास प्रश्न: ग्रामीण ऋण जाल ग्रामीण संकट के प्रमुख कारणों में से एक है। विश्लेषण कीजिये।


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