भारतीय राजव्यवस्था
राज्यपाल और उसकी विवेकाधीन शक्तियाँ
प्रीलिम्स के लिये:राज्यपाल की नियुक्ति तथा कार्यकाल, अनुच्छेद 163 और 174, एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार, रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार, नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष मेन्स के लिये:राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजस्थान के राज्यपाल ने राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा का सत्र बुलाने के लिये की गई सिफारिश को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
प्रमुख बिंदु:
- राजस्थान में जारी राजनीतिक संकट के कारण राज्यपाल की शक्तियाँ और राज्य विधानमंडल के मामलों में उसकी भूमिका चर्चित मुद्दा बनी हुई हैं।
- राज्यपाल केवल उन मामलों को छोड़कर जिनमें वह अपने विवेक का इस्तेमाल कर सकता है (मंत्रियों की सलाह के बगैर) अपनी शक्ति/कार्य को मुख्यमंत्री के नेतृत्त्व वाले मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है।
- राज्यपाल के संवैधानिक विवेकाधिकार निम्नलिखित मामलों में हैं।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ किसी विधेयक को आरक्षित करना।
- राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।
- पड़ोसी केंद्रशासित राज्यों के प्रशासक (अतिरिक्त प्रभार की स्थिति में) के रूप में कार्य करते समय।
- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के राज्यपाल द्वारा खनिज उत्खनन की रोयल्टी के रूप में जनजातीय ज़िला परिषद् को देय राशि का निर्धारण।
- राज्य के विधान परिषद एवं प्रशासनिक मामलों में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त करना।
- इसके अलावा राज्यपाल राष्ट्रपति की तरह परिस्थितिजन्य निर्णय ले सकता है।
- विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में या कार्यकाल के दौरान मुख्यमंत्री की मृत्यु हो जाने एवं उसका निश्चित उत्तराधिकारी न होने पर मुख्यमंत्री की नियुक्ति के मामले में।
- राज्य विधानसभा में विश्वास मत हासिल न होने की स्थिति में मंत्रिपरिषद की बर्खास्तगी के मामले में।
- मंत्रिपरिषद के अल्पमत में आने पर राज्य विधानसभा को विघटित करने के मामले में।
- राज्यपाल के संवैधानिक विवेकाधिकार निम्नलिखित मामलों में हैं।
- विधानसभा सत्र बुलाने के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 163 तथा 174 राज्यपाल की शक्तियों के संबंध में महत्त्वपूर्ण हैं।
- अनुच्छेद 163- अपने विवेकाधीन कार्यों के अलावा अन्य कार्यों को करने के लिये राज्यपाल को मुख्यमंत्री के नेतृत्त्व वाली मंत्रिपरिषद से सलाह लेनी होगी।
- अनुच्छेद 174- राज्यपाल, समय-समय पर, राज्य विधान मंडल या विधान परिषद के सदनों के अधिवेशन को आहूत करेगा परंतु एक सत्र की अंतिम बैठक और आगामी सत्र की प्रथम बैठक के मध्य छह माह से अधिक का अंतर नहीं होना चाहिये।
राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों से संबंधित उच्चतम न्यायालय के महत्त्वपूर्ण निर्णय:
- एस.आर. बोम्मई बनाम भारत सरकार
- सर्वोच्च न्यायालय के कई ऐसे निर्णय हैं, जिनका समाज और राजनीति पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा है। इन्हीं में से एक है 11 मार्च, 1994 को दिया गया ऐतिहासिक निर्णय जो राज्यों में सरकारें भंग करने की केंद्र सरकार की शक्ति को कम करता है।
- गौरतलब है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई के फोन टैपिंग मामले से संबंधित होने के बाद तत्कालीन राज्यपाल ने उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया था, जिसके बाद यह मामला सर्वोच्च न्यायालय में पहुँचा था।
- सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद-356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया।
- इस निर्णय में न्यायालय ने कहा था कि "किसी भी राज्य सरकार के बहुमत का निर्णय राजभवन की जगह विधानमंडल में होना चाहिये। राष्ट्रपति शासन लगाने से पहले राज्य सरकार को शक्ति परीक्षण का मौका देना होगा।"
- रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार
- वर्ष 2006 में दिये गए इस निर्णय में पाँच सदस्यों वाली न्यायपीठ ने स्पष्ट किया था कि यदि विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता और कुछ दल मिलकर सरकार बनाने का दावा करते हैं तो इसमें कोई समस्या नहीं है, चाहे चुनाव पूर्व उन दलों में गठबंधन हो या न हो।
- नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष
- वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा की जाने वाली कार्रवाई मनमानी या काल्पनिक नहीं होनी चाहिये। अपनी कार्रवाई के लिये राज्यपाल के पास तर्क होना चाहिये और यह सद्भावना के साथ की जानी चाहिये।
राज्यपाल से संबंधित विभिन्न समितियाँ और उनकी सिफारिशें:
- प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग-
- वर्ष 1966 में केंद्र सरकार द्वारा मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) का गठन किया गया था, आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की थी कि राज्यपाल के पद पर किसी ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया जाना चाहिये जो किसी दल विशेष से न जुड़ा हो।
- राजमन्नार समिति-
- वर्ष 1970 में तमिलनाडु सरकार द्वारा केंद्र व राज्य संबंधों पर विचार करने के लिये राजमन्नार समिति का गठन किया गया था।
- गौरतलब है कि इस समिति ने भारतीय संविधान से अनुच्छेद 356 और 357 के विलोपन (Deletion) की सिफारिश की थी।
- संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार, यदि राज्य सरकार संवैधानिक प्रावधानों के तहत कार्य करने में असमर्थ है तो केंद्र राज्य पर प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण स्थापित कर सकता है।
- संविधान के अनुसार, इसकी घोषणा राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति से सहमति प्राप्त करने के बाद की जाती है। साथ ही समिति ने यह भी सिफारिश की थी कि राज्यपाल की नियुक्ति प्रक्रिया में राज्यों को भी शामिल किया जाना चाहिये।
- सरकारिया आयोग-
- वर्ष 1983 में गठित सरकारिया आयोग की केंद्र-राज्य संबंधों के बारे में जो अनुशंसाएँ हैं, उसके भाग-1 और अध्याय-4 में यह स्पष्ट किया गया है कि राज्यपाल का पद एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है, राज्यपाल न तो केंद्र सरकार के अधीनस्थ है और न उसका कार्यालय केंद्र सरकार का कार्यालय है।
निष्कर्ष:
- राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण विगत कुछ समय में राज्यपाल के पद को लेकर प्रश्न उठे हैं। राज्यपाल के पद संबंधी इन विवादों और चुनौतियों पर ध्यान दिया जाना चाहिये तथा सभी हितधारकों से बात कर इसमें सुधार का प्रयास किया जाना चाहिये। चूँकि राज्यपाल के पास विधानसभा सत्र को आहूत करने से संबंधित विवेकाधीन शक्तियाँ नहीं है इसलिये वह मुख्यमंत्री तथा मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करने के लिये बाध्य है। इसके अलावा मंत्रिपरिषद द्वारा सदन का विश्वास खोने संबंधी मामलों में, वह मुख्यमंत्री को सदन में बहुमत साबित करने के लिये कह सकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
भारत-इंडोनेशिया: सैन्य संबंध
प्रीलिम्स के लियेइंडोनेशिया की भौगोलिक अवस्थिति, भारत-इंडोनेशिया संबंधों से जुड़े मुख्य तथ्य मेन्स के लियेभारत-इंडोनेशिया संबंध, व्यापारिक और सैन्य संबंध |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में नई दिल्ली में भारत और इंडोनेशिया के रक्षा मंत्रियों के बीच संवाद का आयोजन किया गया, जिसमें भारत और इंडोनेशिया ने रक्षा उद्योगों एवं रक्षा प्रौद्योगिकी के साझाकरण समेत कई क्षेत्रों में सुरक्षा सहयोग के विस्तार की प्रतिबद्धता व्यक्त की।
प्रमुख बिंदु
- भारत और इंडोनेशिया के रक्षा मंत्रियों के बीच संवाद के दौरान भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्त्व रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने किया, जबकि इंडोनेशियाई प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्त्व देश के रक्षा मंत्री जनरल प्रबोवो सुबिआंतो (General Prabowo Subianto) ने किया, जो दोनों समुद्री पड़ोसी देशों के पारस्परिक संबंधों को मज़बूत करने के उद्देश्य से वर्तमान में भारत की यात्रा पर हैं।
- इस वार्ता के दौरान चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) जनरल बिपिन रावत, थल सेनाध्यक्ष जनरल एम. एम. नरवाने, नौसेना प्रमुख एडमिरल करमबीर सिंह, वायु सेना प्रमुख एयर चीफ मार्शल आर.के.एस. भदौरिया और रक्षा सचिव डॉ. अजय कुमार तथा अन्य वरिष्ठ असैन्य एवं सैन्य अधिकारियों ने भी इस द्विपक्षीय बैठक में हिस्सा लिया।
- रक्षा और सैन्य संबंधों के विस्तार पर चर्चा
- रक्षा मंत्रियों के बीच इस संवाद के दौरान दोनों ही देशों द्वारा रक्षा उद्योगों एवं रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग के संभावित क्षेत्रों की भी पहचान की गई।
- दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने इन क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग को और भी अधिक मज़बूत करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की।
- इस अवसर पर राजनाथ सिंह ने सैन्य स्तर की पारस्परिक वार्ताओं पर संतोष व्यक्त करते हुए कहा कि भारत और इंडोनेशिया के बीच हाल के वर्षों में रक्षा सहयोग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, जो दोनों पक्षों के बीच ‘व्यापक सामरिक साझेदारी’ के अनुरूप है।
- रक्षा मंत्रियों के बीच इस संवाद के दौरान दोनों ही देशों द्वारा रक्षा उद्योगों एवं रक्षा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग के संभावित क्षेत्रों की भी पहचान की गई।
भारत-इंडोनेशिया: रक्षा संबंध
- भारत एवं इंडोनेशिया का रक्षा तथा सुरक्षा के क्षेत्र में काफी मज़बूत सहयोग है, मई 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा के दौरान दोनों देशों के रक्षा संबंधों को मज़बूत करना और संबंधों में हो रही बढ़ोतरी को प्रतिबिंबित करने हेतु एक रक्षा सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किये गए थे।
- गौरतलब है कि नवंबर 2018 में आयोजित इंडोनेशियाई रक्षा एक्सपो (Indonesian Defence Expo) में भारतीय रक्षा उद्योग ने भी भाग लिया था।
- वर्तमान में दोनों देशों के बीच कई क्षेत्रों में गहरा और मज़बूत सहयोग है। दोनों देशों की तीन सेवाओं के बीच परिचालन स्तर पर नियमित रूप से वार्ता की जाती हैं और क्षेत्रीय सुरक्षा से संबंधित पारस्परिक हित के मामलों पर चर्चा की जाती है।
- इसके अलावा भारत और इंडोनेशिया के बीच ‘गरुड़ शक्ति’ नाम से एक संयुक्त सैन्य अभ्यास का आयोजन भी किया जाता है।
इंडोनेशिया
- इंडोनेशिया दक्षिण पूर्व एशिया में स्थित एक अनूठा देश है, जो कि मुख्य तौर पर अपने द्वीपों और सुंदर परिदृश्य के लिये विश्व भर में काफी प्रसिद्ध है।
- हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के बीच स्थित एक द्वीपसमूह (Archipelago) के रूप में इंडोनेशिया, दुनिया का चौथा सबसे अधिक आबादी वाला देश है।
- इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता है और यहाँ का सबसे बड़ा धर्म इस्लाम है, इस देश की लगभग 80 प्रतिशत आबादी इस्लाम धर्म को मानती है। इसके अलावा यहाँ ईसाई, हिंदू और बौद्ध धर्म को मानने वाले लोग भी मिलते हैं।
- गौरतलब है कि इंडोनेशिया में एक बड़ी मुस्लिम आबादी तो रहती है, किंतु इसे भारत की तरह ही एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में देखा जाता है।
- 1,919,443 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले इस देश में वर्ष 2014 की गणना के अनुसार, कुल 253,609,643 लोग निवास करते हैं।
भारत-इंडोनेशिया संबंध
- उल्लेखनीय है कि भारत और इंडोनेशिया घनिष्ठ सांस्कृतिक एवं वाणिज्यिक संबंधों का दो सदियों से भी लंबा इतिहास साझा करते हैं। इतिहासकार मानते हैं कि अतीत में हिंदू, बौद्ध और मुस्लिम धर्म के तमाम लोगों ने भारत के तटों से इंडोनेशिया की यात्रा की।
- इंडोनेशिया की भाषा पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट नज़र आता है। रामायण और महाभारत जैसे महान भारतीय महाकाव्यों की कहानियाँ इंडोनेशियाई लोक कला और नाटकों का स्रोत हैं।
- इंडोनेशिया के उत्सवों और झाँकियों आदि में रामायण और महाभारत के पात्र कठपुतलियों के रूप में नज़र आते हैं।
- साझा संस्कृति, औपनिवेशिक इतिहास और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनीतिक संप्रभुता, आर्थिक आत्मनिर्भरता एवं स्वतंत्र विदेश नीति के साझा लक्ष्यों ने दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों पर काफी गहरा प्रभाव डाला है।
- व्यापारिक संबंध
- आसियान (ASEAN) क्षेत्र में इंडोनेशिया भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार देश बनकर उभरा है। दोनों देशों के मध्य द्विपक्षीय व्यापार वित्तीय वर्ष 2005-06 में 4.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर वित्तीय वर्ष 2018-19 में 21 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है, हालाँकि बीते एक वर्ष में इस द्विपक्षीय व्यापार में कुछ कमी देखने को मिली है। ध्यातव्य है कि भारत, इंडोनेशिया के कोयले और कच्चे तेल का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार है।
- सांस्कृतिक संबंध
- ऐतिहासिक रूप से ही दोनों देशों के बीच एक सक्रिय सांस्कृतिक आदान-प्रदान होता रहा है। इंडोनेशिया में भारत के दूतावास द्वारा जवाहरलाल नेहरू भारतीय सांस्कृतिक केंद्र (JNICC) का संचालन किया जाता है, जो नियमित तौर पर भारतीय शास्त्रीय संगीत, भारतीय शास्त्रीय नृत्य (कथक और भरतनाट्यम), योग और हिंदी एवं तमिल भाषा से संबंधित कक्षाओं का आयोजन करता है।
- वर्ष 1989 में अपनी स्थापना के बाद से ही जवाहरलाल नेहरू भारतीय सांस्कृतिक केंद्र (JNICC) इंडोनेशिया में भारतीय कला एवं संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये सक्रिय रूप से कार्य कर रहा है।
- भारतीय डायस्पोरा
- अनुमान के अनुसार, इंडोनेशिया में भारतीय मूल के लगभग 100,000 इंडोनेशियाई नागरिक रहते हैं, वहीं इंडोनेशिया में 8500 से अधिक भारतीय नागरिक रहते हैं, जिनमें इंजीनियर, चार्टर्ड एकाउंटेंट, बैंकर और अन्य पेशेवर शामिल हैं।
स्रोत: पी.आई.बी
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
अंतर-ग्रहीय संदूषण: अंतरिक्ष मिशन संबंधी एक बड़ा खतरा
प्रीलिम्स के लियेमंगल ग्रह संबंधी विभिन्न देशों के मिशन, इस संबंध में भारत का मिशन मेन्स के लियेअंतर-ग्रहीय संदूषण की अवधारणा और इसका संभावित खतरा |
चर्चा में क्यों?
वैश्विक स्तर पर महत्त्वाकांक्षी अंतरिक्ष परियोजनाओं की बढ़ती संख्या के साथ, खगोल जीव वैज्ञानिकों (Astrobiologists) ने संभावित ‘अंतर-ग्रहीय संदूषण’ (Interplanetary Contamination) को लेकर चिंता ज़ाहिर की है।
प्रमुख बिंदु
- गौरतलब है कि बीते दिनों मंगल ग्रह से संबंधी दो मिशन लॉन्च किये गए, जिसमें पहला चीन का तियानवेन-1 (Tianwen-1) जो कि मंगल ग्रह की सतह पर उतरेगा, वहीं दूसरा संयुक्त अरब अमीरात का ‘होप मिशन’ है, जो कि मंगल ग्रह पर लैंडिंग नहीं करेगा, बल्कि यह मंगल ग्रह के ऑर्बिट में रहकर उसके वातावरण का अध्ययन करेगा।
- आगामी दिनों में अमेरिका भी मंगल ग्रह के लिये एक मिशन लॉन्च करेगा, ऐसे में यदि सब कुछ सही रहता है तो वर्ष 1975 से अब तक मंगल ग्रह पर यह राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन (NASA) की 10वीं सफल लैंडिंग होगी।
- खगोल जीव वैज्ञानिकों के अनुसार, इस प्रकार का संदूषण मुख्य तौर पर दो प्रकार हो सकता है, इसमें पहला फॉरवर्ड कंटैमिनेशन (Forward Contamination) और दूसरा बैक कंटैमिनेशन (Back Contamination) शामिल है।
फॉरवर्ड कंटैमिनेशन (Forward Contamination)
- यहाँ फॉरवर्ड कंटैमिनेशन (Forward Contamination) का अर्थ पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवाणुओं (Microbes) का किसी अन्य खगोल-काय (Celestial Bodies) पर पहुँचने से है।
- इतिहास में कई अंतरिक्ष मिशनों ने धूमकेतु (Comets) और क्षुद्रग्रह (Asteroid) जैसे खगोल-कायों के साथ शारीरिक संपर्क स्थापित किया है।
- चूँकि इन खगोल-कायों के संबंध में यह सिद्ध है कि यहाँ जीवन संभव नहीं है, इसलिये यहाँ पर फॉरवर्ड कंटैमिनेशन एक चिंतनीय विषय नहीं है।
- हालाँकि मंगल ग्रह के मामले में स्थितियाँ अलग हैं और मंगल से संबंधी कई अंतरिक्ष मिशनों ने ग्रह पर पहले से ही तरल रूप में जल के भंडार खोज लिये हैं और वहाँ सक्रिय रूप से जीवन की खोज की जा रही है।
- खगोल जीव वैज्ञानिक (Astrobiologists) मानते हैं कि यदि मंगल पर जीवन की कोई भी संभावना है तो चाहे वह अपने सबसे आदिम रूप में ही क्यों न हो, मानवता पर एक नैतिक दायित्त्व है कि वे यह सुनिश्चित करें कि पृथ्वी पर मौजूद जीवाणु मंगल ग्रह के जैवमंडल (Biosphere) तक न पहुँच सकें ताकि वहाँ जीवन प्राकृतिक रूप से विकसित हो सके।
- खतरा: इसके अलावा वैज्ञानिक मानते हैं कि पृथ्वी पर मौजूद जीवाणु यदि मंगल ग्रह पर पहुँच जाते हैं, तो ये मंगल ग्रह के जीवाणुओं की प्रमाणिकता (Integrity) को नष्ट कर देंगे अथवा सरल शब्दों में कहें तो पृथ्वी पर मौजूदा जीवाणु मंगल ग्रह के जीवाणुओं में मिलावट कर सकते हैं।
- यह उन वैज्ञानिकों के लिये काफी चिंताजनक होगा, जो मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश करने हेतु मंगल ग्रह का अध्ययन कर रहे हैं।
बैक कंटैमिनेशन (Back Contamination)
- बैक कंटैमिनेशन (Back Contamination) का अर्थ अंतरिक्ष में विभिन्न खगोल-कायों पर मौजूद ऐसे जीवाणुओं के पृथ्वी पर आने से है, जो अभी तक पृथ्वी के जैवमंडल (Biosphere) में मौजूद नहीं थे।
- नासा (NASA) मंगल ग्रह के नमूनों जैसे वहाँ की मिट्टी और चट्टान आदि को पृथ्वी पर वापस लाने से संबंधी एक मिशन की योजना बना रहा है। अनुमान के अनुसार, इस मिशन के तहत संभवतः वर्ष 2031 तक मंगल ग्रह के नमूनों को पृथ्वी पर लाया जाएगा।
ग्रहों की सुरक्षा
- संयुक्त राष्ट्र की बाहरी अंतरिक्ष संधि-1967, अंतरिक्ष के सैन्यीकरण (Militarisation) के विरुद्ध एक बाधक के रूप में कार्य करने के साथ-साथ, इसमें शामिल सभी राष्ट्रों को अंतरिक्ष के संदूषण जोखिमों के बारे में चिंता करना और विचार करना अनिवार्य बनाती है।
- अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती को लेकर बाहरी अंतरिक्ष संधि, 1967 में हुई थी, जिसमें भारत शुरू से ही शामिल रहा है। यह संधि अंतरिक्ष में ऐसे हथियार तैनात करने पर पाबंदी लगाती है, जो जनसंहारक हों।
- इस संधि का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (Committee on Space Research) ने एक ’ग्रह सुरक्षा नीति’ (Planetary Protection Policy) का निर्माण किया है जिसका उद्देश्य अन्य ग्रहों पर भेजे गए जीवाणुओं की संख्या को सीमित करना है।
- नासा के अनुसार, ’ग्रह सुरक्षा नीति’ में दिये गए दिशा-निर्देशों का मानव अंतरिक्ष यान के डिज़ाइन, उसकी परिचालन प्रक्रियाओं और समग्र मिशन संरचना पर काफी दूरगामी प्रभाव पड़ा है।
ग्रह सुरक्षा नीति
- पृथ्वी की सीमा से परे और उसमें मौजूद विभिन्न तत्वों को जानने के लिये विभिन्न देशों द्वारा अब लगातार नए-नए अंतरिक्ष मिशन चलाए जा रहे हैं, किंतु यह मानवता का नैतिक दायित्त्व है कि हम यह सुनिश्चित करें कि इस दौरान हम बाह्य अंतरिक्ष में उपस्थित किसी खतरनाक पदार्थ को पृथ्वी पर न ले आएँ, साथ ही हमें यह भी सुनिश्चित करना है कि हम पृथ्वी के किसी जीवाणु को बाह्य अंतरिक्ष में न जाने दें।
- इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (COSPAR) ने एक ग्रह सुरक्षा नीति तैयार की है।
आगे की राह
- फॉरवर्ड कंटैमिनेशन से बचाव के लिये अंतरिक्ष संबंधी सभी मिशनों में यह ध्यान रखा जाता है कि अंतरिक्ष यान पूरी तरह से जीवाणुरहित (Sterilised) हो।
- नासा के अनुसार, मंगल ग्रह से संबंधी बीते लगभग सभी मिशनों में अंतरिक्ष यान को पूरी तरह से जीवाणुरहित करने के बाद ही अंतरिक्ष में भेजा गया था।
- गौरतलब है कि बीते सप्ताह नासा के ही एक मिशन को संभावित संदूषण की समस्या को हल करने के लिये दूसरी बार स्थगित किया गया था।
- हालाँकि बैक कंटैमिनेशन के मामले में अंतरिक्ष यान को कीटाणुरहित करना एक विकल्प के रूप में नहीं देखा जा सकता है, क्योंकि इससे मंगल ग्रह अथवा किसी अन्य खगोल-काय से प्राप्त नमूने की मूल प्रकृति नष्ट हो जाएगी।
- इस प्रकार पृथ्वी पर अंतरिक्ष के किसी अन्य खगोल निकाय के जीवाणुओं को आने से रोकने के लिये अथवा बैक कंटैमिनेशन को रोकने के लिये आवश्यक एहतियात बरतना ही एकमात्र विकल्प हो सकता है।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय राजव्यवस्था
मराठा कोटा
प्रीलिम्स के लिये:उच्चतम न्यायालय, उच्च न्यायालय मेन्स के लिये:मराठा कोटा के संदर्भ में न्यायलय का निर्णय एवं राज्य की विकास नीतियों पर इसका प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय (Supreme Court-SC) महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के विरुद्ध दायर विशेष अनुमति याचिकाओं (Special Leave Petitions-SLPs: अनुच्छेद 136) पर दैनिक आधार पर वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अंतिम सुनवाई शुरू करने के लिये तैयार हो गया है।
प्रमुख बिंदु:
- शीर्ष न्यायालय राज्य में इस कोटा के तहत स्नातकोत्तर चिकित्सा और दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश को चुनौती देने वाली याचिका पर भी सुनवाई करेगा।
- SLPs द्वारा बॉम्बे उच्च न्यायालय (High Court-HC) के उस निर्णय को चुनौती दी गई है, जिसमें राज्य के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम, 2018 (Socially and Educationally Backward Classes-SEBC) के तहत मराठा कोटा की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा गया है।
- SEBC अधिनियम के तहत राज्य में शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिये तथा राज्य के तहत सार्वजनिक सेवाओं और पदों पर नियुक्तियों के लिये आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
- महाराष्ट्र देश के उन कुछ राज्यों में से एक है, जिनमें आरक्षण की सीमा 50% से अधिक है।
- महाराष्ट्र में आरक्षण की उच्चतम सीमा तमिलनाडु, हरियाणा और तेलंगाना से भी अधिक है।
- इंदिरा साहनी मामले, 1992 के निर्णय के अनुसार, पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की कुल सीमा 50% से अधिक नहीं हो सकती है।
पृष्ठभूमि:
- मेडिकल की तैयारी करने वाले छात्रों के एक समूह द्वारा SEBC, Act 2018 में संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई, जो वर्ष 2019-2020 में एमबीबीएस पाठ्यक्रमों में मराठा आरक्षण की अनुमति प्रदान करता है।
- जुलाई 2019 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा इस याचिका को खारिज कर दिया गया तथा उच्चतम न्यायालय द्वारा भी बॉम्बे उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए कोटे पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया गया।
- हाल ही में उच्चतम न्यायालय द्वारा मेडिकल छात्रों द्वारा दायर याचिका पर अंतरिम रोक न लगाते हुए दिशा-निर्देश जारी करते हुए कहा गया कि शैक्षणिक वर्ष 2020-21 के लिये स्नातकोत्तर चिकित्सा तथा दंत चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिये 12% कोटा व्यवस्था को लागू नहीं किया जाएगा।
मराठा:
- यह महाराष्ट्र का एक राजनीतिक रूप से सशक्त समुदाय है जिसमें मुख्य रूप से किसान और भू स्वामी शामिल हैं। इस समुदाय का राज्य की कुल आबादी में लगभग एक तिहाई हिस्सा है।
- वर्ष 1960 में राज्य गठन के बाद से ही राज्य के अधिकांश मुख्यमंत्री मराठा समुदाय से ही हैं।
- अधिकांश मराठा लोग मराठी भाषी हैं लेकिन सभी मराठी भाषी लोग मराठा समुदाय से नहीं हैं।
- ऐतिहासिक दृष्टि से, इस समुदाय को बड़े भू-स्वामी होने के साथ- साथ एक 'योद्धा' जाति के रूप में भी पहचाना जाता है।
- हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में भूमि के विभाजन तथा कृषि समस्याओं के कारण मध्य वर्ग और निम्न-मध्यम वर्ग मराठा समुदायों की समृद्धि में गिरावट आई है फिर भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में मराठा समुदाय एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बॉम्बे उच्च न्यायालय का निर्णय:
- जुलाई 2019 में, बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा निर्णय दिया गया कि राज्य द्वारा प्रदान किया गया 16% कोटा 'न्यायसंगत' नहीं था जिसे 11-सदस्यीय महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग (Maharashtra State Backward Class Commission-MSBCC) की अनुसंशा पर शिक्षा में 12% और सरकारी नौकरियों में 13% तक घटा दिया गया था।
- आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिये, लेकिन असाधारण परिस्थितियों में, इस सीमा को समकालीन डेटा की उपलब्धता के आधार पर, जो पिछड़ेपन के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को दर्शाती है, प्रशासन में दक्षता को प्रभावित किये बिना बढ़ाया जा सकता है।
- जबकि समुदाय के पिछड़ेपन की तुलना अनुसूचित जाति (Scheduled Castes- SCs) और अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes-STs) के साथ नहीं की गई थी बल्कि इसकी तुलना मंडल आयोग की अन्य पिछड़ा वर्ग ( Other Backward Classes- OBC) की सूची में शामिल कई अन्य पिछड़े वर्गों के साथ की गई।
महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का सर्वेक्षण:
- महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा दो गाँवों के लगभग 45,000 परिवारों का सर्वेक्षण किया गया जिनमें प्रत्येक गाँव के 355 तालुकों में 50% से अधिक मराठा आबादी थी।
- सामाजिक पिछड़ापन
- 76.86% मराठा परिवार अपनी आजीविका के लिये कृषि एवं श्रम में लगे हुए हैं।
- लगभग 70% मराठा परिवार कच्चे आवासों में निवास करते हैं।
- केवल 35-39% मराठा घरों में व्यक्तिगत नल के पानी का कनेक्शन है।
- वर्ष 2013-2018 के दौरान कुल 13,368 किसानों ने आत्महत्या की जिनमें 23.56% मराठा किसान शामिल थे।
- घर के कामकाज़ के अलावा 88.81% मराठा महिलाएँ आजीविका के लिये शारीरिक श्रम में शामिल हैं।
- शैक्षिक पिछड़ापन
- 13.42% मराठा निरक्षर हैं, 35.31% प्राथमिक शिक्षित, 43.79% माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक शिक्षित, 6.71% स्नातक तथा स्नातकोत्तर एवं 0.77% तकनीकी और पेशेवर रूप से योग्य हैं।
- आर्थिक पिछड़ापन:
- 93% मराठा परिवारों की वार्षिक आय 1 लाख रुपए है जो मध्यम वर्गीय परिवारों की औसत आय से कम है।
- 37.38% मराठा परिवार गरीबी रेखा से नीचे ( Below Poverty Line- BPL) हैं जो राज्य के औसत (24%) से अधिक है।
- 71% मराठा किसानों के पास 2.5 एकड़ से कम ज़मीन है जबकि केवल 2.7% बड़े किसानों के पास ही 10 एकड़ जमीन उपलब्ध है।
- आयोग ने 15 नवंबर 2018 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें यह बताया गया कि मराठा समुदाय सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछडा हुआ है और साथ ही राज्य में सार्वजनिक रोज़गार में मराठा समुदाय के प्रतिनिधित्व का अभाव है।
महाराष्ट्र में मौजूद कुल आरक्षण:
- वर्ष 2001 के राज्य आरक्षण अधिनियम के बाद महाराष्ट्र में कुल आरक्षण 52% था।
- इसमें SC (13%), STs (7%), OBC (19%), विशेष पिछड़ा वर्ग (2%), विमुक्त जाति (3%), घुमंतू जनजाति (2.5%), घुमंतू जनजाति धनगर के लिये (3.5%)और घुमंतू जनजाति वंजारी (2%) के कोटा शामिल थे।
- घुमंतू जनजातियों और विशेष पिछड़े वर्गों के लिये कोटा कुल ओबीसी कोटा से बाहर किया गया है।
- 12-13% मराठा कोटा के साथ राज्य में कुल आरक्षण 64-65% है।
- 10% आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग (Economically Weaker Sections- EWS) के लिये भी राज्य में कोटा प्रभावी है।
स्रोत: द इंडियन एक्सप्रेस
शासन व्यवस्था
सरकारी विज्ञापनों का विनियमन
प्रीलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, CCRGA मेन्स के लिये:सरकारी विज्ञापनों के विनियमन हेतु सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त ‘कमेटी ऑन कंटेंट रेगुलेशन इन गवर्नमेंट एडवरटाइज़िंग’ (Committee on Content Regulation in Government Advertising-CCRGA) द्वारा दिल्ली सरकार को एक नोटिस जारी किया, जिसमें प्रमुख समाचार पत्रों के मुंबई संस्करणों में दिल्ली सरकार द्वारा हाल ही में दिये गए विज्ञापन पर स्पष्टीकरण माँगा गया है।
प्रमुख बिंदु:
- दिल्ली सरकार के अनुसार, दिल्ली सरकार CCRGA के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। दिल्ली सरकार की विज्ञापन सामग्री राज्य स्तरीय समिति द्वारा नियंत्रित की जाती है।
- कमेटी ऑन कंटेंट रेगुलेशन इन गवर्नमेंट एडवरटाइज़िंग:
- वर्ष 2015 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार, भारत सरकार ने सभी मीडिया प्लेटफार्मों में सरकारी वित्त पोषित विज्ञापन सामग्री के विनियमन को देखने के लिये वर्ष 2016 में एक तीन सदस्यीय समिति का गठन किया था।
- इस समिति के पास सामान्य जनता की शिकायतों को दूर करने का अधिकार है।
- यह सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों के उल्लंघन के खिलाफ आत्म-संज्ञान ले सकती है तथा इसके विरुद्ध सुधारात्मक कार्रवाई की सिफारिश कर सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश:
- सरकारी विज्ञापनों की सामग्री नागरिकों एवं उनके अधिकारों के साथ-साथ सरकार के संवैधानिक और कानूनी दायित्वों के लिये भी प्रासंगिक होनी चाहिये।
- विज्ञापन सामग्री को अभियान के उद्देश्यों को पूरा करने तथा लागत प्रभावी तरीके से अधिकतम पहुँच सुनिश्चित करने के उद्देश्य से डिज़ाइन किया जाना चाहिये।
- विज्ञापन सामग्री सही होनी चाहिये तथा इसके द्वारा पहले से मौजूद नीतियों और उत्पादों को नए ढंग से प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिये।
- विज्ञापन सामग्री द्वारा सत्ता पक्ष के राजनीतिक हितों को बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिये।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय अर्थव्यवस्था
ई-कॉमर्स के लिये ‘उत्पादों के मूल देश’
प्रीलिम्स के लिये:उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019, ई-मार्केटप्लेस, Government e-Marketplace- GeM मेन्स के लिये:उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में ई-कॉमर्स कंपनियों द्वारा मूल देश के नाम को प्रदर्शित करने के प्रावधान से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय को (एक हलफनामे के माध्यम से) बताया है कि सभी ई-कॉमर्स संस्थाओं को अपनी वेबसाइट पर बेचे जाने वाले उत्पादों के मूल देश की घोषणा सुनिश्चित करनी होगी
प्रमुख बिंदु:
- उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में ई-कॉमर्स कंपनियों द्वारा मूल देश के नाम को प्रदर्शित करने का प्रावधान है।
- यह हलफनामा एक जनहित याचिका के जवाब में आया जिसमें केंद्र से यह सुनिश्चित करने के लिये निर्देश मांगे गए थे कि विनिर्माण देश/मूल देश का नाम ई-कॉमर्स साइट पर बेचे जा रहे उत्पादों पर प्रदर्शित हो।
- याचिकाकर्ता ने लीगल मेट्रोलॉजी अधिनियम, 2009 और लीगल मेट्रोलॉजी (पैकेड उत्पाद) नियम, 2011 को लागू करने की मांग की है।
- ई-कॉमर्स वेबसाइट पर बेचे जा रहे उत्पाद पर ‘मूल देश’ के नाम को को प्रदर्शित करने हेतु बाध्य करता है।
- उक्त नियमों और अधिनियम के प्रावधानों को लागू करना राज्य तथा केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों पर निर्भर करता है।
- याचिकाकर्त्ता का तर्क है कि उक्त नियमों/ अधिनियमों का प्रवर्तन भारत सरकार की हालिया पहलों जैसे- ‘वोकल फॉर लोकल’ (Vocal for Local) तथा आत्मनिर्भर भारत के अनुरूप ही है।
- इससे पहले भी केंद्र सरकार ने सभी विक्रेताओं को ई-मार्केटप्लेस (Government e-Marketplace- GeM) पर नए उत्पादों को पंजीकृत करते समय ‘मूल देश’ को सूचीबद्ध करने के लिये अनिवार्य किया है।
- GeM सार्वजनिक खरीदारी हेतु एक मंच है।
- इससे पहले भी केंद्र सरकार ने सभी विक्रेताओं को ई-मार्केटप्लेस (Government e-Marketplace- GeM) पर नए उत्पादों को पंजीकृत करते समय ‘मूल देश’ को सूचीबद्ध करने के लिये अनिवार्य किया है।
मुद्दे:
- अधिकांश ई-कॉमर्स साइट, मार्केटप्लेस आधारित ई-कॉमर्स मॉडल के रूप में कार्य करती हैं, जिसमें वह केवल एक मध्यस्थ के रूप में कार्य करती हैं।
- अर्थात् यह अपने संभावित उपभोक्ताओं के साथ तीसरे पक्ष के विक्रेताओं को जोड़ने के लिये केवल अपना सूचना प्रौद्योगिकी मंच प्रदान करते हैं।
- ई-कॉमर्स मॉडल का दूसरा रूप ‘इन्वेंटरी आधारित’ है जहाँ इकाइयाँ अपनी स्वयं की इन्वेंटरी से बिक्री के लिये वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्रदान करती हैं।
- ई-कॉमर्स संस्थाओं का कहना है कि उत्पादों के मूल देश से संबंधित आँकड़े उनकी प्रणाली/व्यवस्था/साइट पर उपलब्ध हैं जिसे एक विक्रेता द्वारा नए उत्पाद सूची बनाते समय भरा जा सकता है।
- हालाँकि ई-कॉमर्स संस्थाओं ने इसे अनिवार्य नहीं किया है क्योंकि कानून भारत निर्मित उत्पादों के संदर्भ में ‘ मूल देश’ को प्रदर्शित करने का आदेश नहीं देता है।
- कई मामलों में उत्पादों के भारत में शिपमेंट से पहले उन्हें अन्य किसी देश में एकत्रित करके पैक किया जाता है।
- इसलिये निर्यात के अंतिम देश को ‘मूल देश’ घोषित करने को परिकल्पित नहीं कर सकते जब तक कि कानून में संशोधन या स्पष्ट रूप से राज्य को स्पष्ट नहीं किया जा सकता।