सामाजिक न्याय
भारत के कैदियों की स्थिति
इस Editorial में The Hindu, Indian Express, Business Line में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में राष्ट्रीय अपराध रिकोर्ड ब्यूरो की ‘भारतीय कारावास आँकड़े’ वार्षिक रिपोर्ट का विश्लेषण किया गया है तथा आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
हाल ही में लुधियाना जेल में दो गुटों के बीच हिंसक झड़प का मामला सामने आया है। इसी प्रकार के मामले कारावास और कैदियों के संबंध में सार्वजनिक मंच पर चर्चा का माध्यम बनते है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau- NCRB) द्वारा प्रत्येक वर्ष आँकड़ा-आधारित रिपोर्ट ‘भारतीय कारावास आँकड़े’ (Prison Statistics India) जारी की जाती है। हाल ही में जारी भारतीय कारावास आँकड़े 2016 (Prison Statistics India 2016) रिपोर्ट भारत में कारावासों और उसमें बंद कैदियों की स्थिति की विस्तृत जानकारी देती है। लेकिन ऐसी रिपोर्ट सार्वजनिक बहस का हिस्सा नहीं बन पाती है। भारतीय कारावास प्रायः तभी खबरों में आते हैं जब कैदियों के फरार होने, कारावास में हुडदंग अथवा अधिवक्ताओं द्वारा किसी बड़े व्यवसायी या आर्थिक अपराधियों के भारत प्रत्यर्पण के विरुद्ध मुकदमा लड़ने के मामले सामने आते हैं।
कुछ प्रमुख जनसांख्यिकीय आँकड़ों के लोप के कारण रिपोर्ट का नवीनतम संस्करण पूर्व के संस्करणों से कुछ अलग है। इन अंतरालों के बावजूद रिपोर्ट में कई चिंताजनक पहलुओं को उजागर किया गया है जो भारतीय कारावास प्रणाली में आ रही समस्याओं का संकेत देते हैं। इस स्थिति पर विमर्श आगे बढ़ाने से पहले सर्वप्रथम हम इस बात पर विचार करते है कि आबादी का ऐसा कौन-सा हिस्सा है जो कारागार में बंद हैं।
स्वतंत्र भारत में जेल सुधार के लिये वर्ष 1983 में जस्टिस ए. एन. मुल्ला समिति का गठन किया गया था। इस समिति ने कैदियों से जुड़ें आँकड़ो के एक समान और राष्ट्रव्यापी संग्रहण की सिफारिश की थी। सर्वप्रथम वर्ष 1996 में ‘भारतीय कारावास आँकड़े रिपोर्ट 1995 राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी की गई। वर्ष 1995 से प्रत्येक वर्ष यह रिपोर्ट जारी की जा रही है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB)
इसकी स्थापना वर्ष 1986 में की गई थी। अपराधी निगरानी तथा सूचना तकनीक द्वारा पुलिस को सबल करने के लिये इसकी स्थापना की गई थी। NCRB का कार्यालय गृह मंत्रालय के अंतर्गत आता है।
रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2016 के अंत में 4,33,033 लोग कारावास झेल रहे थे जिनमें से 68 प्रतिशत विचाराधीन (undertrials) कैदी अथवा वे लोग थे जिन पर दोषसिद्धि होना अभी बाकी है। इन विचाराधीन कैदियों में से आधे से अधिक वर्ष 2016 में छह माह से कम अवधि के लिये हिरासत में लिये गए थे। इससे यह संकेत मिलता है कि कुल कैदियों में से विचाराधीन कैदियों के उच्च अनुपात का कारण अनावश्यक गिरफ़्तारी और सुनवाई के दौरान अप्रभावी कानूनी सहायता का प्राप्त होना, हो सकता है।
जनसांख्यिकीय विवरण नहीं
नवीनतम रिपोर्ट की एक सबसे बड़ी खामी यह है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने कैदियों की धार्मिक और जातीय (अनुसूचित जाति एवं जनजाति) स्थिति के संबंध में जनसांख्यिकीय विवरण को रिपोर्ट में शामिल नहीं किया है, जबकि भारतीय कारावास प्रणाली के कार्यकरण को समझने में ये घटक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पिछले 20 वर्षों से नियमित रूप से यह सूचना प्रकाशित होती रही है और विचाराधीन कैदियों में मुस्लिमों, दलितों एवं आदिवासियों के चिंताजनक (अधिक) प्रतिनिधित्व का खुलासा होता रहा। उदाहरण के लिये, वर्ष 2015 की रिपोर्ट में कुल विचारधीन कैदियों में से मुसलमानों, दलितों और आदिवासियों की संख्या 55 प्रतिशत थी, जबकि कुल दोषसिद्ध कैदियों में उनका अनुपात 50 प्रतिशत और कुल भारतीय जनसंख्या में उनका अनुपात 38 प्रतिशत ही है।
एक अन्य चिंताजनक पहलू जम्मू-कश्मीर में प्रशासनिक या निवारक निरोध कानूनों के अंतर्गत हिरासत में लिये गए लोगों की संख्या में वृद्धि के रूप में प्रकट हुआ है जहाँ वर्ष 2015 के 90 की तुलना में वर्ष 2016 में 431 लोग (300 प्रतिशत वृद्धि) हिरासत में लिये गए। प्रशासनिक या निवारक निरोध कानूनों का उपयोग जम्मू-कश्मीर एवं अन्य राज्यों में बिना आरोप या परीक्षण के अनुचित तरीके से लोगों को हिरासत में लेने और नियमित आपराधिक न्याय प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिये किया जाता रहा है।
रिहाई के आँकड़े
किंतु, रिपोर्ट में एक नए और महत्त्वपूर्ण पहलू को शामिल करते हुए रिहाई योग्य और वस्तुतः रिहा किये गए लोगों की संख्या भी दर्शाई गई हैं। रिहाई की यह प्रक्रिया आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 436A के अंतर्गत कार्यान्वित होती है जो विचाराधीन कैदी को व्यक्तिगत मुचलके (बांड) पर रिहा करने की अनुमति देती है, बशर्ते यदि उसने दोषी सिद्ध होने पर निर्धारित अधिकतम सजा में से आधी सजा काट ली हो। वर्ष 2016 में 1,557 विचाराधीन कैदी धारा 436A के अंतर्गत रिहाई योग्य पाए गए थे जिनमें से केवल 929 कैदियों की रिहाई हुई। एमनेस्टी इंडिया ने अपने अध्ययन में पाया कि जेल अधिकारी प्रायः इस धारा से अवगत नहीं थे और यदि अवगत थे भी तो इसके अनुपालन को लेकर अनिच्छुक थे।
वर्ष 2017 में भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि सात वर्ष तक के अधिकतम कारावास वाले अपराधों के मामले में एक तिहाई कारावास की अवधि गुजार चुके विचाराधीन कैदियों को जमानत पर रिहा किया जा सकता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा अपनी आगामी रिपोर्ट में ऐसे विचाराधीन कैदियों की संख्या प्रकाशित करनी चाहिये ताकि विचाराधीन निरोध के प्रयोग पर एक नीति दृष्टिकोण प्राप्त हो सके।
भारतीय कारावास आँकड़े वर्ष 2016 में अधिकारियों व गैर-अधिकारियों (जिनमें ज़िला मजिस्ट्रेट व न्यायाधीश, सामाजिक कार्यकर्त्ता और शोधकर्त्ता शामिल हैं) द्वारा कारावास दौरे व पर्यवेक्षण की संख्या का उल्लेख नहीं किया गया है। ये आँकड़े कारावासों के स्वतंत्र पर्यवेक्षण पर कुछ सूचनाएँ उपलब्ध कराने में सहायक हो सकते हैं। कारावास में कैदियों के उत्पीड़न एवं अन्य बद्दतर व्यवहार का खुलासा करने, पारदर्शिता में वृद्धि और कारागार में शक्ति विषमता को संतुलित करने में ये सूचनाएँ लाभदायक हो सकती हैं।
मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ
कारावासों के दौरे और पर्यवेक्षण की प्रासंगिकता कारावासों में हुई ‘अस्वाभाविक’ मौतों (Unnatural Death) से रेखांकित होती है जो वर्ष 2015 की 115 मौतों की तुलना में वर्ष 2016 में दोगुनी (231) नज़र आई। कैदियों द्वारा आत्महत्याओं के मामले में भी 28 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जहाँ वर्ष 2015 में 77 कैदियों की तुलना में वर्ष 2016 में 102 कैदियों द्वारा आत्महत्या के मामले सामने आए। इस परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि वर्ष 2014 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने कहा था कि औसतन एक व्यक्ति बाहरी परिवेश की तुलना में कारावास में आत्महत्या करने की (डेढ़ गुना अधिक) संभावना रखता है। यह कारावास में मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं की व्यापकता पर प्रकाश डालता है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2016 में कारागार में लगभग 6,013 कैदी ऐसे थे जो मानसिक रोग के शिकार थे। ब्यूरो ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि कारागार में प्रवेश के पहले इन कैदियों की मानसिक दशा कैसी थी, ऐसे में कारागार परिदृश्य का इन कैदियों पर पड़े प्रभाव का निर्धारण कर पाना कठिन है।
रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में प्रत्येक 21,650 कैदियों पर मात्र एक मानसिक स्वास्थ्य पेशेवर की सेवा प्राप्त थी और देश के केवल छह राज्यों व एक केंद्रशासित प्रदेश में मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक की सेवा उपलब्ध थी। मानसिक रोगों के शिकार कैदियों की सर्वाधिक संख्या वाले उत्तर प्रदेश, ओडिशा और मध्य प्रदेश राज्यों में एक भी मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक की सेवा उपलब्ध नहीं थी।
निष्कर्ष
समग्र रूप से देखें तो इस रिपोर्ट में कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मौजूद हैं जिनका उपयोग कारावास नीतियों पर संवाद के लिये किया जा सकता है। लेकिन ये संवाद सीमित ही रहेंगे और आपराधिक न्याय प्रणाली के कार्यकरण से अवगत होने का जनता का अधिकार अवरुद्ध ही रहेगा। यदि महत्त्वपूर्ण सूचनाओं को अत्यंत देरी से प्रकाश में लाया जाए अथवा बिना किसी उपयुक्त कारण के उन्हें गुप्त रखा जाए। कारावास संबंधी आँकड़ों के प्रकाशन में तत्परता व पारदर्शिता रखने में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की प्रकट अनिच्छा भारत में लोकतांत्रिक संवाद के लिये अनुकूल नहीं है।
प्रश्न: प्रायः कैदियों की स्थिति पर बहुत कम चर्चा की जाती है जिससे इनकी स्थिति और भी दयनीय हो जाती है। आपके विचार में कैदियों से जुड़े ऐसे कौन-से मुद्दे हैं जिन पर ध्यान देने की आवश्यकता है? विवेचना कीजिये।