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डेली न्यूज़

  • 29 Jul, 2020
  • 59 min read
जैव विविधता और पर्यावरण

बाघ संगणना- 2018 की विस्तृत स्थिति रिपोर्ट

प्रीलिम्स के लिये:

बाघ संगणना-2018, सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा, अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस, कैमरा ट्रैप सर्वे ऑफ़ वाइल्डलाइफ़, M-STrIPES 

मेन्स के लिये:

भारत में बाघ संरक्षण

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री’ (MoEFCC) द्वारा ‘अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस’ के अवसर पर ‘बाघ संगणना-2018’ की विस्तृत स्थिति (Detail Status of Tigers Census- 2018) रिपोर्ट जारी की गई।

प्रमुख बिंदु:

  • 'भारत में बाघों की स्थिति' की सारांश रिपोर्ट जुलाई 2019 में प्रधानमंत्री द्वारा जारी की गई थी। 
  • विस्तृत रिपोर्ट में, वर्ष 2018-19 सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी कि तुलना पूर्व के तीन सर्वेक्षणों (वर्ष 2006, वर्ष 2010 और वर्ष 2014) के साथ की गई है।

सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा (St. Petersburg Declaration):

  • ' प्रतिवर्ष 29 जुलाई को बाघ संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिये 'अंतर्राष्ट्रीय बाघ दिवस’ आयोजित किया जाता है, इसकी शुरुआत वर्ष 2010 में 'सेंट पीटर्सबर्ग टाइगर समिट' के समय की गई थी।  
  • 'सेंट पीटर्सबर्ग टाइगर समिट' के दौरान बाघ संरक्षण पर ‘सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा' (Petersburg Declaration) पर हस्ताक्षर किये गए जिसमें सभी ‘टाइगर रेंज कंट्रीज़’ द्वारा 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का संकल्प लिया गया था।
    • वर्तमान में  भारत, बांग्लादेश, भूटान, कंबोडिया, चीन, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, नेपाल, रूस, थाईलैंड और वियतनाम सहित कुल 13 देश 'टाइगर रेंज कंट्रीज़' में शामिल है।
  • 2,967 बाघों की संख्या के साथ भारत ने चार वर्ष पूर्व ही ‘सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा' के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।  
    • यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य है कि वर्ष 2006 में भारत में बाघों की संख्या 1,400 के आसपास थी।

St-Petersburg

विस्तृत रिपोर्ट की अद्वितीयता:

  • बाघ के अलावा अन्य सह-शिकारियों और प्रजातियों के लिये ‘बहुतायत सूचकांक’ (Abundance Index) तैयार किये गए हैं।
    •  ‘बहुतायत सूचकांक’ किसी क्षेत्र में सह-शिकारियों और प्रजातियों के सापेक्षिक वितरण को दर्शाता है।
  • पहली बार 'सभी कैमरा ट्रैप साइट्स' पर बाघों का लिंगानुपात दर्ज़ किया गया है।
  • रिपोर्ट में पहली बार बाघों की आबादी पर मानव-जनित प्रभाव के संबंध में विस्तृत वर्णन दिया गया है।
  • किसी टाइगर रिज़र्व के विशेष हिस्से में (Pockets ) में बाघ की बहुतायतता को पहली बार दर्शाया गया है।
  • बाघ संगणना-2018 को दुनिया के सबसे बड़े 'कैमरा ट्रैप सर्वे ऑफ वाइल्डलाइफ' के रूप में 'गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड' के रूप में दर्ज किया गया है।
  •  रिपोर्ट में प्रमुख 'बाघ गलियारों' की स्थिति का मूल्यांकन किया गया है और सुभेद्य क्षेत्रों;  जहाँ विशेष संरक्षण की आवश्यकता है, पर प्रकाश डाला गया है।
  • बाघ संगणना के लिये 'मॉनिटरिंग सिस्‍टम फॉर टाइगर्स इंटेंसिव प्रोटेक्‍शन एंड इकोलॉजिकल स्‍टेट्स (Monitoring system for Tigers’ Intensive Protection and Ecological Status) अर्थात M-STrIPES का इस्‍तेमाल किया गया।

रिपोर्ट संबंधी तथ्यात्मक जानकारी:

  • राष्ट्रीय विश्लेषण:
    • रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2006-2018 के बीच भारत में बाघों की संख्या में प्रतिवर्ष 6 प्रतिशत की वृद्धि दर हुई है।
    • वर्ष 2014 की तुलना में वर्ष 2018 में बाघों की संख्या में लगभग 33% की वृद्धि दर्ज की गई है।
    • वैश्विक बाघों की आबादी की लगभग 70 प्रतिशत भारत में है। 
    • पश्चिमी घाट, लगभग 724 बाघों की संख्या के साथ दुनिया का सबसे बड़ा सतत् बाघ आबादी वाला क्षेत्र है। 
    • इसमें सतत् क्षेत्र नागरहोल-बांदीपुर-वायनाड-मुदुमलाई- सत्यमंगलम-बीआरटी ब्लॉक शामिल हैं।
  • क्षेत्रीय विश्लेषण:
    • बाघों की सबसे अधिक संख्‍या मध्‍य प्रदेश में (526) पाई गई, इसके बाद कर्नाटक (524) और उत्‍तराखंड का स्थान (442) है।
    • पूर्वोत्तर भारत के अलावा छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा में बाघों की स्थिति में लगातार गिरावट आई है, जो चिंता का विषय है।
    • गौरतलब है कि इस नई रिपोर्ट में तीन टाइगर रिज़र्व बुक्सा (पश्चिम बंगाल), डंपा (मिज़ोरम) और पलामू (झारखंड) में बाघों की कोई उपस्थिति दर्ज नहीं की गई है।

बाघों की बढ़ती संख्या का महत्त्व:

  • बाघ और अन्य वन्य-जीव किसी भी देश की ‘सॉफ्ट पावर’ (Soft Power) के रूप में कार्य करते हैं,  भारत अंतर्राष्ट्रीय मोर्चे पर अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन कर सकता है।
  • वन्य जीवों के संरक्षण की दिशा में किये गए प्रयास भारत को ‘पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक’ में  रैंकिंग सुधारने में मदद करेंगे। 

बाघ संरक्षण के समक्ष चुनौतियाँ:

  • बाघों के प्राकृतिक निवास स्थान और शिकार स्थान छोटे होने के कारण मानव-वन्यजीव संघर्ष देखने को मिलता है। 
  • बाघ निवास स्थानों को अधिकांशतः मानव गतिविधियों द्वारा नष्ट किया जा रहा है। वनों और घास के मैदानों को कृषि ज़रूरतों के लिये परिवर्तित किया जा रहा है।
  • कुछ टाइगर रिज़र्व बाघों की संख्या के हिसाब से पूर्ण क्षमता को प्राप्त कर चुके हैं। इन टाइगर रिज़र्व में अतिरिक्त बाघों के लिये कोई आवास स्थान उपलब्ध नहीं है। 
  • कुछ टाइगर रिज़र्वों में गिरती बाघों की संख्या भी चिंता का एक महत्त्वपूर्ण विषय है। 

सरकार की नवीन पहल:

  • सरकार मानव-पशु संघर्ष की चुनौती से निपटने के लिये एक कार्यक्रम पर कार्य कर रही है, जिसके तहत वनों में ही जानवरों को जल और चारा उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाएगा। 
  • इसके लिये पहली बार  LiDAR (Light Detection and Ranging) आधारित सर्वेक्षण तकनीक का उपयोग किया जाएगा। 

स्रोत: पीआईबी


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

हॉन्गकॉन्ग प्रत्यर्पण संधि का निलंबन

प्रीलिम्स के लिये 

नानकिंग संधि, एक देश दो प्रणाली

मेन्स के लिये  

चीन-हॉन्गकॉन्ग विवाद, वैश्विक शांति पर चीन की बढ़ती आक्रामकता का प्रभाव    

चर्चा में क्यों?

हाल ही में चीन ने कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ने  साथ ‘ हॉन्गकॉन्ग प्रत्यर्पण संधि’ तथा ‘आपराधिक न्याय सहयोग समझौते’ (Criminal Justice Cooperation Agreement) को निलंबित करने की घोषणा की है।

प्रमुख बिंदु:

  • चीन के इस निर्णय को कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन द्वारा पहले ही हॉन्गकॉन्ग के साथ प्रत्यर्पण संधि को निलंबित किये जाने की प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा रहा है।
    • गौरतलब है कि इससे पहले चीन द्वारा हॉन्गकॉन्ग में विवादित राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किये जाने के विरोध में ब्रिटेन, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने हॉन्गकॉन्ग के साथ अपनी प्रत्यर्पण संधि को निलंबित कर दिया था।
  • ध्यातव्य है कि कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन ‘फाइव आइज़’ (Five Eyes) नामक सूचना गठबंधन का हिस्सा हैं। इस समझौते के अन्य दो सदस्यों में से एक न्यूज़ीलैंड ने 28 जुलाई को हॉन्गकॉन्ग के साथ अपनी प्रत्यर्पण संधि को निलंबित कर दिया था तथा अमेरिका ने भी इस संधि को निलंबित करने के संकेत दिये हैं। 

पृष्ठभूमि:

  • वर्ष 1842 में चीन ने ‘प्रथम अफीम युद्ध’ के शंति समझौते के अंतर्गत ‘नानकिंग संधि’ (Treaty of Nanking) के तहत हॉन्गकॉन्ग को ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया था। 
  • वर्ष 1997 में ब्रिटिश सरकार द्वारा हॉन्गकॉन्ग को चीन वापस दे दिया गया और  हॉन्गकॉन्ग चीन के  ‘विशेष प्रशासनिक क्षेत्रों’ (Special Administrative Regions) का हिस्सा बन गया।
  • हॉन्गकॉन्ग में  ‘बेसिक लॉ’ (Basic Law) नामक एक लघु संविधान द्वारा प्रशासन का कार्य संपादित होता है, जो हॉन्गकॉन्ग में ‘एक देश दो प्रणाली’ (One Country, Two Systems) की पुष्टि करता है।
  • वर्ष 1984 की  ‘चीन-ब्रिटिश संयुक्त घोषणा’ के तहत चीन ने वर्ष 1997 से लेकर अगले 50 वर्षों तक हॉन्गकॉन्ग की उदार नीतियों, शासन प्रणाली, स्वतंत्र न्यायपालिका और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान करने की घोषणा की थी।
  •  30 जून, 2020 को चीन द्वारा हॉन्गकॉन्ग में एक नए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून को लागू किया गया,  यह कानून चीन को हॉन्गकॉन्ग में किसी न्याय पीठ या राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी को शामिल किये बगैर किसी व्यक्ति पर मामले चलाने का अधिकार देता है।   

चीन के विरूद्ध अन्य देशों/समूहों की कार्रवाई:

  • हाल ही में यूरोपीय संघ (European Union- EU) ने  हॉन्गकॉन्ग में  चीन की कार्रवाई के बाद हॉन्गकॉन्ग को ऐसे उपकरणों के निर्यात को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया था, जिनका प्रयोग लोगों की निगरानी और दमन के लिये किया जा सकता है।
  • हालाँकि चीन के विरूद्ध कार्रवाई के लिये सभी EU सदस्यों को सहमत कर पाने का कार्य बहुत आसान नहीं रहा है,  क्योंकि कई यूरोपीय देशों के लिये चीन एक बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा है।
  • इससे पहले इसी महीने यूरोपीय देशों के विदेश मंत्रियों की एक बैठक में फ्राँस और  जर्मनी ने ‘दोहरी उपयोग तकनीक’ या ‘डुअल-यूज़ टेक्नोलॉजी’ (Dual-Use Technology) के निर्यात पर रोक लगाने का प्रस्ताव रखा था, जिसपर 30 जुलाई को हस्ताक्षर किये जाएँगे। 
    • दोहरी उपयोग तकनीक’ या ‘डुअल-यूज़ टेक्नोलॉजी से आशय ऐसी तकनीक से है जिनका उपयोग सामान्य नागरिक (असैनिक) उद्देश्यों के साथ ही सैनिक गतिविधियों में भी किया जा सकता है।  जैसे- रेडियो नेविगेशन सिस्टम और परमाणु ऊर्जा से जुड़ी तकनीकी आदि। 

हॉन्गकॉन्ग निवासियों को सहयोग: 

  •  निर्यात पर प्रतिबंधों के साथ ही EU द्वारा हॉन्गकॉन्ग निवासियों को सहयोग प्रदान करने के लिये कुछ विशेष कदम उठाने का निर्णय लिया गया है। 
  • इसके तहत वीजा, छात्रवृत्ति और अकादमिक दौरों के माध्यम से हॉन्गकॉन्ग के नागरिकों के लिये यूरोप यात्रा को आसान बनाने का प्रयास किया जाएगा।

कार्रवाई का कारण:

  • ब्रिटेन के अनुसार,  यह सुरक्षा कानून हॉन्गकॉन्ग में स्वतंत्र न्यायपालिका के साथ स्वतंत्रता की गारंटी का उल्लंघन करता है, जो वर्ष 1997 से हॉन्गकॉन्ग को विश्व के सबसे महत्वपूर्ण व्यापार और वित्तीय केंद्र के रूप में बनाए रखने में सहायक रहे हैं।
  • साथ ही ब्रिटेन ने चीन पर COVID-19 के बारे में सही जानकारी न  देने का आरोप लगाया है। 

चीन की प्रतिक्रिया:

  • चीन ने ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन सहित उसके विरोध में खड़े अन्य देशों पर चीन के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया है।
  • साथ ही चीन ने हॉन्गकॉन्ग में लागू किये गए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून का बचाव करते हुए इसे हॉन्गकॉन्ग में शांति स्थापित करने के लिये महत्त्वपूर्ण बताया है।
  • चीन के अनुसार, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यू.के ने इस मामले में हॉन्गकॉन्ग के साथ न्यायिक सहयोग के राजनीतिकरण करने के गलत निर्णय से  न्यायिक सहयोग के आधार को गंभीर क्षति पहुँचाई है।
  • चीन के अनुसार, इन देशों ने हॉन्गकॉन्ग के साथ अपनी प्रत्यर्पण संधि को एकतरफा रूप से निलंबित करने के लिये ‘राष्ट्रीय सुरक्षा कानून’ को एक बहाने के रूप में प्रयोग किया है।  

स्त्रोत: द हिंदू


भारतीय अर्थव्यवस्था

NRIs के लिये FDI मापदंडों में संशोधन

प्रीलिम्स के लिये

प्रत्यक्ष विदेशी निवेश संबंधी नए नियम, अनिवासी भारतीय

मेन्स के लिये

एयर इंडिया के विनिवेश से संबंधी विभिन्न महत्त्वपूर्ण पहलू, विमानन क्षेत्र पर COVID-19 का प्रभाव

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार ने नागरिक विमानन (Civil Aviation) से संबंधित प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) मानदंडों में संशोधन की अधिसूचना जारी की है, जिसके तहत ‘अनिवासी भारतीयों' (Non-Resident Indian-NRIs) को एयर इंडिया की 100 प्रतिशत हिस्सेदारी की अनुमति दी जाएगी।

प्रमुख बिंदु

  • सरकार ने यह अधिसूचना एयर इंडिया (Air India) के रणनीतिक विनिवेश की मौजूदा प्रक्रिया के बीच जारी की है।
  • ध्यातव्य है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने इसी वर्ष मार्च माह में अनिवासी भारतीयों (NRIs) को अनुमति देने के लिये FDI मानदंडों में बदलावों को मंज़ूरी दी थी।
  • इस संबंध में सरकार द्वारा अधिसूचना में कहा गया है कि ‘अनिवासी भारतीयों (NRIs) के अतिरिक्त एयर इंडिया में कोई भी विदेशी निवेश, जिसमें विदेशी एयरलाइंस द्वारा किया जाने वाला निवेश भी शामिल है, प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से 49 प्रतिशत से अधिक नहीं होगा।’
  • इस अधिसूचना से पूर्व अनिवासी भारतीय (NRIs) भी एयर इंडिया में केवल 49 प्रतिशत हिस्सेदारी के लिये ही बोली लगा सकते थे।
  • इस निर्णय का महत्त्व
    • ध्यातव्य है कि सरकार के इस हालिया निर्णय का मुख्य उद्देश्य एयर इंडिया के रणनीतिक विनिवेश की प्रक्रिया को और अधिक सरल तथा आकर्षक बनाना है।
    • विशेषज्ञों के अनुसार, सरकार का यह निर्णय एयर इंडिया के रणनीतिक विनिवेश की प्रक्रिया में एक बड़ा कदम होगा,  अनुमान के अनुसार विनिवेश की प्रक्रिया मौज़ूदा वर्ष के अंत तक समाप्त हो जाएगी।
    • गौरतलब है कि बीते माह केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी के कारण वैश्विक स्तर पर उत्पन्न हुई बाधा के मद्देनज़र तीसरी बार एयर इंडिया के लिये बोली लगाने की समय सीमा को बढ़ा दिया था।
      • बोली लगाने की समय सीमा को 2 माह के लिये 31 अगस्त तक बढ़ाया गया था।
  • एयर इंडिया का रणनीतिक विनिवेश
    • गौरतलब है कि केंद्र सरकार ने घाटे और कर्ज के बोझ तले दबी एयर इंडिया के विनिवेश की प्रक्रिया को इसी वर्ष जनवरी माह में एक नए प्रस्ताव के साथ पुनः शुरू किया था।
    • इससे पूर्व भी वर्ष 2018 में सरकार ने एयर इंडिया के रणनीतिक विनिवेश का प्रस्ताव रखा था, किंतु विभिन्न कारणों के परिणामस्वरूप सरकार को इसकी हिस्सेदारी खरीदने के लिये कोई भी बोलीदाता नहीं मिला था।
    • हालाँकि इस नए प्रस्ताव के बाद भी सरकार को खरीदारों अथवा बोलीदाताओं को आकर्षित करने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है और बोली की अवधि को कई बार बढ़ाया गया है।
    • आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 2007 में एयर इंडिया (अंतर्राष्ट्रीय परिचालन) के साथ तत्कालीन इंडियन एयरलाइंस (घरेलू संचालन) के विलय के बाद से अब तक एयर इंडिया ने कभी भी लाभ दर्ज नहीं किया है।
    • एयर इंडिया के विनिवेश का एक मुख्य कारण उसके कर्ज के निपटान में सरकार की असमर्थता भी है, आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2017 तक एयर इंडिया पर कुल 52000 करोड़ रुपए का ऋण मौजूद था।
  • विनिवेश में COVID-19 की चुनौती
    • गौरतलब है कि एयर इंडिया पहले से ही नुकसान और कर्ज के बोझ के तले दबी हुई है और ऐसे में कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी ने एयर इंडिया समेत भारत के संपूर्ण विमानन क्षेत्र को काफी प्रभावित किया है।
    • COVID-19 के संक्रमण के कारण दुनिया भर के लगभग सभी देशों ने आंशिक अथवा पूर्व लॉकडाउन लागू किया था और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों पर भी पूरी तरह से रोक लगा दी गई थी, ऐसे में भारत की सभी विमानन कंपनियों को नुकसान का सामना करना पड़ा था।
    • वहीं दूसरी ओर COVID-19 से संबंधित प्राथमिक जाँच उपकरण स्थापित करने के कारण कंपनियों की लागत में काफी वृद्धि हुई है तथा उनके लिये सोशल डिस्टेंसिंग जैसे मानकों का पालन करना काफी चुनौतीपूर्ण हो गया है।
      • घरेलू स्तर पर सेवाएँ प्रदान करने वाली कंपनियों को भी काफी नुकसान हुआ है।
    • ऐसी स्थिति में एयर इंडिया हेतु बोलीदाताओं की खोज करना सरकार के लिये काफी संघर्षपूर्ण कार्य होगा, क्योंकि भारत समेत वैश्विक अर्थव्यवस्था मंदी का सामना कर रही है, और इस स्थिति में कोई भी निवेश एक भारी भरकम कर्ज के तले दबी कंपनी में निवेश क्यों ही करना चाहेगा।
      • हालाँकि विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत के विमानन क्षेत्र की स्थिति सदैव ऐसी नहीं रहेगी और इसलिये एयर इंडिया में निवेश दीर्घकाल के लिये काफी अच्छा अवसर हो सकता है।

एयर इंडिया- इतिहास

  • एयर इंडिया की शुरुआत 15 अक्तूबर, 1932 को जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा (JRD Tata) द्वारा ‘टाटा एयर सर्विसेज़’ के रूप में की गई थी। वर्ष 1938 में टाटा एयर सर्विसेज़ का नाम बदलकर टाटा एयरलाइंस कर दिया गया और द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात् 29 जुलाई, 1946 को टाटा एयरलाइंस एक सूचीबद्ध कंपनी बन गई और इसका नाम बदलकर एयर इंडिया कर दिया गया। वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने वर्ष 1948 में एयर इंडिया की 49 प्रतिशत हिस्सेदारी का अधिग्रहण कर लिया। इसके पश्चात् वर्ष 1953 में भारत सरकार ने वायु निगम अधिनियम (Air Corporations Act) के माध्यम से एयर इंडिया की अधिकांश हिस्सेदारी का अधिग्रहण कर लिया और इसे ‘एयर इंडिया इंटरनेशनल लिमिटेड’ नया नाम दिया गया। 

स्रोत: द हिंदू


अंतर्राष्ट्रीय संबंध

यूरोपीय यूनियन रिकवरी डील

प्रीलिम्स के लिये:

यूरोपीय यूनियन के बारे में 

मेन्स के लिये:

यूरोपीय यूनियन रिकवरी डील का यूरोप एवं विश्व के अन्य देशों के आर्थिक हितों पर प्रभाव 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 27-सदस्यीय यूरोपीय संघ द्वारा एक लंबी परिचर्चा के बाद सदस्य देशों की अर्थव्यवस्था पर COVID-19 के नकारात्मक प्रभावों का सामना करने के लिये एक ऐतिहासिक समझौते पर सहमति व्यक्त की गई है।

प्रमुख बिंदु:

  • यूरोपीय यूनियन के सदस्य देशों में COVID-19 महामारी के कारण लगभग 130,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हुई है तथा महामारी के प्रभाव के कारण यूरोपीय यूनियन की जीडीपी वृद्धि दर वर्ष 2020 में 8 प्रतिशत पर संकुचित हो गई है।
  • महामारी के कारण विशेषकर इटली, स्पेन और पुर्तगाल जैसे कई देश में निवेशकों की वित्तीय स्थिति पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  • इस समझौते के तीन  मुख्य प्रावधान हैं-
    • अगले सात वर्षों में यूरोपीय संघ के लिये यूरो 1.1 ट्रिलियन का बजट।
    • COVID-19 से सर्वाधिक प्रभावित देशों के लिये 360 बिलियन यूरो के कम ब्याज वाले ऋण का वितरण।
    • सबसे अधिक प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं को 390 बिलियन यूरो ऋण का वितरण। 

रिकवरी फंड की विशेषताएँ:

हॉंलाकि इस राहत पैकेज को लागू करना अभी दूर की बात लग रहा है फिर भी इसकी कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

  • इसका आकार जो लगभग 2 ट्रिलियन डॉलर है या 150 लाख करोड़ रुपये है जो भारत की वार्षिक जीडीपी का 75 प्रतिशत है।
  • देशों  से व्यक्तिगत स्तर पर धन जुटाने के बजाय इस समय यूरोपीय संघ अनुदान और ऋण के लिये (कुल 750 बिलियन यूरो) बाज़ारों से पैसा उधार लेगा।
    • यूरोपीय संघ की नई पीढ़ी के लिये इस समझौते को आकार एवं संभावनाएँ देने के कारण कई विश्लेषकों ने इस समझौते की तुलना ‘हैमिल्टन’ से की है। 
    • ‘अलेक्जेंडर हैमिल्टन’अमेरिका के पहले ट्रेज़री सचिव थे तथा जिनका चेहरा 10 डॉलर बिल पर अंकित है। 
    • इन्होनें उन सभी राज्यों से उन ऋणों को पुन प्राप्त/अवशोषित किया जो राज्यों द्वारा क्रांति के दौरान संघीय सरकार से लिये गए थे। 
  • यूरोपीय संघ फंड राशि के भुगतान के लिये इस क्षेत्र में आंशिक रूप से कर लगाने में सक्षम होगा।
    • जिससे अगले सात वर्षों के लिये बजट विवरण के साथ, सदस्य राज्यों के बीच राजकोषीय समन्वय स्थापित किया जा सकेगा।
  • समग्र राहत पैकेज की लगभग एक तिहाई अर्थात 500 बिलियन यूरो राशि को जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिये निर्धारित किया गया है। 
    • इसका उपयोग उत्सर्जन-मुक्त कारों का निर्माण करने तथा ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने वाली तकनीकी के निर्माण में किया जाना है।  

समझौते का निहितार्थ:

  • यूरोपीय संघ के सकल घरेलू उत्पाद के संदर्भ में, इस समझौते का आकार लगभग 5 प्रतिशत है। 
  • अभी यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था के और अधिक अनुबंधित/संकुचित होने की संभावना बनी हुई है ऐसी स्थिति में यह समझौता कमज़ोर क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिये एक बेहतर कदम है।
  • समझौते को अनुसमर्थन मिलने के बाद इसके कार्यान्वयन में भी कठिनाई आ सकती है क्योंकि हंगरी और पोलैंड जैसे देशों द्वारा सस्ते ऋण और अनुदान न प्राप्त होने के कारण इस सुधार एजेंडे का विरोध किया जा सकता हैं।हालाँकि इस सौदे का राजनीतिक महत्व अधिक नहीं दिख रहा है।

क्रियान्वयन में समस्या:

वर्ष 2008-09 के वैश्विक वित्तीय संकट से निपटने के लिये यूरोपीय संघ द्वारा अर्थव्यवस्था की स्थिति को बेहतर करने के प्रयासों के दौरान यूरोपीय संघ की मज़बूत अर्थव्यवस्था (जर्मनी) एवं कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं (ग्रीस) के मध्य मतभेद और अधिक बढ़ गया है ।

  • इस दौरान कमज़ोर अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों को अपने व्यय में कटौती करने तथा समय पर ऋण का भुगतान करने के लिये आवश्यक वस्तुओ पर करों का भार बढ़ाने के लिये कहा गया जिसके परिणाम स्वरूप कई देशों में राजनैतिक अस्थिरता का माहौल उत्पन्न हो गया।
  • वर्ष 2016 में ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से अलग होने का निर्णय इसी अस्थिरता का परिणाम है।
  • यह समझौता  काफी हद तक फ्रेंको-जर्मन के बीच सहमति पर भी निर्भर है क्योंकि दोनों देशों के बीच एक दशक से सहयोग का अभाव बना हुआ है।
    • जहाँ फ्रांस द्वारा सभी यूरोपीय संघ के देशों में लोकलुभावनवाद (Populism) को कम करने के लिये वित्त राशि को बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया वहीं जर्मन द्वारा उन उपायों का विरोध किया गया जिन्हें ‘हेडआउट्स’ अर्थात शासकीय सूचनाओं के रूप में देखा जा रहा है।
    • जर्मनी के साथ-साथ ऑस्ट्रिया, डेनमार्क, नीदरलैंड और स्वीडन ने भी एक बड़ी राशि उधार देने का विरोध किया क्योंकि इनका तर्क है कि इसके चलते करदाताओं को एक लंबे समय तक राशि का भुगतान करना होगा।
  • वर्तमान मौजूदा समझौते के तहत वर्ष 2023 तक ऋण दिया जाना है, जिसका वापस भुगतान वर्ष 2058 तक किया जाएगा।
  • दूसरी तरफ इटली और स्पेन जैसी अर्थव्यस्थाएँ हैं जो महामारी के कारण गंभीर रूप से प्रभावित हैं, इनके लिये कम रिकवरी वाले पैकेज के संदर्भ में आग्रह किया जा रहा है।

वर्ष 2008-09 के यूरोपीय संघ के आर्थिक उपायों एवं वर्तमान समझौते में अंतर:

  • वर्ष 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद कई यूरोपीय संघ के देशों द्वारा महसूस किया गया कि राष्ट्रीय ऋण के उच्च स्तर एवं निम्न रेटिंग के कारण वे सस्ती ब्याज दरों पर बाज़ारों से ऋण नहीं जुटा पा रहे हैं।
    • इस स्थिति से निपटने के लिये यूरोपीय संघ द्वारा एक ‘यूरोपीय वित्तीय स्थिरता सुविधा’ (European Financial Stability Facility- EFSF) का निर्माण किया गया जिसने निवेशकों (जिनके निवेश के लिये अधिक सुरक्षा मिली) और यूरोपीय संघ के बड़े देशों (जिन्हें कम दरों पर ऋण मिला था) के बीच मध्यस्थ के रूप में काम किया।
    • ‘यूरोपीय वित्तीय स्थिरता सुविधा’ तथा यूरोपीय स्थिरता तंत्र, द्वारा वर्ष 2013 तक मिलकर सफलतापूर्वक 255 बिलियन यूरो ऋण का वितरण किया गया।
  • वर्तमान ऋण वितरण संरचना काफी भिन्न है क्योंकि इसके द्वारा 360 बिलियन यूरो के अलावा लगभग 400 बिलियन यूरो का अनुदान भी आवंटित किया जाना है। 
    • इसके अलावा, ऋण वितरण को कठोर राजकोषीय बाध्यताओं के साथ नहीं जोड़ा गया है बल्कि इसके लिये कुछ बुनियादी क़ानूनी नियम का पालन करने के लिये पूछा जा सकता है।

भारत के COVID-19 राहत पैकेज से तुलना:

  • भारत के COVID-19 राहत पैकेज की मुख्य कमी अपर्याप्त सरकारी राजकोषीय वितरण है जो भारत के सकल घरलू उत्पाद (10%) का केवल 1% ही है।
    • भारत सरकार को अधिक खर्च करने के लिये, अधिक उधार लेना होगा हालांकि अधिक खर्च के बिना, अर्थव्यवस्था को संभवतः लंबे समय तक संघर्ष करना होगा।
  • यूरोपीय संघ के राहत पैकेज में प्रमुख घटक 390 बिलियन यूरो की अनुदान राशि है।
  • सस्ते ऋण और ऋण गारंटी अर्थव्यवस्था के लिये उपयोगी होते हैं लेकिन गिरती अर्थव्यवस्था तथा  MSME क्षेत्र में तीव्र आर्थिक तनाव के साथ, अनुदान और मजदूरी पर मिलने वाली सब्सिडी अधिक कारगर साबित हो सकती है।

निष्कर्ष: 

यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था को बचाने से अधिक, यह समझौता यूरोपीय संघ की राजनीतिक विचार को सुरक्षित करता है ऐसा इसलिये है क्योंकि विभिन्न देशों के बीच महत्वपूर्ण अंतर एवं मतभेदों  के बावजूद यह समझौता संपन्न हुआ है।

यूरोपीय संघ की अर्थव्यवस्था में यह स्थिति वैश्विक महामारी के कारण उत्पन्न हुई है फिर भी इन समझौते में उन सभी बातों एवं उपायों का भी ध्यान रखा गया है जो  यूरोपीय संघ द्वारा वर्ष 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट से निपटने के लिये अपनायए गए थे। समझौते में पर्यावरणीय विकास को महत्त्व दिया गया है जो  सतत् विकास को प्राप्त करने में सहायक है।

हाँलाकि यह कह पाना अभी जल्दबाज़ी होगी कि यह समझौता अपने उद्देश्यों में कितना सफल होगा लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह यूरोपीय संघ के देशों की पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को एक गति प्रदान करने में सहायक ज़रूर साबित होगा।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

प्लास्टिक अपशिष्ट: एक चुनौती के रूप में

प्रीलिम्स के लिये

प्लास्टिक अपशिष्ट से संबंधी तथ्य, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड 

मेन्स के लिये 

प्लास्टिक अपशिष्ट का प्रभाव और इसे रोकने हेतु किये गए विभिन्न प्रयास

चर्चा में क्यों?

एक हालिया अध्ययन के मुताबिक, यदि तत्काल प्रभाव से कोई निरंतर कार्रवाई नहीं की गई तो वर्ष 2040 तक समुद्र में प्लास्टिक का वार्षिक प्रवाह तकरीबन 3 गुना बढ़कर 29 मिलियन मीट्रिक टन प्रति वर्ष तक पहुँच सकता है।

प्रमुख बिंदु

  • अध्ययन के अनुसार, यह आँकड़ा दुनिया भर के सभी समुद्र तटों पर प्रति मीटर 50 किलोग्राम प्लास्टिक के बराबर है।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में तकरीबन दो बिलियन लोगों की अपशिष्ट संग्रह प्रणाली तक पहुँच नहीं है, और वर्ष 2040 तक यह आँकड़ा दोगुना होकर चार बिलियन हो जाएगा, जिनमें से अधिकतर लोग मध्य एवं निम्न-आय वाले देशों के ग्रामीण इलाकों से होंगे।
    • रिपोर्ट में पाया गया कि यदि इस अंतराल को कम करना है तो हमें वर्ष 2040 तक प्रतिदिन 500,000 लोगों को इस प्रणाली से जोड़ने की आवश्यकता होगी।
  • रिपोर्ट में दिये गए अनुमान के अनुसार, वर्तमान में वैश्विक स्तर पर लगभग 22 प्रतिशत अपशिष्ट का संग्रहण संभव नहीं हो पाता है और यदि इस संबंध में कोई तत्काल कार्रवाई नहीं की गई तो यह 34 प्रतिशत तक पहुँच सकता है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, आगामी 20 वर्षों में समुद्र में मौजूद प्लास्टिक की कुल मात्रा 450 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुँच सकती है, जिसका जैव विविधता, मानव स्वास्थ्य और समुद्रों के पारिस्थितिकी तंत्र पर कई गंभीर प्रभाव पड़ेगा।
  • यदि स्थिति ऐसी ही रहती है तो हम पेरिस समझौते में वर्णित उद्देश्यों को भी प्राप्त नहीं कर पाएँगे।
  • रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि वर्तमान प्लास्टिक रीसाइक्लिंग प्रणाली पूरी तरह से निष्फल हो चुकी है।
    • रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान में कुल वैश्विक अपशिष्ट का केवल 20 प्रतिशत हिस्सा ही रीसाइक्लिंग केंद्रों तक पहुँच पाता है और उसमें से भी मात्र 15 प्रतिशत ही असल में रिसाइकल हो पाता है।

UK-PCS

प्लास्टिक अपशिष्ट में भारत की स्थिति

  • वर्ष 2019 में प्रकाशित केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में एक दिन में करीब 25,940 टन प्लास्टिक कचरा उत्पन्न होता है, जिसमें से 40 प्रतिशत से अधिक प्लास्टिक कचरा असंग्रहीत ही रह जाता है।
  • भारत की प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत 11 किग्रा. से कम है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रति व्यक्ति प्लास्टिक की खपत का लगभग दसवाँ हिस्सा है।

प्लास्टिक: एक वैश्विक चुनौती के रूप में

  • प्लास्टिक का आविष्कार सर्वप्रथम 19वीं सदी में किया गया था, किंतु 20वीं सदी तक यह एक बड़ी समस्या नहीं बना था।
  • समय के साथ प्लास्टिक की समस्या भी गंभीर होती गई और प्लास्टिक का उत्पादन तेज़ी से बढ़ने लगा, आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2017 में 348 मिलियन मीट्रिक टन प्लास्टिक का उत्पादन किया गया था, जो कि वर्ष 1950 से पूर्व मात्र में 2 मिलियन मीट्रिक टन था।
  • वर्तमान में प्लास्टिक उद्योग वैश्विक स्तर पर काफी बड़ा उद्योग बन गया है और वर्तमान में इसका उपयोग पैकेजिंग से लेकर विनिर्माण तक अर्थव्यवस्था के लगभग सभी क्षेत्रों में किया जाता है। रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2040 तक प्लास्टिक का उत्पादन लगभग दोगुना हो जाएगा।
  • जैसे-जैसे प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग में वृद्धि हुई है, उसी प्रकार प्लास्टिक के कारण उत्पन्न होने वाले प्रदूषण में भी वृद्धि हुई है।
  • प्लास्टिक प्रदूषण का प्रभाव
    • प्लास्टिक अपशिष्ट का जलीय, समुद्री और स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र में रहने वाले जानवरों पर काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्लास्टिक जानवरों के पाचन तंत्र को खराब कर देता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है।
    • एक अनुमान के अनुसार, 800 से अधिक प्रजातियाँ पहले से ही समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण से प्रभावित हैं।
    • प्लास्टिक प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर भी काफी गंभीर प्रभाव देखने को मिलता है, प्लास्टिक से निकलने वाले तमाम तरह के रसायनों में ऐसे यौगिक मौजूद होते हैं, जो मानव स्वास्थ्य से संबंधित अवांछित परिवर्तन और आनुवंशिक विकारों को बढ़ावा देते हैं।
    • प्लास्टिक का कुप्रबंधन भी मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
    • अकसर प्लास्टिक जल निकास के लिये मौजूद प्रणालियों में फँस जाता है और उस क्षेत्र में पानी एकत्रित होने लगता है, जिससे आस-पास के इलाकों में अपशिष्ट-जनित रोगों का प्रसार हो सकता है।

सुझाव

  • वर्ष 2040 तक प्लास्टिक के अनुमानित उत्पादन और खपत में वृद्धि को लगभग एक तिहाई कम किया जाना चाहिये। 
  • वर्ष 2040 तक प्लास्टिक अपशिष्ट के छठवें हिस्से को अन्य सामग्रियों के साथ प्रतिस्थापित करना। 
  • वर्ष 2040 तक मध्य और निम्न-आय वाले देशों में शहरी क्षेत्रों में 90 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 50 प्रतिशत तक अपशिष्ट संग्रह दरों का विस्तार करना और अनौपचारिक अपशिष्ट संग्रह क्षेत्र का समर्थन करना। 

स्रोत: डाउन टू अर्थ


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

चेचक की उत्पत्ति पर नवीनतम शोध

प्रीलिम्स के लिये: 

चेचक रोग के बारे में,  वायरस

मेन्स के लिये:

चिकित्सीय क्षेत्र में शोध का महत्त्व 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में में शोधकर्त्ताओं के एक अंतर्राष्ट्रीय दल द्वारा किये गए अध्ययन में चेचक रोग (Smallpox Disease) की उत्पत्ति के बारे में नई जानकारी प्रस्तुत की गई है।

प्रमुख बिंदु:

  • शोधकर्त्ताओं द्वारा अपने अध्ययन में बताया गया कि चेचक रोग का अस्तित्व 8 वीं शताब्दी ई.पू. के वाइकिंग युग (Viking age) में भी विद्यामन था।
  • वाइकिंग युग मध्य युग के दौरान की वह अवधि थी जब नूरमेन्स (Norsemen) ने पूरे यूरोप में उपनिवेशीकरण, विजय और व्यापार किया तथा वह 9 वीं और 10 वीं शताब्दी में उत्तरी अमेरिका तक पहुँच गया था।
  • चेचक की उत्पत्ति के बारे में हमेशा ही अस्पष्टता की स्थिति बनी रही है।
  • अभी तक, लिखित रिकॉर्ड के आधारों पर 17 वीं शताब्दी के लिथुआनिया के एक बच्चे के प्राप्त ममीकृत अवशेषों में चेचक की  बीमारी का सबसे पहला प्रमाणित मामला सामने आया था।

चेचक:  

  • चेचक एक संक्रामक रोग है जो वैरियोला वायरस (Variola Virus-VARV) के कारण होता है।
  • प्रसार: यह संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने, खांसने और छींकने के दौरान निकलने वाली बूंदों के माध्यम से प्रसारित होता है।
  • उन्मूलन: चेचक मानव जाति के लिये सबसे घातक ज्ञात बीमारियों में से एक है जिसे केवल टीकाकरण के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है।
  • वर्ष 1980 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के नेतृत्व में वैश्विक चेचक टीकाकरण अभियान के बाद इसे पूरी तरह से समाप्त घोषित कर दिया गया था।
  • वैक्सीन: चेचक के लिये सबसे प्रभावी टीका/वैक्सीन की खोज वर्ष 1796 में एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) द्वारा की गई थी।

नवीनतम शोध के प्रमुख निष्कर्ष:

  • विषाणु के अनुक्रम का पता लगाना: वैरियोला वायरस अनुक्रम  को उत्तरी यूरोप के 13 व्यक्तियों से प्राप्त किया गया था जिसमें से 11 व्यक्ति 600–1050 CE से संबद्ध हैं। 
  • संपूर्ण यूरोप में वायरस की उपस्थित:  शुरुआती लिखित रिकॉर्ड के आधार पर 6 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में वायरस का अनुक्रम  दक्षिणी और पश्चिमी यूरोप में सयुक्त रूप से महामारी के रूप में सभी यूरोपीय (Pan European) लोगों में चेचक के रूप में उपस्थित था।
    • अध्ययन के अनुसार, लगभग 1700 वर्ष पहले जब पश्चिमी रोमन साम्राज्य  का पतन हुआ तथा लोग द्वारा यूरेशिया में पलायन किया गया उस वख्त भी चेचक का वायरस लोगों के बीच मौज़ूद था।
  • अनुवांशिक संरचना: अध्ययन के अनुसार 11 व्यक्तियों से प्राप्त किये गए वायरस के स्ट्रेन की आनुवंशिक संरचना वायरस के आधुनिक/वर्तमान संस्करण से अलग है, जिसका उन्मूलन वर्ष 1979-80 में ही किया जा चुका है।
    • वायरस का वाइकिंग प्रकार पहले अज्ञात था लेकिन अब यह वायरस का एक विलुप्त समूह या क्लेड है।
    • क्लेड एक ऐसा समूह होता है जिसमें एक सामान्य पूर्वज और उस पूर्वज के सभी वंशज (जीवित और विलुप्त) शामिल होते हैं।.
    • आधुनिक चेचक तथा इसके प्राचीन वैरिएंट/प्रकार दोनों की उत्पत्ति समान पूर्वज से हुई है जिनमें 1700 वर्ष पूर्व अलगाव/विचलन हो गया था।

शोध का महत्त्व: 

  • वायरस के बारे में जानकारी: हालाँकि अध्ययन के परिणामों का COVID -19 महामारी के मौजूदा प्रसार पर कोई प्रभाव नहीं है। फिर भी यह इस बारे में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है कि समय के साथ एक वायरस किस प्रकार घातक हो सकता है।
  • यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि चेचक उन कई अन्य बीमारियों के बीच नवीनतम बीमारी है जिसका इतिहास हाल के कुछ वर्षों में उनके प्राचीन डीएनए विश्लेषण के द्वारा फिर से लिखा गया है।
    • इससे पहले वर्ष 2015 में, एक अध्ययन में बताया गया कि मध्ययुगीन यूरोप में 3000 और 1000 ईसा पूर्व के बीच कांस्य युग में लाखों लोगों को मारने वाले प्लेग का पता लगाया गया है। 
    • दूसरी ओर वर्ष 2018 में, हेपेटाइटिस बी की उत्पत्ति भी कांस्य युग में ही देखी गई थी।
  • प्रसार के तरीके: अध्ययन के निष्कर्ष उन तरीकों को समझने में मदद करेंगे जिनसे बीमारियों ने अतीत में मानव आबादी को प्रभावित किया है।
    • डीएनए से प्राप्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्लेग और हेपेटाइटिस बी जैसे प्रमुख रोगों  की उत्पत्ति इनके प्रागैतिहासिक प्रवास/स्थानांतरण से संबंधित है। जो कि चेचक रोग के बारे में भी सत्य प्रतीक होती है।
    • यह अध्ययन इस बात को भी जानने में मदद करेगा कि क्या पलायन ने बीमारियों को नए क्षेत्रों में फैलाया है   या बीमारी के उदगम ने लोगों को स्थानांतरित करने के लिये प्रेरित किया है।

स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस


जैव विविधता और पर्यावरण

ड्राफ्ट एनवायरमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन 2020

प्रीलिम्स के लिये:

ड्राफ्ट एनवायरमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन, 2020, स्टॉकहोम घोषणा (1972)

मेन्स के लिये:

ड्राफ्ट एनवायरमेंट इम्पैक्ट असेसमेंट नोटिफिकेशन, 2020 की पृष्ठभूमि 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना, 2020 के मसौदे पर जनता की प्रतिक्रिया के लिये समयसीमा बढ़ा दी है।

प्रमुख बिंदु:

  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना, 2020 के मसौदे पर जनता की प्रतिक्रिया की समय सीमा 11 अगस्त तक बढ़ा दी। सरकार द्वारा 10 अगस्त से 30 जून तक की समयसीमा में बदलाव करने के बाद ऐसा हुआ।
  • COVID-19 के करण राजपत्र में मसौदे के प्रकाशन में 19 दिनों की देरी हुई थी। इसलिये जब हज़ारों लोगों ने सार्वजनिक प्रतिक्रिया के लिये अनिवार्य 60-दिवसीय खिड़की के विस्तार के निवेदन के लिये ईमेल किया तो पर्यावरण मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों ने 10 अगस्त तक 60 अतिरिक्त दिनों को अनुमति देने के लिये उपयुक्त माना।
  • लेकिन पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने 30 जून की नई समय-सीमा निर्धारित की गई। यह उन कार्यकर्ताओं के हित में नहीं था, जो ड्राफ्ट की वापसी के लिये पूरा ज़ोर लगा रहे थे। 

पृष्ठभूमि

  • पर्यावरण पर स्टॉकहोम घोषणा (1972) के एक हस्ताक्षरकर्ता के रूप में भारत ने जल (1974) और वायु (1981) प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये जल्द ही कानून बनाए। लेकिन वर्ष 1984 में भोपाल गैस रिसाव आपदा के बाद ही देश ने 1986 में पर्यावरण संरक्षण के लिये एक अम्ब्रेला अधिनियम बनाया।

स्टॉकहोम घोषणा (1972)

  • अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण चेतना एवं पर्यावरण आंदोलन के प्रारंभिक सम्मेलन के रूप में 1972 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने स्टॉकहोम (स्वीडन) में दुनिया के सभी देशों का पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया था। इस अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में 119 देशों ने भाग लिया और एक ही धरती के सिद्धांत को सर्वमान्य तरीके से मान्यता प्रदान की गई।
  • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत, भारत ने 1994 में अपने पहले ईआईए मानदंडों को अधिसूचित किया, जो प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, उपभोग और (प्रदूषण) को प्रभावित करने वाली गतिविधियों को विनियमित करने के लिये एक कानूनी तंत्र स्थापित करता है। हर विकास परियोजना को पहले पर्यावरणीय स्वीकृति प्राप्त करने के लिये ईआईए प्रक्रिया से गुजरना आवश्यक है।
  • 1994, ईआईए अधिसूचना को वर्ष 2006 में संशोधित मसौदे के साथ बदल दिया गया था। इस वर्ष की शुरुआत में सरकार ने वर्ष 2006 से जारी संशोधनों और प्रासंगिक न्यायालय के आदेशों को शामिल करने और ईआईए की प्रक्रिया को "और अधिक पारदर्शी और तेज़ बनाने के लिये इसे फिर से तैयार किया।"

विवाद

  • हालांकि कार्यकर्ताओं के अनुसार, पर्यावरण की सुरक्षा के लिये स्थापित ईआईए प्रक्रिया ने, उद्योगों को दी गई वास्तविक रियायतों की एक श्रृंखला के लिये कानूनी कागजी कार्रवाई का मुखौटा पेश करके अक्सर विपरीत काम किया है।
  • उदाहरण के लिये, पर्यावरण पर परियोजनाओं के संभावित (हानिकारक) प्रभावों की रिपोर्ट जो ईआईए प्रक्रिया का आधार है, अक्सर संदेहपूर्ण और सलाहकार एजेंसियाँ ​​होती हैं जो उन रिपोर्टों को एक शुल्क के बदले तैयार करती हैं जिन्हें शायद ही कभी विश्वसनीय माना जाता है। अनुपालन सुनिश्चित करने की प्रशासनिक क्षमता का अभाव अक्सर निकासी अनुमति के शर्तों की लंबी सूचियों को अर्थहीन बना देता है। फिर समय के साथ किये गए संशोधन, उद्योगों के किसी वर्ग को जांच में छूट देते हैं।
  • दूसरी ओर, डेवलपर्स की शिकायत है कि ईआईए काल ने उदारीकरण की भावना को ठंडा कर दिया, जिससे लालफीताशाही और किराए के काम को बल मिल गया। UPA-II के कार्यकाल के दौरान प्रोजेक्ट क्लीयरेंस में देरी वर्ष 2014 में एक चुनावी मुद्दा बन गया।

समस्या 

  • वर्ष 2020 का मसौदा ईआईए प्रक्रिया पर राजनीतिक और नौकरशाही के लिये कोई उपाय नहीं करता है, और न ही उद्योगों के लिये। इसके बजाय, यह पर्यावरण की सुरक्षा में सार्वजनिक सहभागिता को सीमित करते हुए सरकार की विवेकाधीन शक्ति का बढ़ाया जाना प्रस्तावित करता है।
  • जबकि राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा से संबंधित परियोजनाओं को स्वाभाविक रूप से रणनीतिक माना जाता है, सरकार अन्य परियोजनाओं के "रणनीतिक" टैग पर विचार करती है। 2020 के मसौदे में  "ऐसी परियोजनाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में रखे जाने" जैसी कोई जानकारी नहीं है। यह वैसे किसी भी रणनीतिक योग्य समझे जाने वाले परियोजनाओ  के अविलंबित क्लियरेंस के लिये एक रास्ता खोल देता है, बिना किसी स्पष्टीकरण के।
  • इसके अतिरिक्त, नया मसौदा परियोजनाओं की एक लंबी सूची को सार्वजनिक परामर्श से मुक्त करता है। उदाहरण के लिये, सीमावर्ती क्षेत्रों में सड़क और पाइपलाइन जैसी अनुक्रमिक परियोजनाओं को किसी भी सार्वजनिक सुनवाई की आवश्यकता नहीं होगी। 'सीमा क्षेत्र' को "भारत के सीमावर्ती देशों के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा से 100 किलोमीटर हवाई दूरी के भीतर गिरने वाले क्षेत्र" के रूप में परिभाषित किया गया है। यह पूर्वोत्तर के अधिकांश भाग जो देश की सबसे समृद्ध जैव विविधता के भंडार है, उनको कवर करेगा।

किसे छूट है?

  • सभी अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजनाओं और राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तार/चौड़ीकरण जो सरकार द्वारा मुख्य रूप से केंद्रित क्षेत्र हैं, इन संबंधित क्षेत्रों को पूर्व अनुमति प्रदान किये जाने से छूट दी जाएगी। इनमें वे सड़कें शामिल हैं जो जंगलों से गुजरती हैं और प्रमुख नदियों को विभाजित करती हैं।
  • वर्ष 2020 के मसौदे में 1,50,000 वर्ग मीटर क्षेत्र में निर्मित अधिकांश भवन निर्माण परियोजनाओं को भी छूट दी गई है। यह पर्यावरण मंत्रालय के दिसंबर 2016 की अधिसूचना का पुनर्मूल्यांकन है जिसे दिसंबर 2017 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल द्वारा अस्वीकार किया गया था। 

बड़ा परिवर्तन 

  • नए मसौदे में दो सबसे महत्वपूर्ण बदलाव कार्योत्तर परियोजना की मंज़ूरी और जन विश्वास के सिद्धांत को छोड़ने के प्रावधान हैं। पर्यावरण अधिनियम का उल्लंघन करने वाली परियोजनाएँ भी अब मंज़ूरी के लिये आवेदन कर सकेंगी। यह बिना मंज़ूरी के संचालित होने वाली परियोजनाओं के लिये मार्च, 2017 की अधिसूचना का पुनर्मूल्यांकन है।
  • सभी उल्लंघनकर्ता को सुधार करने और संसाधन वृद्धि के लिये "उल्लंघन के कारण व्युत्पन्न पारिस्थितिक क्षति और आर्थिक लाभ" के 1.5-2 गुना के बराबर दो योजनाओं की आवश्यकता होगी। 
  • 1 अप्रैल को एक आदेश में, सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के विपरीत "कार्योत्तर पर्यावरणीय मंज़ूरी" को लागू किया था। 
  • वर्ष 2020 के मसौदे में यह भी बताया गया है कि सरकार इस तरह के उल्लंघनों का कैसे संज्ञान लेगी। इसकी रिपोर्ट या तो सरकारी प्राधिकरण या स्वयं डेवलपर्स को करनी होती है। उल्लंघन के बारे में किसी भी सार्वजनिक शिकायत की कोई गुंजाइश नहीं है। 

कानूनी प्रश्न

  • नई परियोजनाओं की स्थापना या मौजूदा परियोजनाओं के विस्तार या आधुनिकीकरण पर प्रतिबंध लगाने के लिये पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 3 के तहत एक ईआईए अधिसूचना जारी की जाती है। धारा यह निर्धारित करता है कि ऐसे उपायों से पर्यावरण को लाभ होना चाहिए।
  • 1 अप्रैल के आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा: "धारा 3 के संदर्भ में की जाने वाली केंद्र सरकार की कार्रवाई , पर्यावरण के गुणवत्ता की रक्षा और सुधार करने और पर्यावरण प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने और समाप्त करने के उद्देश्य से आवश्यक होने या वांछनीय होने के वैधानिक आवश्यकता का पालन करता हो ।
  • इसके विभिन्न प्रावधान जो सरकार के "ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस" सिद्धांत को सुविधाजनक बनाने के उद्देश्य से हैं, इस प्रश्न को प्रासंगिक बनाए रखते है कि क्या यह अधिसूचना पर्यावरण अधिनियम के उद्देश्य से जुड़ी है?

स्रोत- द हिंदू


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