आंतरिक सुरक्षा
जम्मू-कश्मीर राजमार्ग पर यातायात प्रतिबंध
चर्चा में क्यों?
हालिया पुलवामा हमले के पश्चात् जम्मू-कश्मीर सरकार ने सुरक्षा बलों की आवाजाही के लिये उधमपुर से बारामूला तक राष्ट्रीय राजमार्ग पर सप्ताह में दो दिन नागरिक यातायात को प्रतिबंधित करने का आदेश जारी किया था।
प्रमुख बिंदु
- गौरतलब है कि इस आदेश पर रोक लगाने की मांग पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और जम्मू-कश्मीर सरकार से जवाब मांगा था।
- जम्मू-कश्मीर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि यह प्रतिबंध केवल 31 मई तक है जिसके पश्चात् चुनौती देने वाली इस याचिका का निपटारा हो गया।
पृष्ठभूमि
- जम्मू-कश्मीर गृह विभाग ने 3 अप्रैल को जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग के 270 किलोमीटर लंबे उधमपुर-बारामूला मार्ग पर सप्ताह में दो दिन सुबह 4 से शाम 5 बजे तक नागरिक यातायात पर प्रतिबंध लगाने का आदेश जारी किया था। इस आदेश के अनुसार, रविवार और बुधवार को इस राजमार्ग का इस्तेमाल विशेष रूप से सुरक्षा बलों की आवाजाही के लिये किया जाएगा।
- गौरतलब है कि यह आदेश पुलवामा में सुरक्षा बलों के काफिले पर हुए आत्मघाती बमबारी का हवाला देते हुए दिया गया था जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवानों की मृत्यु हो गई थी।
- हालाँकि कुछ आलोचनाओं के बाद जम्मू-कश्मीर सरकार ने मरीज़ों, छात्रों, सरकारी कर्मचारियों और आपात स्थिति में प्रतिबंध के दौरान राष्ट्रीय राजमार्ग का उपयोग करने की अनुमति देने की बात कही थी।
यह राजमार्ग इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है?
- जम्मू-श्रीनगर-उड़ी राष्ट्रीय राजमार्ग (NH-1A) लगभग 370 किलोमीटर लंबा है। यह कश्मीर को बाहरी दुनिया से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क होने के साथ ही प्रमुख राजमार्ग भी है जो श्रीनगर को घाटी के दक्षिणी और उत्तरी ज़िलों से जोड़ता है।
- यह राजमार्ग घाटी के 10 में से पाँच ज़िलों से गुज़रता है। प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से यह राजमार्ग 69 लाख से अधिक की आबादी को प्रभावित करता है।
प्रतिबंध का प्रभाव
- आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार, लगभग 5,000 हल्के मोटर वाहनों सहित हर घंटे दोनों तरफ से 10,000 से अधिक वाहन राजमार्ग पर चलते हैं। इनमें छात्रों, मरीज़ों, सरकारी अधिकारियों और व्यापारियों को ले जाने वाले वाहन शामिल हैं।
- घाटी के पाँच ज़िलों के लगभग सभी कॉलेज, उच्चतर माध्यमिक संस्थान और स्कूलों तक पहुँच इस राजमार्ग के माध्यम से ही सुलभ है।
- इसके अलावा उधमपुर से बारामूला तक राजमार्ग के दोनों ओर सैकड़ों गाँव और कस्बे बसे हुए हैं। सरकार द्वारा आरोपित प्रतिबंध प्रभावी रूप से उन्हें हर सप्ताह दो दिनों के लिये अन्य स्थानों से काट देगा।
स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस
आंतरिक सुरक्षा
गढ़चिरौली हमले से पहले जनता दरबार
चर्चा में क्यों?
महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुए हालिया नक्सली हमले की जाँच कर रहे अधिकारियों के अनुसार, हमला करने से पहले गढ़चिरौली के ही दादापुर में नक्सलियों ने जनता दरबार लगाया था जिसमें लगभग 200 माओवादियों ने भाग लिया था।
पृष्ठभूमि
- जनता दरबार के बाद नवनिर्मित राजमार्ग पर लगाए गए इम्प्रोवाज़्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (Improvised Explosive Devices- IED) द्वारा वाहन को उड़ा दिया गया जिससे 16 लोगों की मृत्यु हो गई।
- गौरतलब है कि क्विक रिस्पांस टीम (Quick Response Team- QRT) के 15 कर्मियों की एक टीम दादापुर में एक पुलिस दल की सहायता के लिये जा रही थी। IED द्वारा किये गए हमले की इस घटना में सभी 15 जवान और वाहन का सिविलियन ड्राइवर भी मारा गया।
- जाँच कर रहे अधिकारियों के अनुसार, जनता दरबार में शामिल ज़्यादातर माओवादी 20 से 25 आयु वर्ग के थे और उनमें से अधिकांश महिलाएँ थीं।
चिंतनीय बिंदु
- यह कोई संयोग नहीं है कि नक्सलियों ने इस हिंसात्मक गतिविधि का उपयोग महाराष्ट्र स्थापना दिवस के अवसर पर किया।
- यदि पूरी घटना का बारीकी से निरीक्षण करें तो यह पता चलता है कि नक्सली सुरक्षा सुनिश्चित करने वालों से कई कदम आगे हैं जो कि चिंता का विषय है।
- हालाँकि 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में गढ़चिरौली और उसके पड़ोस के ही चंद्रपुर ज़िले में मतदान प्रतिशत क्रमशः 70.04% से 71.98% तथा 63.29% से 64.65% तक बढ़ गया है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि उस क्षेत्र की जनता का संसदीय लोकतंत्र में धीमे ही सही किंतु भरोसा बढ़ रहा है।
- नक्सल बहुल ज़िलों में मतदान केंद्र तक पहुँचने में मतदाताओं को अभी भी लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। इस क्षेत्र में तैनात सुरक्षा बल भी उनमें आत्मविश्वास की भावना नहीं जगा पाए हैं।
- इस हमले में हताहत पुलिसकर्मियों में से अधिकांश स्थानीय थे।
- बाहरी वातावरण की मौजूदा शत्रुतापूर्ण परिस्थितियों में भी भारत आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों को हल्के में नहीं ले सकता।
नक्सलवाद की उत्पत्ति
- भारत में नक्सली हिंसा की शुरुआत 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुई। इसके नेतृत्वकर्त्ता चारू मजूमदार तथा कानू सान्याल को माना जाता है।
- 2004 में सीपीआई (माओवादी) का गठन सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) तथा माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के साथ हुआ था।
- नक्सलवाद का सीधा संबंध वामपंथ से है। नक्सलवाद के समर्थक चीनी साम्यवादी नेता माओ-त्से-तुंग के विचारों को आदर्श मानते हैं।
- यह आंदोलन चीन के कम्युनिस्ट नेता माओत्से तुंग की नीतियों का अनुगामी था इसीलिये इसे माओवाद भी कहा जाता है। आंदोलनकारियों का मानना था कि भारतीय मज़दूरों तथा किसानों की दुर्दशा के लिये सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं।
- धीरे-धीरे मध्यवर्ती भारत के कई हिस्सों में नक्सली गुटों का प्रभाव तेज़ी से बढ़ने लगा। इनमें झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं।
- सीपीआई (माओवादी) पार्टी तथा इससे जुड़े सभी संगठनों को गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत आतंकवादी संगठनों के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।
सामाजिक-आर्थिक कारणों से उपजा था नक्सलवाद
- केंद्र और राज्य सरकारें माओवादी हिंसा को अधिकांशतः कानून-व्यवस्था की समस्या मानती रही हैं, लेकिन इसके मूल में गंभीर सामाजिक-आर्थिक कारण भी रहे हैं।
- नक्सलियों का यह कहना है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिये लड़ रहे हैं, जिनकी सरकार ने दशकों से अनदेखी की है और वे ज़मीन का अधिकार तथा संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- माओवाद प्रभावित अधिकतर इलाके आदिवासी बहुल हैं और यहाँ जीवनयापन की बुनियादी सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इन इलाकों की प्राकृतिक संपदा के दोहन में सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र की कंपनियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी है।
- यहाँ न सड़कें हैं, न पीने के लिये पानी की व्यवस्था, न शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएँ और न रोज़गार के अवसर।
- नक्सलवाद के उभार के आर्थिक कारण भी रहे हैं। नक्सली, सरकार के विकास कार्यों को चलने ही नहीं देते और सरकारी तंत्र उनसे आतंकित रहता है।
- वे आदिवासी क्षेत्रों का विकास नहीं होने, उनके अधिकार न मिलने पर हथियार उठा लेते हैं। इस प्रकार वे लोगों से वसूली करते हैं एवं समांतर अदालतें चलाते हैं।
- प्रशासन तक पहुँच न हो पाने के कारण स्थानीय लोग नक्सलियों के अत्याचार का शिकार होते हैं। अशिक्षा और विकास कार्यों की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच गठबंधन को मज़बूत बनाया।
- जानकार मानते हैं कि नक्सलवादियों की सफलता की वज़ह उन्हें स्थानीय स्तर पर मिलने वाला समर्थन रहा है, जिसमें अब धीरे-धीरे कमी आ रही है।
नक्सलवाद का पूरी तरह खत्म नहीं होने का कारण
देश में फैली सामाजिक और आर्थिक विषमता का नतीजा है यह आंदोलन। बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर और सुकमा की करें या ओडिशा के मलकानगिरि की, भुखमरी और कुपोषण एक सामान्य बात है। गरीबी और बेरोज़गारी के कारण निचले स्तर की जीवन शैली और स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन, वहीं देश का एक तबका अच्छी सुख-सुविधाओं से लैस है। अमूमन यह कहा जाता है कि भारत ब्रिटिश राज से अरबपति राज तक का सफर तय कर रहा है। वहीं विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी भाग सिर्फ एक फीसद लोगों के हाथों में पहुँचता है और यह असमानता लगातार तेज़ी से बढ़ रही है।
- अंतर्राष्ट्रीय अधिकार समूह Oxfam के मुताबिक, भारत के एक फीसदी लोगों ने देश के 73 फीसदी धन पर कब्ज़ा किया हुआ है। यकीनन इस तरह की असमानताओं का कारण हमेशा असंतोष के बीज होते हैं, जिनमें विद्रोह करने की क्षमता होती है।
- यह भी एक सच्चाई है कि ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार, भ्रष्टाचार सूचकांक में पिछले तीन सालों में हम 5 पायदान फिसल गए हैं यानी कि देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुई हैं।
- समझना होगा कि भ्रष्टाचार कई समस्याओं की जड़ है जो असंतोष का कारण बनता है। इसी साल मार्च महीने में हमने नासिक से मुंबई तक लंबी किसान यात्रा भी देखी। मंदसौर में पुलिस की गोली से पाँच किसानों की मौत की खबर ने भी चिंतित किया। जाहिर है, कृषि में असंतोष गंभीर चिंता का कारण बन रहा है।
- ये सभी वे पहलू हैं जो गरीबों और वंचित समूहों में असंतोष बढ़ा रहे हैं और वे गरीबी तथा भुखमरी से मुक्ति के नारे बुलंद कर रहे हैं। इन्हीं असंतोषों की वजह से ही नक्सलवादी सोच को बढ़ावा मिल रहा है।
- दूसरी तरफ, सरकार के कई प्रयासों के बावजूद अभी तक इस समस्या से पूरी तरह निजात नहीं मिलने की बड़ी वज़ह यह है कि हमारी सरकारें शायद इस समस्या के सभी संभावित पहलुओं पर विचार नहीं कर रही। हालाँकि सरकार की पहलों की वज़ह से कुछ क्षेत्रों से नक्सली हिंसा का खात्मा ज़रूर हो गया है। लेकिन अभी भी लंबा सफर तय करना बाकी है।
स्रोत- द हिंदू
आपदा प्रबंधन
वैश्विक आपदा न्यूनीकरण और स्थिति बहाली समूह (GFDRR)
चर्चा में क्यों?
भारत को सर्वसम्मति से वित्त वर्ष 2020 के लिये वैश्विक आपदा न्यूनीकरण और स्थिति बहाली समूह (Global Facility for Disaster Reduction and Recovery-GFDRR) का सह-अध्यक्ष चुना गया है।
- यह निर्णय जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में आयोजित आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये वैश्विक मंच के 6वें सत्र में GFDRR की बैठक के दौरान लिया गया।
- यह पहली बार है जब देश को GFDRR की सलाहकार समूह बैठक की सह-अध्यक्षता का अवसर दिया गया है।
GFDRR क्या है?
- GFDRR एक वैश्विक साझेदारी वाला संगठन है जो विकासशील देशों को प्राकृतिक आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से निपटने में मदद करता है।
- GFDRR विश्व बैंक द्वारा प्रबंधित एक ऐसा संगठन है जो दुनिया भर में आपदा जोखिम प्रबंधन परियोजनाओं के लिये वित्तीय मदद देता है।
- यह वर्तमान में 400 से अधिक स्थानीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय साझेदारों के साथ काम कर रहा है और उन्हें ज्ञान, वित्तपोषण और तकनीकी सहायता प्रदान कर रहा है।
- आपदा जोखिम प्रबंधन और जलवायु परिवर्तन अनुकूलन को विकास रणनीतियों और निवेश कार्यक्रमों में एकीकृत करने तथा आपदाओं से जल्दी और प्रभावी ढंग से उबरने में देशों की मदद करके GFDRR आपदा जोखिम न्यूनीकरण से संबंधित सेंदाई फ्रेमवर्क के क्रियान्वयन में योगदान देता है।
GFDRR में भारत की उपस्थिति और इसका महत्त्व
- वर्ष 2015 में भारत GFDRR के सलाहकार समूह का सदस्य बना और अक्तूबर 2018 में आयोजित समूह की अंतिम बैठक में सह-अध्यक्षता करने की इच्छा व्यक्त की थी।
- देश में आपदा जोखिम में कमी लाने में निरंतर प्रगति तथा इसके लिये अनुकूल अवसंरचना विकसित करने हेतु साझेदारी की पहल को ध्यान में रखते हुए सह-अध्यक्षता के लिये भारत की उम्मीदवारी का समर्थन किया गया।
- यह देश को आने वाले समय में आपदा जोखिम न्यूनीकरण एजेंडा को आगे बढ़ाने की दिशा में सक्रिय योगदान के साथ GFDRR के सदस्य देशों और उनके संगठनों के साथ काम करने का अवसर देगा।
आगे की राह
- भारत GFDRR के लक्ष्यों और उद्देश्यों पर केंद्रित एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहता है और उसके कार्यकलापों के साथ तालमेल करना चाहता है ऐसे में आपदा से निपटने में सक्षम बुनियादी ढाँचे का विकास GFDRR के भागीदार देशों और हितधारकों के साथ भारत के जुड़ाव का मुख्य विषय होगा।
सेंदाई फ्रेमवर्क (Sendai Framework)
मार्च, 2015 में जापान के सेंदाई में आयोजित आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन के दौरान ‘आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाइ फ्रेमवर्क 2015-2030’ (Sendai Framework for Disaster Risk Reduction 2015-2030) को अपनाया गया था।
- यह वर्ष 2015 के बाद के विकास एजेंडे के तहत पहला बड़ा समझौता है, जिसमें सात लक्ष्य और कार्रवाई के लिये चार प्राथमिकताएँ निर्धारित की गई हैं।
- इसे आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन (United Nations World Conference on Disaster Risk Reduction) के दौरान अपनाया गया था।
- यह फ्रेमवर्क 15 वर्षों के लिये है। यह एक स्वैच्छिक और गैर-बाध्यकारी समझौता है जो मानता है कि आपदा जोखिम को कम करने के लिये प्राथमिक योगदान राज्यों का है लेकिन उस ज़िम्मेदारी को स्थानीय सरकार, निजी क्षेत्र और अन्य हितधारकों के साथ साझा किया जाना चाहिये।
- यह फ्रेमवर्क ‘ह्यूगो फ्रेमवर्क फॉर एक्शन 2005-2015’ का उत्तरवर्ती दस्तावेज़ है।
आपदा प्रबंधन
मानवीय क्रियाएँ: भूकंपीय गतिविधियों के सक्रिय होने का कारण
चर्चा में क्यों?
हाल ही में किये गए एक नए अध्ययन में यह खुलासा किया गया है कि बड़े जलाशयों के निर्माण या तेल एवं गैस के उत्पादन के लिये ज़मीन में अपशिष्ट जल के अंतःक्षेपण जैसी मानवीय क्रियाएँ भूकंपीय गतिविधियों को सक्रिय करने के लिये ज़िम्मेदार हो सकती हैं।
- साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित इस नए अध्ययन में भारत और अमेरिका के शोधकर्त्ताओं ने पूर्व में प्रयोग किये गए डेटा और उनके द्वारा विकसित एक हाइड्रो-मैकेनिकल मॉडल का उपयोग करके द्रव-प्रेरित या तरल के अंतःक्षेपण के कारण आने वाले भूकंपों के पूर्ण आयामों की व्याख्या की है।
अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष
- हालाँकि यह सर्वविदित है कि पृथ्वी की उप-सतह में तरल पदार्थों का अंतःक्षेपण (एक किलोमीटर की गहराई तक) भूकंप जैसी घटनाओं का कारण बन सकता है लेकिन अब तक यही माना जाता था कि इस प्रकार की घटना अंतःक्षेपण स्थल के निकट एक क्षेत्र तक सीमित होती है। इस नए अध्ययन के अनुसार, द्रव/तरल के अंतःक्षेपण के कारण सतह में उत्पन्न होने वाली अशांति एक बड़े क्षेत्र को प्रभावित करने वाले भूकंप के रूप में परिणत हो सकती है। इसका तात्पर्य यह है कि भूकंप को सक्रिय करने वाले कारको का प्रभाव दूर तक हो सकता है।
- यह भी माना जाता है कि ऐसे क्षेत्र जहाँ भूकंप का कारण मानवीय गतिविधियाँ हैं, में आने वाले भूकंप का स्तर दक्षिणी कैलिफोर्निया जैसे क्षेत्र की भूकंपीय गतिविधि के स्तर को पार करते हैं।
- तरल अंतःक्षेपण के उपयोग से तेल और गैस का निष्कर्षण, साथ ही अपशिष्ट जल के निपटान को आस-पास के क्षेत्रों में भूकंपीय दर में वृद्धि के लिये जाना जाता है।
- ऐसा माना जाता है कि इन गतिविधियों को सक्रिय बनाने वाले कंपनों की उत्पत्ति का कारण आस-पास की चट्टानों में द्रव के उच्च दबाव के कारण पहले से मौजूद भ्रंशों के नेटवर्क में आने वाली अस्थिरता है।
- हालाँकि अंतःक्षेपण के कारण भ्रंश रेखा (Fault Line) के निकट बिना किसी भूकंपीय तरंग के विरूपण की क्रिया उत्पन्न हो सकती है, जो बारी-बारी से भूकंपों को सक्रिय कर सकता है।
मानव गतिविधि के कारण आने वाले भूकंपों के उदाहरण
- भारत में तरल अंतःक्षेपण के कारण भूकंप की सर्वविदित घटना वर्ष 1967 में महाराष्ट्र के कोयना में घटित हुई थी और इस भूकंपीय गतिविधि के लिये कोयना बांध निर्माण को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
- ओक्लाहोमा (संयुक्त राज्य के दक्षिण-मध्य क्षेत्र में स्थित एक राज्य) के विवर्तनिक रूप से शांत क्षेत्र में आने वाले भूकंपों के लिये वहाँ होने वाले तेल और गैस अन्वेषण को ज़िम्मेदार माना गया है।
अध्ययन का महत्त्व
- द्रव-प्रेरित या द्रव के अंतःक्षेपण के कारण उत्पन्न भूकंपों के पीछे के विज्ञान का अध्ययन करने से कोयना में जलाशय निर्माण के कारण आए भूकंपों के अध्ययन में मदद मिल सकती है। नोएडा स्थित राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र और हैदराबाद स्थित वैज्ञानिक तथा औद्योगिकी अनुसंधान परिषद के राष्ट्रीय भू-भौतिकीय अनुसंधान संस्थान की अगुवाई में ‘कोयना में डीप ड्रिलिंग’ पहल के ज़रिये द्रव-प्रेरित भूकंप का विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है।
- इन प्रयासों से भू-पर्पटी में अधिक गहराई पर स्थित भ्रंश के व्यवहार के बारे में डेटा प्राप्त करने की उम्मीद है। यह अध्ययन इस बात का प्रमाण है कि भूकंप जैसे खतरे का अधिक विश्वसनीय मॉडल तैयार करने के लिये इस तरह के डेटा का इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है।
जैव विविधता और पर्यावरण
हरित परियोजनाएँ अधर में
संदर्भ
भारत ने वर्ष 2022 तक 175 गीगावॉट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। इसमें सौर ऊर्जा से 100 गीगावॉट, पवन ऊर्जा से 60 गीगावॉट, बायो-पावर से 10 गीगावॉट और छोटी पनबिजली परियोजनाओं से 5 गीगावॉट क्षमता शामिल हैं।
वर्तमान स्थिति
- निर्धारित तिथि तक पवन और सौर ऊर्जा क्षमता में वृद्धि का लक्ष्य शायद ही पूरा हो सकेगा।
- सौर ताप खंड और अपतटीय पवन क्षेत्र को विकसित करने में सरकार की रुचि का अभाव।
- महासागरीय ऊर्जा (Ocean Energy) और भू-तापीय ऊर्जा (Geothermal Energy) जैसे उभरते क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने में कमी।
- जैव-ईंधन और छोटे पनबिजली संयंत्र लगभग मृतप्राय अवस्था में पहुँच चुके हैं।
कारण
- टैरिफ को कम रखने पर अधिक ज़ोर देना: विभिन्न बोलियों के दौरान पवन और सौर उर्जा से संबंधित टैरिफ में प्रति किलोवॉट लगभग 2.44 रुपए की कमी हुई है। बहुत से लोगों का मानना है कि इस तरह के कम टैरिफ गैर-वाजिब हैं जो बोली लगाने वालों द्वारा केवल परियोजनाओं की प्राप्ति के लिये ही लगाए जाते हैं।
- क्षमता वृद्धि की धीमी गति: नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (Ministry of New and Renewable Energy-MNRE) ने पवन और सौर ऊर्जा क्षमता में वृद्धि के लिये टैरिफ में अत्यधिक कमी की है। वर्ष 2014 से भारत ने 28,000 मेगावॉट सौर ऊर्जा और 14,500 मेगावॉट पवन ऊर्जा क्षमता विकसित की है, इसके बावजूद वर्तमान में इसकी सौर ऊर्जा क्षमता 30,600 मेगावॉट और पवन ऊर्जा क्षमता 35,600 मेगावॉट है।
- क्षेत्र विशिष्ट समस्याएँ: सौर ऊर्जा क्षेत्र को सुरक्षा प्रशुल्क (Safeguard Duties), GST दरों और रुपए के अवमूल्यन जैसी अनिश्चितताओं का सामना करना पड़ रहा है, जबकि गुजरात जैसे राज्य, जो कि डेवलपर के लिये पसंदीदा स्थल हैं, में भूमि की समस्या ने पवन ऊर्जा प्रतिष्ठानों को अपंग बना दिया है।
- क्षेत्र में उद्योगों के सामने आने वाली समस्या: सभी राज्यों में बेहतर स्थिति वाले उद्योगों को भी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार या ज़बरन वसूली जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इसके अलावा, राज्य सरकार के स्वामित्व वाली इकाइयाँ, ऊर्जा कंपनियों को अपने बकाये का भुगतान देर से करती हैं।
सुझाव
- गुजरात जैसे तेज़ हवाओं वाले क्षेत्रों पर जाने से बचने के लिये, सरकार को राज्य-वार या यदि संभव हो सब-स्टेशन-वार टेंडर लाने की ज़रूरत है, ताकि अधिक-से-अधिक परियोजनाओं की स्थापना की जा सके।
- इसके लिये सीमित निविदा (Closed Tender) का विकल्प अपनाया जा सकता है, जिसमें नीलामी आयोजित करने की वर्तमान पद्धति के विपरीत बोली लगाने वाला व्यक्ति, परियोजना को प्राप्त करने के लिये सबसे अच्छा मूल्य प्रदान करता है, बोली लगाने वाले व्यक्ति परियोजना की कीमत तय करने के मामले एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की कोशिश करते हैं।
- सरकार एक निश्चित टैरिफ तय कर सकती है जिसमें सालाना कमी की जाएगी ताकि ऊर्जा कंपनियों को शुरुआती वर्षों में अधिक लाभ प्राप्त हो और वे अपने कर्ज़ का भुगतान कर सकें।
- सरकार को महासागरीय ऊर्जा (तरंगों, ज्वार और धाराओं से प्राप्त होने वाली) विकसित करने की ज़रूरत है जो नियमित रूप से 24 × 7 ऊर्जा प्रदान कर सकती है।
निष्कर्ष
भारत कुल स्थापित नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता के मामले में विश्व में पाँचवें स्थान पर, पवन ऊर्जा के मामले में चौथे स्थान पर तथा सौर ऊर्जा के मामले में 5वें स्थान स्थान पर है। इस महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने के साथ ही भारत विश्व के सबसे बड़े स्वच्छ ऊर्जा उत्पादक देशों के समूह में शामिल हो जाएगा। यह भी संभव है कि नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता के मामले में भारत कई विकसित देशों से भी आगे निकल जाए। पर्याप्त उच्च क्षमता स्थापित करने के लक्ष्य की प्राप्ति से देश में व्यापक ऊर्जा सुरक्षा, ऊर्जा तक बेहतर पहुँच और रोज़गार के अवसरों में वृद्धि होगी।
कृषि
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर वैकल्पिक फसल की व्यवस्था
चर्चा में क्यों?
गहराते जल संकट को देखते हुए हरियाणा सरकार ने धान (Paddy) की खेती को हतोत्साहित करने का फैसला किया है। धान की खेती में जल की अत्यधिक मात्रा का प्रयोग किया जाता है जो भू-जल (Groundwater) स्तर में गिरावट का कारण है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु
- लंबे समय से पानी की कमी के कारण हरियाणा में 60 ऐसे क्षेत्र हैं जो डार्क ज़ोन (Dark Zone) की श्रेणी में हैं । भूजल संकट को देखते हुए राज्य सरकार ने आगामी सीज़न से धान की बुवाई को हतोत्साहित करने का निर्णय लिया है।
- हरियाणा सरकार ने 27 मई से यमुनानगर, अंबाला, करनाल, कुरुक्षेत्र, कैथल, जींद और सोनीपत ज़िले के सात ब्लॉकों में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू करने का फैसला किया है।
- इस पायलट प्रोजेक्ट (Pilot Project) के तहत किसानों को प्रोत्साहन राशि देकर मक्का और तुअर दाल की बुवाई को बढ़ावा दिया जाएगा। यह कदम न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल में विविधता को भी बढ़ावा देगा।
- हरियाणा में इस नई योजना के तहत चिह्नित किसानों को मुफ्त बीज उपलब्ध कराया जाएगा और दो भागों में 2000रुपए प्रति एकड़ हेतु वित्तीय सहायता दी जाएगी।
- 766रुपए प्रति हेक्टेयर मक्का फसल बीमा प्रीमियम (Maize Crop Insurance Premium) भी सरकार द्वारा वहन किया जाएगा। साथ ही सरकारी एजेंसियों (Government Agencies) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर मक्का की उपज खरीदी जाएगी।
- इसी प्रकार 'तुअर' का बीज भी किसानों को मुफ्त में दिया जाएगा और इसी तरह से प्रोत्साहन भी दिया जाएगा।
- किसानों के अनुसार, यदि सरकार धान की खेती को रोकने की इस योजना को सफल बनाना चाहती है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर वैकल्पिक फसलों की खरीद के लिये पहले एक अनुकूल व्यवस्था का निर्माण करे, ताकि उन्हें अपनी फसल का सही मूल्य प्राप्त हो सके।
- धान की खेती छोड़ने के बाद सरकार द्वारा दो फसलों- मक्का और तुअर की दाल का विकल्प किसानों को दिया गया है परंतु पिछले सीज़न के दौरान किसानों को मंडियों में मक्के की बिक्री में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। इस अनुभव के कारण उन्होंनें इस योजना को सफल बनाने हेतु एक अनुकूल व्यवस्था के निर्माण पर बल दिया है।
- राज्य में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों को खरीदने का कोई विश्वसनीय तंत्र नहीं है। खरीद केंद्रों की स्थापना में देरी, बिचौलियों द्वारा किया जाने वाला शोषण, आदि के कारण किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दर पर अपनी उपज को बेचने के लिये विवश हो जाते हैं।
- जब तक किसानों को उनकी उपज के लिए उचित और सुनिश्चित कीमत नहीं दी जाती, तब तक उन्हें नुकसान होता रहेगा।
स्रोत- द हिंदू
शासन व्यवस्था
EQUIP प्रोजेक्ट
चर्चा में क्यों?
EQUIP का तात्पर्य गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के उन्नयन और समावेशी कार्यक्रम (Education Quality Upgradation and Inclusion Programme) से है, यह प्रोजेक्ट सरकार के साथ नीति आयोग के सीईओ, प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार और पूर्व राजस्व सचिव सहित कुछ कॉर्पोरेट प्रमुखों जैसे विशेषज्ञों के नेतृत्व वाली दस समितियों द्वारा तैयार किया गया है।
प्रमुख बिंदु
- भारत में बहुस्तरीय उच्च शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने के लिये एक कार्ययोजना बनाने का प्रस्ताव किया गया है। इसे वर्ष 2019-2024 के बीच लागू किया जाना है।
- इसे राष्ट्रीय शिक्षा नीति (National Education Policy) की कार्यान्वयन योजना के रूप में वर्णित किया गया है। इसे नीति और कार्यान्वयन के बीच की खाई को पाटने के लिये लाया गया है।
उद्देश्य
- उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (Gross Enrolment Ratio) को दोगुना करना;
- शिक्षण और सीखने की प्रक्रियाओं में सुधार;
- उच्च शिक्षण संस्थानों में भौगोलिक रूप से विद्यमान विषम पहुँच (Geographically Skewed Access) में सुधार करना;
- देश भर में वैश्विक स्तर पर स्वीकार्य गुणवत्ता मानकों (Quality Standards) को लागू करना;
- शीर्ष वैश्विक संस्थानों में कम-से-कम 20 भारतीय संस्थानों की स्थिति दर्ज कराना;
- अनुसंधान/नवाचार के परिवेश को बढ़ावा देना;
- छात्रों के लिये रोज़गार के अवसरों की उपलब्धता में आवश्यक सुधार करना;
- उच्च शिक्षा संस्थानों के अंतर्राष्ट्रीयकरण (Internationalisation) के लिये रूपरेखा तैयार करना;
- बेहतर मान्यता प्रणाली (Accreditation Systems), शिक्षा प्रौद्योगिकी के उपयोग, शासन सुधार और निवेशों में मात्रात्मक वृद्धि करना।
वित्तपोषण
- यह परियोजना/प्रोजेक्ट उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (Higher Education Financing Agency-HEFA) के अलावा बाज़ार से अतिरिक्त बजटीय संसाधनों की उपलब्धता पर निर्भर होगी।
उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी
- उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी (Higher Education Financing Agency- HEFA) को वर्ष 2017 में मानव संसाधन विकास मंत्रालय और केनरा बैंक के संयुक्त उद्यम (क्रमशः 91% और 9% के अनुपात में निवेश की भागीदारी) के रूप में शुरू किया किया गया था।
- इसका उद्देश्य भारत में प्रमुख शैक्षणिक संस्थानों में पूंजीगत परिसंपत्तियों के निर्माण हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना है। इसकी स्थापना बाज़ार आधारित उपकरणों का इस्तेमाल करते हुए बाज़ार से धन का लाभ उठाने के लिये की गई है।
- यह कंपनी अधिनियम (Companies Act) 2013 की धारा 8 अर्थात् गैर-लाभकारी (Not-for-profit) के तहत सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी और गैर-जमा (Non–deposit) के रूप में RBI के साथ NBFC-ND के रूप में पंजीकृत है।
स्रोत- द हिंदू
विविध
Rapid Fire करेंट अफेयर्स (27 May)
- शांति रक्षा अभियानों के एवज़ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने भारत को लगभग 3.8 करोड़ डॉलर (266 करोड़ रुपए) चुकाने हैं। संयुक्त राष्ट्र द्वारा किसी भी देश को भुगतान की जाने वाली यह सबसे अधिक राशि है। इसके बाद रवांडा (3.1 करोड़ डॉलर), पाकिस्तान (2.8 करोड़ डॉलर), बांग्लादेश (2.5 करोड़ डॉलर) और नेपाल (2.3 करोड डॉलर) का बकाया चुकाया जाना है। 31 मार्च, 2019 तक सैनिक और पुलिस के रूप में योगदान दे रहे देशों को भुगतान की जाने वाली कुल राशि 26.5 करोड़ डॉलर है। संयुक्त राष्ट्र की वित्तीय स्थिति में सुधार विषय पर आयोजित एक सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र के शांति रक्षा अभियान की वित्तीय स्थिति, खासतौर से भुगतान न करना या उसमें हो रही देरी को चिंता का विषय बताया गया। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देश हैं जो अपनी सहयोग राशि इसे देते हैं, लेकिन वर्ष 2018-19 में केवल 74 देशों ने ही सहयोग राशि जमा की है।
- वाराणसी में प्लास्टिक से बायो डीज़ल बनाने का प्लांट लगाने की योजना बनाई जा रही है । देश में अपने तरीके का यह पहला प्लांट होगा और इसकी पहल अमेरिकी संस्था 'रीन्यू ओशन' ने की है, जिसने IIT BHU के साथ करार किया है। प्लांट के लिये शहरी इलाके और नालों से प्लास्टिक इकट्ठा करने का ज़िम्मा नगर निगम संभालेगा। नॉन-रिसाइक्लेबल प्लास्टिक से बायो-डीज़ल बनाने के प्लांट में 100 किलोग्राम प्लास्टिक से 70 लीटर तक बायो-डीज़ल तैयार किया जा सकेगा। फिलहाल इस डीज़ल का उपयोग IIT में होने वाले शोध कार्यों में किया जाएगा। इतना ही नहीं इससे निकलने वाले नेफ्था से सड़क बनाई जा सकेगी। नालों के ज़रिये गंगा में गिरने या फिर कूड़े में मिले प्लास्टिक को ज़मीन में दबाने की जगह उसे प्लांट तक लाकर डीजल बनाया जाएगा। ज्ञातव्य है कि पॉलिथीन और प्लास्टिक उत्पादों में कार्बन और हाइड्रोजन का मिश्रण होता है और ये तत्त्व पेट्रोलियम पदार्थों में भी होते हैं। पॉलिथीन और प्लास्टिक उत्पादों को प्लांट में एक निश्चित तापमान और दबाव में गर्म करने पर इससे डीज़ल का उत्पादन होगा। इस तकनीक को पायरोलिसिस कहते हैं और इस तरह का बड़ा प्लांट अमेरिका में भी कार्यरत है।
- वायुसेना में फ्लाइंग लेफ्टिनेंट भावना कंठ प्रशिक्षित फाइटर पायलट बन गई हैं और इसके साथ ही देश को पहली महिला फाइटर पायलट मिल गई है। उन्होंने कुछ समय पहले अकेले मिग-21 युद्धक विमान उड़ाया था। भावना के बाद मोहना सिंह और अवनी चतुर्वेदी भी फाइटर पायलट बनेंगी। ज्ञातव्य है कि वायुसेना में लगभग 1500 महिलाएँ हैं, जो अलग-अलग विभागों में काम कर रही हैं। 1991 से ही महिलाएँ हेलीकॉप्टर और ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट उड़ा रही हैं। भारतीय वायुसेना में फिलहाल 94 महिला पायलट हैं, लेकिन इन्हें सुखोई, मिराज, जगुआर और मिग जैसे फाइटर जेट्स उड़ाने की अनुमति नहीं है।
- स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्त्ताओं ने एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला है कि मीथेन को कार्बन डाइऑक्साइड में बदल कर ग्लोबल वार्मिंग में कमी लाई जा सकती है। उनके अनुसार एक ग्रीनहाउस गैस को अन्य गैस में परिवर्तित कर ग्लोबल वार्मिंग के कुप्रभावों पर अंकुश लगाया जा सकता है। शोधकर्त्ताओं के अनुसार, धान की खेती और पशुपालन जैसे कई कारक हैं जिनसे मीथेन गैस बनती है और इसे वायुमंडल से समाप्त करना संभव नहीं है। ऐसे में मीथेन को वायुमंडल से कम करने का उक्त प्रयास कारगर सिद्ध हो सकता है और इसका वायुमंडल के ताप पर कोई विशेष प्रभाव भी नहीं पड़ता। शोधकर्त्ताओं का यह भी कहना है कि वातावरण में औद्योगिक क्रांति के पहले का स्तर लाने के लिये कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना ज़रूरी है, जो कि संभव नहीं है। इसके विपरीत मीथेन की सांद्रता को रि-स्टोर किया जा सकता है।
- ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के शोधकर्त्ताओं द्वारा किये गए एक अध्ययन से पता चला है कि निएंडरथल और आधुनिक मानव लगभग आठ लाख साल पहले अलग हुए थे। DNA आधारित अनुमानों के आधार पर शोधकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। इस अध्ययन में शोधकर्त्ताओं ने होमिनिन प्रजातियों के दंत विकास संबंधी क्रम का विश्लेषण किया। इससे पता चला कि स्पेन के सिरमा डे लॉस हूसोस में पाए गए निएंडरथल के पूर्वजों के दाँत आधुनिक मानव से अलग हैं। आपको बता दें कि सिरमा डे लॉस हूसोस स्पेन की अटपुर्का पहाड़ी में एक गुफा को कहते हैं, जहाँ पुरातत्त्वविदों ने मनुष्यों के 30 जीवाश्मों का पता लगाया था। पूर्व में किये गए अध्ययनों में इस गुफा को लगभग 43 लाख वर्ष पुराना बताया गया था।
- घायल और बीमार हाथियों के इलाज के लिये उत्तराखंड का पहला हाथी अस्पताल हरिद्वार की चीला रेंज में खुलने जा रहा है। इस अस्पताल में हाथियों को न केवल समय पर एवं सही तरीके से उपचार मिल सकेगा, बल्कि हाथियों के संरक्षण एवं संवर्द्धन में भी मदद मिलेगी। ज्ञातव्य है कि एशियाई हाथियों के लिये प्रसिद्ध राजाजी टाइगर रिज़र्व में हाथियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा कॉर्बेट नेशनल पार्क और लैंसडाउन वन प्रभाग के जंगलों में भी हाथी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। लेकिन उत्तराखंड में अभी तक हाथियों के बेहतर इलाज के लिये कहीं भी कोई अस्पताल नहीं है। उनके लिये सिर्फ मोबाइल वैन के माध्यम से उपचार देने की सुविधा उपलब्ध है। चूँकि चीला रेंज में पहले से ही हाथियों और उनके बच्चों की देखरेख की जाती है, इसलिये यहाँ हाथी अस्पताल बनाया गया।
- स्लम बस्तियों में रहने वाले बच्चों के लिये स्ट्रीट चाइल्ड क्रिकेट वर्ल्ड कप 30 अप्रैल से 8 मई तक इंग्लैंड में खेला गया। इसमें 7 देशों की 8 टीमों ने हिस्सा लिया। इस मिक्स्ड जेंडर टूर्नामेंट में भारत की दो टीमों ने हिस्सा लिया, जिनके नाम इंडिया नॉर्थ और इंडिया साउथ थे। लड़के-लड़कियों की एक टीम में 8 खिलाड़ी थे, जिनमें 4 लड़के और 4 लड़कियाँ थीं। इंडिया साउथ की टीम में मुंबई और चेन्नई के स्लम में रहने वाले खिलाड़ी थे। इस टीम ने लॉर्ड्स में खेले गए फाइनल में इंग्लैंड की टीम को पाँच रन से हराकर खिताब जीत लिया। पूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान सौरव गांगुली दोनों टीमों के ब्रांड एंबेसडर थे। स्लम और सड़क पर रहने वाले बच्चों के लिये काम करने वाली संस्था स्ट्रीट चाइल्ड यूनाइटेड ने इस वर्ल्ड कप का आयोजन किया था और यह अपनी तरह का पहला ऐसा आयोजन था।