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एडिटोरियल

  • 01 Mar, 2019
  • 16 min read
कृषि

जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव और बचाव के उपाय

संदर्भ

आज इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा होगा जिस पर जलवायु परिवर्तन का कोई प्रभाव न पड़ा हो। जलवायु परिवर्तन में हर किसी को चोट पहुँचाने की क्षमता है, लेकिन किसानों के इसकी चपेट में आने की संभावना सबसे अधिक रहती है और वे इससे सर्वाधिक प्रभावित होते भी हैं। भारत में कृषि प्रमुखतः मौसम पर आधारित है और जलवायु परिवर्तन की वज़ह से होने वाले मौसमी बदलावों का इस पर बेहद असर पड़ता है। जलवायु परिवर्तन के कारण हुई तापमान वृद्धि से कृषि प्रभावित होती है, इसलिये यह ज़रूरी है कि किसानों को यह पता होना चाहिये कि इस समस्या का सामना कैसे किया जाए।

लगातार बढ़ रही है खाद्यान्नों की मांग

वैश्विक आबादी बढ़ने के साथ खाद्यान्नों की वैश्विक मांग में भी इज़ाफा हो रहा है। विकसित देशों में रहने वाले लोगों के भोजन में प्रोटीन की मात्रा अधिक रहती है। खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि खाद्य आपूर्ति और मांग के बीच अंतर को कम करने के लिये वैश्विक कृषि उत्पादन 2050 तक दोगुना करने की आवश्यकता होगी।

चिंताएँ

  • असमान वर्षा होने की वज़ह से हमारे देश में फसलों का खराब होना आम बात है। कई गाँवों में देखने को मिलता है कि हरियाली का नामो-निशान तक नहीं है और किसानों के लिये पशुओं का पेट भर पाना एक बड़ी चुनौती बन गया है।
  • होने वाले नए परिवर्तनों को तुरंत अपनाने में समस्या उत्पन्न होती है। हर मौसम में किसान अलग-अलग फसल लेते हैं या उनका सम्मिश्रण करते हैं। बोरवेल, ट्रैक्टर तथा अन्य कृषि मशीनरी पर उन्हें भारी खर्च करना पड़ता है।
  • फसल के लगातार प्रभावित होने की वज़ह से ऐसे किसानों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है, जो गाँव में अपनी खेती की ज़मीन छोड़कर निकटवर्ती शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। शहरों में इन किसानों को केवल मज़दूरी का ही काम मिल पाता है क्योंकि उनके पास किसी भी प्रकार का कौशल नहीं होता।
  • भारत इस मामले में भाग्यशाली है कि उसके हिस्से में मानसून की अच्छी वर्षा आती है, लेकिन बढ़ते तापमान की समस्या से भी देश को दो-चार होना पड़ता है।

वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक

वैश्विक जलवायु जोखिम सूचकांक (Global Climate Risk Index-CRI) 2019 में भारत को 14वें स्थान पर रखा गया है। इस रैंकिंग में देश के चार पड़ोसी और अधिक ऊँचे स्थान पर हैं- म्याँमार तीसरे, बांग्लादेश सातवें, पाकिस्तान आठवें और नेपाल ग्यारहवें स्थान पर है। यह सूचकांक स्पष्ट करता है कि भारत के ये चारों पड़ोसी देश चरम (Extreme) मौसमी घटनाओं से अधिक प्रभावित होते हैं।

यह सूचकांक मौत और आर्थिक नुकसान के मामले में चरम मौसमी घटनाओं (तूफान, बाढ़, भीषण गर्मी इत्यादि) के मात्रात्मक प्रभाव का विश्लेषण करता है। इन प्रभावों का लेखा-जोखा पूर्ण रूप में और साथ ही संबंधित शर्तों के साथ रखता है।
इस सूचकांक में जनसंख्या के समायोजन के कारण बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल को भारत से ऊपर रखा गया है। आर्थिक प्रभाव का आकलन करने के लिये CRI प्रत्येक देश के प्रति इकाई सकल घरेलू उत्पाद की हानि को भी देखता है। इस वर्ष के सूचकांक में जलवायु जोखिम सूचकांक के पहले के परिणामों की पुन: पुष्टि की गई है कि आमतौर पर कम विकसित देश औद्योगिक देशों की तुलना में चरम मौसमी घटनाओं से अधिक प्रभावित होते हैं।

सूचकांक रिपोर्ट में इस बात का सुझाव दिया गया है कि काटोविस जलवायु शिखर सम्मेलन में वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य और अनुकूलन संचार दिशा-निर्देशों सहित पेरिस समझौते के कार्यान्वयन के लिये आवश्यक 'नियम पुस्तिका' को अपनाया जाना चाहिये।

  • भारत में 120 मिलियन हेक्टेयर ऐसी भूमि है, जो किसी-न-किसी प्रकार की कमी (Degradation) से ग्रस्त है। लघु तथा सीमांत किसान इससे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। एक अनुमान के अनुसार, भयंकर सूखे की वज़ह से उन्हें घरेलू आय में 24 से 58% की कमी का सामना करना पड़ सकता है और घरेलू गरीबी में 12 से 33% की वृद्धि हो सकती है।
  • भारत की कुल कृषि भूमि का 67% भाग मानसून तथा अन्य मौसमों में होने वाली वर्षा पर निर्भर है। कृषि की मौसम पर अत्यधिक निर्भरता की वज़ह से फसलों पर लागत अधिक आती है, विशेषकर मोटे अनाजों की फसलों पर, जिनकी खेती अधिकतर उन क्षेत्रों में होती है जो वर्षा पर निर्भर होते हैं।
  • 2050 तक गर्मियों (मानसून) में होने वाली वर्षा में 70% तक गिरावट की भविष्यवाणी भारतीय कृषि की सेहत को बिगाड़ सकती है।
  • अनुमान लगाया है कि आने वाले 80 वर्षों में खरीफ फसलों के मौसम में औसत तापमान में 0.7 से 3.3°C की वृद्धि हो सकती है। इसके साथ वर्षा भी कमोबेश प्रभावित होगी, जिसकी वज़ह से रबी के मौसम में गेहूँ की उपज में 22% की गिरावट आ सकती है तथा धान का उत्पादन 15% तक कम हो सकता है।

समाधान

  • संरक्षण कृषि (Conservation Farming) और शुष्क कृषि (Dryland Agriculture) को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ प्रत्येक गाँव को विभिन्न मौसमों में फसल कीटों और महामारियों के बारे में मौसम आधारित पूर्व चेतावनी के साथ समय पर वर्षा के पूर्वानुमान की जानकारी दी जानी चाहिये।
  • कृषि अनुसंधान कार्यक्रमों के तहत शुष्क भूमि अनुसंधान पर पुनः ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। इसके तहत ऐसे बीजों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये जो सूखे जैसी स्थिति में फसल उत्पादन जोखिम को 50% तक कम कर सकते हैं।
  • गेहूँ की फसल रोपण के समय में कुछ फेरबदल करने पर विचार किया जाना चाहिये। एक अनुमान के अनुसार, ऐसा करने से जलवायु परिवर्तन से होने वाली क्षति को 60-75% तक कम किया जा सकता है।
  • किसानों को मिलने वाले फसल बीमा कवरेज़ और उन्हें दिये जाने वाले कर्ज़ की मात्रा बढ़ाने की आवश्यकता है। सभी फसलों को बीमा कवरेज देने के लिये इस योजना का विस्तार किया जाना चाहिये। फसल बीमा के लिये ग्रामीण बीमा विकास कोष (Rural Insurance Development Fund) का दायरा बढ़ाया जाना चाहिये। कर्ज़ पर लिये जाने वाले ब्याज पर किसानों को मिलने वाली सब्सिडी को सरकार की सहायता से बढ़ाया जाना चाहिये। इस संबंध में सरकार द्वारा हाल ही में लघु और सीमांत किसानों को प्रतिमाह दी जाने वाली सहायता राशि एक स्वागत योग्य कदम है।

वास्तविक प्रतिपूरक वनीकरण को प्रोत्साहन देने के साथ इस पर कड़ी निगरानी रखने की आवश्यकता है, क्योंकि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिये वन संसाधनों को संरक्षित करना बेहद ज़रूरी है। इसके लिये भारतीय वन सेवा की संरचना में बदलाव किया जा सकता है और इसे पुलिस और सेना की तरह अधिकार दिये जा सकते हैं, विशेषकर पर्यावरण के क्षेत्र में ऐसा आसानी से किया जा सकता है। इसके लिये उनके प्रशिक्षण की बेहतरीन व्यवस्था होने के साथ वन्यजीव, पर्यटन में विशेषज्ञता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। अन्य सेवाओं से प्रतिनियुक्ति पर अधिकारियों को बुलाने पर रोक लगनी चाहिये, इसे एक विशिष्ट सेवा का रूप देने के लिये ऐसा करना अपरिहार्य है।

  • वन्यजीव विरासत शहरों (Wildlife Heritage Towns) पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिये। साथ ही राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के निकट स्थित सवाई माधोपुर, भरतपुर, चिकमगलूर और जबलपुर आदि जैसे शहरों को उन्नत अपशिष्ट पुनर्चक्रण प्रक्रियाओं के साथ ग्रीन स्मार्ट शहरों में परिवर्तित कर किया जा सकता है।
  • वन धन योजना को जिस प्रकार राजस्थान में राज्य सरकार द्वारा अपनाया गया है, इसे ठीक उसी तरह गैर-संरक्षित (मौजूदा राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों के बाहर) वनों को बचाने के लिये एक ग्रीन मिशन की तरह अपनाया जा सकता है।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत वन्यजीव पर्यटन को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इससे पिछड़े ज़िलों में अंतर करते हुए संरक्षित क्षेत्रों को बढ़ाने में मदद मिलेगी।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव भारत की खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करेगा और इससे हमारे पशुधन के लिये चारे की आपूर्ति में भी कमी आएगी।
  • विवेकपूर्ण निवेश और नीतिगत सुधार भारत को जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीला (Resilient) बनाने में मदद कर सकते हैं।

जलवायु स्मार्ट कृषि

देश में जलवायु-स्मार्ट कृषि (Climate Smart Agriculture-CSA) विकसित करने की ठोस पहल की गई है और इसके लिये राष्ट्रीय स्तर की परियोजना भी लागू की गई है। यह एक एकीकृत दृष्टिकोण है, जिसमें फसली भूमि, पशुधन, वन और मत्स्य पालन के प्रबंधन का प्रावधान होता है। यह परियोजना खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन की परस्पर चुनौतियों का सामना करने के लिये बनाई गई है।

तीन परिणामों पर लक्षित

  1. उत्पादकता में वृद्धि: खाद्य और पोषण सुरक्षा में सुधार के लिये खाद्यान्नों का अधिक उत्पादन और दुनिया के 75 प्रतिशत गरीबों की आय को बढ़ाना जो ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं और मुख्य रूप से आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर हैं।
  2. लचीलेपन में वृद्धि: सूखा, फसल कीट, बीमारी और अन्य किसी प्रकार के खतरे की चपेट में कमी लाने के साथ कम अवधि वाले मौसम और अनिश्चित मौसम पैटर्न जैसे दीर्घकालिक खतरों के प्रति अनुकूलन क्षमता में सुधार।
  3. कम उत्सर्जन: उत्पादित प्रत्येक कैलोरी भोजन के लिये कम उत्सर्जन, कृषि के लिये वनों की कटाई न करना और वातावरण से कार्बन अवशोषण के तरीकों की पहचान करना।

जलवायु स्मार्ट कृषि में अनुकूलन, शमन और अन्य प्रथाओं का समावेश है जो जलवायु परिवर्तन समस्या का प्रतिरोध करके और पुनः जल्द अनुकूलन प्राप्त करके विभिन्न जलवायु संबंधी कठिनाइयों का प्रत्युत्तर देने के लिये प्रबंधकीय क्षमता को बढ़ाती है।

शून्य जुताई प्रौद्योगिकी और लेज़र भूमि स्तर

परंपरागत खेती की तुलना में शून्य जुताई और लेज़र भूमि स्तर के मामले में तकनीकी दक्षता अधिक पाई जाती है। लेजर भूमि स्तर और शून्य जुताई प्रौद्योगिकी पारंपरिक जुताई की तुलना में अधिक टिकाऊ पाई गई है। यह देखने को मिला है कि यदि किसान जलवायु स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों को अपनाता है तो उसके जोखिम स्तर में कमी के साथ अपेक्षित आय में वृद्धि होगी। लेकिन जलवायु स्मार्ट कृषि प्रौद्योगिकियों से प्राप्त कई प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभों के बावजूद यह अभी तक भारत में लोकप्रिय नहीं हो पाई है।

  • वर्तमान में चल रहे जलवायु परिवर्तन के किसी भी प्रकार के रूपांतरण के लिये जलवायु न्याय (Climate Justice) की आवश्यकता होगी, जिसमें नीतिगत सुधार शामिल हैं और जो भारत को जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीला बनाने में मदद कर सकते हैं। इस काम को पश्चिम में ग्रीन शहरों के साथ भारत के उभरते स्मार्ट शहरों को जोड़कर संयुक्त अनुसंधान और विकास साझेदारी के विस्तार से अंजाम दिया जा सकता है। जैसे अमेरिका और चीन ने मिलकर स्वच्छ ऊर्जा अनुसंधान केंद्र की स्थापना की है।

यूरोपीय आयोग संयुक्त अनुसंधान केंद्र की रिपोर्ट

दुनिया की आबादी जिस रफ्तार से बढ़ रही है, उस हिसाब से खाद्यान्न उत्पादन नहीं बढ़ रहा। इसके साथ-साथ कृषि भूमि के उपजाऊपन में भी कमी आ रही है। यूरोपीय आयोग के संयुक्त अनुसंधान केंद्र की रिपोर्ट वर्ल्ड एटलस ऑफ डेजर्टीफिकेशन के आँकड़ों के अनुसार आने वाले दो-तीन दशकों में दुनियाभर में खाद्यान्न की कमी हो सकती है। भारत, चीन और उप-सहारा अफ्रीकी देशों में स्थिति सबसे गंभीर होगी।

रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन की वजह से प्रदूषण, भू-क्षरण और सूखा पड़ने से पृथ्वी की तीन- चौथाई भूमि क्षेत्र की गुणवत्ता कम हो गई है। यदि ऐसे ही भूमि की गुणवत्ता कम होती रही तो इससे कृषि उपज को नुकसान होगा और वर्ष 2050 तक वैश्विक अनाज उत्पादन में काफी कमी आ सकती है।

दुनिया की आबादी 2050 में लगभग नौ अरब हो जाएगी और इसके लिये मौजूदा खाद्यान्न उत्पादन से दोगुने की ज़रूरत पड़ेगी। भारत जैसे कृषि प्रधान देशों को इसके लिये अभी से नए उपाय करने होंगे। इसके साथ ही अपनी आबादी पर भी लगाम लगानी होगी।

The Hindu में 27 फरवरी को प्रकाशित आलेख Smart farming in a warm world पर आधारित


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